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३०६ बोल की हुडी की जोड़ की चौथी ढाल से कहा है
उत्तराध्ययन अध्यन तीसमें रे आस्रयरुपीया नाला सोयरे । बलि उत्तराध्ययन चौतीसमें रे, कृष्ण लेश्या रा लक्षण आस्रव जोयरे ॥२६॥
भाव लेश्या केतो कहै जीव छरे, तो त्यारां लक्षण किम हुवै अजीव रे ॥३०॥
नोट-भक्तामर स्तोत्र की उत्पत्ति-उज्जयिनी नगरी में भोज नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी सभा में मयूर तथा बाण नाम के दो विद्वान पंडित थे। उनमें से मयूर ने सूर्य देव को प्रसन्न करके स्वकुष्ट रोग को मिटाया, तथा बाण ने चंडी देवी को प्रसन्न कर अपने कटे हुए हाथों को जुड़वाया। ये देखकर राजा ने आश्चर्यान्वित हो कर वैदिक धर्म की प्रशंसा करने लगे। मंत्री ने भी मानतुगाचार्य से मिलने की प्रार्थना की। प्रार्थना स्वीकार करके राजा ने आचार्य को बुलाकर अपना मंतन्य प्रगट किया। राजा का मंतन्य सुन करके आचार्य महाराज ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया कि हमारा प्रत्येक कार्य आत्मधर्म के लिये है, चमत्कार के लिये नहीं। ये सुनकर राजा ने क्रोधावेश में आचार्य को गले से पैर तक ४८ सांकलों से जकड़कर अंधेरी कोठरी में बन्द कर दिया। ___कोठरी के अन्दर बैठे हुए आचार्य महाराज ने भक्तामर स्तोत्र' रूप ऋषभदेव की स्तुति की रचना की और चक्रेश्वरी देवी ने स्वयं प्रकट होकर बंधन तोड़ दिये।
इस स्तोत्र की ४ गाथाए भंडार कर दी गई है । जो कि उपलब्ध नहीं होती और जो उपलब्ध होती है वे नूतन है।
-जन रत्न सार पृ० ६६८, ६६ भक्तामर स्तोत्र के बनाने वाले आचार्यों का विक्रमीय सम्बत् ६३१ के करीब है।
पडिलेहणा के २५ बोल में कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, परिहरु है।' णमोत्थुणं सूत्र' को शक्रस्तव कहा जाता है। कारण जब तीर्थङ्कर भगवान माता के गर्भ में आते हैं तब इसी पाठ से पहले देवलोक के इन्द्र (शकेन्द्र), उनकी स्तुति करते हैं।
१. जैन रत्नसार पृ० ३
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