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दृष्टि से लेश्याध्यान या चमकते हुए रंगों का ध्यान बहुत ही महत्वपूर्ण है। क्रोध की मुद्रा में रहने वाले व्यक्ति में क्रोध के अवतरण की सम्भावना बढ़ जाती है। क्षमा की मुद्रा में रहने वाले व्यक्ति के लिए क्षमा की चेतना में जाना सहज हो जाता है। इस भूमिका में लेश्या ध्यान की उपयोगिता बहुत बढ़ जाती है।
लेश्या के स्थान-विशुद्धि और अविशुद्धि के प्रकर्ष ( अधिकता) और अपकर्ष की अपेक्षा लेश्या के जो भेद होते हैं वे ही लेश्या के स्थान है। भावलेश्या की अपेक्षा लेश्या के असंख्यात स्थान होते हैं। असंख्यात का स्पष्टीकरण काल और क्षेत्र की अपेक्षा इस प्रकार है--काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी
और अवसर्पिणी के समय परिमाण है और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश परिमाण है। अशुभलेश्या के स्थान संक्लेश रूप होते हैं और शुभलेश्याओं के स्थान विशुद्ध होते हैं।
इन भावलेश्याओं के स्थानों के कारणभूत कृष्णादि द्रव्यों के समूह भी स्थान कहे जाते हैं। वे स्थान भी प्रत्येक लेश्या के असंख्यात-असंख्यात हैं। जघन्यउत्कृष्ट के भेद से स्थान दो तरह के हैं।
कर्मों के प्रदेश और अनुभाग का एक बार बढ़ना, चय कहलाता है और बारम्बार बढ़ना उपचय कहलाता है। अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, मतिश्रम, धर्म में अनादर, अशुभयोग-इन आठ प्रकार के प्रमाद और योग के निमित्त से जीव कांक्षा मोहनीयकर्म बांधता है।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर केवलज्ञान व केवलदर्शन को एक साथ मानते हैं और जिनभद्रगणि केवलज्ञान व केवलदर्शन को एक साथ नहीं मानते किन्तु भिन्न-भिन्न समय में मानते हैं।
भगवती सूत्र के १९वें शतक के तीसरे उद्दशक में कहा है कि पृथ्वीकायिक जीवों के साधारण शरीर नहीं होता है, प्रत्येक आहारी, प्रत्येक परिणामी है अतः वे अलग-अलग शरीर बांधते हैं, फिर आहार करते हैं, परिणमाते हैं और अपना शरीर बांधते हैं। उन पृथ्वीकायिक जीवों में चार लेश्याए होती है यथा-कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या । कहा है
उक्त च पञ्चाश्रवाद्विरमणं पंचेन्द्रियनिग्रहः चतुष्ककषाय जयः । दण्डत्रय-विरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेद ।
-ठाण० स्था ३ । उ ३ । सू १६० । टीका
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