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प्राणी जिस लेश्या तथा अध्यवसाय में देह विसर्जन करता है वह उसी लेश्या में अगले जन्म में पैदा होता है। इसी बात को हम कहते हैं 'अन्तमति सो गति' । लेकिन कृत शुभ-अशुभ कर्मों का फल उसे किसी न किसी दिन भोगना ही पड़ेगा। बिना भोगे कर्मो से छूटकारा नहीं मिल सकता। भगवान महावीर ने कहा
बंध-पमोक्खो तुज्झ अज्झत्थेव । बंधन-मुक्ति तुम्हारे अन्दर ही है ।
मुनि ढंढण जो श्री कृष्ण के पुत्र थे। बतीस रानियों का त्यागकर नेमीनाथ तीर्थङ्कर के पास दीक्षा ग्रहण की। अभिग्नह ग्रहण किया-फलस्वरुप प्रशस्त लेश्या, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम से केवल ज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न हुआ । बृहत्कल्प भाष्य में निम्नलिखित प्रशस्त भावनाओं का उल्लेख मिलता है।
१-श्रुत भावना २-तप भावना ३--सत्व भावना
४-एकत्व भावना और ५-तत्त्व भावना।
प्रज्ञापना में श्रत ज्ञानी को केवल ज्ञानी के समान कहा है। केवल ज्ञान से जाने हुए पदार्थों की प्ररुपणा श्रुतज्ञान के आधार से होती है। केवल ज्ञानी और श्रुत ज्ञानी की प्ररुपणा में कोई अन्तर नहीं है तथा जो पदार्थ श्रुत ज्ञान के अविषय है, उनकी प्ररुपणा न तो किसी केवलज्ञानी ने की है, न कोई कर सकता है।
प्रशस्त भावनायें कर्मों को काटने के लिए कैची, मोक्ष महल पर आरोहण करने के लिए सीढी, शुभध्यान के स्थानों का अनुगमन करने वाली व भव समद्र के दुःखों को हरण करने वाली है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है
चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई, सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।।
-उत्त० अ ३ । गा १ अर्थात् इस संसार में प्राणी के लिए मनुष्यजन्म, धर्मशास्त्र का श्रवण, धर्म पर श्रद्धा और संयम में पराक्रम-आत्मशक्ति लगाना-इन चार प्रधान अंगों की प्राप्ति होना दुर्लभ है।
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