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( 109 ) ५-पांच लेश्या-संज्ञी के अलब्धक में (पृथ्वीकाय-अप्काय, वनस्पतिकाय
एवं केवली)। ६-छः लेश्या-देव-मानव आदि में ।
जबकि एक वर्ष की छोटी सी अवधि में इस संसार के सम्पूर्ण भौतिक सुखों से अधिक सुखों की अनुभूति किसी पदार्थ के परिभोग में नहीं होती है किन्तु एक वर्ण का दीक्षित साधु अनुत्तरोपातिक देवों की तेजोलेश्या को अतिक्रमण कर देता है। उस सुख का सम्बन्ध है लेश्या की विशुद्धि से-भावधारा की पवित्रता में। _लेश्या सद्धान्तिक उज्ज्वल पक्ष है। यह जितना व्यापक सत्य है, उतना ही यह है-लेश्या सामाजिक, वैज्ञानिक, यौगिक और चिकित्सिक सत्यों का प्रभावित रूप है।
समाज शास्त्र का एक सिद्धान्त लेश्या तत्त्व का पूरा प्रतिनिधित्व करता है।
अशुभलेश्या के स्पन्दनों से व्यक्ति के मन में हिंसा, झूठ, चोरी, ईष्र्या, शोक, घृणा और भय के भाव जागृत होते है ।
शुभलेश्या के स्पन्दनों से अभय, मैत्री, शान्ति, जितेन्द्रियता, क्षमा आदि पवित्र भावों का विकास होता है ।
छहों लेश्याओं के छह रंग है-काला, नीला, कापोती, लाल, पीला और सफेद । इन रंगों से प्रभावित भावधारा शुभ और अशुभ रूप में परिणत होती है। भाव और विचार-ये दो अलग-अलग तत्व है। भाव अंतरंग तत्व है। उसके निर्माण में नथितंत्र का सहयोग रहता है। विचार का सम्बन्ध विचार से है। इसका निर्माण नाड़ी तंत्र से होता है।
भाव धारा शुभ और अशुभ दो प्रकार की होती है। इसके निर्माण में रंगों का बहुत बड़ा हाथ रहता है। लाल, पीला, और सफेद रंग भाव-विशुद्धि का उपाय है। विशुद्ध भाव धारा से शारीरिक व मानसिक बीमारी दूर होती है, एवं मूर्छा टूटती है। - अव्यवहार राशि में अनंत पुद्गल परावर्त तक भ्रमण कर भवितव्यता के योग से व्यवहार राशि में आ सकता है। वहाँ भी चिरकाल तक परिश्रमण किया । प्रज्ञापना पद १८ में काय स्थिति का प्रकरण सांव्यावहारिक राशि की अपेक्षा से है। संज्ञी मनुष्य विजय आदि चार अनुत्तर विमान में उत्कृष्ट दो बार देव रूप में उत्पन्न हो सकता है परन्तु सर्वार्थ सिद्धि में एक ही बार देव बनता है ।
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