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लेश्या-कोश ०४ सविशेषण-ससमास-सप्रत्यय लेश्या शब्दों की
परिभाषा ०४.१ अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं (अन्योन्यसमवगाढ लेश्या)
-जीवा० प्र३ । उ २ । सू १७६ टीका-त इत्थं भूताश्चन्द्रादित्याः परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रमसां सूर्याणां च प्रत्येक लेश्या योजनशतसहस्रप्रमाणविस्तारा, चन्द्रसूर्याणां च सूचीपङ्क्त या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशद् योजनसहस्राणि, ततश्चन्द्रप्रभासम्मिश्राः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभासम्मिश्राश्च चन्द्रप्रभाः इतीत्थं परस्परमवगाढाभिलेश्याभिः ।
सूर्य की प्रभा से सम्मिश्रित चन्द्रमा की प्रभा को तथा चन्द्रमा की प्रभा से सम्मिश्रित सूर्य की प्रभा को अन्योन्यसमवंगाढ़ लेश्या कहा जाता है।
चन्द्रमा और सूर्य की लेश्याओं का विस्तार एक लाख योजन कहा जाता है। जब चन्द्रमा और सूर्य सूचीपंक्ति से अर्थात् एक सीध में व्यवस्थित होते हैं, तब उनका अन्तर पचास हजार योजन कहा जाता है। उस अवस्था में चन्द्रमा की प्रभा से सूर्य की प्रभा मिश्रित होती है तषा सूर्य की प्रभा से चन्द्रमा की प्रभा मिश्रित होती है।
.०४.२ अत्तपसन्नलेस्से ( आत्मप्रसन्नलेश्य )
--उत्त० अ १२ । गा ४६ मूल-धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे अणाविले अत्तपसन्नलेस्से ।
जहिं सिणाओ विमलो विसुद्धो, सुसिइभूओ पजहामि दोसं ।। आत्मा को आनन्द की अनुभूति करानेवाली लेश्या सहित। . ०४.३ अप्पडिलेसा ( अप्रतिलेश्य )
-ओव० सू २५ मूल–ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो-xx x अप्पडिलेसा xxx ।
अप्रतिलेश्य—जिस लेश्या का प्रतिरूप नहीं हो ऐसी परम विशुद्ध परिणाम वाली लेश्या से युक्त।
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