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गन्ध
स्पर्श
मधुर सुगन्ध उष्ण-स्निग्ध ज० अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम
स्थिति
द्रव्य लेश्या पौद्गलिक है अतः अजीवोदय निश्पन्न होती है-पओग परिणामए वण्णे, गंधे, रसे, फासे, सेत्तं अजीवोदय निप्फन्ने ( देखें ०५१.१४ )
कृष्णादि द्रव्य लेश्या चक्षुगाह्य नहीं है। सर्व बंध है, देश बंध नहीं है, प्रायोगिक पुद्गल है। द्रव्यमन, द्रव्य वचन योग, कार्मण काय योग तथा द्रव्य कषाय चतुस्पर्शी है परन्तु कृष्ण आदि द्रव्य लेश्या, औदारिक आदि प्रथम चार शरीर, अष्ट स्पर्शी है। ये सब प्रायोगिक पुद्गल है। लोक प्रकाश में कहा है
कषायोद्दीपकत्वेऽपि लेश्यानां न तदात्मता ॥२१॥
अर्थात् यद्यपि लेश्या के द्रव्य कषाय को उद्दीप्त करते है तथापि कषाय के साथ लेश्या का एकात्मक नहीं है। अर्थात् लेश्या कषाय का गुण या लक्षण नहीं है। कषाय से भिन्न पदार्थ है।
लेश्या कर्मों का निष्यन्द नहीं है क्योंकि ऐसा होने पर अयोगी केवली भी सलेशी कहे जायेंगे।' लेश्या कर्म की स्थिति की हेतु है, ऐसा कोई नहीं मानता है। कर्म की स्थिति का हेतु तो कषाय को ही बताया गया है। लेश्या कषाय की उतेजक या सहायक है अतः अनुभाग बन्ध की उपचार से हेतु कही गयी है।
अस्तु प्राचीन आचार्यों ने लेश्या के विवेचन में निम्नलिखित परिभाषाओं पर क्विार किया है
१-लेश्या योग परिणाम है-योगपरिणामो लेश्या । २-लेश्या कर्मनिस्यन्द रूप हैं-कर्म निस्यन्दो लेश्या । ३-लेश्या कषायोदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति है। -कषायोदयरंजिता
योगप्रवृत्तिश्या।
१. लोक प्रकाश, श्लोक २६२, २६३, २६४ २. लोक प्रकाश, श्लोक २६६, २६७
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