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दिगम्बर ग्रन्थों से लेश्या सम्बन्धी पाठ संकलन अधिकांशतः हमने कर लिया है। इसमें श्वेताम्बर पाठों से समानता, भिन्नता, विविधता तथा विशेषता देखी है। तथा कितनी ही बातें जो श्वेताम्बर ग्रन्थों में है, दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं भी है। हमारे विचार में दिगम्बर लेश्या कोश खंड ३ को भी प्रकाशित करना आवश्यक है। लेकिन इसको प्रकाशित करने का निर्णय हम लेश्या कोश खंड २ पर विद्वानों की प्रतिक्रियाओं को जानकर ही करेंगे। इसमें पाठों का वर्गीकरण इस पुस्तक की पद्धति के अनुसार ही होगा लेकिन दिगम्बरीय भिन्नता, विविधता तथा विशेषता को वर्गीकरण में यथोपयुक्त स्थान दिया जायेगा। वर्गीकरण के अनुसार पाठों को सजाना हम यथा संभव कर रहे हैं।
मेरे अनन्य वचोवृद्ध श्री मोहनलालजी बांठिया का २३ सितम्बर १६७६ को स्वर्गवास हो जाने के बाद मैं अकेला पड़ गया है। फिर भी गणाधिपति तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ की कृपाभाव से कार्य सम्यम् प्रकार चल रहा है।
लेश्या की संरचना में नाम कर्म के उदय और अन्तराय कर्म के क्षय एवं क्षमोपशम करने का योग होता है। उसके अशुभ होने में मोह कर्म का निमित्त बनता है। जिस समय मोहकर्म का उपशम, क्षय, क्षयोपशम या अनुदय होता है, उस अवस्था में लेश्या शुभ बन जाती है। भाव शुक्ल लेश्या का अवतरण चार भावों में होता है, औपशमिक भावों में नहीं होता है। यह प्रतिपादन अंतराय कर्म की दृष्टि से है ।
सभी प्रशस्त भाव लेश्याओं का औपशमिक भावों को छोड़कर शेष चार भावों में अवतरण किवा गया है। लेश्या की संरचना में केवल दो कर्मों का नाम व अंतराय कर्म का सम्बन्ध है। मोह कर्म का उदय और अनुदय उसके शुभ व अशुभ बनने में निमित्त बनता है।
जो मनष्य कापोत-नील लेश्या में मरण को प्राप्त होकर नारकी में उत्पन्न होता है वह उसके बाद के मनुष्य भव में केवली हो सकता है लेकिन कृष्ण लेश्या में जो मरण को प्राप्त होता है वह केवली नहीं हो सकता है पर साध हो सकता है।
लेसा शब्द का प्रयोग-कंति, जुइ आदि में भी प्रयोग हुआ है। 'लेसेज्ज' का अर्थ दिलषंच आलिंगने भी होता है। आवश्यक हारिभद्रीया टीका में कहा है
१. झीणीचरचा
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