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लेश्या-कोश (घ) 'दव्वलेस्सं पडुच तइयपएणं' ति द्रव्यतः कृष्णलेश्या औदारिकादिशरीरवर्णः, औदारिकं च 'गुरुलघु' इति कृत्वाऽनेन तृतीयविकल्पेन व्यपदेश्या। भावलेश्या तु जीवपरिणतिः, तस्याश्चाsमूर्तत्वात् 'अगुरुलघु' इत्यनेन व्यपदेश्यः ।
-भग० श १ । उ ६ । सू २६० की टीका
(ङ) आत्मनः सम्बन्धिनी कर्मणो योग्यलेश्या कृष्णादिका कर्मणो वा लेश्या 'श्लिष् श्लेषणे' इति वचनात् सम्बन्धः कर्मलेश्या ।
-भग० श १४ । उ ६ । सू १ की टीका (च) लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या। यदाह-"श्लेष इव वर्णबन्धस्य कर्मबन्धस्थिति विधान्यः ।
उपयुक्त दोनों-ठाण० स्था १ । सू ५१ की टीका कृष्णादि द्रव्य के सान्निध्य से होने वाले जीव-आत्मा के परिणाम को लेश्या कहते हैं, क्योंकि कहा गया हैं—जिस प्रकार स्फटिक के पास जिस वर्ण का पदार्थ रहेगा वैसा ही वर्ण उसमें प्रतिविम्बित होगा उसी प्रकार जैसे कृष्णादि द्रव्य जीव के सानिध्य में रहेंगे वैसे ही उस आत्मा के परिणाम होंगे। ऐसे आत्म-परिणामों को भावलेश्या कहते हैं।
आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध कराने योग्य कृष्णादि लेश्याएं कर्मलेश्या कहलाती है।
___ आत्मा के साथ पुद्गलों का लेशन-संश्लेषण कराने के कारण द्रव्य को लेश्या कहते हैं और ये लेश्याएं योग के परिणाम हैं, क्योंकि योगनिरोध होने पर लेश्याओं का अभाव हो जाता है और योग शरीर नामकर्म की परिणतिविशेष है।
द्रव्यलेश्या को तृतीय पद अर्थात् 'गुरुलघु' कहा गया है, क्योंकि कृष्णादि द्रव्यलेश्याएं औदारिक आदि शरीर का वर्ण है, औदारिक पुद्गल 'गुरुलघु' होता है, अतः लेश्या को भी तृतीय पद से अभिहित किया गया है।
भावलेश्या जीव की परिणति विशेष है और जीव के अमूर्त होने से उसकी परिणति-लेश्या भी अमूर्त है, अतः भावलेश्या को 'अगुरुलघु'-चतुर्थ पद से अभिहित किया गया है ।
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