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लेश्या-कोश
लक्षण में 'कर्मभिरात्मानम्' कर्मों से आत्मा को-इतना अध्याहार करने की अपेक्षा है और ऐसा अध्याहार करने से यह दोष नहीं रहता है, अतः इस अध्याहार के पश्चात् इस लक्षण का अर्थ हो जाता है कि जो कर्मों से आत्मा का लिम्पन करे वह लेश्या है।
अथवा, जो आत्मा की प्रवृत्ति के साथ संलेषण-सम्बन्ध स्थापित करे वह लेश्या है। इस लक्षण में प्रवृत्ति की विभिन्नता से अतिप्रसंग दोष आ जाता है, लेकिन 'प्रवृत्ति' शब्द को 'कर्म' का पर्यायवाची मान लेने से यह दोष नहीं रहता है। अब इस लक्षण का अर्थ हो जाता है कि जो आत्मा की प्रवृत्ति अर्थात् कर्म के साथ सम्बन्ध स्थापित करे वह लेश्या है। ___ अथवा, कषाय से अनुरंजित काययोग, वचनयोग और मनोयोग की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। इस प्रकार लेश्या का लक्षण करने पर केवल कषाय या केवल योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं, अतः कषायानुविद्ध योगप्रवृत्ति ही लेश्या है—यह बात सिद्ध हो जाती है। इस लक्षण से वीतरागियों के कषायरहित योग को लेश्या नहीं कह सकते हैं-ऐसा भी निश्चय नहीं कर लेना चाहिए ; क्योंकि लेश्या में योग की प्रधानता होती है, कषाय की प्रधानता नहीं होती । कषाय इस लक्षण में योग का विशेषण है, अतः कषाय से अनुरंजित ( विशेषण ) काययोग, वचनयोग और मनोयोग की प्रवृत्ति ( विशेष्य ) को लेश्या मानना ठीक है जिससे वीतरागियों के केवल योग को लेश्या मानने में आपत्ति नहीं उठ सकती।
(२) लेश्या इति किमुक्त भवति ? कर्मस्कन्धेरात्मानं लिम्पतीति लेश्या । कषायानुरञ्जितै व योगप्रवृत्तिले श्येति नात्र परिगृह्यते सयोगिकेवलिनोऽलेश्यत्वापत्तेः । अस्तु चेन्न, 'शुक्ललेश्यः सयोगिकेवली' इति वचनव्याघातात् ।
लेश्या नाम योगः कषायस्तावुभौ वा ? किं चातो नाद्यौ विकल्पो योगकषायमार्गणयोरेव तस्या अन्तर्भावात् । न तृतीयविकल्पस्तस्यापि तथाविधत्वात् ।
न प्रथम द्वितीयविकल्पोक्तदोषावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोषो द्वयोरेकस्मिन्नन्तर्भावविरोधात । न द्वित्वम पि, कमलेपैककार्यकर्तृत्वेनैकत्वमापन्नयोर्योगकषाययोर्लेश्यात्वाभ्युपगमात् । नैक
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