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यद्यपि देवायु और देवगति नाम कर्म के उदय से सभी वमानिक देव हैं परन्तु उनमें लेश्यादि बहुत-सी बातों में हीनाधिकता पाई जाती है। उनमें एक लेश्या-विशुद्धि है। यह विवेचन द्रश्यलेश्या की अपेक्षा है।
स्थानांग सूत्र में दस प्रकार की संज्ञाओं का उल्लेख मिलना है ।
१-आहार २-भय ३-मैथुन ४-परिग्रह ५.-क्रोध
६-मान ७-माया ८-लोभ 8-लोक १०-ओघ
आसक्ति विशेष को संज्ञा कहते हैं। आसक्ति में किसी न किसी प्रकार की लेश्या होती है। आगम में कहा है
अप्पा दंतो सुही होइ अस्सिं लोए परत्थय । अर्थात् आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है।
भगवान महावीर ने जातिवाद को सर्वथा अतात्विक बताया है। उत्तराध्ययन में कहा है
'कम्मुणा होइ बम्भणो, कम्मुणा होइ खत्तिओ।
वइओ कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा' । अर्थात् मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय होता है। वैश्य और शुद्र भी कर्म से होता है। योगलिक काल में सगे भाई व बहिन की शादी होती थी। यह कुल धर्म था। दस प्रकार के कर्मों में कुल धर्म पांचवा धर्म है। कूल धर्म का तात्पर्य है-कुल की व्यवस्थाओं, परम्पराओं तथा विधि-निषेधों का पालन । धर्म की निम्नलिखित व्याख्यायें की जाती है
१-आत्मशुद्धि का साधन आत्म धर्म है। २-समाज, नगर, राष्ट्र आदि की व्यवस्था लोकाचार धर्म । ३-गति सहायक द्रव्य-धर्म । ४-स्वभाव धर्म है।
१. तत्त्व० अ ४ । सू २०, २१
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