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लेश्या-कोश छिन्नलेश्या-चन्द्र-सूर्यों के विमानों से निकली हुई लेश्याओं के अन्तराल में स्थित छिन्न होनेवाली लेश्या । मानुषोत्तर पर्वत से बाहर स्थित इन चन्द्र-सूर्यो से निकली हुई प्रत्यक्ष दृश्यमान लेश्याएं उत्तप्त होती हैं अर्थात् बाहर आकाश में स्थित प्रकाशयोग्य वस्तुओं को प्रकाशित करती हैं। इन विमानों से निकली हुई इन लेश्याओं के अन्तराल में अन्य एक प्रकार की 'छिन्नलेश्या' होती है और मूल लेश्याओं से छिन्न-अलग हुई यह लेश्या संमूच्छित होकर आस-पास के बाह्य पुद्गलों को तप्त-गरम कर देती है।
०४.१६ ठियलेस्सा ( स्थितलेश्या)
-पण्हा० श्रु १ । द्वा ५ मूल- x x x णाणासंठायसंठियाओ या तारगाओ ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साममंडलगई x x x | स्थितलेश्या-जो ज्योति सदा समान रहती है।
विभिन्न आकार वाले तारागण जो अविश्राम गति से मंडलाकर चलते रहते हैं तथा जिनकी लेश्या-ज्योति स्थित अर्थात् घटती बढ़ती नहीं है उनकी लेश्या को स्थितलेश्या कहा गया है। ०४.२० णट्टलेस्सा ( नष्टलेश्य )
-षट् ० खं १ । पु २ । पृ० ४७३ टीका-तेसिं (तिरिक्खाणं ) चेव अपजत्ताणं भण्णमाणे अत्थि xxx भावेण किण्ण-णील-काउलेस्साओ। किं कारणं ? जेण तेउ-पम्मलेस्सिया वि देवा तिरिक्खेसुप्पजमाणा णियमेण णट्ठलेस्सा भवंति त्ति । __ नष्टलेश्य-जिनके पूर्व भव की लेश्या नष्ट हो गई है। - तिर्यञ्च अपर्याप्त जीवों में कृष्ण, नील तथा कापोत भावलेश्याएं होती हैं, क्योंकि तेजोलेशी तथा पद्मलेशी देव भी यदि तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं तो उनकी तेजो तथा पद्म लेश्या नियमतः नष्ट हो जाती है।
०४.२१ गंदलेसं ( नन्दलेश्य )
----सय० सम १५ । सू १२-१३
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