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रंगों का शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक और आध्यात्मिक प्रभाव पड़ता है । रंग केवल प्रकाश का ही एक विभागीय हिसा है । भावनात्मक स्थितियों में हरे रंग से अधिक लाभदायक होता है । विशुद्धि चक्र को सक्रिय करता है । रंगों के सम्यक् ज्ञान और सम्यक् प्रयोग से जीवन को शाश्वत जैसा बनाया जा सकता है ।
यद्यपि स्थावर जीवों में मन व वाणी विकसित नहीं होती, किन्तु उनमें प्रतिक्षण कर्मबन्ध होता रहता है । कषायतन्त्र की चिकित्सा लेश्या तन्त्र को समझकर की जा सकती है । जब तक भाव का परिवर्तन नहीं होता, लेश्या का परिवर्तन नहीं होता । भावतन्त्र निरंतर सक्रिय रहता है, उसके निरंतर हिंसा का बंध हो रहा है । जबतक लेश्या का परिवर्तन नहीं होता, तबतक भावतन्त्र पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता ।
अध्यवसाय आत्मा एक सूक्ष्म परिणाम है जो प्रशस्त - अप्रशस्त दोनों प्रकार होता है । कहा है
सूक्ष्मेषु आत्मनः परिणामविशेषेसु ( अध्यवसायः ) ।
-- अभिधान० भाग १ । पृ० २३८
अर्थात् अध्यवसाय आत्मा का सूक्ष्म परिणाम है । पण्ण० में कहा हैनेरइया णं भंते! केवइया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नत्ता । ते णं भंते किं पसत्था, अप्पसत्था ? गोमा ! पसत्थावि अप्पसत्थावि । एवं जाव वेमाणिया ।
- प्रज्ञा० पद ३४ । स २०४७-४८
नारकी यावत् वैमानिक सभी दण्डकों के जीवों में प्रशस्त - अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं ।
देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण जो पट्टावली के क्रम में देवर्द्धिगणी का नाम सत्ताईसवां आता है । ये भगवान महावीर के गर्भ संहरण करने वाले हरिणगवेषी देव थे । देव वाचक भी उनका नाम था । उनका स्वर्गवास वीर नि० १००० ( वि० सं० ५३० ) में हुआ । दुर्वलिका पुष्यमित्र नौ पूर्वी के ज्ञाता थे । इनका जन्म वि० नि० ५५० में व दीक्षा ५६७ में हुई । आर्य रक्षित को साढ़े नौ पूर्वी का ज्ञान था । ७५ वर्ष की आयु में वि० नि० ५६७ में स्वर्गवासी हुए ।
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