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अरण्यद्वादशी-अरुन्धती
वेदान्तमत के संन्यासियों के सम्प्रदाय के योग्य व्यवस्था- तथा स्कन्द भगवान की पूजा की जाती है । व्रती लोगों पक भी। उन्होंने संन्यासियों को दस श्रेणियों में बाँटा को अपनी संतति के स्वास्थ्य की आशा से कमलदण्डों था। इनमें से 'अरण्य' एक श्रेणी है। प्रत्येक श्रेणी का नाम अथवा कन्द-मूलों का आहार करना चाहिए। दे० कृत्यउसके नेता के नाम से उन्होंने रखा था। एक श्रेणी के रत्नाकर, १८४; वर्षकृत्यकौमुदी, २७९ । नेता अरण्य थे।
अरण्यानी--अरण्यानी ( वनदेवी) का वर्णन ऋग्वेद (१०. अरण्यद्वादशी-मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी अथवा कार्तिक, १४६) में प्राप्त होता है । वहाँ वनदेवी या वनकुमारी को, माघ, चैत्र अथवा श्रावण शुक्ल एकादशी को प्रातःकाल जो वन की निःशब्दता तथा एकान्त का प्रतीक है, सम्बोस्नान-ध्यान से निवृत्त होकर यह व्रतारम्भ किया जाता है। धित किया गया है । वह लज्जालु एवं भयभीत है तथा वन यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसके देवता गोविन्द की भूलभुलैया में अपना पथ खो चुकी है। वह तबतक हानिहै। किन्हीं बारह सपत्नीक ब्राह्मणों, यतियों अथवा प्रद नहीं है, जब तक कि कोई वन के बोहड़ प्रदेशों में प्रवेश गृहस्थों को, जो सद्व्यवहारकुशल हों, उनकी पत्नियों करने तथा देवी के बच्चों (जंगली जन्तुओं) को छेड़ने का सहित, अत्यन्त स्वादिष्ठ भोजन कराना चाहिए। दे० दुस्साहस न करे । वन में रात को जो एक हजार एक भयाहेमाद्रि १, १०९१-१०९४ । कुछ हस्तलिखित पोथियों में बनी ध्वनियाँ होती हैं उनका यहाँ विविधता से वर्णन है। इसे 'अपरा द्वादशी' कहा गया है।
अरुण-सूर्य का सारथि । यह विनता का पुत्र और गरुड का अरण्य-शिष्यपरम्परा-आचार्य शङ्कर की शिष्य परम्परा में जेष्ठ भ्राता है। एक उपनाम अरण्य है। उनके चार प्रधान शिष्य थे-पद्म- पौराणिक कल्पना के अनुसार यह पंगु (पाँवरहित) पाद, हस्तामलक, सुरेश्वर और त्रोटक । इनमें प्रथम है। प्रायः सूर्यमन्दिरों के सामने अरुण-स्तम्भ स्थापित के दो शिष्य थे; तीर्थ और आश्रम । हस्तामलक के दो किया जाता है। शिष्य थे; वन और अरण्य । सुरेश्वर के तीन शिष्य थे; इसका भौतिक आधार है सूर्योदय के पूर्व अरुणिमा गिरि, पर्वत और सागर । इसी प्रकार त्रोटक के तीन (लाली)। इसी का रूपक है अरुण । शिष्य थे; सरस्वती, भारती एवं पुरी । इस प्रकार चार अरुण औपवेशि गौतम-तैत्तिरीय संहिता, मैत्रायणी संहिता, मुख्य शिष्यों के सब मिलाकर दस शिष्य थे । इन्हीं दस काठक संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, शतपथ ब्राह्मण और शिष्य संन्यासियों के कारण इनका सम्प्रदाय 'दसनामी' बृहदारण्यक उपनिषद् में अरुण औपवेशि गौतम को सर्वकहलाया । शङ्कराचार्य ने चार मुख्य शिष्यों के चार मठ गुण सम्पन्न अध्यापक (आचार्य) बतलाया गया है । इनका स्थापित किये, जिनमें उनके दस प्रशिष्यों की शिष्यपरम्परा पुत्र प्रसिद्ध उद्दालक आरुणि था। वह उपवेश का शिष्य चली आती है । चार मुख्य शिष्यों के प्रशिष्य क्रमशः तथा राजकुमार अश्वपति का समसामयिक था, जिसकी शृंगेरी, शारदा, गोवर्द्धन और ज्योतिर्मठ के अधिकारी संगति द्वारा उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ। हैं । प्रत्येक दसनामी संन्यासी इन्हीं में से किसी न किसी अरुणोदय--रात्रि के अन्तिम प्रहर का अर्ध भाग । दे. हेमाद्रि, मठ से सम्बन्धित रहता है। यद्यपि दसनामी ब्रह्म या काल पर चतुर्वर्गचिन्ताणणि, २५९, २७२; कालनिर्णय, निर्गुण उपासक प्रसिद्ध हैं पर उनमें से बहुतेरे शव मत की २४१ । इस काल का उपयोग सन्ध्या, भजन, पूजन आदि दीक्षा लेते हैं । शङ्कर स्वामी के शिष्य संन्यासियों ने बौद्ध में करना चाहिए। संन्यासियों की तरह भ्रमण कर सनातन धर्म के जागरण अरुन्धती-वसिष्ठपत्नी, इसका पर्याय है अक्षमाला । भागमें बड़ी सहायता पहुँचायी।
वत के अनुसार अरुन्धती कर्दममुनि की महासाध्वी कन्या अरण्यषष्ठी--जेष्ठ शुक्ल षष्ठी को इसका व्रत किया थी । आकाश में सप्तर्षियों के मध्य वसिष्ठ के पास अरुन्धती जाता है । राजमार्तण्ड (श्लोक सं० १३३६) के अनुसार का तारा रहता है । जिसको आयु पूर्ण हो चुकी है, वह स्त्रियाँ हाथों में पंखे तथा तीर लेकर जंगलों में धूमती है। इसको नहीं देख पाता: गदाधरपद्धति, पृष्ठ ८३ के अनुसार यह व्रत ठीक वैसे दीपनिर्वाणगन्धञ्च सुहृद्वाक्यमरुन्धतीम् । ही है जैसे स्कन्दषष्ठी। इस तिथि पर विन्ध्यवसिनी देवी न जिघ्रन्ति न शृण्वन्ति न पश्यन्ति गतायुषः ॥
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