________________
लेश्या-कोश त्वात्तयोरन्तर्भवति द्वयात्मकैकस्य जात्यन्तरमापन्नस्य केवलेनैकेन सहैकत्वसमानत्वयोर्विरोधात् ।
योगकपायकार्याव्यतिरिक्तलेश्याकार्यानुपलम्भान ताभ्यां पृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगकषायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालम्बनाचार्यादिबामार्थसन्निधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां संसारवृद्धिकार्यस्य तत्केवलकार्याव्यतिरिक्तस्योपलभ्भात् ।
संसारवृद्धिहेतुले श्येति प्रतिज्ञायमाने लिम्पतीति लेश्येत्यनेन विरोधश्चेन्न, लेपाविनाभावित्वेन तद्वृद्ध रपि तव्यपदेशाविरोधात । ततस्ताभ्यां पृथग्भूता लेश्येति स्थितम् ।
-षट० खं० १ । सू १३६ । पु १ । पृ० १८६-८८
लेश्या क्या है ? जो कर्मस्कन्धों से आत्मा को लिम्पन करती है वह लेश्या है। कषाय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति ही लेश्या है-ऐसा यहाँ नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ऐसा ग्रहण करने पर सयोगिकेवली को अलेशी मानना होगा और ऐसा मानने से 'सयोगिकेवली शुक्ललेशी होते हैं'-इस आगम वचन में व्याघात आता है।
यदि लेश्या योग है तो इसका अन्तर्भाव योगमार्गणा में हो जाना चाहिए ; यदि कषाय है तो इसका अन्तर्भाव कषायमार्गणा में हो जाना चाहिए और यदि योग और कषाय उभय है तो दोनों मार्गणाओं या दोनों में से किसी एक मार्गणा में इसका अन्तर्भाव हो जाना चाहिए। यदि तीनों विकल्पों में से किसी भी एक विकल्प को माना जाय तो लेश्या का अन्तर्भाव उस मार्गणा में हो जाता है और लेश्या की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं होती है, अतः उसके लिए अलग मागंणा मानी नहीं जा सकती।
उपर्यत तीन विकल्पों में से पहले और दूसरे विकल्प में दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते हैं, क्योंकि लेश्या को केवल योग या केवल कषाय रूप माना ही नहीं गया है। इसी प्रकार तीसरे विकल्प में दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि योग और कषाय इन दोनों का किसी एक में अन्तर्भाव स्वीकार करने में विरोध आता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org