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दो सौ योजन प्राकाश में उछलकर नीचे गिरते हैं। और सप्तमी पथ्वी में स्थित निगोदों में उत्पन्न हए जीव पांच सौ धनुष ऊंचे उछलकर पृथ्वी तल पर नीचे गिरते हैं। तीसरी पृथ्वी तक असुरकुमार देव नारकियों को परस्पर लड़ाते हैं। इसके सिवाय वे नारकी पुराने बैर भाव' को जानकर स्वयं भी लड़ते रहते हैं। विक्रिया शक्ति के द्वारा अपने शरीर से ही उत्पन्न होने वाले भाले, तथा शूल यादि नाना शस्त्रों से उन नारकियों के खण्ड-खण्ड कर दिये जाते हैं और परस्पर एक दूसरे को पीड़ा पहुंचाते हैं । खण्ड-खण्ड होने पर भी पारे के समान उनके शरीर के टुकड़ों का पुन: समूह बन जाता है और जब तक उनकी आयु की स्थिति रहती है तब तक उनका मरण नहीं होता। ये नारकी पूर्वकृत पाप कर्म के उदय से निरन्तर एक दूसरे के द्वारा दिये हुए शारीरिक एवं मानसिक दुःख को सहते रहते हैं। ये खारा गरम तथा अत्यन्य तीक्ष्ण वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गन्धि युक्त मिट्टी का अाहार करते हैं इसलिए निरन्तर असह्य दुःख भोगते रहते हैं। रात-दिन नरक में पचने वाले नारकियों को निमेष मात्र भी कभी सुख नहीं होता। उन नारकियों के निरन्तर प्रत्यन्त अशुभ परिणाम रहते हैं। तथा नपुंसक लिंग और हुण्डक संस्थान होता है। जो आगामी काल में तीर्थकर होने वाले हैं तथा जिनके पाप कर्मों का उपशम हो चुका है। देव लोग भक्तिवश छ: माह पहले से उपसर्ग दूर कर देते हैं। अन्तर के जानने वाले प्राचार्यों ने प्रथम पृथ्वी में नारकियों की उत्पत्ति का मन्तर अड़तालीस घड़ी बतलाया है। और नीचे की छह भूमियों में कम से एक सप्ताह, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह माह का विरह-अन्तरकाल कहा है। जो तीन मिथ्यात्व से युक्त हैं तथा बहुत प्रारम्भ और बहुत परिग्रह के धारक हैं ऐसे तिर्यन और मनुष्य उन पृथ्वियों को प्राप्त होते हैं अर्थात उनमें उत्पन्न होते हैं । असंज्ञी पंचेन्द्रिय पहली पृथ्वी
सरकने वाले दसरी पथ्वी, तक पक्षी तीसरी तक, सर्प चौथी तक, सिंह पांचवीं तक, स्त्रियां छठवीं तक और तीव्र पाप करने वाले मत्स्य तथा मनुष्य सातवीं पृथ्वी तक जाते हैं। सातवीं पृथ्वी से निकला हुआ जीव यदि पुनः अव्यवहित रूप से सातवों में जावे तो एक बार, छठवीं से निकला हुआ छठवीं में दो बार, पांचवीं से निकला हुआ चौथो में चार बार, तोसरी से निकला हा तीसरी में पाँच बार, दुसरी से निकला हुआ दूसरी में छह बार और पहली से निकला हुआ पहली में सात बार तक उत्पन्न हो सकता है। सातवों पृथ्वी से निकाला हुआ प्राणी नियम से संज्ञी तिर्यञ्च होता है तथा संख्यात वर्ष की पाय का धारक हो फिर से नरक जाता है। छठवीं पश्वी से निकला हुआ जीव संयम को प्राप्त तो हो सकता है पर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। चौथी पृथ्वी से निकला हुमा मोक्ष प्राप्त कर सकता है परन्तु निश्चय से तीर्थकर नहीं हो सकता। तीसरी
- - - - -- --- --------- का घ० फा० ३४३:१४४५-१२२२ रा०; १२२ । ७३६. .१९६ रा० समस्त यवगुरज क्षेत्र का घ. फ० ।
चाकार क्षेत्र में एक यब का घनफल ब्यालीस से भाजित लोक प्रमाण है। उसको चौबीस से गुणा करने पर सात से भाजित और चार से गणित लोक प्रयाण समरत यबमध्य क्षेत्र का घनफल निकलता है। ३४३ - ४२० . ८२३ राजु एक पब का घ० फ० ८३ ४२४ = ३४३-७४४=१६६ रा. य० म० का घ००।
मन्दर के सदृदा आगाम वाले क्षेत्र में ऊपर ऊपर-ऊंचाई कम से एक राजु के चार भागों में से तीन भाग, बारह भागों में से सात भाग, बारह से भाजित तेतालीस राजु, राजु के बारह भागों में से सात भाग और डेड राजुमार है। ३(१+ +12-1- +3= ७ रा० ।
मन्दर सदश क्षेत्र में तटभाग के विस्तार में से अट्ठाईस से विभवत जग श्रेणी प्रमाण चार तटवर्ती करणाकार खण्डित क्षेत्र से चूलिका होती है। राजु प्रत्येक खण्डित क्षेत्र प्रमाण ।
इस चूलिका के मुख का विस्तार अट्ठाईस से विभक्त जग श्रेणी प्रमाण, भूमिका विस्तार इससे तिगृणा और ऊंचाई बारह से भाजित जग श्रेणी मात्र है।
चूलिका का मुख भूमि (२६) ऊंचाई रा० अहानब से विभक्त जग श्रेणी को ऊपर-ऊपर सात स्थानों में रखकर विस्तार को लाने के हेतु गुणकार कहता है।