Book Title: Vruhhajain Vani Sangraha
Author(s): Ajitvirya Shastri
Publisher: Sharda Pustakalaya Calcutta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TEIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपरमात्मने नमः वृहजैनवाणी संग्रह A-2 संपादकअजितवीर्य शास्त्री logory : uri प्रकाशकशारदा पुस्तकालय १२, विश्वकोष लेन, पो० बाघबाजार कलकत्ता 'वीर निर्वाण संवत् २४५७ ईस्वी सन् १९३१ न्यौछावर संवा रुपया क Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक- ' . जीवंधर देवकुमार जैन मालिक-शारदा पुस्तकालय १२ विश्वकोपलेन पो० वाघबाजार कलकत्ता Copyright reserved by the publishers प्रिंटर-जीवंधर जैन "शारदा प्रेस" १२, विश्वकोपलेन बापमानार Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची। - -- प्रथम अध्याय ।" नाम पाठ पृष्ठ प्रभाती (राग भैरों ) ' प्रातःकालीन क्रिया। २१ - आराधनापाठ २२ नाम पाठ ....पृष्ठ हमाष्टकस्तोत्र २३ णमोकार मंत्र . .. १ मंदिरजीमें प्रवेश करनेकी विधि २४ णमोकार मंत्रका माहात्म्यः १ अद्याष्टकस्तोत्र २४. समायिक करनेकी विधि २ नमस्कारमंत्र और दर्शनपाठ २५ सामायिकपाठ संस्कृत . । ४ दर्शनदशक सामायिकपाठ भापा , . दर्शनस्तुति सुप्रभातस्तोत्र - १३ ' दर्शनपञ्चीसी आलोचनापाठ , " , १४ गंधोदक लेनेका मंत्र ३३ तीर्थकरोंकी स्तुति प्रभाती - १७ आशिका लेनेका दोहा - ३४ जवाहरकृत प्रभाती । १८, शास्त्रजीको नमस्कारकरनेके कवित्त३४ दौलतकृत प्रभाती (१.) । १८.: धूप खेनेका मंत्र ३४ दौलतकृत प्रभाती.( २) ।। १८ । भागचन्द्रकृत प्रभाती . . . द्वितीय अध्याय । . जैनदासकृत प्रभाती . १६. स्तुतिविनतीसंग्रह। भवानीकृत प्रभाती :-.-२०१ दौलतरामकृत स्तुति ३५ प्रभाती ( रागभैरों) . . २०:५' बुधजनकृत स्तुति - ३७ प्रभाती,( राग वसंत ) , . २१ भागचन्द्रकृत स्तुति (१) ३७ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पाठ - पृष्ठ नाम पाठ भागचन्द्रकृत स्तुति (२) ४० श्रीमहावीरप्रार्थना भूधरकृतस्तुति ४१, आचार्यवर्य रविषेणस्तुति ७४ भूधरकृत दर्शनस्तुति , ४२. आचार्यवर्य जिनसैनस्तुति . ७५ दुखहरण विनती . . 5110 -४३ तृतीय अध्याय। अरहंतस्तुति ......४५ तोला । जिनवचनस्तुति .. ४७. वृहत्स्वयंभूस्तोत्र .७५ संकटमोचन विनतो ... ....५०. जिनसहस्रनामस्तोत्र - श्रीपतिस्तुति : ...५४ भक्तामरस्तोत्र संस्कृत ' ' ... जिनेन्द्रस्तुति ...५५ भक्तामरस्तोत्र भाषा १०८ भूधरकृत स्तुति .. ५६. कल्याणमंदिरस्तोत्र संस्कृत ' "११५ करुणाष्टक ५७ कल्याणमंदिरस्तोत्र भाषा : १२० जिनेन्द्रस्तुति ५७. एकीभावस्तोत्र संस्कृत १२५ पार्श्वनाथस्तुति . , ... ५६ एकीभावस्तोत्र भाषा १२८ भूधरकृत पार्श्वनाथस्तुति , '.६० विषापहारस्तोत्र संस्कृत... १३२ जिनवाणीमाताकी स्तुति, ६२ विपापहारस्तोत्र भाषा .१३६ शारदाष्टक ६३, जिनचतुर्विशतिका संस्कृत । १४२ शारदास्तवन प्रभाती , ६५. भूपालचतुर्विंशतिका भाषा १४६ . गुर्वावली . . -६५ महावीराष्टकस्तोत्र : १५६, भूधरकृत गुरुस्तुति (१) ७० अकलंकस्तोत्र ।' : . १५२, भूधरकृत गुरुस्तुति (२) , ७१ नामावलीस्तोत्र प्रातःकालकी स्तुति ७२ पाश्वनाथस्तोत्र सायंकालकी स्तुति - ७३ - अहिछितपार्श्वनाथस्तोत्र ' १५७ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ग) पृष्ठ नाम पाठ १६१ विसर्जनपाठ १६२ भाषास्तुति पाठ नाम पाठ मंगलाष्टकस्तोत्र संस्कृत' मंगलाष्टकस्तोत्र भाषा चतुर्थ अध्याय । नित्यपूजासंग्रह जिनेन्द्र पंचकल्याणक लघु अभिषेकपाठ लघु पंचामृताभिषेक भाषा १७७ गुरुपूजा जलामिषेक वा प्रक्षाल करनेकापाठ १७९ अकृत्रिमचैत्यालयपूजा' विनयपाठ दोहावली देवशास्त्रगुरुपूजा संस्कृत १८३ पुष्पांजलिपूजा संस्कृत देवशास्त्रगुरुपूजा भाष १६४ विद्यमानविंशतितीर्थंकरपूजासंस्कृते १६८ पंचमेरुपूजा भाषा २०० नंदीश्वरपूजा संस्कृत बीसतीर्थंकरपूजा भाषा विद्यमान बीसतीर्थंकरोंका अर्थ २०३ नंदीश्वरपूजा भाषा अकृत्रिम चैत्यालयोंके मधे २०४ 12 सिद्धपूजा द्रव्याष्टक २०५ सिद्धपूजा भावाष्टक सोलहकारणका अर्घ दशलक्षण धर्मका अघ रत्नत्रयका अ पंचपरमेष्ठिजयमाला शांतिपाठ पंचम अध्याय । 'पर्व पूजा संग्रह | १६४ देवपूजा भाषा १७२ सरस्वतीपूजा २१० २१० १८२ सिद्धपूजा भाषा संस्कृत पंचमेरुसमुद्यय पूजा षोडशकारणपूजा संस्कृत ६ षोडशकारणपूजा भाषा दशलक्षणपूजा संस्कृत दशलक्षणधर्म पूजा भाषा २११ रत्नत्रयपूजा भाषां }*** २११ समुच्चयचौबीसी पूजा := २११ श्री आदिनाथजिन पूजा २१२ श्रीचन्द्रप्रभजिनपूजा पृष्ठ २१५ २१५ : २१७ २२० २२३ २२६ WA २३१ २३४ २३७ २४८ 1 २५७ २६ ० २६७ २७८: २८३ ૨૮૬ . २६१ २६५ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47.4 नाम पाठ . पृष्ठ नाम पाठ पृ ष्ठश्रीअनन्तनाथजिनपूजा , २९६ तीर्थकगेंकी माताका नाम- ३५० शांतिनाथजिनपूजा - , ३०३ तीर्थकगेका निर्वाणक्षेत्र : ३५८ श्रीपार्श्वनाथजिनपूजा . ३०७ तीर्थकरोंके शरीरको ऊचाई - ३५८ श्रीदीपावलीवर्द्ध मानजिनपूजा ३१२ तीर्थंकरोंकी जन्मतिथि .. ३५६ सप्तऋषिपूजा . ३१६. पांच महाकल्याण ., ३५६ चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रपूजा३१६ चौंतीस अतिशय ...... ३६० स्वयंभूस्तोत्र संस्कृत ३२१ आठ महाप्रातिहार्य ... .-३६९ स्वयंभूस्तोत्र भाषा .. ३२४ चार अनंतचतुष्टय , ....३६१ निर्वाणकाण्ड गाथा .. ३२६ चार घानियाकर्म , ... ... ३६१ निर्वाणकाण्ड भाषा .... ३२८ समोशरणकी ११ भूमियां । -३६१ श्रीसम्मेदाचलपूजा बडी . ३३० समोशरणकी १२ सभायें....३६१. श्रीगिरनारक्षेत्रपूजा - ३४३ अठारह दोष ., . . ३६९ श्रीचंपापुरसिद्धक्षेत्र पूजा-३४. पोडश भावना ..: । ...३६२ श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्रपूजा . ३५१. दशप्रकारके कल्पवृक्ष . . . . ३६१ छठा अध्याय । बारह चक्रवर्ती : ३६२ :: शास्त्रसारसमुचय।...: चक्रवतीके राज्यके अङ्गः - ३६२ पचपरमेष्ठीके नाम ..। ३५४. चक्रवतीके १४ रत्न . . ३६२ भूतकालके २४ तीर्थंकर ' ३५५ चक्रवर्तीके नवनिधि . 1 भविष्यत्कालके २४ तीर्थंकर ३६६. -३६३ वर्तमानकालके २४ तीर्थंकर २५५ . चक्रवर्तीके दशभोग .... . ३१३ ३५५ । तीर्थकरोंके चिन्ह. , ...३५६, नवनारायण .... -३६३, तीर्थकरोंकी जन्मभूमि ... ..३५६ नव प्रतिनारायण ........ १६३ राक पिताका नाम ... .३५७ नव बलभद्र .. .. it . Pu. . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पाठ नव नाय चारु रुद्र चोवीन कामदेव चौदह गुणस्थान ग्याग्छ प्रतिमा श्रावक के १७ नियम बाईस परोपह समव्यसन बाईस अभय दशलक्षण धर्म तीनप्रकारका लोक atre कुलकर बारह प्रसिद्ध पुरुष विदेहक्षेत्रविद्यमान २० तीर्थकर ३६५ ३६४ ३६५ चारप्रकारका दुःख J ६६ कुभोगभूमि पांच मंदरगिरि · 1 ( 5 ) पृष्ठ नाम पाठ ३६४ こ '३६४ ३६५ पन्द्रह कर्मभूमि ३६५ तीस भोगभूमि ३६६ चौबीस वर्षघर पर्वत ३६६ ३६६ संत्तर महानदी ३६७ वीस नाभिगिरि ३६० सात नाक ३६० नक्कोंक ४६ पटल ... ३६७ नग्कोंके ४६ इन्द्रकविल ३६७ नरकोंक श्रेणिबद्धविलोंकी संख्या ३६८ reath प्रकीर्णकविल ३६४ एकहजार कनकाचल ३६४ चालीस दिग्गज पर्वत सौ बार पर्वत साठ विभंगानदी एकसौ भाठ विदेहक्षेत्र बीस यमकगिरि एकमौ सगेवर 1 ३६८ ३६८ मेरुके तीस सगेवर. एकसौसत्तर विजयार्ध पर्वत एकसौसत्तर वृपभगिरि पर्वत चौवीस लोकांतिक देव आठ ऋद्धि P पांच लब्धि दशप्रकारका सम्यग्दर्शन ३६८. ३६८ सात मौनसमय " 16 भोजनके सात अंतराय पांचप्रकार के ब्रह्मचारी. " " श्र ३६६ ३६ રૂ ३६६ ३७०. ३७० ३७१ ३७२ ફર ' पृष्ठ है ૨૭૨ ६७२ ३७२ ३७३. ३०७३ 1 ३७३. ३७३ ३७४. ३७४ 208 ३७४. ३७४ ,३७४ - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दश पूजा नाम पाठ पृष्ठ नाम पाठ ६ आयकर्म . . ७५ आरती .. .३९५ निश्चय आरती . चारप्रकारके ऋषि .. ३०५ आत्माको आरती . ४२६ वारह अनुप्रेक्षा .... ३७५ आरती श्रीवर्द्ध मानकी ४२७ दशप्रकारका प्रायश्चित्त , ..३७५ आरती निश्चयआत्माकी - ४२७ बारह प्रकारका तप ... ३७५ दीप धूप चढ़ानेके मंत्रादि - - ४२८ पाँचप्रकारका स्वाध्याय . ३७६ . नावां अध्याय।। दंशप्रकारका धर्मध्यान सातं परमस्थान .. १ . भावनासंग्रह। । ' .३७६ । ग्यारह प्रकारको निर्जर वारहभावना भगौतीदासकृत' ' ४२६ मतिज्ञानके ३३६ भेद ।। ३६ वारहभावना भूधरकृत '४३० ५ बारहभावना बुधजनकृत . ४३३ सातवां अध्याय। : वारहंभावना जयचन्द्रजीकृत ४३६ . ग्रंथसंग्रह । । । । बारहंभावना भूधरकृत। ४३७ मोक्षशास्त्रः ३७७ वजनाभिचक्रवर्तीको वैराग्यभावना ४३८ छहढाला ... ३१ सोलहकारण भावना ४४१ अरहंतपासाकेवली . ४०३ । 'दशवां अध्याय । ... ? आठवां अध्याय। परमार्थ जकड़ीसंग्रह। ... ..: आरतीसंग्रह ।” , जकड़ी भूधरकृत ...४४३ पंचपरमेष्ठी आदिकी आरती ४२४ जकड़ी रूपचंद्रकृत (१), ४४४ आरती श्रीजिनराजको ', '४२४ जकड़ी रूपचंद्रकृत (२) .. ४४६ आरती मुनिराजकी ' '४२५ जकड़ो दौलतरामजीकत (१) ४४७ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथासंग्रह | उपदेशी एवं आध्यात्मिक ४५५ पद... ... .... ४६१ से ५३७ तक नाम पाठ, पृष्ठ नाम पाठ . पृष्ठ जकड़ी दौलतराम्जीकृत (२) ४४८५ , "तेरहवां अध्याय जकड़ी रामकृष्णकृत ४५१ जकड़ी जिनदासकृत ४५३ । भजनसंग्रह। ... ग्यारहवां अध्याय । प्रतिष्ठित प्राचीन कवियों ___ एवं नवीनकवियोंके हजूरी, ..' निशिभोजन जनकथा अठारहनातेकी कथा . . ४५७। अष्टजिनवरकथा - ४६१ - चादहवा अध्याय । . चौदहवां अध्याय।। सुगंधदशमीव्रतकथा . ' फुटकरसंग्रह। अनंतचौदशत्रतकथा ४७ समाधिमरण भाषा. छोटा' , ५३७ रत्नत्रयव्रतकथा - ४७० समाधिमरण भाषा बड़ा ५३६ दशलक्षणव्रतकथा ४३ संक्षिप्तं सूतकविधि ५४८ श्रीरवित्रतकथा : - पंद्रहवां अध्याय । पुष्पाजलिवतकथा ४६ वारहमासादि संग्रह । ' . बारहवां अध्याय। बारहमासा सीताजी उपदेशसंग्रह। बारहमासा राजुल . फूळमालपच्चीसी ४८३ बारहमासा मुनिराज धर्मपचीसी ४८७ बारहमासा बनदंत ५५७० ज्ञानपचीसी .... ४८६ ..नेमिन्याह. ' । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Modchodishchdghisiobobosdecision o हिंदी अंग्रेजीकी छपाई, X . . . - - शारदा प्रेस, कलकत्ता ....। - ।" CA . 'सोनेको छपाई, चिंटीके कागज, लिफाफे, पोष्टकार्ड : - ' विजिटिंगकार्ड, विल, रसोदबुक, कलैण्डर, - - .: नोटिश, अभिनन्दनपत्र, निमन्त्रणपत्र, ... .:: :... ग्रन्थ आदि किसीप्रकारका भी छपाईका काम कराना हो __तुरन्त हमारे पास भेजिये। .. ... सब प्रकारकी छपाईका काम बहुत सुन्दर . ..बहुत सस्ता अर शुद्ध .. --- साथ ही . . ---- ठीक समय पर किया जाता है . मैनेजर-शारदा प्रेस १२, विश्वकोष लैन, पो० 'बाघबाजार-कलकत्ता চিরচেচচচচচ httpớpới ppppppp Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++++++++ 53 वृहत् जैनवाणीसंग्रह प्रथम अध्याय । प्रातःकालीन क्रिया ब्राह्मे मुहूर्त उत्थाय कृतपंचनमस्कृतिः । कोऽहं को मम धर्मः किं व्रतं चेति परामृशेत् ॥ प्रत्येक श्रावकको ब्राह्ममुहूर्त अर्थात् रात्रि समाप्त होनेसे दो घड़ी प्रथम उठकर पंचनमस्कार मंत्रका पाठ करके मैं कौन हूं ? क्या मेरा धर्म है ! मेरा व्रत क्या है ? यह विचार करना चाहिये । १- णमोकार मंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ ओं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्योनमः । २ - णमोकार मंत्र का माहात्म्य । अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा । ध्याये Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAANAAAAAAAAAAAAAAANN .A.AAAAAPh. MARArn १२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह पंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥ अपवित्रः पवित्रो । १ वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं स वाह्या भ्यंतरे शुचिः। अपराजितमंत्रोंऽयं सर्वविघ्नविनाशनः।। । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः॥ ३॥ एसो पंचणमो- यारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि, पढम होइ मंगलं ॥ ४ ॥ ३-सामायिक करनेकी विधि।। मोक्षप्राप्तिका सामायिक एक मुख्य उपाय है। सामायिकके विना * अष्ट कर्म नष्ट नहीं हो सकते इसलिये आचार्योंने इसका निरूपण चार स्थानोंपर किया है। १-श्रावकके १२ बतोंमें पहिला शिक्षात्रत। १२-श्रावकको ११ प्रतिमाओंमें तीसरी प्रतिमा। ३-पांच प्रकारके चारित्रोंमें पहला चारित्र । ४-पडावश्यकोंमें प्रथम आवश्यक।। * इसलिये प्रत्येक श्रावककको प्रति दिन सबेरे ही एक वार, द्वितीय । * प्रतिमाधारीको सुबह शाम दो बार और तीसरी प्रतिमाधारीको सुबह दुपहर, शाम तीन बार सामायिक करना चाहिये। । सामायिकका काल जघन्य दो घड़ी (४८ मिनट), मध्यम ४ घड़ी, उत्कृष्ट ६ घड़ी है। जो प्रतिमाधारी नहीं हैं उनकेलिये कोई नियम * नहीं है, वे यथावकाश कम ज्यादा भी कर सकते हैं। सामायिक सबेरे । * ब्राह्म मुहूर्तमें अर्थात् ४ बजे उठ हाथ पैर धो शुद्ध हो कपड़ा * बदल एकांत स्थानमें उत्तर या पूर्व मुख कर करना चाहिये। * मंदिरजीमें उत्तर या पूर्वमुख बैठनेका कोई नियम नहीं है। * सामायिक करनेवाला पहले दर्भासन अथवा चटाईपर सीधा खड़ा । - * । