________________
(
139 )
का परिणाम होता है विभंग ज्ञान की प्राप्ति। इसके द्वारा वे कुछ अज्ञात बात जानने-समझने में समर्थ हो जाते हैं। ज्ञान से चिन्तन बदलता है और ग्रन्थि के बाद सम्यक्त्व उपलब्ध हो जाता है। सम्यक्त्व प्राप्ति के साथ ही विभंग अज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है। उसके बाद क्षपक श्रेणी पर आरोहण होता है। मोह कर्म क्षीण होता है। मोह कर्म का क्षय होते ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावणीय एवं अन्तराय कर्म टूटते हैं और केवल ज्ञान प्रकट हो जाता हैं। अस्तु लेश्या का विशुद्धि से क्रम आगे बढ़ता है और सर्वज्ञता में उसकी सम्पन्नता हो जाती है।
अस्तुलेश्या हमारा भाव है। यदि अध्यवसाय शुद्ध न हो तो वह कभी शुद्ध नहीं हो सकती। लेश्या की शुद्धि अध्यवसाय से होती है और अध्यवसाय की शुद्धि कषाय की मंदता से होती है। शुद्ध धाराएं, शुद्ध अध्यवसाय का निर्माण करती है। शुद्ध अध्यवसाय शुद्ध भाव का निर्माण करते हैं और शुद्ध भाव विचारों को शुद्ध बनाते हैं-मन, वचन और काय को शुद्ध बनाते हैं। शुद्ध होने का कारण है कषाय की मंदता और अशुद्ध होने का कारण है कषाय की तीव्रता ।
मन, वचन व काय-ये तीनों योग है-तीनों क्रिया तंत्र के योग है। इनका काम है, कार्य करता है। जो कार्य करेगा वह चंचल होगा।
जैन दर्शन में आत्मनियंत्रण को लेश्या शुद्धि के, अध्यवसाय शुद्धि के तीन बाहरी सूत्र बतलाये। यथा-उपवास, कायोत्सर्ग व प्रतिसंलीनता। ये लेश्या को शुद्ध करते हैं, अध्यवसाय को पवित्र बनाते हैं।
मनुष्यों में सबसे थोड़े अन्तद्वीपों के मनुष्य-पुरुष है। सबसे अधिक महाविदेह क्षेत्र के मनुष्य-पुरुष है।
यद्यपि कृष्णपाक्षिक जीवों में कृष्णादि छओं लेश्याएं मिलती है। शुक्ललेश्या में मरण प्राप्त होकर कृष्णपाक्षिक जीव नववें वेयक में उत्पन्न हो सकते है परन्तु अनुत्तरौपातिक देवों में कभी शुक्ललेशी कृष्णपाक्षिक जीव उत्पन्न न होंगे। शुक्लपाक्षिक जीव में छओं लेश्याएं होती है। शुक्ललेश्या में मरण को प्राप्त होकर अनुत्तरौपातिक देवों में उत्पन्न हो सकता है।
जिन जीवों का कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन संसार शेष रहा है वे शुक्लपाक्षिक है। इससे अधिक दीर्घ संसारवाले कृष्णपाक्षिक है ।। १. जेसिमवड्डो पुग्गलपरियट्टो सेसओ य संसारो।
ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खीआ ।।
ससारा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org