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विचरण करती हुई अन्तमुहूर्त मात्र में केवल ज्ञान ( भगवान ऋषभदेव के सभवमरण में ) प्राप्त किया । हस्ति के ऊपर बैठी हुई सिद्ध भी हो गई ।
समस्त अंग सहित अर्थ का विस्तार या संक्षेप से जिसका वर्णन होता है उस शास्त्र को स्तव कहते हैं। एक अंग सहित अर्थ का जिससे विस्तार या संक्षेप में कथन होता है उस शास्त्र को स्तुति कहते हैं ।
तीर्थकर नाम कर्म का बंध होने के बाद वह जीव उस भव में कृष्ण और नील लेश्या में मरण को प्राप्त नहीं होता है। कापोत लेश्या में मरण को प्राप्त कर तीसरी नरक तक जा सकता है। तेजो अथवा पद्म अथवा.शुक्ल लेश्या में मरण को प्राप्त हो कर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है। निवृत्ति अर्थात अपूर्व करण गुणस्थान के प्रथम भाग में श्रेणी चढते समय शुक्ललेशी जीव का मरण नहीं होता। ___ सातवी पृथ्वी के नारकी को औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय विशुद्ध लेश्या होती है-उस समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम भी होते हैं । नारकी के शरीर में हड्डी, शिरा (नश ) और स्नायु नहीं होती। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनोहर है, वे पुद्गल नारकियों के शरीर संघात रूप में परिणत होते हैं।
प्राचीन आचार्यों ने लेश्या की अनेक परिभाषाएं की है। उनमें तीन परिभाषाएं प्रमुख है
१-योग परिणाम लेश्या है । २–कषायोदय से अनुरंजित योग-परिणाम लेश्या है। ३-कर्म निष्यंन्द लेश्या है।
ये परिभाषाएं प्रसिद्ध है, किन्तु चिन्तनीय है। क्योंकि भाव योग के साथ भाव लेश्या का अन्वय-व्यतिरेकी सम्बन्ध घटित नहीं होता। केवली के काययोग और वचन योग ये दोनों भावात्मक होते हैं (भावयोग ) होते हैं तथा मनोयोग द्रव्ययोग होता है। केवली के शुक्ल लेश्या होती है, वह भी द्रव्य लेश्या है। भावलेश्या उनके नहीं हो सकती। यदि उनके भाव लेश्या हो तो फिर सिद्धों के भी लेश्या का अस्तित्व मानना पड़ेगा।
आचार्य मलयगिरि ने लेश्या को योग निमित्तज बतलाया है, यह कथन द्रव्य योग और द्रव्य लेश्या की दृष्टि से है। क्योंकि द्रव्य लेश्या की वर्गणा का संबंध तेजस शरीर की वर्गणा के साथ है। इसलिए द्रव्य लेश्या का और तेजस शरीर
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