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *--- - - - वृहज्जैनवाणीसंग्रह - ~ होकर पांवके अग्रभाग चार अंगुलके अन्तरसे रख, दोनों हाथ लटका * दृष्टि नासाके अप्रभागपर रख यह प्रतिज्ञा करे कि मैं इतने समय । * तक सामायिक करूगां सो जबतक सामायिककी क्रिया करू तबतक । मैं संपूर्ण परिग्रहका त्याग करता हूं और इस स्थानको छोड़कर दूसरे । * स्थानपर नहीं जाउंगा। पश्चात् नौ अथवा तीन बार णमोकार मंत्रका * उच्चारण करके साष्टांग नमस्कार करै । इसके बाद खड़े खड़े ही या । बैठकर तीन बार णमोकार मंत्र पढ कर हाथ जोड़कर तीन आवर्त * देकर मिले हुये हाथोंपर एक बार शिरोनति करै बादमें इसीप्रकार । से दाहिने हाथकी दिशामें फिर पीठ पीछेकी दिशामें और फिर बायें हाथकी दिशामें करें। इसप्रकार चारों दिशाओंमें चार शिरोनति और। १ वारह आवर्त करना चाहिये । सो ही रत्नकरण्डश्रावकाचारमें सामायिक प्रतिमाके प्रकरणमें कहा है:* चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथा जातः। सामायिकोद्विनिषद्यास्त्रियोगशुद्धात्रिसंध्यमभिवन्दी ॥१२९॥ अर्थ-चारों दिशाओंमें तीन तीन आवर्त और चार प्रणाम सहित । तथा वाह्य और आभ्यन्तर उपाधि रहित दो आसन ( पद्मासन तथा । 1 खड्गासन ) सहित मन वचन कायरूप योगनय शुद्ध तीनों संध्याओंमें ! वंदना करनेवाला सामायिक प्रतिमाधारी श्रावक है। इसप्रकार चार शिरोनति और बारह आवर्त करनेके बाद शांत* चित्त होकर आगे दियेहुये संस्कृत अथवा भाषा सामायिकका पाठ * धीरे धीरे करना चाहिये। र सामायिक पाठमें प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, सामायिक, स्तवन बंदन और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कर्म हैं । इनका वर्णन हिंदी सामायिक ** -52- * Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAN वृहज्जैनवाणीसंग्रह * शरीरतः कर्तुमनंतशक्ति विभिन्नमात्मानमपास्तदोष । जिनेंद्र कोषादिव खड्गयष्टिं तव प्रसादेन ममास्तु शक्तिः ॥२॥ दुःखे सुखे वैरिणि बंधुवर्गे योगे वियोगे भुवने वने वा । निरा। कृताशेषममत्वबुद्धेः समं मनो मेस्तु सदापि नाथ ॥३॥ मुनीश । * लीनाविव कीलीताविव स्थिरौ निखाताविव विविताविव । पादौ त्वदीयौ मम तिष्ठतां सदा तमोधुनानौ हृदि दीपकाविव ॥४॥ एकेद्रियाद्या यदि देव! देहिनः प्रमादतः । संचरता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीड़ितास्तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ॥५॥ विमुक्तिमार्गप्रतिकूल-1 वर्चिना मया कषायाक्षवशेन दुर्धिया । चारित्रशुद्धेर्यदकारि । * लोपनं तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो ॥६॥ विनिंदनालोचनगर्हणैरहं, मनोवचःकायकषायनिर्मितं । निहन्मि पापं । भवदुःखकारणं भिषाग्विषं मंत्राणैरिचाखिल ॥७॥ अतिक्रमं यद्विमतेर्व्यतिक्रम जिनातिचारं सुचिरित्रकर्मणः।। * व्यधामनाचारमपि प्रमादतः प्रतिक्रम तस्य करोमि शुद्धये । ॥ ८॥ क्षतिं मनःशुद्धिविधेरतिक्रम व्यक्तिक्रमं शीलवृतेर्विलंघनं । प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदंत्यनाचारमिहातिसक्ततां ॥ ६॥ यदर्थमात्रापदवाक्यहीनं मया प्रमादायदि किंचनोक्तं । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती । केवलबोधलब्धिं ॥ १० ॥ बोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः । स्वात्मोपलब्धिः शिवसौख्यसिद्धिः । चिंतामणि चिंतितवस्तुदाने त्वां वैद्यमानस्य ममास्तु देवि ॥ ११ ॥ यः स्म Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** **- - * * वृहज्जैनवाणीसंग्रह। * यते सर्वमुनींद्रवृदैर्यः स्तुयते सर्वनरामरेंद्रैः। यो गीयते वेद- . पुराणशास्त्रैः स देवदेवो हदये ममास्तां ॥१२॥ यो दर्शनज्ञानसुखस्वभावः समस्तसंसारविकारवाह्यः। समाधिग-1 । म्यः परमात्मसंज्ञः, स देवदेवो हृदये ममास्तां ॥ १३ ॥ * निषूदते यो भवदुःखजालं, निरीक्षते यो जगदंतरालं । । योतर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हदये ममास्तां * ॥ १४ ॥ विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्य सनाद्यतीतः । त्रिलोकलोकी विकलोऽकलंकः स देवदेवो हदये ममास्तां ॥ १५ ॥ क्रोडीकृताशेषशरीरिवाः, रागा दयो यस्य न संति दोषाः । निरिद्रियो ज्ञानमयोऽनपाया, * स देवदेवो हदये ममास्तां ॥ १६ ॥ यो व्यापको विश्व जनीनवृत्तः, सिद्धो विबुद्धोधुतकर्मबंधः । ध्यातो घुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्तां ॥ १७ ॥ न स्पृश्यते । कर्मकलकदोषैः यो ध्वांतसंधैरिव तिग्मरश्मिः । निरंजनं नि त्यमनेकमेकं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ १८॥ विभासते * यत्र मरीचिमाली, न विद्यमाने भुवनावभासि । स्वात्मस्थि तं बोधमयप्रकाशं तं देवमाप्त शरणं प्रपद्ये ॥ १९॥ विलोक्यमाने सति यत्र विश्व, विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तं । शुद्ध शिवं शांतमनाद्यनंतं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥२०॥ येन । * क्षता मन्मथमानमूर्छा, विषादनिद्राभयशोकचिंता। क्षयोन* लेनेव तरुप्रपंचस्तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये ॥ २१ ॥ न संस्त* रोऽश्मान तृणं न मेदिनी विधानतो नो फलको विनिर्मितः। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 बृहज्जनवाणीसंग्रह AAAAAAAAAAAAAAAAAN A AAAAAAAA AAAAA AAAAAAAAAAAR यतो निरस्ताक्षकषायविद्विषः सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मतः ॥ २२ ॥ न संस्तरो भद्र ! समाधिसाधनं, न लोकपूजा न च संघमेलनं । यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिश, विमुच्य सर्वा 1 मपि वाद्यवासनां ॥ २३ ॥ न संति वाह्या मम केचनार्था भवामि तेषां न कदाचनाहं । इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य वाह्यं स्वस्थः सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै ॥२४॥ आत्मानमात्मान्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोपि साधुर्लभते समाधिं ॥ २५ ॥ एकः सदा शाश्वतिको मामात्मा विर्निर्मलः साधिगमस्वभावः । वहि भवाः सत्यपरे समस्ता न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः ॥ २६ ॥ यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि सार्द्ध तस्यस्ति किं पुत्रकलत्रमित्रैः । पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपाः कुतो हि तिष्ठति शरीरमध्ये ॥ २७ ॥ संयोगतो दुःखमनेकमेदं यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी । ततस्त्रिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनां ॥ २८ ॥ सर्वं निराकृत्य विकल्पजालं संसारकांतारनिपातहेतुं । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे ॥ २६ ॥ स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभं । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ ३० ॥ निजाजिंत कर्म विहाय देहिनो न कोपि कस्यापि ददाति किंचन । विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीं ॥ ३१ ॥ यैः परमात्माऽमितगतिवद्यः सर्वविविक्तो भृशम Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ARAMR८८-45-FINAKKARK-* वृहज्जैनवाणीसंग्रह wuuuuuuuuuuuwwuuuuuuuuuu wwwwwwwwwwwww ३ का नवद्यः । शश्वदधीतो मनसि लभते, मुक्तिनिकेतं विभववर १ ते ॥३२॥ इति द्वात्रिंशतिवृत्तः, परमात्मानमीक्षते । योऽनन्यगतचेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययं ॥३३॥ ५-सामायिक पाठ भाषा। १ प्रतिक्रमण कर्म। काल अनंत भ्रम्यो जगमें सहिये दुख भारी । जन्मम* रण नित किए पापको है अधिकारी । कोटि भवांतरमाहिं मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य आज मैं भयो योग मिलियो • सुखदायक ॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब । * ते सब मन-वच-काय-योगकी गुप्ति विना लभ ॥ आप के समीप हजूर माहि मैं खड़ो खड़ो सब । दोष कहूं सो सुनो * करो नठ दुःख देहि जव ॥ २॥ क्रोधमानमदलोभमोह* मायावशि पानी । दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ विना प्रयोजन केंद्रिय वितिचउपंचेंद्रिय । आप * प्रसादहि मिटै दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥ ३ ॥ आपसमें इकठौर थापकरि जे दुख दीने । पेलि दिये पगतलैं दावि* करि प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीव जिते तिन सबके । नायक । अरज करूं मै सुनो दोष मेटो दुखदायक ॥ ४॥ अंजन अदिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय । मेरे जे अब दोष भये ते । १स्त्री सामायिक करे तो खड़ी खड़ी सब, ऐसा पाठ बोलना चाहिये ।। *HARKHAK-SHIKRAKeki Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -- - - - ---- - -- वृहज्जनवाणीसंग्रह wwww क्षमहु दयानिधि । यह पडिकोणो कियो आदि षटकर्ममाहि विधि ॥ ५॥ द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म ! इसके आदि वा अंतमें आलोचना पाठ बोलकर फिर तीसरे सामायिककर्मका पाठ करना चाहिये। जो प्रमादवशि होय विराधे जीव धनेरे। तिनको जो। से अपराध भयो मेरे अघ ढेरे। सो सब झूठो होउ जगतपतिके परसादै । जा प्रसादतै मिलै सर्व सुख दुःख न लाधै ।।६।। मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ । किये पाप अघ-1 ढेर पापमति होय चित्त दुठ॥ निदू हूं मै वारवार निज जियको गरहं । सब विधि धर्म उपाय पाय फिर पापहि करहूं । * ॥ ७॥ दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी । सतसंगति संजोग धर्मजिनश्रद्धा, धारी । जिनवचनामृत धार समाव । जिनवानी। तोह जीव संधारे धिक धिक धिक हम जानी। ॥८॥ इद्रियलंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सव । अज्ञानी जिमि करै तिसी विधि हिंसक है अव ॥ गमनागमन करतो। जीव विराधे भोले । ते सब दोष किये निंदू अब मन वच तोले ॥९॥ आलोचनविधिथकी दोप लागे जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुम तें जिन मेरे॥ वारवार इसभांति मोह- 1 मद दोष कुटिलता। ईर्षादिकतै भये निंदिये जे भयभीता ॥१०५ ३। तृतीय सामायिक भावकर्म । सब जीवनमें मेरे समताभाव जग्यो है। सब जिय मोसम । * - -5-*--*- *- * -* Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * KR-4-KARK82 - * १० वृहज्जैनवाणीसग्रह * समता राखो भाव लग्यो है ।। आर्त रौद्र द्वय ध्यान छोडि * करिहूं सामायिक । संजम मो कब शुद्ध होय यह भाववधा यक ॥ ११॥ पृथ्वी जल अरु अग्नि वायु चउकाय वनस्पत । पंचहि थावरमाहिं तथा त्रस जीव वसैं जित॥1 * वेइंद्रिय तिय चउ पंचेंद्रियमांहि जीव सब । तिनौं । क्षमा कराऊं मुझपर छिमा करो अब ।। १२ । इस अवसरमें । । मेरे सव सम कंचन अरु तृण । महल मसान समान शत्रु । अरु मित्रहिं सम गण ।। जामन मरण समान जानि हम समता कीनी । समायिकका काल जितै यह भाव नवीनी ॥१३॥ । मेरो है इक आतम तामें ममत जुकीनो । और सबैं मम भिन्न । जानि समतारसभीनो॥ मात पिता सुत बंधु मित्र तिय आदि। । सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथ रूप करयो गह ॥१४॥ मैं अनादि जगजालमांहि फसि रूप न जाण्यो । एकेंद्रिय दे । । आदि जंतुको प्राण हराण्यो॥ ते सब जीवसमूह सुनो मेरी यह । * अरजी । भवभवको अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ॥ ५॥ ४ चतुर्थ स्तवनकर्म । नमों ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्मको । संभव * भवदुखहरण करण अभिनंद शर्मको । सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर । पद्मप्रभ पद्माभ मानि भवभीति प्रीति । धर॥१६॥श्रीसुपार्श्व कृतपाश नाश भव जास शुद्धकर ।श्रीचं द्रप्रभ चंद्रकांतिसम देहकांतिधर ॥ पुष्पदंत दमि दोषकोश . भविपोष रोपहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोषकर । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * K Key RRE वृहज्जैनवाणीसंग्रह . MAnnarnmart 4 - - - - - -- - - - * ॥ १७॥ श्रेयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन । वासु पूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभयहन ॥ विमल विमलमति देन अंतगत है अनंत जिन । धर्मशर्मशिवकरण शांतिजिन शांतिविधायिन ॥ १८॥ कुंथ कुंथुमुख जीवपाल अर-1 * नाथ जालहर । मल्लि मल्लसम मोहमल्लमारन प्रचार घर।। मुनिसुव्रत व्रतकारण नमत सुरसंघहिं नमि जिन । नेमिनाथ । जिन नेमि धर्मरथमांहि ज्ञानधन ॥१९॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व । * उपलसम मोक्ष रमापति । वर्द्धमान जिन नमूं बम भवदुःख । कर्मकृत ॥ या विधि मैं जिन संघरूप चउवीस संख्यधर। स्तबूं नमूं हूं बार बार वंदू शिव सुखकर ॥ २० ॥ ५ पंचम वंदनाकर्म। बर्दू मैं जिनवीर धीर महावीर सु सनमति । बर्द्धमान अतिवीर बंदि हूं मनवचतनकृत ।। त्रिशलातनुज महेश धीश । विद्यापति बंदूं। बंदी नितप्रति कनकरूप तनु पापनिकंदू * ॥२१॥ सिद्धारथ नृपनंददुददुख दोष मिटावन, दुरित दवा नल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन ॥ कुंडलपुर करि जन्म जगत जिय आनंदकारन । वर्ष वहत्तर आयु पाय सब ही दुख टारन ॥ २२ ॥ सप्तहस्त तनु तुग भंगकृतजन्ममरणभय । बालब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय ।। देई * उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीवधन | आप बसे शिव माहि ताहि वंदौं मन वच तन ॥ २३॥ जाके बंदनथकी * दोष दुखदूरिहि जावै । जाके बंदनथकी मुक्तितिय सन्मुख - - - - --- -- ------ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२ ar... ... ... .... -vvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह * आचै । जाके बंदनथकी बंद्य होवें सुरगनके। ऐसे वीर । * जिनेश वन्दि हूं क्रमयुग तिनके ॥ २४ ॥ सामायिक षट कर्ममांहि चंदन यह पंचम । बंदों वीरजिनेद्र इंद्रशतवंद्य : वंद्य मम ।। जन्म मरणभय हरो करो अघशांति शांतिमय ।। $ मैं अघकोष सुपोष दोषको दोष विनाशय ॥ २५ ॥ ई छठा कायोत्सर्ग कर्म। कायोत्सर्ग विधान करूं अंतिम सुखदाई । कायत्यजनमय * होय काय सबको दुखदाई। पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम । उत्तर मैं। जिनगृह वंदन करूंहरू भवपापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनती मैं करूं नमूं मस्तक कर धरिकै । आवर्तादिक क्रिया करू मन वच मद हरिकैं। तीनलोक जिनभवनमाहिं जिन है जु अकृत्रिम । कृत्रिम हैं द्वय अर्द्धद्वीप माहीं वन्दों जिमि ॥ आठकोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्यानूं । च्यारि शतकपरि असी एक जिनमंदिर जानू । व्यंतर ज्योतिषिमांहि संख्यरहिते जिनमंदिर। ते सब वंदन करूं हरहु , * मम पाप संघकर ।। २८॥ सामायिकसम नाहिं और कोउ। * वैरमिटायक । सामायिकसम नाहिं और कोउ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अंत सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥२९॥ जे भवि आतमकाज*करण उद्यमके धारी । ते सब काज विहाय करो सामायिक *सारी । राग रोप मदमोहक्रोध लोभादिक जे सब । बुध महाचन्द्र विलाय जाय ता कीज्यो अब ॥ ३०॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - manasa. IANRAAAAAAAAM.. - --- ------- -- वृहज्जैनवाणीसग्रह , .६-सुप्रभास्तोत्रम् । ॐ यत्वखर्गावतरोत्सवे यदभवजन्माभिषेकोत्सवे यद्दीक्षाग्रह*णोत्सवे यदखिलज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निवीणगमोत्सवे । जिनपतेः पूजाद्भुतं तद्भवैः संगीतस्तुतिमंगलैः प्रसरतां मे * सुप्रभातोत्सवः ॥१॥श्रीमन्नतामरकिरीटमणिप्रभामिरालीढपादयुग ! दुर्धरकर्मदूर । श्री नाभिनंदन ! जिनाजित शंभ वाख्य ! त्वद्धयानतोस्तु सततं मम सुप्रभातं ॥ २॥ छत्र। त्रयप्रचलचामरवीज्यमानदेवामिनंदन मुने सुमते जिनेंद्र। । पद्मप्रभारुणमणिद्युतिभासुरांग, त्व० ॥ ३॥ अर्हन् सुपाच * कदलीदलवर्णगात्रपालेयतारगिरिमौक्तिकवर्णगौर। चंद्रप्रभ । स्फटिक पांडुर पुष्पदंत ! त्व० ॥४॥ संतप्तकांचनरुचे जिनशीतलाख्य श्रेयान्विनष्टदुरिताष्टकलंकपंक बंधूकबंधुररुचे । जिनवासुपूज्य, त्व० ॥५॥ उदंडदर्पकरिपो विमलामलांग स्थेमन्ननंतजिदनंतसुखांबुराशे । दुष्कर्मकल्मषविवर्जित धर्म* नाथ, त्व० ॥६॥ देवामरीकुसुमसन्निभ शांतिनाथ कुंथो । * दयागुणविभूषणभूषितांग । देवाधिदेव भगवन्नर तीर्थनाथ, त्व० ॥७॥ यन्मोहमल्लमदभंजन मल्लिनाथ क्षेमं करावि तथशासनसुव्रताख्य। यत्संपदा प्रशमितो नमिनामधेय, त्व In८॥ तापिच्छगुच्छरुचिरोज्ज्वल नेमिनाथ घोरोपसर्ग-1 विजयिन् जिनपार्श्वनाथ । साद्वादसूक्तिमणिदर्पण वर्द्धमान, * त्व०॥९॥ पालेयनीलहरितारुणपीतमासं यन्मूर्तिमव्यय* सुखावसथं मुनींद्राः । ध्यायंति सप्ततिशतं जिनवल्लभानां * *---- --* Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स 6333 431. वृहज्जैनवाणीसंग्रह 53www. wwwww.. त्व० ॥१०॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं मांगल्यं परिकीर्तितं । चतु विंशतितीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने ॥ ११ ॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं श्रेयः प्रत्यभिनंदितं । देवता ऋषयः सिद्धाः सुप्रभातं दिने दिने || १२ || सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तित तीर्थ भव्यसच्वसुखावहं ॥ १३ ॥ सुप्रभातं जिनेंद्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषां । अज्ञानतिमिरांधानां नित्यमस्तमितोरविः || १४ || सुप्रभातं जिनेंद्रस्य वीरः कमललोचनः ॥ येन कर्माटवी दग्धा शुक्लध्यानोग्रवह्निना ॥ १५ ॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याण सुमंगलं । त्रैलोक्य हितकर्तॄणां जिनानामेव शासनं ॥ १६ ॥ इति ॥ ७- आलोचना पाठ । यह आलोचनापाठ सामायिक कालमें प्रथमकर्म प्रतिक्रमण कर्म है उस कर्मके आदि वा अन्तमें बोलना चाहिए । दोहा-बंदो पांचों परम गुरु, चौबीसों जिनराज । करूं शुद्ध आलोचना, शुद्धि करनके काज ॥१॥ सखी छंद चौदह मात्रा । सुनिये जिन अरज हमारी। हम दोष किये अति भारी ॥ तिनकी अब निर्वृत्तिकाज | तुम सरन लही जिनराज ॥२॥ इक वे ते चउ इंद्री वा । मनरहित सहित जे जीवा || तिनकी नहिं करुणा धारी । निरदड़ है घात विचारी | ३ || समरंभ समारंभ आरंभ | मनवचतन कीने प्रारंभ ॥ कृत कारित 4 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K AK- ------ -- -- .. . वृहज्जनवाणीसंग्रह १५ ॥ मोदन करिफै। क्रोधादि चतुष्टय धरिकैं॥४॥ शत आठ 4 जुइमि भेदन । अध कीने परछेदन । तिनकी कहुं कोलों । कहानी। तुम जानत केवलज्ञानी ॥५॥ विपरीत एकांत विन यके । संशय अज्ञान कुनयके॥ वश होय घोर अप कीने। * वचत नहिं जात कहीने ॥६॥ कुगुरनकी सेवा कीनी । केवल अंदयाकरि भीनी । याविधि मिथ्यात भ्रमायो । चहुंगति । मधि दोष उपायो॥७॥ हिंसा पुनि झूठ जु चोरी । परवनितासों दृग जोरी ।। आरंभपरिग्रह भीनो । पनपाप जु या विधि कीनो ॥८॥ सपरस रसना घाननको। चखु कान * विषयसेवनको।। बहु कर्म किये मनमानी। कछु न्याय अन्याय नजानी ॥९॥ फल पंच उदंवर खाए । मधु मांस मद्य चित• चाहे । नहिं अष्टमूलगुणधारी । विसनन सेये दुखकारी ॥१० । दुइवीस अभख जिन गाये । सो भी निशदिन भुंजाये ।। कछु । भेदाभेद न पायो । ज्यों त्योंकरि उदर भरायो॥११॥ * अनंतानु जुबंधी जानो। प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो ॥संज्व लन चौकरी गुनिये । सब भेद जु षोडश मुनिये ॥१२॥परिहास अरतिरति शोग । भय ग्लानि तिवेद संजोग॥ पनवीस जु भेद भये इम। इनके वश पाप किये हम ॥ १३॥ निद्रा वश शयन कराई । सुपनेमधि दोष लगाई । फिर जागि विषय-1 पवन धायो । नानाविध विषफल खायो॥१४॥ कियेहार निहार विहारा । इनमें नहिं जतन विचारा॥ दिन देखी धरी ॥ उठाई। विन शोधी वस्तु जु खाई ॥१५॥ तब ही परमाद । *S HRESARKAR-522 * Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ * १६ ..... बृहज्जनवाणीसग्रह * सतायो । बहुविधि विकलप उपजायो। कछु सुधिबुधि नाहि * रही है। मिथ्यामति छाय गयी है ।। १६ ॥ मरजादा तुम* ढिग लीनी । तामें दोष जु कीनी ॥ मिन भिन अब कैसे कहिये । तुम ज्ञानविष सव पइये ॥ १७ ॥ हा हा ! मैं दुठ। * अपराधी । त्रसजीवनराशिविराधी॥थावरकी जतन न कीनी। * उरमें करुना नहिं लीनी ॥ १८॥ पृथिवी बहु खोद कराई। * महलादिक जागां चिनाई ।। पुन विनगाल्यो जल ढोल्यो। पखातै पवन विलोल्यो ॥१९॥हा हा ! मै अदयाचारी । बहु . हरितकाय जु विदारी ॥ तामधि जीवनके खेदा । हम खाये । धरि आनंदा ॥ २०॥हा हा ! परमाद बसाई। विन देखे। * अगनिजलाई ॥ तामधि जे जीव जु आये। ते हू परलोक * सिधाये ॥ २१ ॥ बीभ्यो अनराति पिसाया । ईधन विन ! सोधि जलायो झाडू ले जागां वुहारी । चिवटि आदिक जीव विदारी ॥२२॥ जल छानिजिवानी कीनी । सो ह पुनि । * डारि जुदीनी ॥ नहि जलथानक पहुंचाई। किरिया विन, * पाप उपाई ॥ २३॥ जल मल मोरिन गिरवायो । कृमिकुल १. बहुधात करायो॥ नदियन विच चीर धुवाये । कोसनके जीव मराये ॥ २४ ॥ अन्नादिक शोधकराई । तामें जु जीवनिसराई ॥ तिनका नहिं जतन कराया। गरियालें धूप डराया । ॥ २५ ॥ पुनि द्रव्य कमावन काज । बहु आरंभ हिंसा साज * कीये तिसनावश भारी। करुना नहि रंच विचारी ॥ २६ ॥ ताको जु उदेय अब आयो। नानाविध मोहि सतायो॥ ** * -*- * * * Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAR AAAAAAAA Annanonrn २० वृहज्जैनवाणीसंग्रह उज्ज्वल करि अर्थ पूजि श्रीजिनेन्द्र देवा ॥३॥ जिनजी है तुम अर्ज सुनो भवदधि उतरेवा । जैनदास जन्म सुफल भगति प्रभू एवा ॥४॥ १४--भवानीकृत प्रभाती __ताण्डव सुरपतिने जहां हर्ष भाव धारी {{टेका रुनु रुतु करुनु नूपुर ध्वनि ठुमकि ठुमकि पेंजन पग बुन झुन झुन . कीन छवि लगति अति प्यारी ॥१॥ अ न न न न सार दानि स न न न न न किनरान अ घ घ घ गंधर्व सर्व देत । जहां तारी ॥२॥ पंप पं पग झपटि फं फं फफ न न न न नवं व मृदंग वाजे बीना धुन सारी ॥३॥ अदद द दद विद्याधर दि दि दि दि दि दि देव सकल दास भवानी * ज्यों कहें जिन चरनन बलिहारी ॥४॥ १५-प्रभाती (राग भैरों) उठोरे सुज्ञानी जीव, जिनगुन गावोरे ।उठोरेगाटेक॥ * निशि तो नशाय गई, भानुको उद्योत भयो, ध्यानको ल गावो प्यारे, नींदको भगावोरे ।। उठो रे० ॥ १॥ भववन१ चौरासी वीच, भ्रमतो फिरत मीच, मोहजाल फंद फस्यो जन्म मृत्यु पाबोरे । उठो रे० ॥२॥ आरज पृथ्वीमें आय, उत्तम नरजन्म पाय, श्रावककुलको लहाग, मुक्ति क्यों न * जावोरे ॥ उठो रे० ॥३॥ विषयनि राचि राचि, बहुविधि । के पाप सांचि, नरकनि जाय क्यों, अनेक दुःख पावोरे॥ उठो रे०॥४॥ परको मिलाप त्यागि, आतमके काज लागि, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - * * - वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सुबुधि बतावै गुरु, ज्ञान क्यों न लावोरे । उठो रे० ॥५॥ १६-प्रभाती (राग वसंत) * भोर भयो भज श्रीजिनराज, सफल होहिं तेरे सब काज * ॥टेक॥ धन संपति मनवांछित भोग । सब विधि जान बने । संजोग ॥ भोर० ॥१॥ कल्पवृक्ष ताके घर रहै। कामधेनु । नित सेवा बहै। पारस चिंतामनि समुदाय, हितसों आय। मिलै सुखदाय ॥ भोर० ॥ २ ॥ दुर्लभतें सुलभ्य द्वै जाय। रोग शोग दुख दूर पलाय । सेवा देव कर मनलाय, विधन । १. उलटि मंगल ठहराय ।। भोर०॥३॥ डायनि भूत पिशाच ! न छलै । राजचोरको जोर न चलै ॥ जस आदर सौभाग्य प्रकाश, धानत सुरगमुकतिपदवास ।। भोर० ॥ १७-प्रभाती ( राग भैरों) । भोर भयो सब भविजन मिलकर, जिनवर पूजन आवो। * (जावो), अशुभ मिटावो पुण्य बढावो नैनन नींद गमावो । ॥ भोर० ॥ टेक ॥ तनको धोय धारि उजरे पट, शुद्ध । जलादिक लावो। बीतराग छवि हरखि निरखिकै, आग-1 मोक्त गुन गावो ॥ भोर भयो० ॥ १ ॥ शास्तर सुनो भनो । जिनवानी, तपसंजम उपजावो। धरि सरधान देवगुरु आ-1 *गम, सात तत्त्व रुचि लावो ॥ भोग भयो० ॥२॥ दुखित ! * जनकी दया ल्याय उर, दान चारविधि द्यायो। रागरोप तजि भजि जिनपदको, 'बुधजन' शिवपद पायो । भोर० ॥1 * * -- - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ वृहज्जैनवाणीसग्रह १८-आराधना पाठ. ( स्नान करते समय बोलना चाहिये) 1. मैं देव नितअरहंत चाहूं, सिद्धका सुमिरन करौं । मैसूर । गुरुमुनि तीनिपद ये, साधुपद हिरदय धरौ ॥ मै धर्म करुणामयई * जु चाहूं, जहां हिंसा रंच ना। मै शास्त्र ज्ञान विराग चाहूं, * जासुमें परपंचना ॥१॥ चौबीस श्रीजिनदेव चाहू, और। * देव न मन यसै । जिन वीस क्षेत्रविदेह चाहूं, चंदिते पातक नसै ॥ गिरनार शिखर समेद चाहूं, चंपापुर पावापुरी।। + कैलाश श्रीजिनधाम चाहूं, भजत भाजै भ्रमजुरी॥२॥ नव* तत्वका सरधान चाहूं, और तत्व न मन धरौ । षद्रव्यगुन * परजायं चाहूं,ठीक तासों भय हरों।। पूजा परम जिनराज चाहूं, और देव न हूं सदा । तिहुंकालकी मै जाप चाहूं, पाप नहि । लागै कदा ।। ३ ।। सम्यक्त दर्शन ज्ञान चारित, सदा चाहूं। । भावसों । दशलक्षणी मै धर्म चाहूं, महा हरख उछावसों। । सोलह जु कारन दुख निवारण, सदा चाहूं प्रीतिसों। मैं . चितअठाई पर्व चाहूं, महामंगल रीतिसों ॥ ४ ॥ मैं वेद चारों सदाचाहूं, आदि अन्त निवाहसों। पाये धरमके चार चाहूं, अधिक चित्त उछाहसों ॥ मै दान चारों सदा चाहूं. भवनवशि लाहो लहूं । अराधना मै चारि चाहूं, अन्तमें ये है । ही गहूं ॥५॥ भावना वारह जु भाऊं, भाव निरमल होत । हैं। मै व्रत जु बारह सदा चाहूं, त्याग भाव उद्योत हैं। प्रतिमा दिगंबर सदा चाहूं, ध्यान आसन सोहना । वसु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvwww. वृहज्जैनवाणीसंग्रह कर्मतै मैं छुटा चाहूं, शिवलहूं जहँ मोह ना ॥ ६॥ मैं साधु* जनको संग चाहूं, प्रीति तिनहीसों करों। मैं पर्वके उपवास चाहूं, अवर आरंभ परिहरों। इस दुक्ख पंचमकालमाही, कुल शरावक मैं लह्यो। अरु महाव्रत धरिसकों नाही, * निवल तन मैंने गह्यो ॥ ७ ॥ आराधना उत्तम सदा, चाई सुनो जिनरायजी । तुम कृपानाथ अनाथ 'धानत' दया करना न्याय जी ।। वसुकर्मनाश विकाश ज्ञानप्रकाश मोको * कीजिये । करि सुगतिगमन समाधिमरन सुभक्ति चरनन । दीजिये ॥८॥ १९-दृष्टाष्टकस्तोत्र ( दर्शनार्थ जातेहुये जबसे जिनमंन्दिर दोखने लगे तबसे इसका पाठ करना प्रारंभ कर दे) ____ दृष्टं जिनेंद्रभवनं भवतापहारी भव्यात्मनां विभवसंभव भूरिहेतुः । दुग्धाब्धिफेनधवलोज्ज्वलकूटकोटीनद्धध्वजप्रकरराजिविराजमानं ॥१॥ दृष्टं जिनेद्रभवनं भुवनैकलक्ष्मीमिद्धिवर्द्धितमहामुनिसेव्यमानं । विद्याधरामरवधूजनमुक्तदिव्यपुष्पांजलिमकरशोभितभूमिमागं ॥ २॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवासविख्यातनाकगणिकागणगीयमानं ।। नानामणिप्रचयभासुररश्मिजालव्यालीढनिर्मलविशालगवा* क्षजालं ॥३॥ दृष्टं जिनेंद्रभवनं सुरसिद्धयक्षगंधर्वकिन्नरकरा पितवेणुवीणा । संगीतमिश्रितनमस्कृतधारनादैरापूरितांबरतिलोरुदिगंतराल॥४॥ दृष्टं जिनेन्द्र भवनं विलसद्विलोलमाला* -- -- - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anna.100mAAAAAAAAI MAN MAANADHANNARAAMAA २४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * कुलालिललितालकविभ्रमाणं । माधुर्यवाद्यलयनृत्यविलास-1 नीनां लीलार्चलद्वलयनूपुरनादरम्यं ॥५॥ दृष्टं जिनेंद्रभवनं । मणिरत्नहेमसारोज्ज्वलैः कलशचामरदर्पणाद्यैः । सन्मंगलैः । सततमष्टशतप्रभेदैविभाजितं विमलमौक्तिकदामशोभं ॥६॥ दृष्टं जिनेद्रभवनं वरदेवदारुकर्पूरचंदनतरुष्कसुगंधिधूपैः ।। * मेघायमानगगने पवनामिघातचंचच्चलद्विमलकेतनतुंगशाल खादृष्टं जिनेंद्रभवनं धवलातपत्रच्छायानिमग्नतनुयक्षकुमारवृन्दैः ।दोधूयमानसितचामरपंक्तिभासं भामंडलद्युतियुतप्रतिमाभिरामं ।। ८ ॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं विविधप्रकारपुष्पोपहार रमणीयसुरत्नभूमिः । नित्यं वसंततिलकश्रियमादधानं । * सन्मगलं सकलचंद्रमुनींद्रवंधं ॥ ९ ॥ दृष्टं मयाघमणिकांचन । चित्रतुंगसिंहासनादिजिनविवविभूतियुक्तं । चैत्यालयं यद* तुलं परिकीर्तितं मे सन्मंगलं सकलचंद्रमुनींद्रवंद्यं ॥१॥इति। २०-मंदिरजीमें प्रवेश करनेकी विधि मदिरजीके वेदीगृहमें प्रवेश करते ही “ओं जय जय जय, निःसहि । निःसहि निःसहि" इसप्रकार उच्चारण कर नीचे लिखा अद्याप्टक स्तोत्र । बोलकर दर्शनपाठादि वोले। २१-अद्याष्टक स्तोत्र। अद्य मे सफलं जन्म नेत्रे च सफले मम । वामद्राक्षं यतो । * देव हेतुमक्षयसंपदः ॥ १॥ अद्य संसारगंभीरपारावारः । सुदुस्तरः । सुतरोऽयं क्षणेनैव जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ २॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमले कृते । स्नातोहं धर्मती Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -- - - vvvvvvvvvvvvvvvv ----- - वृहज्जैनवाणीसंग्रह २५ कथेषु जिनेंद्र तव दर्शनात्॥२॥अंध मे सफलं जन्म प्रशंस्तं सर्वमंगलं । संसारार्णवतीर्णोऽहं जिनेंद्र तवदर्शनात्॥४॥अवकर्माष्ट। कज्वालं विधूतं सकषायका दुर्गतेविनिवृत्तोहं जिनेंद्र तव दर्शनात ॥५॥अद्य सौम्या ग्रहाः सर्वे शुभाश्चैकादशस्थिताः। नष्टानि । विघ्नजालानि जिनेंद्र तव दर्शनात॥६॥अद्य नष्टो महाबंधः । कर्मणां दुःखदायकः । सुखसंग समापन्नो जिनेद्र तव दर्शनात् । ॥७॥अद्य काष्टकं नष्टं दुःखोत्पादनकारकं । सुखांमोधि निमग्नोऽहं जिनेंद्र तव दर्शनात् ॥८|| अब मिथ्यांधकारस्य। हिंता ज्ञानदिवाकरः । उदितो मच्छरीरेस्मिन् जिनेन्द्र तब-1 * दर्शनात् ॥९॥ अद्याहं सुकृती भूतो निधूताशेषकल्मषः। * भुवनत्रयपूज्योऽह जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ १० ॥ अद्याष्टकं * पठेद्यस्तु गुणानंदितमानसः। तस्य सर्वार्थसंसिद्धिर्जिनेन्द्र तब दर्शनात् ॥ ११॥ इति ॥ २२-नमस्कारमंत्र और दर्शनपाठ। णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं णमो आइरीयाणं । णमा उवज्झायाण, णमो लोए सबसाहूणं ॥१॥ चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं । सिद्ध मंगलं । साहू । मंगलं । केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं ॥ १ ॥ चत्तारि । * लोगुत्तमा-अरहंत लोगुतमा। सिद्ध लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥२॥ चत्तारि * शरणं पन्जामि-अरहंतसरणं पव्वजामि । सिद्धशरण पन्च- 4 ___ *-*- -* *- - * Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह जाभि । साहुसरणं पवजामि । केवलिपण्णत्तो धम्मोसरणं पव्वज्जामि । ओं झौ झौं खाहा ॥ wwwwww wwwww वर्तमान चौबीस तीर्थंकरोंके नाम (कवित्त ) ऋषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पद्म सुपास प्रभुचंद | पुहपदंत शीतल श्रेयांस प्रभु, वासुपूज्य प्रभु विमल सुछंद || स्वामि अनंत धर्मप्रभु शांति सु, कुंथु अरह जिन मल्लि अनंद | मुनिसुव्रत नमि नेमि पास, वीरेश सकल बंदों सुखकंद ॥ १ ॥ श्री ऋषभः १ अजितः २ संभवः ३ अभिनंदनः ४ सुमतिः ५पद्मप्रभः ६ सुपार्श्वः ७ चंद्रप्रभः ८ पुष्पदंतः ९शीतलः १० श्रेयांसः ११ वासुपूज्यः १२ विमलः १३ अनंतः १४धर्मः १५ शांतिः १६ कुंथुः १७ अरः १८ मल्लिः १९ मुनिसुव्रतः २० नमिः २१ नेमिः २२ पार्श्वनाथः २३ महावीर ः २४ वर्तमानकालसंबंधिचतुर्विंशतितीर्थंकरेभ्यो नमोनमः ॥ इति इसप्रकार बोलकर साष्टांग नमस्कार करना चाहिये । नमस्कारके पश्चात् पूजनकेलिये चावल चढ़ाना हो, तो नीचे लिखे पद्य तथा मत्र पढ़कर चढ़ावै । यह भवसमुद्र अपार तोरण, के निमित्त सुविधि ठई। अति दृढ परमपावन जथारथ भक्तिवर नौका सही || उज्ज्वल अखंडित सालि तंदुल, पुंज धरि त्रयगुण जचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ||१|| तंदुल सालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन । जासों पूजों परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ १ ॥ 个个产边 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www वृहज्जैनवाणीसंग्रह २७ wwww vv wwww ५ wwwwwwwwww औ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदनाप्तये अक्षतान् निर्वपामीति wwwwww स्वाहा ॥ १ ॥ यदि पुष्पोंसे पूजन करना हो तो नीचे लिखे पद्य और मंत्र पढ़कर चढ़ावे । 1 जे विनयवंत सुभव्य उर अंबुज प्रकाशन भान हैं ॥ जे एकमुखचारित्र भाषत, त्रिजगमाहिं प्रधान हैं । लहि कुंदकमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसों बचूं | अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं || २ || विविधभांति परिमलसुमन, अमर जास आधीन । तांसों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ २ ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ यदि किसीको लोंग, बादाम इलायची या कोई प्रासुक फल चढ़ाना हो तो नीचे लिखे पद्य और मंत्र पढ़कर चढ़ावे । 1 लोचन सुरसना घ्राण उर उत्साहके करतार हैं । मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फल गुण सार हैं || सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, सकल अम्रतरस सचूं | अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरुनिरग्रंथ नित पूजा रचूं || ३ || जे प्रधान फलफलविष, पंचकरण रसलीन | जासौं पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥ ३ ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ - -- .wor -5-22- 25 K K वृहज्जैनवाणीसंग्रह ___ यदि किसीको अर्थ चढ़ाना हो, तो नीचे लिखे पद्य व मंत्र । * बोलकर चढाना चाहिये। र जल परम उज्वल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूं । वर । धूप निर्मल फल विविध, बहु जनमके पातक हरूं । इह ! * भांति अर्थ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मधु । अरहंत * श्रुतसिद्धांत गुरुनिरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥ ४ ॥ वसुविधि * अर्घ सँजोयके, अतिउछाह मनकीन । जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥४॥ . ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽनयंपदप्राप्तये अधं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ २३--दर्शनदशक छप्पय ॐ देखे श्रीजिनराज, आज सब विघन नशाये । देखे श्रीजिनराज, आज सब मंगल आये । देखे श्रीजिनराज काज करना कछु नाहीं । देखे श्रीजिनराज, हौंस पूरी मनमाही॥ * तुम देखे श्रीजिनराज पद, भौजल अंजुलिजल भया । * चिंतामनिपारसकल्पतरु, मोहसबनिसों उठि गया ॥१॥ देखे श्रीजिनराज, भाज अब जाहिं दिसतर। देखे श्रीजिनराज, काज सब होय निरंतर ॥ देखे श्रीजिनराज, राज मनवांछित करिये । देखे श्रीजिनराज नाथ. दुख कबहुं न । । भरिये॥ तुम देखे श्रीजिनराजपद, रोमरोम सुख पाइये। धनि आज दिवस धनि अव घरी, माथ नाथकों नाइये ॥२॥ धन्य धन्य जिनधर्मकर्मको छिनमें तोरै । धन्य धन्य । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ..... . *** * * * * * बृहज्जैनवाणीसंग्रह जिनधर्म परमपदसौ हित जोरै ॥ धन्य धन्य जिनधर्म भर्मको मूल मिटावै । धन्य धन्य जिनधर्म शर्मकी राह बतावै ॥ जग धन्य धन्य जिनधर्म यह, सो परगट । तुमने किया। भविखेत पापतपतपतको, मेघरूप है सुख। * दिया ॥३॥ * तेजसरसम कहूं,तपत दुखदायक मानी । कांति चंदसम कहूं कलंकित मूरति मानी । वारिधिसम गुण कहूं, खारमें कौन मलप्पन ॥ पारससम जस कहूं, आपसम करै न परतन ॥ इन आदि पदारथ लोकमें, तुमसमान क्यों * दीजिये। तुम महाराज अनुपमदसा, मोहि अनूपम कीजिये ॥४॥ तब विलंब नहिं कियो, चीर द्रोपदिको बाढ्यो। तब विलंब नहिं कियो, सेठ सिंहासन चाढ्यो । तब विलंब नहिं कियो, सीय पावकतै टारयो । तब विलंब नहिं कियो, नीर मातंग उवारयो । इहिविधि अनेकदुख * भगतके, चूर दूर किय सुख अवनि । प्रभु मोहि दुःख नासनिविषै, अब विलंब कारण कवन ॥५॥ कियो भौनतै गौन, मिटी आरति संसारी । राह आन तुम ध्यान, फिकर भाजी दुखकारी। देखे श्रीजिनराज, पाप मिथ्यात विलायो । पूजा श्रुति बहुभगति, करत सम्यकगुन । * आयो । इस मारवाडसंसारमें कल्पवृक्ष तुम दरश है । प्रभु मोहि देहु भौ भौ विषै, यह वांछा मन सरस है ॥६॥ जैजै श्रीजिनदेव, सेवतुमरी अपनाशक । जै जै श्रीजिन**-- -- - - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RRRRRRRRRRR Khan vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv ४.३० बृहज्जैनवाणीसग्रह * देव भेव षटद्रव्य प्रकाशक ।। जय जय श्रीजिनदेव, एक जो * पानी ध्यावै । जै जै श्री जिनदेव, टेव अहमेव मिटाबै । जै जै । श्रीजिनदेव प्रभु, हेय कामरिपु दलनको । हूजै सहाय संघ रायजी, हम तयार सिवचलनकौ ॥ * जैजिनंद आनंदकंद, सुरदवंद्यपद । ज्ञानवान सब जान, * सुगुन मनिखान आनपद ॥ दीनदयाल कृपाल, भविक । भोजाल निकालक । आप बूझ सब सूझ, गूझ नहिं बहुजन पालक । प्रभु दीनबंधु करुनामयी, जगउधरन तारनतरन। दुखरासनिकास खदासकौं, हमैं एक तुमही सरन ॥८॥ देखनीक लखिरूप, बंदिकरि चंदनीक हुव । पूजनीक पद का पूज, ध्यानकरि ध्यावनीक धुव । हरष बढाय बजाय, गाय * जस अंतरजामी । दरब चढाय अघाय, पाय संपति निधि स्वामी ॥ तुमगुण अनेक मुख एकसों कौन भांति वरनन । करौं । मनवचनकायबहुप्रीतिसौं, एक नामहीसौं त ॥९॥ * चैत्यालय जो करै, धन्य सो श्रावक कहिये । तामै प्रतिमा *धरै, धन्य सो भी सरदहिये ॥जो दोनों विस्तरै, संघनायक * ही जानौ । बहुत जीवको धर्म, मूलकारन सरधानौ । इस * दुखमकाल विकरालमें, तेरो धर्म जहां चले। हे नाथ काल । चौथो तहां, ईति भीति सवही टलै॥१०॥ * दर्शन दशक कवित्त, चित्तसों पढे त्रिकालं । प्रीतम सन* मुख होय, खोय चिंता गृहजालं॥ सुखमें निसिदिन जाय, अंत सुरराय कहावै । सुर कहाय शिव पाय, जनम मृति । R -RS- 2525-2 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३१ जरा मिटावै ॥ धनि जैनधर्म दीपक प्रगट, पाप तिमिर छयकार है । लखि साहिबराय सुआँखसों, सरधातारनहार है ॥ ११ ॥ इति । २४ - दर्शनस्तुति rain AAAAAA छप्पय तुव जिनेन्द्र दिहियो, आज पातक सब भज्जे । तुव जितेंद दिट्ठियो, आज वैरी सब लज्जे || तुब जिनंद दिडियो, आज मैं सरवस पायो । तुव जिनेंद्र दिडियो आज चिंतामणि आयौ ॥ जै जै जिनंद त्रिभुवन तिलक आज काज मेरो सरयो । कर जोरि भविक विनती करत, आज सकल भवदुख टरचो ॥ १ ॥ तुव जिनंद मम देव सेव मैं तुमरी करिहौ । तुव जिनिंद मम देव, नाथ तुम हिरदै धरिहौ । तुव जिनंद मम देव, तुही साहिब मै बंदा । तुव जिनंद मम देव, मही कुमुदनि तुम चंदा ॥ जै जै जिनंद भवि कमल रवि, मेरो दुःख निवारिकै । लीजै निकाल भव जालतैं, अपनो भक्त विचारकै ॥ २ ॥ इति ॥ २५- श्रीदर्शन पचीसी तुम निरखत मुझको मिली, मेरी संपति आज । कहां चक्र'वतिसंपदा, कहाँ स्वर्ग साम्राज ॥ १ ॥ तुम वदत जिनदेवजी, नित नव मंगल होय । विघ्न कोटि ततछिन टरै, लहहिं सुजस सब लोय ॥ २ ॥ तुम जाने विन नाथजी, एक स्वासके माहिं । जन्ममरण अठदश किये, साता पाई 1 不夺 泰产出个些 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-*- - * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३५ ॥ .. ... .. .t दोहा-अगनिमांहि परिमलदहन, चंदनादि गुण लीन। जासों पूर्जू परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥ ओं हों देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। ३०-दौलतरामकृत स्तुति। * दोहा-सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्दरसलीन । ___सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरज रहसविहीन ॥ . ऐ जय वीतराग विज्ञानपूर । जय मोहतिमिरको हरनसर ॥ जय ज्ञान अनन्तानन्तधार । ग सुख बीरजमण्डित अपार * ॥१॥ जय परमशांति मुद्रा समेत । मविजनको निज अनु भूति हेत । भविभागनवसजोगेवशाय । तुमधुनि है सुनि विभ्रम नसाय ॥३॥ तुम गुण चितत निजपरविवेक । प्रगटै । विघटै आपद अनेक ।। तुम जगभूषण दूषणवियुक्त । सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥४॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप । * परमात्म परम पावन अनूप।। शुभअशुभविभाव अभाव कीन स्वाभाविकपरिणतिमयअछीन ॥ ५॥ अष्टादशदोषविमुक्त धीर । सुचतुष्टयमय राजत गभीर ।। मुनिगणघरादि सेवत * महंत । नवकेवललब्धिरमा धरंत ॥ ६॥ तुम शासन सेय । अमेय जीव । शिव गए जाहिं जैहैं सदीव । भवसागरमै * दुख छार वारि। तारनको अवरन आप टारि ॥७॥ यह लखि निज दुखगदहरणकाज । तुमही निमित्तकारण इलाज, जाने तातें मैं शरण आय । उचरों निज दुख जो चिर लहाय *HA RT-5 * Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HMMM. * AKKAR -* १ वृहज्जैनवाणीसंग्रह | मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप। अपनाये विधिफल * पुण्य पाप । निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्टता। * इष्टि ठान ।।९।। आकुलित भयो अज्ञान धारि। ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि ॥ तनपरणपतिमें आपो चितार।। * कवहूं न अनुभयो स्वपदसार ॥ १० ॥ तुमको विन जाने जो कलेश। पाये सो तुम , जानत * जिनेश । पशुनारकनरसुरगतिमझार । भव धर धर मरयो । * अनंत वार ॥११।। अब काललब्धिवलत दयाल। तुम दर्शन पाय भयो खुश्याल || मन शांत भयो मिटि सकल द्वंद ।। चाख्यो स्वातमरस दुखनिकंद ॥१२॥ तातै अब जैसी करहु । नाथ । विछुरै न कभी तुअ चरण साथ ॥ तुम गुणगणको नहिं छेव देव । जग तारनको तुअ विरद एव ॥१३॥ आ तमके अहित विषय कषाय ! इनमें मेरी परिणति न जाय ॥ । मै रहूं आपमें आप लीन । सो करो होउ ज्यों निजाधीन। ॥१४॥ मेरे न चाह कछु और ईश । रत्नत्रयनिधि दीजै मुनीश ॥ मुझ कारजके कारन सु आप। शिव करहु, हरहु मम मोहताप ||१५|| शशि शांतकरन तपहरन हेत । स्वयमेव * तथा तुम कुशल देत॥ पीयतपीयूष ज्यों रोग जाय । त्यों तुम * अनुभवतें भव नशाय ॥१६॥ त्रिभुवन तिहुंकाल मंझार * कोय । नहिं तुम विन. निज सुखदाय होय ॥ मो उर यह * निश्चय भयो आज । दुखजलधि उतारन तुम जिहाज ॥१६॥ * दोहा-तुमगुणगणमणि गणपती, भणत न पावहिं पार। 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमूं त्रियोग संभार ॥ RAKASKRIS K R -* Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Miwarwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww * - - - * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३७ ३१-बुधजनकृत स्तुति। प्रभु पतितपावन मैं अपावन, चरण आयो शरणजी। यो । विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरनजी ॥ तुम ना । पिछान्या आनमान्या, देव विविध प्रकारजी। या बुद्धिसेती निज न जाण्या, भ्रम गिण्या हितकारजी ॥ १ ॥ भवविकट वनमें करम बैरी, झानधन मेरो हरयो । तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट । * होय, अनिष्टगति धरतो फिरयो ॥ धन घड़ी यो धन दिवस योही, धन जनम मेरो भयो । अब भाग मेरो उदय आयो, में दरश प्रभुको लखि लयो ॥२॥ छवि वीतरागी नगनमुद्रा, दृष्टि नासापै धरै । बसु प्रातिहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रवि छविको हरै ॥ मिटगयो तिमिर मिथ्यात मेरो, उदयरवि * आतम भयो । मो उर हरष ऐसो भयो, मनु र चिन्तामणि । लयो ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, बीनऊं तव चरनजी सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनो तारन तरनजी ॥ जानू । नहीं सुरचास पुनि नरराज परिजन साथजी ।"बुध"जाचहूं तुव भक्ति भव भव दीजीये शिवनाथजी ।। ४।' ३२-भागचन्द्रकृत स्तुति (१) । दोहा-विश्वभाव व्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप । ___ ज्ञानानंदमयी सदा, जयवंतो जिनभूप ॥ १॥ छंद चाल। (१४ मात्रा) सफली मम लोचनद्वंद । देखत तुमको जिनचंद ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जनवाणी वृहज्जैनवाणीसंग्रह karn. . . 14 . MananAAAAAn मम तन मन शीतल एम । अम्रतरस सींचत जेम ॥२॥ .. तुम बोध अमोघ अपारा । दर्शन पुनि सर्व निहारा ॥ * आनंद अतिंद्रिय राजै ॥ बल अतुल स्वरूप न त्याजै ॥३॥ 1 इत्यादिक स्वगुन अनंता । अंतर्लक्ष्मी भगवंता॥ चाहिज * विभूति बहु सोहै । वरनन समर्थं कवि को है ॥ ४॥ तुम वृच्छ अशोक सुस्वच्छ । सव शोकहरनको दच्छ॥ तहँ चंचरीक गुंजारै । मानो तुव स्तोत्र उचारै ॥५॥ शुभरत्न मयूष विचित्र । सिंहासन शोभ पवित्र ॥ तहँ वीतराग छवि सोहै । तुम अंतरीक्ष मनमोहै ॥६॥ वर कुन्दकुन्द-अवदात । चामर ब्रज सर्व सुहात ॥ तुम ऊपर मघवा ढारै । धरि भक्ति भान अघटोरै ।। ७ ।। मुक्ताफल माल समेत । तुम ऊर्च र छत्रत्रयसेव ॥ मानो तारान्वित चंद । त्रयमूर्तिधरी दुतिवृन्द ॥८॥ शुभ दिव्य पटह बहु बाजै । अतिशयजुत अधिक । विराजै ।। तुमरौ जस घोकै मानौ । त्रैलोक्यनाथ यह जानौ ॥९॥ * हरिचंदन सुमन सुहाये । दशदिशि सुगंध महकाये । अलि पुंज विगुंजत जामै । शुभ वृष्टि होत तुम सामैं ॥ १० ॥ * भामंडलदीप्ति अखंड । छिप जात कोटिमार्तड ॥ जग-लोचनको सुखकारी। मिथ्यातमपटल निवारी ॥ ११॥ तुमरी दिव्यध्वनि गाजै । विन इच्छा। * भविहितकाजै ।। जीवादिक तत्त्व प्रकाशी । भ्रमतम हर सूर्यप्रकाशी ॥ १२॥ इत्यादि विभूति अनंत । वाहिन । अतिशय अरहंत ॥ देखत ममभ्रमतम भागा। हित अहित ! Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - -- -- ---- ----- बृहज्जैनवाणीसंग्रह Ah * ज्ञान उर जागा॥ १३॥ तुम सब लायक उपगारी। मैं | दीन दुखी संसारी ॥ तातें सुनिये यह अरजी । तुम शरन । लियो जिनवरजी ॥ १४ ॥ मै जीवद्रव्य विन अंग। लाग्यो । अनादि विधि संग ।। सास निमित पाय दुख पाये । हम । * मिथ्यातादि महाये ॥ १५ ॥ निजगुन कवहूं नहिं भाये ।। सब परपदार्थ अपनाये । रति अरति करी सुखदुख मैं ॥ । हकरि निजधर्मविप्मुख मैं ॥१६॥ परचाह दाह नित दाह्यो। * नहिं शांतिसुधा अवगाह्यो ॥प्रभु नारकनरस्वरतिगमें । चिर । भ्रमत भयौ भ्रममतमें ॥ १७ ॥ कीने बहु जामन मरना। * नहिं पायौ सांचौ शरना ॥ अव भाग उदय मो आयौ । तुम के दर्शन निमल पायौ ॥ १८ ॥ अति शांत भयो उर मेरो। बाढयो उछाह शिवकेरो पर विषयरहित आनंद । निज रस चाख्यो निरद्वंद ॥ १९ ॥ मुझ कामतने कारन हो । तुम । देव तरन तारन हो ॥ तातै ऐसी अव कीज्यो । तुम चरन भक्ति मोहि दीज्यो ॥२०॥ दृगज्ञान चरन परिपूर। पाऊं निश्चय भवचूर ।। दुखदायक विषय कषाय । इनमै परनति ॐ नहिं नाय ॥२१॥ सुररान समान न चाहौ । आतम समा-1 घि अवगाहो ॥ अरु इच्छा हो मनमानी। पूरी सब केवल ज्ञानी ॥२२॥ * दोहा-गनपति पार न पावहीं, तुमगुनजलधि विशाल । __'भागचंद' तुव भक्ति ही' करै हमें वाचाल ॥ २३ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३३ - भागचन्द्रकृत स्तुति (२) हरिगीतिका (२८ मात्रा ) तुम परमपावन देव जिन अरि, रजरहस्य विनाशनं । तुम ज्ञान- हग जलवीच त्रिभुवन, कमलपत प्रतिभासनं ॥ आनंद निजज अनंत अन्य अचिंत संतत परनये । बल अतुलकलित स्वभावतै नहिं, खलितगुन अमिलित थये ॥ सब रागरुषहन परम श्रवन, स्वभाव घननिर्मल दशा || इच्छारहित भविहित खिरत वच, सुनतही भ्रमतमनशा । एकांतगहनसुदहन स्यात्पद, वहनमय निज परदया । जाके प्रसाद विषाद विन, मुनिजन सपदि शिवपद लहा ॥ २ ॥ भूषनत्रसनसुमनादिविनतन, ध्यानमयमुद्रा दिपै । नासाग्रनयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै ॥ पुनि वदननिरखत प्रशमजल, वरखत सुहरखतउर धरा । बुधि स्वपर परखत पुन्य आकर, कलिकलिल दरखत जरा ||३|| इत्यादि बहिरंतर असाधारन, सुविभव निधान जी । इंद्रादिवंदपदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी | मैं चिरदुखी परचाहतें, तपधर्म नियत न उर धरयो || परदेव सेव करी बहुत, नहि काज एकहु तहँ सरयो || ४ || अब (भागचंद ) उदय भयौ मैं, शरन आयो तुम-तनी | इक दीजिये बरदान तुम जस, स्वपददायक बुधमनी ॥ परमाहिं इष्ट-अनिष्टमति-तजि, मगन निजगुनमें रहीं। हग-ज्ञान- चरन समस्त पाऊं, भागचंद, न पर चहौं ॥ ५ ॥ 6-4-46-4742----- Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . .. . ... हज्जैनवाणीसंग्रह ४१ ३४-भूघरकृत स्तुति । त्रिभुवनगुरुस्वामीजी, करुनानिधिनामीजी। सुनि अंतरजामी, मेरी बीनतीजी ॥ १ ॥ मैं दास तिहाराजी दुखिया । बहु भाराजी । दुख मेटनहारा तुम जादौपतीजी ॥२॥ भरम्यो संसाराजी, चिरविपति-भंडाराजी। कहिं सारन । सार, चहंगति डोलियाजी ॥ ३ ॥ दुखमेरु समानाजी, सुख सरसों-दानाजी । अब जान धरि ज्ञानतराजू तोलियाजी । hथावर-तन पायाजी. बस नाम धरायाजी । कृमि कुंथु ॥ कहाया, मरि भंवरा हुवाजी ।। पशुकाया सारीजी, नानाविषधारीजी । जलचारी थलचारी, उडन पखेरुवाजी ॥६॥ नरकनके माहीजी, दुखओर न काहीजी । अति घोर जहां है, सरिता खारकीनी ॥ ७ ॥ पुनि असुर संहारैजी, निज | वैर विचारंजी । मिल बांधै अरु मारै, निरदय नारकीजी ॥ ८॥ मानुष अवतारंजी, रह्यो गरम मझारैजी । रटि रोयो । जनमत, विरियां में घनोजी ।। ६ ।। जोवन तन रोगीजी, के विरह वियोगी जी। फिर भोगी बहुविध, विरधपनाकी वेदना जी ॥ १० ॥ सुरपदवी पाईजी, रंभा उरलाईजी ।। तहां देखि पराई, संपति झूरियोजी ॥ ११ ॥ माला मुरझा-10 नीजी, जब आरति ठानी जी। थिति पूरन जानी, मरत विसरियोजी॥ १२ ॥ या दुख भव केरा जी, भुगते बहुतेराजी । प्रभु ! मेरे कहते पार न है कहीं जी ॥ १३ ॥ मिथ्यामदमाताजी, चाही नित साताजी । सुखदाता जग-1 *--- --- -- --- Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * SE KASS- * ४२ wwvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv . बृहज्जैनवाणीसंग्रह त्राता , तुम जाने नहीं जी ॥ १४ ॥ प्रभु भागनि पायेजी, गुन श्रवण सुहाये जी । तकि आया सब सेवककी, विपदा हरौंजी ॥ १५॥ भववास वसेराजी, फिर होय न फेराजी। सुख पावै जन तेरा, स्वामी सो करौंजी ॥ १६ ॥ तुम शरन । * सहाईजी, तुम सज्जन भाई । तुम माई तुम्हीं बाप दया । मुझ लीजियेजी ॥१७॥ भूधर करजोरै जी, ठाडो प्रभु ओरै । जी निजदास निहारौ, निरमय कीजियेजी ॥१८॥ ३५-भूधर कृत दर्शन स्तुति पुलकंत नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इंदीवरो। दुर्बुद्धि । चकवी विलख विछुरी, निबिड मिथ्यातम हरो ।। आनंद र अंबुधि उमगि उछरयो, अखिल आतप निरदले । जिनवदन * पूरनचंद्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥१॥ मम आज . आतम भयो पावन, आज विघ्न विनाशिया । संसारसागर । नीर निवड्यो, अखिल तत्त्व प्रकाशिया । अब भई कमला। किंकरी मम, उभय भव निर्मल थये । दुख जरयो दुर्गति । ॐ वास निवरयो, आज नव मंगल भये ॥२॥ मनहरन मूरति । । हेरि प्रभुकी, कौन उपमा लाइये।मम सकल तनके रौम हुलसे, हर्षओर न पाइये ॥ कल्याणकाल प्रतच्छ प्रभुको, लखें जे* * सुरनर घने। हित समयकी आनंद महिमा, कहत क्यों मुखसों । वने ॥३॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको. और वांछा। ना रही। मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंक मानों निधिलही * ---- --- * Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ------ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * अब होऊ भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर भूधरदास विनवै, यही वर मोहि दीजिये ॥४॥ ३६-दुःखहरण विनती (शेरको रीतिमें तथा और और रागगिनियोंमें भी बनती है)। श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुमारा वाना है। मत मेरी बार अबार करो, गेहि देहु विमल कल्याना है ॥ टेक ॥ त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो, तुमसौ कछु। * बात न छाना है । मेरे उर आरत जो वरतै, निहचै सब सो * तुम जाना है ।। अवलोक विथा मत मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है। हो राजिवलोचन सोचविमोचन, मैं * तुमसौ हित ठाना है। श्री० ॥ १ ॥ सब ग्रन्थनिमें निरग्रं थनिने, निरधार यही गणधार कही । जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक ज्ञानमही ॥ यह बात हमारे कान परी, तब आन तुमारी सरन गही। क्यों मेरी बार *विलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही ॥ श्री० ॥२॥ काहूको भोग मनोग करो, काहूको स्वर्गविमाना है ।काहूको नागनरेशपती, काहूको ऋद्धि निधाना है ॥ अब मोपर। क्यों न कृपा करते, यह क्या अंधेर जमाना है । इनसाफ करो मत देर करो, सुखवृन्द भरो भगवाना है ॥ श्री० * ॥३॥ खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों आन पुकारा है। तुम ही समरस्थ न न्याव करो, तब वंदेका क्या चारा * है। खल घालक पालक बालकका नृपनीति यही जगसारा। KRAK -45-5-RRRRRRY Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v v vvvvv ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ Shcitch ४४ हज्जैनवाणीसंग्रह है। तुम नीतिनिपुन त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा र है। श्री० ॥४॥ जबसे तुमसे पहिचान भई, तबसें तुमही* को माना है । तुमरे ही शासनका स्वामी, हमको शरना । सरधाना है। जिनको तुमरी शरनागत है, तिनसौं जम* राज डराना है । यह सुजस तुम्हारे सांचेका, सब गावत वेद पुराना है ।। श्री० ॥५॥ जिसने तुमसे दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुख हाना है । अब छोटा मोटा नाशि तुरत, । सुख दिया तिन्हें मनमाना है ॥ पावकसों शीतल नीर किया, १ औ चीर वढा असमाना है । भोजन था जिसके पास नहीं, * सो किया कुवेर समाना है। श्री० ॥६॥ चिंतामन पारस , कल्पतरू, सुखदायक ये परधाना है। तब दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना है ॥ तुम भक्तनको सुरइंदपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है । क्या बात कहों विस्तार बडी, वे पावै मुक्ति ठिकाना है ॥ श्री० ॥ ७॥ गति चार चुरासी लाखवि, चिन्मूरत मेरा भटका है । हो दीनबंधु * * करुणानिधान, अवलो न मिटा वह खटका है । जब जोग मिला शिवसाधनका, तब विघन कर्मने हटका है । तुम विधन हमारे दर करो सुख देहु निराकुल घटका है ।। श्री N८॥ गजग्राहग्रसित उद्धार लिया, ज्यों अंजन तस्कर तारा। * है। ज्यों सागर गोपदरूप किया, मैनाका संकट टारा है। ज्यों सूलीते सिंहासन औ, वेडीको काट बिडारा है। त्यौं । । मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकू आस तुम्हारा है ॥ श्री Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * K-RRRRRअर- 5 वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ॥ ६ ॥ ज्यों फाटक टेकत पाय खुला, औ सांप सुमन कर। . डारा है। ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, बालकका जहर उतारा है । ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लक्ष्मीसुख । । विस्तारा है । त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकू आस * तुमारा है ॥श्री० ॥१०॥ यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिनमूरति आप अनंतगुनी, नित । शुद्धदंशा शिवथाना है ॥ तद्दपि भक्तनकी भीति हरो, सुख * देत तिन्हे जु सुहाना है। यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का, । क्या पावै पार सयाना है ॥श्री० ॥११॥ दुखखंडन श्रीसुख मंडनका, तुमरा मन परम प्रमाना है । वरदान दया जस * कीरतका, तिहुँलोकधुजा फहराना है, कमलाकरजी! * कमलाकरजी ! करिये कमला अमलाना है। अब मेरि विथा । * अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है ॥श्री० ॥१२॥ हो दीननाथ अनाथहित, जन दीन अनाथ पुकारी है। उद* यागत कर्मविपाक हलाहल, मोह विथा विस्तारी है। ज्यों * आप और भवि जीवनकी, ततकाल विथा निरवारी है। । त्यों 'वृंदावन' यह अर्ज करै। प्रभु आज हमारी बारी है ॥१३॥ ३७-अरहतस्तुति । दोहा-जासु धर्मपरभावसों, संकट कटत अनंत । मंगलमूरति देव सो, जैवतो अरहंत ॥ १॥ .. हे करुणानिधि सुजनको, कष्टविषै लखि लेत। तजि विलंब दुख नष्ट किय, अब विलंब किह हेत ॥२॥ । पदपद-तब विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रजताचल।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. हमनवाणीसंग्रह है।हो॥१४॥ जिस काल कथंचित अस्ति कही, तिस काल कथंचितताही है। उभयातमरूप कथंचित सो, निरवाच । कथंचित नाही है। पुनि अस्तिअवाच्य कथंचित त्यों, वह नास्तिअवाच्य कथाही है। उभयातमरूप अकथ्य । । कथंचित, एक ही काल सुमाही है । हो० ॥१४॥ यह सात सुभंग सुभावमयी, सब वस्तु अभंग सुसाधा है। परवादि। । विजय करिवे कहँ श्रीगुरु, स्यादहिवाद अराधा है। सर वज्ञप्रतच्छ परोच्छ यही, इतनो इत भेद अबाधा है। 'वृन्दावन' सेवत स्यादहिवाद, कटै जिसतै भववाधा है। हो करुणासागर देव तुमी, निर्दोष तुमारा वाचा है। तुमरे । वाचामें हे स्वामी, मेरा मन सांचा राचा है ॥ १५॥ ३९.-संकटमोचन विनती शैर-हो दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी । यह मेरी विथा क्यों न हो बार क्या लागी।।टेका। मालिक हो दो जहांनके जिनराज आपही। ऐवो हुनर हमारा कुछ तुमसे छिपा नहीं । जानमें गुनाह मुझसे बन गया सही। ककरीके * चोरको कटार मारिये नहीं । हो० ॥१॥ दुखदर्द दिलका । * आपसे जिसने कहा सही। मुश्किल कहर वहरसे लिया है। । भुजा गही । जस वेद और पुरानमें प्रमान है यही । आनंद-1 * कंद श्रीजिनंद देव है तुही । हो० ॥२॥ हाथीपै चढ़ी। जाती थी सुलोचना सती । गंगामें ग्राहने गही गजराजकी। गती। उस वक्तमें पुकार किया था तुम्हें सती । भय टारके। *HEREKKERS12424 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAAPnAA MARANARAAAAAAAAAAAANAANNA हज्जैनवाणीसंग्रह उवार लिया हे कृपापती ॥हो० ॥३॥ पावक प्रचंड कुंडमें, उमंड जबरहा। सीतासे शपथ लेनेको तब रामने कहा। * तुम ध्यान धार जानकी पग धारती तहां । तत्काल ही सर । । स्वच्छ हुआ कॉल लहलहां होता। जब चीर द्रोपदीका दुःशासने था गहा । सबही सभाके लोग थे कहते हहा* हहा ।। उस वक्त भीर पीरमें तुमनें करी सहा । परदा ढका * सतीका सुजस जक्तमें रहा ॥ हो० ॥ ५ ॥ श्रीपालको सागरविषजब सेठ गिराया। उनकी रमासों रमनेको आया वो बेहया । उस वक्त के संकटमें सती तुमको जो ध्याया। दुखदंदकंद मेटके आनंद बढाया ॥हो० ॥६॥ हरिषेनकी माताको जहां सौत सताया । रथ जैनका तेरा चलै पीछे यों * बताया ॥उस वक्त के अनसनमें सती तुमको जो ध्याया। चक्रीस हो सुत उसकेने रथ जैन चलाया होणासम्यक्तशुद्ध शीलवती चंदना सती, जिसके नगीच लगतीथी जाहिर रती रती। बेरीमें परी थी तुम्हें जब ध्यावती हती। तब वीर धीरने हरी दुखदंदकी गती ॥हो० ॥ ८॥ जब अंजना सतीको हुआ गर्म उजारा । तब सासने कलंक लगा घरसे निकारा ॥ बन वर्गके उपसर्गमें तब तुमको चितारा। प्रभु भक्तव्यक्ति जानिके भय देव निवारा हो०॥९॥ सोमासे । * कहा जो न सती शील विशाला। तो कुंभ निकाल भला! नाग जु काला ॥ उस वक्त तुम्हें ध्यायके सती हाथ जब डाला। तत्काल ही वह नाग हुआ फूलकी माला ॥ हो । *2 - 6-57-75 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwww * FR- RH A RY । ५२ . बृहज्जैनवाणीसंग्रह २ 1॥१०॥जब कुष्ट रोग था हुआ श्रीपालराजको । मैना सती । तब आपको पूजा इलाजको । तत्काल ही सुंदर किया श्रीपाल राजको। वह राजरोग भाग गया मुक्तराजको ॥ हो । ॥ ११॥ जब सेठ सुदर्शनको मृषा दोष लगाया। रानीके । कहे भूपने सूलीपै चढाया। उस वक्त तुम्हें सेठने निज ध्या1 नमें ध्याया। सूलीसे उतारुस्को सिंहासनपै बिठाया ॥ हो है ॥ १२ ॥ जब सेठ सुधन्नाजीको वापीमें गिराया। ऊपर से दुष्ट फिर उसे वह मारने आया। उस वक्त तुम्हे सेठने दिल । अपनेमें ध्याया। तत्कालही जंजालसे तब उसको बचाया। हो० ॥१३॥ इक सेठके घरमें किया दारिद्रने डेरा । भोजनका ठिकाना मि न था सांझ सवेरा । उस वक्त तुम्हे सेठने । जब ध्यान में घेरा । घर उसके तब कर दिया लक्ष्मीका * बसेरा ॥ हो० ॥१४॥ बलि बादमें मुनिराज सों जब पार न । पाया। तब रातको तलवार ले शठ मारने आया । मुनिराजने निजध्यानमें मन लीन लगाया। उसवक्त हो प्रत्यक्ष तहां * देव बचाया॥हो० ॥१५॥ जब रामने हनुमंतको गढलंक * पठाया। सीताके खबर लेनेको सहसैन्य सिधाया ॥ मग बीच दो मुनिराजकी लख आगमें काया । झठ वारि मूशल1 धारसे उपसर्ग बुझाया ॥ हो० ॥१६॥ जिननाथहीको माथ। * नवाता था उदारा। धेरेमें पडा था वह कुलिश करण विचारा। * उस वक्त तुम्हें प्रेमसे संकटमें चितारा । रघुबीरने सब पीर । तहां तुरत निवारा ॥ हो० ॥१७॥ रणपाल कुंवरके पडीथी। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- ---- -154 • वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५३ aorminar AnAAAAAAAnnanohnAAAAAAAAAAAAAN NANAAAAAAnamon. पांव में बेरी । उस वक्त तुम्हें ध्यानमें ध्याया था सवेरी ॥ तत्काल ही सुकुमालकी सब झड पडी बेरी । तुम राजकुँवरकी सभी दुखदंद निवेरी ॥ हो० ॥१८॥ जब सेठके नंदनको डसा नाग जु कारा। उस वक्त तम्हें पीरमें धर धीर * पुकारा ।। ततकाल ही उस बालका विष भूरि उतारा ।। वह जाग उठा सोके मानों सेज सकारा हो०॥ १९॥ मुनिक मानतुंगको दई जब भूपने पीरा । तालेमें किया बंद भरी। लोहजजीरा । मुनिईशने आदीशकी थुति की है गंभीरा।" चक्रेश्वरी तब आनिके सब दूरकी पीरा हो॥२०॥ शिव+ कोटिने हट था किया सामंतभद्रसों ॥ शिवपिंडकी चंदन । करौं शंकों अभद्रसों ॥ उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भावभद्रॐ सो । जिनचंद्रकी प्रतिमा तहां प्रगटी सुभद्रसों हो॥२१॥ सूवेने तुम्हें आनिक फलं आम चढाया। मेंढक ले चला। फूल भरा भक्तिका भाया ॥ तुम दोनोंको अभिराम स्वर्ग* धाम बसाया । हम आपसे दातारको लख आज ही पाया ॥ हो०॥ कपि स्वान सिंह नेवला अज बैल विचारे! तियंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे । इत्यादिको सुरधाम दे । शिवधाममें धारे । हम आपसे दातारको प्रभु आज निहारे। हो० ॥ २३ ॥ तुमही अनंत जंतुका भयभीर निवारा। * वेदोपुरानमें गुरू गणधरने उचारा॥ हम आपकी। सरनागतीमें आके पुकारा । तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष । इच्छिताकारा हो॥२४॥ प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्त Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nhà ५४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह के दानी । आनंद कंद बूंदको हो मुक्तके दानी ॥ मोहि । । दीन जान दीनबंधु पातक भानी । संसार विषम सार तार । * अंतरज्ञानी । हो० ॥२५|| करुणानिधानं बानको अब क्यों । न निहारो । दानी अनंत दानके दाता हो सँभारो।। वृषचंद । नंद वृन्दका उपसर्ग निवारो। संसार विषम खारसे प्रभु पार उतारौ । हो० ॥२६॥ ४०-श्रीपतिस्तुतिः दुमिला तथा द्वितोटक। जस गावत शारद शेष खरो, अपवंत उधारनको तुमरो।। तिहिते शरनागत आन परो, विरदावलिकी कछु लाज धरो॥ दुखवारिधिते प्रभु पार करो, दुरितारि हरो सुखसिंधु भरो। सव क्लेश अशेष हरो हमरो, अब देख दुखी मत देर । करो ॥१॥ तुमते कछु हे जिनराज गनी, नहिं दुर्लभ ऋद्धि । * सुसिद्धि घनी । सुरईश तथा नरईशतनी, भुवि पावत आनंद बंद बनी ॥ अब मो दिशि देख दया करनी, अपनी विर* दावलिपालि तनी । इहि वार पुकार सुनो इतनी, तजि बार * उवार त्रिलोक धनी ॥२॥ अमिअंतरश्री चतुरंतरश्री, बहिरंत* रश्री समवस्त्रतश्री । यह श्रीपतिश्री अतिही पतिश्री, मनुजा* सुरश्री लखि लाजतश्री ॥ पदपंकजश्री मुनिध्यावतश्री, * श्रुतशारदश्री यशगावत श्री। अब मो उर श्रीपतिराजहुश्री, चितचिंतितश्री सुखसाजहुश्री ॥३॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४१ - जिनेंद्रस्तुति । चौपाई (१६ मात्रा) www ५५ जै जगपूज परमगुरु नामी । पतितउधारन अंतरजामी ॥ दासदुखी तुम अति उपगारी । सुनिये प्रभु ! अरास हमारी ॥ १ ॥ यह भव-घोर-समुद्र महा है । भूधर-अम-जल-पूर रहा है । अंतर दुख दुःसह बहुतेरे । ते वडवानल साहिब मेरे ||२॥ जनमजरागदमरन जहां है। ये ही प्रबल तरंग तहां है । आवत विपति नदीगन जायें। मोह महान मगर इक तायें ||३|| तिहमुख जीव परयो दुख पावै । हे जिन ! तुम विन कौन छुडावै || अशरनशरन अनुग्रह कीजै । यह दुख मेटि मुकति मुहि दीजै || ४ || दीरघकाल गया लिलावै । अब ये सूल सहे नहिं जावै ॥ सुनियत यों जिनशासनमाहीं । पंचमकाल परमपद नाहीं ||५|| कारन पांच मिलै जब सारे । तब शिव सेवक जाहिं तिहारे ।। तातैं यह विनती अब मेरी । स्वामी ! शरण लई हम तेरी || ६ || प्रभु आगे चित चाह प्रकासौ । भव भव श्रावककुल अमिलासौ ॥ भवभव जिन आगम अवगाहों । भवभव भक्ति चरणकी चाह ||७|| भव भवमें सतसंगति पाऊँ । भव भव साधनके गुन गाऊं ॥ परनिंदा मुख भूलि न भाखूं। मैत्रीभाव सबनसौं राखूं ॥ ||८|| भव भव अनुभव आतमकेरा । होहु समाधिमरण नित मेरा ॥ जबलों जनम जगतमें लाधौं । काल लब्धिबल लहि शिवसाधौ ॥ ९ ॥ तबलों ये प्रापति मुझ हुजौ, भक्ति प्रताप I Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Numerekarwwwwwwwwwwwww बृहज्जैनवाणीसंग्रह मनोरथ पूजौं ॥ प्रभु सब समरथ हम यह लोरें । 'भूधर' * अरज करत कर जोरै ॥१०॥ . ४२-भूधस्कृत स्तुति। .: ढाल परमादी - अहो जगतगुरु एक, सुनिये अरज हमारी। तुम प्रभु! दीनदयाल, मै दुखिया संसारी ॥ इस भवबनके मांहि, काल अनादि गमायौ । भ्रमत चहूं गतिमांहि, सुख नहिं । दुख बहु पायो । कर्म महारिपु जोर, एक न कान करें जी। मनमानौ दुख देहि, काहूसों न ड जी ॥ कबहुं इतर । निगोद, कवहूं नरक दिखावै । सुर नर पशुगतिमाहिं बहुविधि नाच नचावें ॥ प्रभु ! इनके परसंग, भव भवमाहि । बुरे जी। जो दुख देखे देव ! तुम सौं नहिं दुरेजी ॥ एक * जनमकी वात, कहि न सकौं सुनि स्वामी । तुम अनंत पर* जाय, जानत अंतरजामी ॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि । दुष्ट घनेरे । कियौ बहुत वेहाल सुनियौ साहिब मेरे ॥ ज्ञान * महानिधि लूटि, रंक निबल करि डारयो । इनहीं तुम मुझ-4 माहि, हे जिन ! अंतर पारयो ।पाप पुण्यकी दोय, पायनि । * बेडी डारी । तनकाराग्रहमाहि, मोहि दियो दुख भारी॥ इनको नेक विगार, मै कछु नाहिं कियो जी । विन कारन । जगवंद्य, बहुविधि वैर लियौजी ।। अब आयौ तुम पास, सुन । * जिन सुजस तिहारौ । नीति- निपुन महाराज, कीजै न्याव । * हमारौ । दुष्टनि देहु निकास साधुनिकौ रखि लीजै । विनवै । * "भूधरदास' हे.प्रभु ढील न कीजै ।। . . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५७ wwwwwwwwwwwwwww.Journvi ४३-करुणाष्टक। * करुणा ल्यो जिनराज हमारी, करुणाल्यो।टेका। अहो जगतगुरु जगपतीजी, परमानंदनिधान । किंकरपर कीजै दयाजी, दीजै अविचल थान॥ हमारी० ॥