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आवश्यक है ( देखें .६६२ )। जब वैराग्य भाव प्रकट होता है तब इन तीनों में क्रमशः शुभता, प्रशस्तता तथा विशुद्धता होती है ( देखें '६६२३ ) यहाँ परिणाम शब्द में जीव के मूल भूत दस परिणामों में से किसी परिणाम की ओर इन्गित किया गया है यह विवेचनीय है। कुछ आचार्यो की यह मान्यता रही है यहाँ परिणाम में योग अथवा लेश्या समझना चाहिए । लेश्या और अध्यवसाय का कैसा सम्बन्ध है यह भी विचारणीय विषय है। ... संतघातक और तीर्थङ्कर के अशातक गोशालक के लिए सातवीं नरक का द्वार खुल चुका था। पर अन्तमुहर्त पहले उसकी लेश्या बदल गई । उसने आत्मनिन्दा की। अपने दुष्कृत के लिए अनुताप किया। और भगवान महावीर का गुणानुवाद किया। लेश्या की विशुद्धि से वह मृत्यु प्राप्त कर बारहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। आत्मग्लानि में उसकी लेश्या प्रशस्त हो गई और उसने देवगति के आयुष्य का बंध कर लिया। कहा है
समिति-एकीभावे उत्-प्राबल्ये, एकीभावेन प्रावल्येन घातः समुद्घातः।
-जीवा० पृ० ४४ अर्थात वेदना आदि के साथ एक रूप होकर वेदनीयादि कर्म दलिकों का प्रबलता के साथ घात करना समुद्घात कहलाता है । सात समुद्घात में पांचवां समुद्धात तेजस समुद्घात है। तेजस शरीर नाम कर्म को लेकर यह होता है । तेजो लेश्या लब्धिवाला यह समुद्धात कर सकता है। इसमें तैजस शरीर नाम कर्म की बहुत निर्जरा होती है ।
कर्मोदय प्रत्यायिक जो भाव उदय विपाक से उत्पन्न होते हैं उन्हें जीव भाव बंध कहा गया है। कर्मोदय के आश्रय से उत्पन्न होने वाले निम्नलिखित सब भावों को औदयिक समझना चाहिए। उनमें कृष्णादि छः लेश्याओं का भी उल्लेख है।
(१) देव, (२) मनुष्य, (३) तिर्यञ्च, (४) नारक, (५) स्त्रीवेद, (६) पुरुषवेद, (७) नपुंसकवेद, (८) क्रोध, (६) मान, (१०) माया, (११) लोभ, (१२) राग, (१३) द्वष, (१४) मोह, (१५) कृष्णलेश्या, (१६) नीललेश्या, (१७) कापोतलेश्या, (१८) तेजोलेश्या, (१६) पद्मलेश्या, (२०) शुक्ललेश्या, (२१) असंयत, (२२) अविरत, (२३) अज्ञान और (२४) मिथ्यादृष्टि । ' १. षट्खंडागम पु १४ पृ० ११
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