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नंदीसेन मुनि --- जो श्रेणिक राजा के पुत्र थे । अपने पूर्व जन्म में मनुष्य के में सुपात्र दान मुनि को देने से प्रशस्त लेश्या, शुभअध्यवसाय से देवगति का आयुष्य बांधा ।
भव
भगवान महावीर के अनेक अतिशयों में देवकृत ये आठ प्रातिहार्य अतिशय माने जाते हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति के समय प्रशस्त लेश्या के साथ ध्यान नहीं होता है । यान्तरिका में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ । केवली के मनोयोग, वचनयोग के समय योग निरोधात्मक ध्यान नहीं होता है परन्तु प्रशस्त लेश्या अवश्यमेव होती है ।
खमावणयाएणं मणयल्हायण भावं जणयइ |
क्षमा करने से व्यक्ति को मन की प्रसन्नता प्राप्त होती है । की अधिष्ठात्री है ।
- उत्त० अ २६
योग के दो रूप बनते हैं— द्रव्य योग और भाव योग । द्रव्य योग पौद्गलिक परिणति और भाव योग आत्मपरिणति है । योग की तरह लेश्या के भी दो रूप बनते हैं—द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या । द्रव्य लेश्या पौद्गलिक परिणति है और भाव लेश्या आत्मपरिणति । इस अर्थ में योग और लेश्या में समानता की प्रतीति होती है । किन्तु ये दोनों एक नहीं हो सकते ।
क्षमा सरसता
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जहाँ लेश्या है, वहाँ योग है और जहाँ योग है, वहाँ लेश्या है | यह इनका सहावस्थान है । इनमें साहचर्य का सम्बन्ध है । किन्तु इनका स्वरूप एक नहीं है । काययोग का सम्बन्ध है - शरीर की क्रिया से है । वचनयोग का सम्बन्ध वाणी से है । और मन का सम्बन्ध चिन्तन से है । लेश्या का सम्बन्ध भावधारा से है । चिन्तन और भावधारा दोनों भिन्न हैं । चिन्तन मन की क्रिया है और भाव चित्त की क्रिया है । जैसा भाव होता है, वैसा विचार बनता है । भाव विचार का जनक है । किन्तु भाव और विचार दोनों एक नहीं है । भाव या चित्त चेतन है, मन या विचार अचेतन है । भाव चेतना का स्पन्दन है, वह स्थायी तत्त्व है । मन उत्पन्न होता है और विलीन होता है । वह फिर उत्पन्न होता है और विलीन होता है इसलिए अस्थायी तत्त्व है । इस दृष्टि में मनो
योग और लेश्या एक नहीं है ।
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औयिक भाव से कर्म नहीं कटते हैं, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में
पुण्य कर्म नहीं बंधता है । कृष्णादि छऊ लेश्याओं का
धर्म लेश्या से कर्म कटते हैं । समावेश होता है ।
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