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मनुष्य स्त्री में चार-चार लेश्याएं होती है । पूर्वधातकी खंड, पश्चिमघातकी खंड और पुष्करार्धद्वीप के क्षेत्रों के मनुष्य और मनुष्य स्त्री में ऊपर लिखे अनुसार चार-चार लेश्याएं कहनी चाहिए | ये १६ + ३८ + ३८ = ६५ आलापक हुए ।
कृष्णलेश्या वाला मनुष्य कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है । इसी तरह कृष्णलेश्या वाला, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है । इसी तरह नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले मनुष्य में भी छओं लेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करते हैं । ये ६ x ६ = ३६ आलापक हुए । मनुष्य की तरह मनुष्य स्त्री के ३६ आलापक हुए ।
नाम कर्म की पुद्गल विपाकी ६२ प्रकृतियां है क्योंकि पुद्गल में ही इनका विपाक होता है -
पांच शरीर, पांच बंधन, पांच संघात, छः संस्थान, तीन आंगोपांग, छः संहनन, पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, निर्माण, आतप, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ -अशुभ, प्रत्येक, साधारण, अगुरुलघु नाम, उपघात व अपघात नाम एवं ६२ पुद्गल विपाकी प्रकृतियां है ।
पुद्गल विपाकी प्रकृतियों का नो आगम भाव कर्म नहीं होता है क्योंकि उनका उदय होते हुए जीव विपाकी प्रकृतियों की सहायता के बिना साक्षात् सुखादि नहीं होते हैं । शरीर के दो पैर, दो हाथ, नितम्व, पीठ उर, शिरये आठ अंग है । शेष उपांग होते हैं । मिश्र गुण स्थान को प्राप्त हुआ जीव 'न सम्मभिच्छो कुणई काल' सममिथ्यादृष्टि में भवान्तर में गमन नहीं करता है ।
१ - तेजोलेश्या लब्धि - क्रोध की अधिकता से शत्रु की ओर मोढा में अनेक योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित वस्तुओं को भष्म करने में समर्थ ऐसी तीव्रतर अग्नि निकालने की शक्ति- वह तेजो लेश्या लब्धि है ।
शीत लेश्या लब्धि — अति करुणा हीन न होकर जिस पर उपकार करने का होता है उस ओर तेजो लेश्या को बुझाने के लिए समर्थ ऐसी शीतल तेज विशेष छोड़ने की शक्ति को शीत लेश्या लब्धि कहते हैं ।
प्रेक्षाध्यान साधना में ध्यान का एक प्रकार है— लेश्या ध्यान । इसमें रंगों पर ध्यान कराया जाता है । रंगों के चयन में सुविधा की दृष्टि से नमस्कार महामंत्र का आलम्बन लिया जाता है । पांच चैतन्य केन्द्रों पर पांच रंगों के
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