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रायसेणीयं में कहा है
एयस्स वाउकायस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स समोहस्स सवेयस्स ससस्स ससरीरस्स रूवं पाससि ।
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-राय० सू ७७१
वायु काय सरूपी है, सकर्म, सराग, समोह-सवेद-सलेशी, सरीरी होते हुए भी छद्मस्थ नहीं देख सकता है । यहाँ विशिष्ट अवधिज्ञान रहित को छद्मस्थ कहा गया है । छद्मस्थ निम्नलिखित दस स्थान को नहीं जानता है ।
१ - धर्मास्तिकाय, २ - अधर्मास्तिकाय, ३ - आकाशास्तिकाय, ४ – शरीर रहित जीव, ५ – परमाणु पुद्गल, ६-- शब्द, ७– गंध, ८-- वायु, ६--यह जिन होगा या नहीं तथा १० - - यह सर्व दुःखो का अन्त करेना या नहीं ।
इन सब को केवली जानते हैं, देखते हैं ।
देवताओं का आभामंडल मृत्यु के छः मास पूर्व क्षीण होने लग जाता है । उन्हें सूचना मिल जाती है कि छः मास बाद उन्हें देव जन्म को छोड़ कर अन्यत्र जाना होगा। दूसरा जन्म लेना होगा । देव वर्तमान आयुष्य के छः मास शेष रहने पर परभव के आयुष्य का बंधन करते हैं । इसी प्रकार नारकी व तियंच पंचेन्द्रिय व मनुष्य युगलिये आयुष्य का बंधन करते हैं ।
राजगृह में पुणिया श्रावक रहता था । भगवान महावीर का प्रमुख श्रावक था । उसकी पत्नी का नाम समता था । सामयिक की आराधना अद्भूत थी । भगवान महावीर ने उसके सामायिक की प्रशंसा की । शुभलेश्या आदि में कालकर दोनों वैमानिक देवों में उत्पन्न हुए ।
आचार्य पद्मआगरजी ने अपने विचार इस प्रकार दिये हैं
"श्रीमान् विद्वान मोहनलालजी बांठिया के द्वारा सम्पादित जैन धर्म व कर्म - विज्ञान से सम्बन्धित साहित्य को पढ़ने का अवसर मिला है । उनके द्वारा किया गया आगमिक संकलन खूब उपयोगी एवं प्रशंसनीय है । ऐसे साहित्य का प्रकाशन भगवान महावीर के तत्व प्रचार के लिए खूब उपयोगी सिद्ध होगा । "
गांधी नगर, गुजरात ता० १-८-२००१
१. राय० सू ७७१
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