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प्राणियों की हत्या से रौद्र ध्यान में परायण होकर महाकृष्ण लेश्या में मरण को प्राप्त होकर सुभूमव ब्रह्मचक्रवर्ती तमतमा प्रभा नरक में गए ।
जब मिथ्यात्वी शुभ लेश्यादि से तीव्र कषाय रहित हो जाता है तब उनमें आत्मोन्मुखता का भाव जागृत होता है ।
लेश्या और अध्यवसाय का घनिष्ट सम्बन्ध मालूम होता है । क्योंकि मिथ्यात्वी के जाति स्मरण, विभंग ज्ञान की प्राप्ति के समय में अध्यवसायों के शुभतर होने के साथ लेश्या परिणाम भी विशुद्धतर होते हैं । इसी प्रकार अध्यवसायों के अशुभतर होने से लेश्या की अविशुद्धि घटित होती है । ऐसा मालूम देना है कि मिथ्यात्वी के भी छओं लेश्याओं में प्रशस्त - अप्रशस्त दोनों प्रकार के अध्यवसाय होते हैं ।
सुक्लपाक्षिक जीव भवि ही होते हैं परन्तु कृष्णपाक्षिक अभवि ही नहीं । भवि जीव शुक्लपाक्षिक व कृष्णपाक्षिक दोनों होते हैं । लेश्या कृष्णपाक्षिक में भी छओं हो सकती है । शुक्लपाक्षिक में भी छओं ।
कहीं-कहीं तिथंच का आयुष्य भी शुभ प्रकृति पुण्य प्रकृति के अन्तर्गत माना है | आचार्य अमितगति ने कहा है ।
तिर्यङनरसुरायुषि संति सन्त्यकर्मसु ॥ २३६॥
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तिर्यङ् मर्त्याभरायूंषि तत्प्रायोग्य विशुद्धितः ।
-पंच सं० (दिग् ) परिच्छेद ४
जब अनुप्रेक्षा
भावना का
स्वाध्याय- बारह प्रकार के तपों में एक तप है । यह आभ्यंतर तप है । स्वाध्याय के पांच प्रकार में से एक अनुप्रेक्षा ( भावना ) भी है । भावना में परिवर्तन होता रहता है तब तक वह स्वाध्याय तप है एक निष्ठ होना ध्यान कहलाता है । ध्यान भी एक तप है । स्वाध्याय निसरणी की तरह है । निसरणी के द्वारा ऊपर की वस्तु तक पहुँच सकते हैं । उसी प्रकार स्वाध्याय ध्यान के लिए आलम्बन है । अनित्य आदि बारह भावनायें है । स्वाध्याय रूप भावनायें तीन प्रशस्त लेश्या का प्रवर्तन होता है
१ - अनित्य भावना के द्वारा भरत चक्रवतीं ने केवल्य ज्ञान प्राप्त किया । २ - अशरण भावना के द्वारा अनाथी मुनि ने संयम ग्रहण किया ।
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