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( 102 ) ध्यवसाना कापोत नीला बालुकाप्रभायाम् । ततस्तीव्रतर संक्लेशाध्यवसाना नीला पंकप्रभायाम्, ततस्तीव्रतर संक्लेशाध्य वसाना नीलकृष्णा धूमप्रभायाम्। ततस्तीव्रतर संक्लेशाध्यसाना कृष्णा तमः प्रभायाम् । ततस्तीव्रतर संक्लेशाध्यवसाना कृष्णैव महातमः प्रभाभमिति ।
-तत्त्वभाष्य अ० ४ । मू २, ३ उत्तरोत्तर नारकी में अशुभ लेश्या होती है। रत्नप्रभा में एक कापोत लेश्या, उससे तीव्रतर संक्लेशमान अध्यक्सानवाली कापोत लेश्या शर्करा प्रभा में होती है। उससे तीवनर संक्लेशमान अध्यवसानवाली कापोत-नील लेश्या बालुका प्रभा में होती है। इसी क्रम में अवशेष नारकी का जान लेना चाहिए।
देव और लेश्यादेवाश्चतुनिकायाः। तृतीयः पीतलेश्याः।
-तत्त्व० अ ४ । सू१, २ अर्थात् देव चार निकायवाले है-निकाय शब्द का अर्थ है-समुदाय । देवों के ऐसे प्रमुख समुदाय चार हैं--यथा-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क व वैमानिक ।
पीतान्त लेश्या।
-तत्वार्थ अ० ४ । सू७
अर्थात् प्रथम दो निकाय ( भवनवासी व व्यंतर ) के कृष्ण, नील, कापोत और पीतलेश्या लेश्या ( द्रव्य ) होती है। भावलेश्या छहों हो सकती है । पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेष ।।
-तत्वार्थ अ ४ । सू ३ तथा भाष्य अर्थात् सौधर्म, ऐशान कल्पों में पीत ( तेजो लेश्या ) लेश्या होती है । सानत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पदम लेश्या होती है। लान्तक से सर्वार्थ सिद्ध पर्यन्त वैमानिकों में एक शुक्ललेश्या होती है। विशुद्ध, विशुद्धतर, विशुद्धतम लेश्या के विषय में फलित कर लेना चाहिए ! भाव लेश्या छहों ही होती है।
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