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का उल्लेख मिलता है। उन्हें पंचकल्याणक के नाम से कहा जाता है, क्योंकि ये अवसर जगत के लिए अत्यन्त कल्याणमयी व मंगलकारी होते हैं। जो जीवों के कल्याण में निमित्त होते हैं वे ही कल्याणक कहे जाते हैं ।
वे पाँच अवसर हैं—गर्भावतरण, जन्म-धारण, दीक्षा, केवलज्ञान-प्राप्ति एवं मोक्षसम्प्राप्ति ।
1. गर्भ कल्याणक - तीर्थंकर प्रभु के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से लेकर जन्म समय पर्यन्त 15 माह तक उनके जन्म स्थान में कुबेर द्वारा इन्द्र आज्ञा से प्रतिदिन तीन बार 3.5 करोड़ दिव्य रत्नों की वर्षा होती रहती है। दिक्कुमारी देवियाँ माता की परिचर्या
गर्भशोधन करती हैं। गर्भ वाले दिन से पूर्व रात्रि में माता को 16 उत्तम स्वप्न दिखायी देते हैं, जिन पर तीर्थंकर प्रभु के अवतरण का निश्चय कर माता- पिता प्रसन्न होते हैं । यद्यपि गर्भ में आना जीव के लिए कलंक स्वरूप गिना जाता है, फिर भी अन्तिम गर्भ होने से कल्याणकों में गिना जाता है । उन सोलह स्वप्नों के नाम व फल इस प्रकार हैं- 1. हाथी के देखने से उत्तम पुत्र होगा, 2. उत्तम बैल के देखने से समस्त लोक में ज्येष्ठ, 3. सिंह के देखने से अनन्त बल से युक्त, 4. मालाओं के देखने से समीचीन धर्म का प्रवर्तक, 5. लक्ष्मी के देखने से सुमेरु पर्वत के मस्तक पर देवों द्वारा अभिषेक को प्राप्त, 6. पूर्ण चन्द्रमा को देखने से लोगों को आनन्द देने वाला, 7. सूर्य को देखने से दैदीप्यमान प्रभा का धारक, 8. दो कलश (युगल) देखने से अनेक निधि को प्राप्त, 9. मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा, 10. सरोवर को देखने से अनेक लक्षणों से शोभित, 11. समुद्र के देखने से केवली, 12. सिंहासन देखने से जगद्गुरु होकर साम्राज्य प्राप्त करेगा, 13. देवों का विमान देखने से स्वर्ग से अवतीर्ण, 14. नागेन्द्र का भवन देखने से अवधिज्ञान से युक्त, 15. चमकते रत्नों की राशि देखने से गुणों की खान और 16. निर्धूम अग्नि देखने से कर्म रूपी ईंधन को जलाने वाला तीर्थंकर अवतरित होने वाले हैं । यह निर्णय होता है । श्वेताम्बर परम्परा में 16 स्वप्नों के स्थान पर 14 स्वप्नों का उल्लेख है।
2. जन्मकल्याणक—गर्भावतरण का 9 माह का काल पूरा होने पर सर्वोत्तम मुहूर्त में बाल तीर्थंकर का जन्म होने पर देवभवनों व स्वर्गों आदि में स्वयं घण्टे (अनहद नाद) बजने लगते हैं और इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं, जिससे उन्हें तीर्थंकर के जन्म का निश्चय हो जाता है। सभी इन्द्र व देव जन्मोत्सव मनाने को बड़ी धूमधाम से पृथ्वी पर आते हैं। अहमिन्द्र जन अपने-अपने स्थान पर ही सात पग आगे जाकर बाल- तीर्थंकर को परोक्ष रूप से नमस्कार करते हैं। दिक्कुमारी देवियाँ तीर्थंकर प्रभु का जातकर्म करती हैं। कुबेर नगर की अद्भुत शोभा करता है । इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी (शचि) प्रसूतिगृह में जाती है। माता को माया - निद्रा से सुलाकर उनके पास एक मायामयी तीर्थंकर - बालवत् पुतला लिटा देती है और बालक तीर्थंकर को लाकर अपलक
60 :: जैनधर्म परिचय
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