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लेश्या-कोश
मूल-उवसंतकसायवीदरागछदुमत्थाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं । उक्कम्सेण वासपुधत्त एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं ।
टीका-उवसंतादो उवरि उवसंतकसाएण पडिवजमाणगुणट्ठाणाभावा, हेट्ठा ओदिण्णस्स वि लेस्संतरसंकंतिमंतरेण पुणो उवसंतगुणग्गहणाभावा।
लेश्यान्तरसंक्रान्तिमन्तरेण--अन्य लेश्या में संक्रमण किये बिना ।
( शुक्ललेश्या वाले ) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थों का अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्य एक समय का होता है, उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व होता है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है, क्योंकि उपशान्तकषाय गुणस्थान से ऊपर उपशान्तकषायी जीव के द्वारा प्रतिपद्यमान गणस्थान का अभाव है तथा नीचे उतरे हुए जीव के भी अन्य लेश्या में संक्रमण किये बिना पुनः उपशान्तकषाय गुणस्थान का ग्रहण हो नहीं सकता है। ०४.४१ लेस्साअद्धासंकमे ( लेश्या-अद्धासंक्रम)
-षट० पु १६ । पृ० ५७२ टीका-लेस्साकम्मे त्ति अणिओगद्दारे पंचविधिय पदाणि। तं जहा- x x x लेस्साअद्धासंकमे ५ ।
लेश्याकर्म अनुयोगद्वार के पंचविधिक पदों में लेश्या-अद्धासंक्रम पाँचवाँ पद है। जिसमें काल का आश्रय लेकर लेश्यासंक्रमण का विवेचन किया गया है। यथा-तिर्यच और मनुष्य में लेश्या संक्रमण का जघन्य काल अन्तर्महूर्त है। ०४.४२ लेस्साअद्धासमोदारे ( लेश्याद्धासमवतार )
-षट् ० पु १६ । पृ० ५७२ टीका-लेस्साकम्मे त्ति अणिओगद्दारे पंचविधियपदाणि : तं जहा–xxx लेम्साअद्धासमोदारो ४ x x x।
लेश्याकर्म अनुयोगद्वार के पंचविधिक पदों में लेश्याद्धासमवतार चौथा पद है । जिसमें काल का आश्रय लेकर लेश्या का विवेचन किया गया है। यथा-देवों में शुक्ललेश्या की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम की होती है।
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