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लेश्या और आभामंडल
द्रव्यलेश्या आन्तरिक प्रकाश रश्मियां है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक विद्यु त शरीर ( तैजस शरीर ) की उपस्थिति मानी गई है। वह व्यक्ति के चारों ओर सूक्ष्म प्रकाश की तरंगों को विकिरित करता है। वैज्ञानिक उसे आभामंडल कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में उन आंतरिक प्रकाश रश्मियों को द्रव्यलेश्या कहते हैं। रंगों का ध्यान लेश्या ध्यान है। इससे आंतरिक प्रकाश की रश्मियों में परिवर्तन होता है ।
प्रकाश, वस्तु व आँख-इन तीनों के संयोग से उत्पन्न स्थिति रंग है। रंग व्यक्ति के अंतर्मन की, अवचेतन को, मस्तिष्क को और समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। विभिन्न रंगों के गुणधर्म के अनुसार इनका प्रभाव भिन्नभिन्न रहता है।
रंग की विद्य त चुम्बकीय ऊर्जा हमारी नन्थि-तन्त्र का नियमन करती है। मानसिक संतुलन के लिए अपेक्षित है-व्यक्ति विधायक चिन्तन का विकास करे । बैगनी रंग में ध्यान की शक्ति का विकास होता है।
रंगों का ध्यान लेश्या ध्यान है। इससे आन्तरिक प्रकाश की रश्मिमों में परिवर्तन होता है। आभामंडल के रंग बदलते हैं। उससे अवांछित भावों में परिवर्तन कर वांछित भाव धारा को पैदा किया जा सकता है। व्यक्तित्व में रुपान्तरण घटित किया जा सकता है। ___ अहंकार और ममकार का विसर्जन कठिन है परन्तु लेश्या ध्यान से इसको काफी अंशों में छुटकारा पाया जा सकता है। आत्म स्वभाव से ज्ञान स्वरूप है। केवली के वचन योग होता है ।
अर्थात् यदि कृष्ण लेश्या नील लेश्या में परिणत नहीं होती तो सातवीं नारकी में नैरयिकों को सम्यक्त्व की प्राप्ति किस प्रकार होती। क्योंकि सम्यक्त्व जिनके तेजो लेश्यादि शुभ लेश्या का परिणाम होता है उनके ही हो सकती है। और सातवीं नारकी में कृष्ण लेश्या होती है तथा भाव परावृत्ति से देव और नारकी के भी छह लेश्या होती है । ---यह वाक्य कैसे घटित होगा। क्योंकि अन्य लेश्या द्रव्य के संयोग को तद् रुप परिणमन संभव नहीं है तो भाव की परावृत्ति भी नहीं हो सकती है।
उत्तर में कहा गया है कि मात्र आकार भाव से प्रतिबिम्ब भाव से कृष्ण लेश्या गील लेश्या होती है लेकिन वास्तविक रूप में तो ही है, नील लेश्या नहीं
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