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हुई क्योंकि कृष्ण लेश्या अपने स्वरूप को नहीं छोड़ती। जिस प्रकार आरीसा में किसी का प्रतिविम्ब पड़ने से वह उस रुप नहीं हो जाता है, लेकिन आरीसा ही रहता है । प्रतिविम्ब व वस्तु का प्रतिविम्ब छाया जरुर उसमें दिखाई देती है ।
ऐसे स्थल में जहाँ कृष्ण लेश्या अपने स्वरुप में रहकर 'अवस्वष्कते उत्वकते' नील लेश्या के आकार भाव को धारण करने से या उसके प्रतिविम्ब भाव मात्र अथवा स्पष्ट रूप परिणति होकर नील आदि लेश्या के रूप में नहीं होती है यह विवरण हम लोगों की गति कल्पना से नहीं है— क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र में लेश्या पद में इस प्रकार प्रतिपादन किया है—उस सूत्र विस्तार के भय से यहाँ विश्लेषण नहीं किया जाता है ।
इस प्रमाण से सातवीं पृथ्वी में भी जिस समय कृष्ण लेश्या, तेजो लेश्या आदि द्रव्यों को प्राप्त कर तदाकार मात्र अथवा उस प्रतिविम्ब मात्र वाला होता है । उस समय कृष्ण लेश्या के द्रव्य का योग होने पर भी साक्षात् तेजोलेश्यादि द्रव्यों को ही मानो संपर्क नहीं होता है । अस्तु शुभ परिणाम नारकी को होता है । लाल जसुर के कूल के संपर्क होने ये स्फटिक को जैसे ललाश आता है वैसे ही लेश्या का तदाकार परिणमन होता है ।
सातवीं नरक के नारकी और इस न्याय से तेजो लेश्या है । ऐसा कहने
प्रतिविम्ब रूप में कभी
इस प्रकार तेजोलेश्या आदि के परिणाम होने से को सम्यक्त्व की प्राप्ति में विरोध नहीं होता है । श्या आदि होने पर भी सातवीं नारकी में मूल कृष्ण वालों को सूत्रों का व्याघात नहीं होता है क्योंकि यह कृष्ण लेश्या नित्य रहने वाली है । और तेजोलेश्यादि आकार मात्र है । कभी रहने वाली है और वह तेजोलेश्या आदि की उत्पन्न हो तो भी दीर्घ काल रहने वाली नहीं है । और यदि रहती है तो भी उस लेश्याओं में कृष्ण लेश्या के द्रव्य बिल्कूल स्वयं के स्वरुप नहीं छोड़ सकते हैं । अधिकृत सूत्र में सातवीं नारकी में कृष्ण लेश्या भी कही है । स्थल में विचार करना चाहिए ।
देवों के महा प्रभाव और उद्योत भाव को दिखलाने के लिए –— द्युति, प्रभा, ज्योति, छाया, अर्चि और लेश्या शब्द का प्रयोग किया गया है । वर्णात्मक छाया का द्योतक है । कहा है
यह प्रयोग
इस प्रकार इस
इस प्रकार सर्व
"दिव्वाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अच्चीए दिव्वेणं एणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाओ ।"
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- प्रज्ञा० प २
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