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तेजसलेश्या वाला व्यक्तित्व विनम्र, मायारहित, अकुतुहली, निपुण, संयमी, समाधिस्थ जैसे भावों में जीने लगता है। वह धर्म से प्रेम करता है। दृढमयी व पापभीरू होता है।
पद्म लेश्या वाले व्यक्तित्व में क्रोध, मान, माया, लोभ अत्यल्प होते हैं वह उपशान्त, जितेन्द्रिय, अल्प भाषी, प्रशान्त चित्त होकर आत्म विकास की ओर मुड़ता है।
शुक्ल लेश्या वाले व्यक्तित्व आर्त-रौद्रध्यान से मुक्त रहता है। आत्मदयी, समितियों से समित, गुप्तियों से गुप्त होता है। इस भूमिका पर उसका आचरण धर्म और शुक्लध्यान से जुड़ता है। वह वीतरागता की ओर आगे बढ़ता है । यह विकास की अन्तिम सोपान है।
लेश्या स्वयं को देखने का दर्पण है। साधना की प्रायोगिक भूमिका अशुभलेश्या के भाव को बदलकर शुभ से जोड़ती है। यदि आस्था, संकलन और नरन्तर्य हो तो व्यक्तित्व बदलाव निश्चित रूप से होता है।
लेश्या बदलती है तब भाव भी बदलते हैं। पूरा व्यक्तित्व बदलता है। जरूरत सिर्फ अपने भीतर बदलने के प्रति गहरे विश्वास जगाने की है।
तेजो लेशी पृथ्वी कायिक जीव, अपकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव अपना पर भव का आयुष्य नहीं बनते हैं। उनके अपर्याप्त अवस्था में देवों के उत्पन्न होने के कारण तेजो लेश्या होती है। पर्याप्त अवस्था में तेजो लेश्या नहीं होती है।
लेश्या जैन दर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है । इसकी व्याख्या शरीर और आत्मा के सांयोगिक भाव से की जाती है । आगमों में कहीं-कहीं कान्ति, तेज, प्रतिच्छाया और संकोच के अर्थ में भी लेश्या शब्द प्रयुक्त हुआ है। प्राचीन साहित्य में लेश्या शब्द का प्रायः प्रयोग नहीं मिलता। परन्तु तत्कालीन साहित्य इसकी अर्थात्मा के बहुत निकट था । यह वर्तमान अध्ययन से प्रमाणित हो चुका है।
__ लेश्या का व्यापक अर्थ है-पुद्गल द्रव्य के संयोग से होने वाले जीव के परिणाम, जीव की ( विचार ) शक्ति को प्रभावित करने दाले सूक्ष्म पुद्गल द्रव्य
और संस्थान के हेतु भूत वर्ण और कान्ति । भगवती सूत्र में जीव और अजीव दोनों की आत्म-परिणति के लिए लेश्या शब्द का व्यवहार किया गया है । वैक्रिय, आहारक आदि अनेक लब्धियां है। उनमें एक लब्धि तेजस् है । इसके लिए लेश्या शब्द का प्रयोग किया गया है।
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