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यह ठीक नहीं है। क्योंकि लेश्या अनुभाग बंध का कारण है स्थिति बंध का कारण नहीं है।
पूर्व में उत्पन्न ( देव ) को अविशुद्धलेश्या वाला कहना चाहिए तथा पीछे उत्पन्न को विशुद्धलेश्या वाला कहना चाहिए । इस वाक्य का तात्पर्य यह है कि यहाँ देवता तथा नारकी के उस प्रकार के भव स्वभाव के कारण लेश्या के परिणाम उत्पति के समय से लेकर भव के क्षय पर्यन्त निरन्तर ऐसे हैं।'
परिणत हुई सर्वलेश्याओं के प्रथम समय में परभव में किसी जीव की उत्पत्ति नहीं होती है उसी प्रकार अन्तिम समय में भी नहीं होती है। आगामी भव की लेश्या का अन्तमुहूर्त बीतने के बाद तथा चालू भव की लेश्या का अन्तमुहूर्त बाकी रहने पर जीव परलोक जाता है। केवल तिर्यच और मनुष्य आगामी भव की लेश्या का अन्तमुहर्त बीतने के बाद तथा नारकी व देव स्वभाव की लेश्या के अन्तमुहर्त बाकी रहने पर परलोक में जाता है।
प्रज्ञापना के लेश्या पद १७ । १ की टीका में उद्धरण ।
अन्तोमुहुत्तामद्धा लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ । तिरियं नराणं वा वज्जित्ता केवलं लेसं॥ अर्थात् मनुष्य और तिर्यच में जिसके जो जो लेश्या होती है उसकी शुक्ल लेश्या को बाद देकर अन्तमुहूर्त की स्थिति होती है। शुक्ल लेश्या की जघन्य अन्तमुहर्त तथा उत्कृष्ट नव वर्ष कम पूर्व कोटि की स्थिति है।
पद्म लेश्या तथा शुक्ल लेश्या केवल संज्ञी तियंच पंचेन्द्रिय, संज्ञी मनुष्य तथा वैमानिक देव के ही होती है, देवी के नहीं। तेजो लेश्या नारकी, अग्निकाय, वायु काय तथा विकलेन्द्रिय जीवों के संभव नहीं है।
द्रव्य लेश्या-औदारिक काय योग से सूक्ष्म है। नोकर्म वर्गणा है, प्रायोगिक पुद्गल है। योग के अन्तर्गत पुद्गल द्रव्य है। कर्म पुद्गल नहीं हैं, कर्म का निष्यंद रूप भी नहीं है।
नरक और लेश्या-तन्वार्थ भाष्य में कहा है
"अशुभतर लेश्याः। कापोत लेश्या रत्नप्रभायाम्, ततम्तीव्रतर संक्लेशाध्यवसाना कापोत शर्कराप्रभायाम्" तत्स्तीव्रतर संक्लेशा१. पण्ण० प १७ । उ १ । मलय टीका
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