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आचार्यों ने कहा है कि कृष्णपाक्षिक प्रचुरता से दक्षिण दिशा में पैदा होते हैं और दीर्घ संसारी प्रायः बहुत पापकर्म के उदय से होते हैं। बहुत पाप का उदय वाले जीव प्रायः क्रूरकर्मा होते हैं और क्रूरकर्मा जीव प्रायः तथा स्वभाव से भवसिद्धिक होते हुए भी दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। देवों में दक्षिण दिशा में कृष्णपाक्षिक प्रचुर है । पुरुषवेद को अग्नि-ज्वाला समान कहा है अर्थात् (बन की अग्नि-ज्वाला के समान है) वह प्रारम्भ में तीवकामाग्नि वाला होता है व शीघ्र शांत भी हो जाता है।
(१) कृष्णलेश्या, (२) नीललेश्या, (३) कापोतलेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पालेश्या और (६) शुक्ललेश्या । ये छः लेश्याए हैं।
लेश्या शब्द के साथ लगे विशेषणों से ही सुस्पष्ट है कि उनमें उन-उन वर्णों की प्रधानता है। वर्गों के इस वैचित्र्य के अनुरूप ही हमारे तेजस शरीर में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है । आधुनिक अभियांत्रिकी इतनी विकसित हो गई है कि आभामंडल के फोटो लेकर उसने इस अतीन्द्रिय विषय का सर्वसाधारण के लिए सुबोध बना दिया है। हमारा भाव जगत् परिशुद्ध होता है तो लेश्या के वर्ण प्रशस्त होते हैं और अशुद्ध होने पर उनका वर्ण अप्रशस्त हो जाता है।
लेश्या के आधार पर व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। कौन व्यक्ति कैसा है। जैन दर्शन लेश्या की भाषा में इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या करता है। कृष्णलेश्या वाला व्यक्तित्व अनैतिकता की चरम स्थिति पर खड़ा होता है। इसमें क्रूरता, असंयमिता, तीव्र, भौतिक एषणा, हिंसा, संग्रह वृत्ति, वासना होती है। स्वार्थ चेतना में डूबा सिर्फ अपना सुख ढढता है ।
नीललेश्या वाला व्यक्तित्व ईर्ष्याल, कदाग्रही, मायावी, निर्लज्ज, लोभी, द्वषी, रसलोलुप, अज्ञानी, अतपस्वी असहिष्णु होता है। ऐसा बहिमुखी व्यक्तित्व कृ णलेशी व्यक्तित्व से कुछ अच्छा होता है पर नैतिक नहीं।
कापोतलेश्या वाला व्यक्तित्व दुहरा जीवन जीता है। स्वयं के दोषों को छपाता है। गलत सोच रखता है। कर्म और भाषा में मायावीपन रहता है। वह चोर, हंसोड़, कटु संभाषण, ईर्ष्या जैसे अवगुणों से संयुक्त होता है। इस भूमिका पर व्यक्ति अक्छा होने की सोचता है पर अच्छा बन नहीं पाता। १. पायमिह क्रूरकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु ।
नेरइय-तिरिय मणुया, सुराइठाणेसुगच्छन्ति ।।
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