१॥ भव । दुखसौं भयभीत हौजी, शिवपद वांछासार। करौ दया मुझ दीनपैजी, भवबंधन निरबार ॥ हमारी० ॥ २॥ परयो * विषम भवकूपमेंजी, हे प्रभु! काढौ मोहि । पतित उधाऔरण हो तुम्ही जी, फिर फिर विनऊँ तोहि । हमारी० ॥३॥ तुम प्रभु परम दयाल होजी, अशरनके आधार । मोहि दुष्ट । दुख देत हैंजी, तुमसों करहुं तुकार । हमारी० ॥ ४ ॥ दुः खित देखि दया करैजी, गांवपती इक होय । तुम त्रिभुव* नपति कर्म जी क्यों न छुडावा मोय । हमारी० ॥ ५॥ मब आताप तबै बुझेजी, जब राबू उर धोय। दया सुधारक सीयराजी, तुम पद पंकज दोय ॥ हमारी०॥६॥ येहि एक मुझ वीनतीजी, स्वामी ! हर संसार । बहुत धन्यौ हूं त्रास। सैंजी, विलख्यो बारंबार ॥ हमारी० ॥ ७॥ पदमनंदिको * अर्थ लैजी, अरज करी हितकाज । शरणागत भूधरतणीजी, राखहु जगपति लाज ।। हमारी० ॥ ८॥ ४४-जिनेंद्र स्तुति। • गीता छंद-मंगलसरूपी देव उत्तम तुमशरण्य जिनेशजी तुम अधमतारण अधम मम लखि मेट जन्मकलेशजी।टेका : Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAMAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAR बृहज्जैनवाणीसंग्रह * तुम मोह जीत अजीत इच्छातीत शर्मामृत भरे। रजनाश । तुम वर भासदृग नभ ज्ञेय सब इक उडुचरे ॥ स्टरास क्षति । * अति अमितिवीर्य सुभाव अटल संरूप हो । 'सबरहित दूषण । त्रिजगभूषण अज अमल चिद्रूप हो ॥१॥ इच्छा विना भवि। भाग्यते तुम, ध्वनि सु होय 'निरक्षरी । पटद्रव्यगुणपर्यय । अखिलयुत, एकछिनमें उच्चरी । एकांतवादी कुमत पक्ष विलिप्त इम ध्वनि मद हरी । संशय तिमिरहर रविकला। * भविशस्यकों अमिरत झरी ॥२॥ वस्त्राभरण विन शांतिमुद्रा | सकल सुरनरमन हरै । नाशाग्रदृष्टि विकारवर्जित निरखि ! छवि संकट टरै ॥ तुम चरणपंकज नखप्रभा नभ कोटिसूर्य । प्रभा धेरै । देवेंद्र नाग नरेंद्र नमत सु, मुकुटमणिद्युति विस्तरै । ॥३॥ अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी, तुम असाधारण लसै ।। * तुम जाप पापकलापनास, ध्यावते शिवथल बसै ॥ मै सेय। कुटग कुबोध अव्रत चिर भ्रम्यो भववन सबै । दुख सहे सर्व । प्रकार गिरिसम, सुख न सर्षपसम कवै ॥४॥ परचाहदाह। दह्यो सदा कबहूं न साम्यसुधा चख्यो । अनुभव अपूरव खादुविन नित, विषय रसचारो भख्यो।। अब बसो मोउरमें * सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों । वर भक्ति अति दृढ होहु । मेरे, अन्य विभव नहीं चहों ॥ ५॥ एकेंद्रियादिक अंतग्रीवक, तक तथा अंतरघनी । पर्याय पाय अनंतवार अपूर्व, सो नहिं शिवधनी । संसृतिभ्रमणतै थकित लखि निज, दा. सकी सुन लीजिये। सम्यकदरश वरज्ञानचारितपथ 'विहारी' कीजिये ॥६॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४५ - पार्श्वनाथ स्तुति । सोरठा- पारसप्रभुको नाऊँ, सार" सुधारस ' जगतमै । · मैं बाकी बलिजाऊं, अजर अमरपदमूल यह || || हरिगीता ( १८ मात्रा ) राजत उतंग अशोक तरुवर, पवन प्रेरित थरहरै । प्रभु निकट पाय प्रमोद नाटक, करत मानौ मन हरै । तस फूल गुच्छन भ्रमर गुंजत, यही तान सुहावनी । सो जयो पार्श्व जिनेंद्र पातकहरन जग चूडामनी ॥ २ ॥ निज मरन देखि अनंग डरप्यो, सरन ढूढत जग फिरयो। कोई न राखे चोर प्रभुको, आय पुनि पायनि गिरयौ || यौं हार निज हथियार डारे, पुहुपवर्षा मिस भनी | सो जयो० ॥ ३ ॥ प्रभुअंगनीलउतंगगिरितै, वानि शुचि, सरिता ढली । सो भेदि भ्रमगजदंतपर्वत, ज्ञानसागर में रली ॥ नय सप्तभंग-तरंगमंडित, पापतापविध्वंसनी । सो जयो० ॥ ४ ॥ चंद्राचिंचयछवि चारु चंचल, चमरवृन्द सुहावने। ढोलै निरंतर यक्षनायक, कहत क्यों उपमा बनै | यह नीलगिरिके शिखर मानों, मेघझरि लागी घनी । सो जयो० ॥ ५ ॥ हीरा जवाहिरखचित बहुविधि, हेमआसन राजये । तहँ जगत जनमनहरन प्रभु तन, नील वरन विराजये। यह जटित वारिजमध्यमाना, नील मणिकलिका बनी । सो जयो० ॥ ६ ॥ जगजीत मोह महान जोधा जगतमें पटहा दियो । सो शुकल - ध्यान - कृपानवल जिन, निकट बैरी वश कियो ॥ www.kkkkk Lu ५६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rearr ..... ....... PALAAAAAAAAAAAAAAAAAArrrn. - वृहज्जैनवाणीसग्रह ये वजत विजयनिशाल दुन्दुभि, जीत सूचै प्रभुतनी।। सो जयो० ॥७॥ छदमस्थपदमें प्रथम दर्शन, ज्ञानचारित है आदरे । अब तीन तेई छत्रछलसों, करत छाया छवि भरे॥ । अति धवल रूप अनूप उन्नत, सोमविवप्रभा हनी। सोजयो । *॥८॥ दुति देखि जाकी चंद सरमै, तेजसों रवि लाजई।। तब प्रभामंडलजोग जगमें, कौन उपमा छाजई॥ इत्यादि । अतुल विभूति मंडित, सोहिये त्रिभुवनधनी । सो जयो । ॥९॥यौं असम महिमा सिंधु साहब, शक्र पार न पावहीं । ताही समय तुम दास 'भूधर' भगतिवश यश गावहीं ॥1 * अब होउ भवभव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहौं । कर जोरि यह वरदान मागौं, मोखपद' जावत लहौं । ४६-भूधरकृत पार्श्वनाथस्तुति। दोहा-कर जिनपूजा अष्टविधि, भावभक्ति जिन भाय। ॐ अव सुरेश परमेश थुति, करौं शीश निज नाय ॥ प्रभु इस जग समरथ ना कोय । जासों तुम यश वर्णन । होय ।। चार ज्ञानधारी मुनि थकैं। हमसे मंद कहा कहि । सकें ॥१॥ यह उर जानत निश्चय कीन । जिनमहिमा । वर्णन हम-हीन ॥ पर तुम भक्तिथकी बाचाल। तिस वश * हो, गाऊँ गुणमाल ॥ २॥ जय तीर्थकर त्रिभुवनधनी।। जय चंद्रोपम चूड़ामनी ॥ जय जय परम धरमदातार। कर्मकुलाचल-चूरनहार ॥३॥ जय शिवकामिनिकंत महंत ।। *K KAK--- -* Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह १ A............. .... ... ... ... ....... ...... .. * अतुल अनंत चतुष्टयवंत ॥ जय जय आश-भरन बडमाग। तपलछमीके सुभग सुहाग ।। ४ ॥ जय जय धर्मध्वजाधर धीर । स्वर्ग-मोक्षदाता वर वीर · जय रत्नत्रय रतनकरंड । जय जिन तारन-तरन तरंड ॥५॥ जय जय समवसरन-1 श्रृंगार। जय संशयवन-दहन तुषार ॥ जय जय निर्विकार निर्दोष । जय अनंतगुणमाणिककोष ॥६॥ जय जय । ब्रह्मचर्यदलसाज । कामसुभटविजयी भटराज ॥ जय जय मोहमहातरु करी। जय जय मदकुंजर केहरी॥७॥क्रोधमहानत। मेघ प्रचंड । मानमहीधर दामिनिदंड ॥ मायावेलि धनंजय ।। * दाह । लोभसलिलशोषण-दिननाह ॥ ८॥ तुम गुणसागर * अगम अपार । ज्ञान-जहाज न पहुंचै पार ॥ तट ही तटपर डोले सोय । कारज सिद्ध तहां नाहि हेाय, तुम्हरी कीर्ति वेल बहु बड़ी । यत्न विना जगमंडप चढी ॥ और कुदेव सुयश निज चहैं । प्रभु अपने थल ही यश लहैं ॥१०॥ जगत । * जीव घूमै विन ज्ञान । कीनौ मोहमहाविषपान ॥ तुम सेवा विषनाशक जरी । यह मुनिजन मिलि निश्चय करी ॥११॥ जन्मलता मिथ्यामत मूल। जनम मरण लागै तहँ फूल। सो कवहूं विन भक्ति कुठार । कटै नहीं दुखफलदातार ॥१२॥ । कल्पतरूवर चित्रावेलि । कामपोरखा नवनिधि मेलि ॥ चिंता मणि पारस पाषान । पुण्य पदारथ और महान॥१३॥ये सब एक जन्म संजोग । किंचित सुखदातार नियोग ॥ त्रिभुवन नाथ तुम्हारी सेव । जन्म जन्म सुखदायक देव ।। तुम जग-1 *- *-*- *- * - * -* - - - - - Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwww हजनवाणीसंग्रह ६५ ।। ४९-शारदास्तवन प्रभाती।' * केवलिकन्ये वाङ्मय गंगे,जगदंवे अघ नाश हमारे। सत्य स्वरूपे मंगलरूपे, मनमंदिरमें तिष्ठ हमारे ॥ टेक ।। जंबू-1 स्वामी गौतम गणधर, हुये सुधर्मा पुत्र तुम्हारे। जगते । स्वयं पार है करके, दे उपदेश बहुत जन तारे ||१|| कुंदकुंद . अकलंकदेव अरु, विद्यानंदि आदि मुनि सारे। तव कुलकुमुद चंद्रमा ये शुभ, शिक्षामृत दे स्वर्ग सिधारे ॥२॥ तूने उत्तम तत्त्व प्रकाशे, जगके भ्रम सब क्षय कर डारे। तेरी ज्योति । निरख लक्षावश, रवि शशि छिपते नित्य विचारे ॥ भवभय पीडित व्यथित चित्त जन,जब जो आए सरन तिहारे! छिन । भरमें उनके तब तुमने, करुणाकरि संकट सब टारे ॥४॥ जबतक विषय कषाय नशै नहि,कर्मशत्रु नहिं जांय निवारे। * तब तक 'ज्ञानानंद' रहै नित, सब जीवनतै समता भारे ॥५॥ . ५०-गुर्वावलि। . • शैर-जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे। संसारविपम खारसों जिनभक्त उधारे ।।टेक। जिनवीरके पीछे यहां निर्यानके थानी । वासठ वरपमें तीन भये केवलज्ञानी। फिर सौ। वरपमें पांच श्रुतकेवली भये । सांग द्वादशांगके.उमंग रस। - लये ॥. जैवंत० ॥१॥ तिस बाद वर्ष एकशतक और तिरासी । इसमें हुये दशपूर्व ग्यारै अंगके भाषी॥ ग्यारैः महामुनीश ज्ञानदानके दाता । गुरुदेव सोई देहिंगे भविबुंदको साता।। * ** * * Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lat वृहज्जैनवाणीसंग्रह - MAA AJAA ^^^ जैवंत ||२|| तिस बाद वर्ष दोय शतक बीसके माहीं । मुनि , ' पांच ग्यारै अंगके पाठी हुये ह्यांहीं ॥ तिसवाद वरष एकसौ अठारमें जानी । मुनि चार हुये एक आचारांग के ज्ञानी || जैवंत ||३२|| तिस बाद हुये हैं जु सुगुरु पूर्वके धारक । करुणानिधान भक्तको भवसिंधु उधारक ॥ करकंजते गुरु मेरे ऊपर छांह कीजिये । दुखद्वंदको निकंद के आनन्द दीजिये || जैवंत ० ||४|| जिनवीर के पीछेसों, वरष छहसौ तिरासी । तब तक रहे इक अंगके गुरुदेव अभ्यासी ॥ तिस बाद कोई फिर न हुये अंगके धारी । पर होतेभये महा सुविद्वान उदारी ॥ जैवंत ० ||५|| जिनसों रहा इस कालमें जिन ' धर्मका शाका । रोपा है सात भंगका अभंग पताका || गुरुदेव नयंधरको आदि दे बडे नामी | निरग्रंथ जैनपर्थके गुरुदेव जो स्वामी || जैवंत• ॥ ६ ॥ भाषों कहां लों नाम बडी बार लगेगा। परनाम करों जिससे बेडा पार लगेगा | जिसमेंसे कछुइक नाम सूत्रकारके कहीं। जिन नामके प्रभावसे परभावको दहों ॥ जैवंत० ॥७॥ तत्त्वार्थसूत्र नामि उमास्वामी किया है। गुरु देवने संक्षेपसे क्या काम किया है । जिसमें अपार अर्थने, विश्राम किया है। बुधवृद जिसे ओरसे परनाम किया है जैवंत ० ||८|| वह सूत्र है इस कालमें जिनपंथकी पूजी । सम्यक्त्व ज्ञानभाव है जिस सूत्रकी कुंजी || लडते हैं उसी सूत्रसों परवादके मूंजी । फिर हारके हट जाते हैं इक पक्षके लूंजी || जैवंत ० ||९|| स्वामी समंतभद्र महाभाष्य रचा है। ( Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह सर्वंग सात भंगका उमंग मचा है || परवादियों का सर्व गर्व जिससे पचा है। निर्वान सदनका सोई सोपान जचा है जैवंत० ॥१०॥ अकलंकदेव राजवारतीक बनाया। परमान नयनिक्षेपसों सब वस्तु बताया || श्लोकवारितीक विद्यानंदजी मंडा | गुरुदेवने जडमूल सों पाखंडको खंडा | जै० ||११|| गुरु पूज्यपादजी हुये मरजादके धोरी । सवार्थसिद्धि सूत्रकी टीका जिन्हों जोरी || जिसके लखेसों फिर न रहे चित्तमें भरम | सब जीवको भाषै है स्वपरभावका भरम || जैवंत ० ||१२|| धरसेन गुरुजी हरो भविवृंदकी व्यथा । अग्रायणीय पूर्वमें कुछ ज्ञान जिन्हें था | तिनके हुये दो शिष्य पुष्पदंत भुतवली | धवलादिकोंका सूत्र किया जिस्से मग चली ॥ जैवंत• ॥ १३ ॥ गुरु औरने उस सूत्रका सच अर्थ लहा है । तिन धवल महाघवल जयसुधवल कहा है | गुरु नेमिचंद्रजी हुये धवलादिके पाठी । सिद्धांतके चक्रीशकी पदवी जिन्हों गांठी || जैवंत ० ॥ तिन तीनोंही सिद्धांत के अनुसारसों प्यारे । गोमट्टसार आदि सुसिद्धांत उधारे ॥। यह पहिले सुसिद्धांतका विरतंत कहा है। अब और सुनो भावसों जो भेद महा है || जैवंत ० ॥ १५ ॥ गुणधर मुनीशने पढा था तीजा पराभृत | ज्ञानप्रवाद पूर्वमें जो मेद है आश्रित । गुरु हस्तिनागजीने सोई जिनसों लहा है। फिर तिनसों यतीनायकने मूल गहा है || जैवंत० ॥ १६ ॥ तिन चूर्णिका स्वरूप तिस्से सूत्र बनाया । परमान है हज़ार यों सिद्धांतमें गाया ॥ ति § Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * *- * * *- ६ -*- वृहज्जैनवाणीसग्रह AnnanANAMA... * सका किया उद्धरण समुद्धरण जु टीका । बारह हजारके - * मान ज्ञानकी टीका । जैवत०॥१७॥ तिसहीसे रचा कुंदकुंद जीने सुशासन । जो आत्मीक पर्म धर्मका है प्रकाशन ॥ पंचास्तिकाय समयसार सारप्रवचन । इत्यादि सुसिद्धांत * स्यादवादका रचन जिवंत०॥१८॥सम्यक्त ज्ञान दर्श सुचा रित्र अनूपा। गुरुदेवने अध्यात्मीक धर्म निरूपा ॥ गुरुदेव * अमीइंदुने तिनकी करी टीका । झरता है निजानंद अमीवृंद सरीका । जैवंत० ॥१९॥रचनानुवेदभेदके निवेदके करता। गुरुदेव जे भये हैं पापतापके हरता ॥ श्रीबट्टकेरदेवजी बसुनंदजी चक्री। निग्रंथग्रंथपंथके निरग्रंथके शक्री ॥ जैवंत० ॥२०॥ योगींद्रदेवने रचा परमात्माप्रकाश । शुभचंद्रने किया है ज्ञान आरणव विकाश ॥ की पदनंदजीने पद्मनंदिपच्चीसी । शिवकोटिने आरधना सुसार रचीसी जैवंत ॥२१॥ दोसंघ तीनसंघ चारसंध पांचसंध। पंसंध सात संघलों गुरु रचा है प्रबंध ॥ गुरु देवनंदिने किया जैनेन्द्र * व्याकरन । जिस्से हुवा परवादियोंके मानका हरन ॥ ३०॥ ॥२२॥ गुरुदेवने रची है रुचिर जैनसंहिता । वरनाश्रमादि। की क्रिया कहैं हैं जु सैहिता ॥ वसुनंदि वीरनंदि यशोनंदि संहिता । इत्यादि बनी हैं दशोंप्रकार संहिता । जै० ॥२३॥ * परमेयकमलमारतंडके हुये कर्ता प्रभेन्दु माणिक्यनंदि नंय प्रमाणके भर्ती ॥ जैवत सिद्धसेन सुगुरु देव दिवाकर । जै वादिसिंह देवसिंह जैति यशोधर ॥ जैवंत० ॥२४॥ श्रीदत्त । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oondan son non onan AAAA बृहज्जैनवाणीसंग्रह काणभिक्षु और पात्रकेशरी। श्रीवज्रसूर महासेन श्रीप्रभाकरी शिरीजटाचार गुरु वीरसेन हैं। जैसेन शिरीपाल मुझे कामधेन हैं ।जैवंत०॥२५॥ इन एक एक गुरुने जो ग्रंथ बनाया। कहि कौन सके नाम कोइ पार ना पाया ॥ जिनसेन गुरूने महापुराण रचा है । मरजाद क्रियाकांडका सब मेद * खचा है ॥ जैवंत० ॥२६॥ गुणभद्र गुरूने रचा उत्तरपुरानको। सो देव गुरूदेवजी कल्यानथानको ॥रविषेण गुरूजीने । रचा रामका पुरान । जो मोहतिमर माननेको भानुके समान । जैवंत०॥२७॥ पुन्नाटगणविष हुये जिनसेन दूसरे। हरि-। । वंशको बनाके दास आसको भरे ॥ इत्यादि जे वसुवीस * सुगुण मूलके धारी । निग्रंथ हुये हैं गुरू जिनग्रंथके कारी॥ * जैवंत०॥२८॥ वंदौ तिन्हें मुनि जे हुये कवि काव्य करैया। वंदामि गमक साधु जो टीकाके धरैया ॥ वादी नमों मुनि बादमें परवाद हरैया । गुरुवागमीककों नमो उपदेश करैया । ॥ जैवत० ॥२९॥ ये नाम सुगुरु देवका कल्याण करै है। भविदका ततकाल ही दुखद्वंद हरै है । धनधान्य ऋद्धि सिद्धि नवों निद्धि भरे हैं। आनंद कंद देहि सबी विन्न टरै हैं । । जैवंत०॥३०॥ इह कंठमें धारै जो सुगुरु नामकी माला। परतीतसों उत्पीतिसों ध्यावै जु त्रिकाला । इहलोकका सुख * भोग सो सुरलोकमें जावै । नरलोकमें फिर आयके निरवान को पावै ।। जैवंत० ॥ ३१॥ . . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~~ ~ruvvwwwwwwwwwwwwwwwwww. बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५१-अथ भूधरकृत गुरुस्तुति । . बंदौं दिगंबर गुरुचरन जुग, तरनतारन जान । जे भरम • भारी रोगको हैं,राजवैद्य महान ॥ जिनके अनुग्रह विन कभी, नहिं कटै कर्मजंजीर । ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु । * पातक पीर ॥१॥ यह तन अपावन अथिर है, संसार सकल । असार । ये भोग विषपकवानसे, इहभांति सोच विचार ॥ । तप विरचि श्रीमुनि वनवसे सब छोड़ि परिगह भीर । ते । साधु० ॥२॥ जे काच कंचनसम गिनहि, अरि मित्र एक सरूप । निंदा बड़ाई सारिखी, वनखंड शहर अनूप ।। सुख * दुःख जीवनमरनमें, नहिं खुशी नहिं दिलगीर ।। ते साधु०॥ ॥३॥ जे बाह्य परवत वनबसैं, गिरिगुफा महल मनोग । सिल सेज समता सहचरी, शशिकिरनदीपक जोग ॥ मृग। मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते साधु० ॥6॥ सूखहिं सरोवर जल भरे, सूखहिं तरंगिनि-तोय। बाटहि । * बटोही ना चलै, जहँ धाम गरमी होय ॥ तिहँकाल मुनिवर * तप तपहिं, गिरिशिखर ठाड़े धीर ॥ ते साधु०॥५॥ घनघोर । गरजहिं धनघटा, जलपरहिं पावसकाल। चहुँ ओर चम कहि बीजुरी, अति चलै सीरी व्याल ॥ तरुहेठ तिष्ठहिं तब * जती, एकान्त अचल शरीर।। ते साधु० ॥ ६ ॥ जब शीत* मास तुषारसों, दाहै सकल वनराय । तब जमै पानी पोखरां । * थरहरै सबकी काय ॥ तब नगन निवसै चौहटै, अथवा नदीके तीर ॥ ते साधु० ॥७॥ करजोर 'भूधर' बीनवै, कब Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह मिलहिं वे मुनिराज । यह आश मनकी कब फलै, मम * सरहिं सगरे काज ।। संसार विषम विदेसमें, जे विना कारण वीर ॥ ते साधु० ॥८॥ - ५२-भूधरकृत गुरुस्तुति । ते गुरु मेरे मन वसौ, जे भव- जलधि-जिहाज । आप तिरै पर तारहीं, ऐसे श्रीऋषिराज ॥ ते गुरु ० ॥ मोह महारिषु जीतिकै छाडयो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ॥ ते गुरु० ॥ रोगउरग बिल वपु! गिण्यौ, भोग भुजंग समान । कदलीतरु संसार है, त्यागो। सब यह जान ॥ ते गुरु० ॥ रतनत्रय निधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल। मारयौ कामखबीसको, स्वामी परम । दयाल ॥ ते गुरु० ॥ पंच महाव्रत आदरै, पांचौं सुमति ।। समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अरजअमरपद हेत! ॥ते गुरु० ॥ धर्म धरै दशलक्षणी, भावै भावन सार । सहैं। * परीषह वीस द्वै, चारित-रतन भँडार ॥ ते गुरु० ॥ जेठ । तपै रवि आकरौ, सूखै सरवरनीर । शैलशिखर मुनि तप तपै, दाहै नगन शरीर ॥ ते गुरु० ॥ पावस रैन डरावनी, बरसै जलधर धार । तरुतल निवसै साहसी, बाजै झंझावार॥ ते गुरु० ॥ शीत पडै कपि-मद गलै, दाहै सब वनराय । * ताल तरंगिनिके तटै, ठाडे ध्यान लगाय ॥ ते गुरु० ॥ इहि विधि दुद्धर तप तपै, तीनों काल मंझार। लागे सहज सरूपमें, तनसौ ममत निवार ॥ ते गुरु०॥ पूरब भोग न ---- --- -- - - --- Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * K KAKK56 * AAAAAAAAAAAAAAAAAAA MKARAAAAAAAAA - - ७२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह चित, आगम बांछा नाहिं । चंहु गतिकै दुखसौं डरे, । सुरत लगी शिवमाहिं ॥ ते गुरु०॥ रंगमहलमें पोढते, कोमल सेज विछाय । ते पच्छिम निशि भूमिमें, सो संवरि । काय ॥ ते गुरु० ॥ गज चढि चलते गरबसौ, सेना सजि * चतुरंग । निरखि निरखि पग ते धरै, पालें करुणा अंगा। ते । गुरु० ॥ वे गुरु चरण जहां धरै, जगमें तीरथ जेह । सो रज में मम मस्तक चढौं, 'भूधर' मांगे येह ॥ते गुरु० ॥ : ५३-प्रातःकालकी स्तुति। . । वीतराग सर्वज्ञ हितंकर भविजनकी अब पूरो आस॥ * ज्ञानभानुका उदय करो मम मिथ्यातमका होय विनाश ॥१॥ जीवोंकी हम करुणा पाले झूठ वचन नहिं कहैं कदा॥ परधन कबहु न हरिहैं स्वामी ब्रह्मचर्य व्रत रहै सदा ॥२॥ तृष्णा लोभ बढ़े न हमारा तोष सुधा निधि पिया करें ॥श्री ! जिनधर्म हमारा प्यारा तिसकी सेवा किया करें ॥३॥ * दूर भगावै बुरी रीतियां सुखद रीतिका करै प्रचार ॥ मेल। मिलाप बढ़ावै हम सब धर्मोन्नतिका करै प्रचार ॥ ४ ॥ सुखदुखमें हम समता धारै रहें अचल जिमि सदा अटल॥ न्याय । कार्यको लेश न त्यागें वृद्धि कर निज आतमवल ॥ ५॥ अष्टकर्म जो दुःखहेतु हैं तिनके छयका करें उपाय ॥ नाम । * आपका जपै निरन्तर विघ्नशोक सब ही टल जाय ॥६॥ आतम शुद्ध हमारा होवे पाप मैल नहिं चढ़े कदा। विद्याकी हो उन्नति हममें धर्म ज्ञानहूँ वढ़े सदा ॥ ७॥ हाथ जोड़। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ---- वृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwww * कर शीष नवावे तुमको भविजन खड़े खड़े । यह सब पूरो आस हमारी चरण शरणमें आन पड़े॥८॥ ५४-सायंकालकी स्तुति । 1. हे सर्वज्ञ ! ज्योतिमय गुणमणि बालक जनपर करहु दया॥ कुमति निशा अँधियारीकारी सत्यज्ञानरवि छिपा दिया ॥ १ ॥ क्रोध मान अरु माया तृष्णा यह बटमार फिरे चहुं ओर ॥ लूट रहे जग जीवनको यह देख अविद्या* तमका जोर ॥ मारग हमको सूझे नांहिं ज्ञान विना सब अन्ध भये । घटमें आय विराजो स्वामी बालक जन सब खड़े भये ॥ ३॥ सतपथ दर्शक जनमन हर्षक घटघट । * अन्तरयामी हो ॥ श्रीजिनधर्म हमारा प्यारा तिनके तुम ही स्वामी हो ॥४॥ घोर विपतमें आन पड़ा हूँ मेरा बेड़ा पार * करो। शिक्षाका हो घर घर आदर शिल्पकला सचार करो * ॥५॥ मेल मिलाप बढ़ावे हम सब द्वेष भावकी घटाघटी। नहीं सतावे किसी जीवको प्रती क्षीरकी गटागटी ॥६॥ मात पिता अरु गुरुजनकी हम सेवा निशदिन किया करे॥ स्वारथ तजकर सुखदें परको आशिष सबकी लिया करें॥७॥ आतम शुद्ध हमारा होवै पाप मैल नहिं चढ़े कदा ॥ विद्या* की हो उन्नति हममें धर्म ज्ञान हूं बढ़े सदा ।। ८ ।। दोउ* कर जोरें बालक ठाड़े करें प्रार्थना सुनिये तात ॥ सुखसे । बीते रैन हमारी जिनमतका हो शीघ्र प्रभात ॥ ९॥ मात * पिताकी आज्ञा पालें गुरुकी भक्ति घरे उरमें ॥ रहें सदा हम करतबतत्पर उन्नति. कर निज निजपुरमें ॥ १०॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RR * vuvuvvvvvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvums R RRR-54- . वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५५-श्रीमहावीर-प्रार्थना । हे सर्वज्ञ वीर जिनदेवा, चरन शरन हम आते हैं। जान * अनंतगुणाकर तुमको चरनन सीस नवाते हैं ।। १ ॥ कथन । तुम्हारा सबको प्यारा कहीं विरोध नहीं पाता । अनुभव* बोध अधिक जिनके है, उन पुरुषोंके मन भाता ॥ २ ॥ के दर्शन ज्ञान चरित्रस्वरूपी, मारग तुमने दिखलाया । यही मार्ग हितकारी सबका, पूर्व ऋषीगणने गाया ॥ ३ ॥ रत्नत्रयको भूल न जावै, इसीलिये उपनयन करें । ब्रह्मचर्यको दृढतम पालै, सप्तव्यसनका त्याग करें ॥४॥ नीतिमार्ग-1 * पर नित्य चलै हम, योग्याहार विहार करें । पालें योग्या* चार सदा हम, वर्णाचार विचार करें ॥५॥ धर्ममार्ग, • अरु वैधमार्ग से, देशोद्धार विचार करें। आपवचन हम , दृढतम पालें, सत्सिद्धांत प्रचार करें ॥६॥ श्रीजिनधर्म बढे । दिनदूनो पंच आप्तनुति नित्य करै । सत्संगति को पाकर। * खामिन्, कर्म कलंक समूल हरै ॥ ७॥ फलैं भाव ये सभी हमारे, यही निवेदन करते हैं। 'लाल' बाल मिलि भाल । वीर के, चरणों में शिर धरते हैं ॥ ८ ॥ ५६-आचार्यय रविषेणस्तति। रविसे रविसेन अचारज हैं, भविवारिजके विकसावनहारे। जिन । पद्मपुराण बखान किया, भवसागरते जगजंतु उधारे॥सिय * रामकथा सु जथारथ भाखि, मिथ्यातसमूह समस्त विदारे। * भवि'वृंद'विथा अब क्यों नहरी, गुरुदेव तुम्ही ममप्राण अधारे। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __man rrn warm KARHARKHANIK वृहज्जैनवाणीसंग्रह ७५ ___५७-आचार्यवर्य जिनसैनस्तुति। भगवज्जिनसैन कविंद नमों, जिन अदि जिनिंदके छंद । सुधारे। प्रथमानुसुवेद निवेदनमें, जिनको परधान प्रमान उचारे। जगमें मुदमंगल भूरि भरे, दुख दूर करे भवसागर । तारे। भव 'बंद' विथा अब क्यों न हरों, गुरुदेव तुम्ही ममपान अधारे ॥२॥ तृतीय अध्याय। स्तोत्र संग्रह। ५८-वृहत्स्वयंभूस्तोत्र १ आदिनाथ भगवानकी स्तुति । स्वयम्भुवा भूतहितेन भूतले समञ्जसज्ञानाविभूतिचक्षुषा। विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करः करैः । ॥१॥प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु • प्रजाः। प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदां वरः॥२॥विहाय यः सागरवारिवाससं वधूमिवेमां वसुधावधू ! सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रवबाज सहि*ष्णुरच्युतः ॥३॥ स्वदोषमूलं स्वसमाधितेजसा निनाय यो निर्दयभस्मसाक्रियाम् । जगाद तत्त्वं जगतेऽर्थिनेऽञ्जसा बभूव चब्रह्मपदामृतेश्वरः ॥ ४ ॥स विश्वचक्षुर्वृषभोऽर्चितः । सतां समग्रविद्यात्मवपुनिरञ्जनः। पुनातु चेतो मम नामि* नन्दनो जिनो जितक्षुल्लकवादिशासनः॥ ५॥ . Khel ae-5*25* * ** * Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . . . . . . ...wwwwww.wwwwv dowar..... ... to बृहज्जैनवाणीसंग्रह २. अजितस्तुति। र यस्य प्रभावात्त्रिदिवच्युतस्य क्रीडास्वपि क्षीवमुखारवि*न्दः । अजेयशक्तिर्भुवि बन्धुवर्गश्चकार नामाजित इत्यवंध्यम्।। अद्यापि यस्याजितशासनख सतां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम्।। प्रगृह्यते नाम परं पवित्रं स्वसिद्धिकामेन जनेन लोके ॥७॥ यः प्रादुरासीत्प्रभुशक्तिभूम्ना भव्याशयालीनकलङ्कशान्त्यै । महामुनिर्मुक्तघनोपदेहो यथारविन्दाभ्युदयाय भास्वान् ॥८॥ येन प्रणीतं पृथु धर्मतीर्थ ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखम् । । * गांग हृदं चन्दनपंकशीतं गजप्रवेका इव धर्मतताः ॥९॥स ब्रह्मनिष्ठः सममित्रशत्रुर्विद्याविनिर्वान्तकषायदोषः । लब्धास्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिनाश्रियं मे भगवान विधत्तां ३ शंभवस्तुति। न त्वं शम्भवः संभवतर्षरोगैः संतप्यमानस्य जनस्य लोके। * आसीरिहाकस्मिक एव वैद्यो वैद्यो यथा नाथ ! रुजां प्रशांत्यै ॥ ११ ॥ अनित्यमत्राणमहं क्रियाभिः प्रसक्तमिथ्याध्य-१ वसायदोषम् । इदं जगजन्मजरान्तकातं निरञ्जनां शान्ति. मजीगमस्त्वम् ॥१२॥ शतहदोन्मेषचलं हि सं ख्यं तृष्णाम. याप्यायनमात्रहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजस्रं तापस्तदायसयतीत्यवादीः ॥१३॥ बंधश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतुः बद्धश्च । मुक्तश्च फलं च मुक्तेः । स्याद्वादिनो नाथ ! तवैय युक्तं नै*कान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसिशास्ता ॥ १४ ॥ शक्रोऽप्यशक्तस्तव । * पुण्यकीर्तेः स्तुत्यांप्रवृत्तः किमु मादृशोऽज्ञः । तथापि भक्त्या * * स्तुतपादपद्मो ममार्य ! देयाः शिवतातिमुच्चैः॥१५॥ * * Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . ..var Eco वृहज्जैनवाणीसंग्रह " * तस्त।।अनेकमेकं च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या।। आकाङ्क्षिणः स्यादिति वै निपातो गुणानपेक्षे नियमेऽपवादः ॥४४॥ गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्यं जिनस्य ते तद्द्विषतामपथ्यम् । ततोऽभिवंध जगदीश्वराणां ममापि साधो* स्तव पादपद्मम् ॥४५॥ १० शीतलनाथस्तुति। रन शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गांगमम्मो न च हारय-1, ष्टयः । यथा मुनेस्तेऽनघवाक्यरश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा । विपश्चिताम्।।४६॥ सुखाभिलापानलदाहमूञ्छितं मनो निज। * ज्ञानमयामृताम्बुभिः । विदिध्यपस्त्वं विषदाहमोहितं यथा * भिषग्मन्त्रगुणैःस्वविग्रहम् ॥४७॥ स्वजीविते कामसुखे च । तृष्णया दिवा श्रमार्ता निशि शेरते प्रजाः । त्वमार्य ! नक्तंदिवमप्रमत्तवानजागरेवात्मविशुद्धवर्त्मनि ।।४८॥ अप। त्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते । भवान्पुनर्जन्मजराजिहासया त्रयी प्रवृत्तिं शमधीरवारुणान् । ॥४९॥ त्वमुत्तमज्योतिरजःक्वनिवृत्तः क्व ते परे बुद्धिलबोद्धचक्षताः। ततः स्वनिःश्रेयसभावनापरैर्दुधप्रयेकैर्जिनशीतलेब्बसे। - ११ श्री श्रेयान स्तुति। . . श्रेयान् जिनः श्रेयसि वमनीमाः श्रेयः प्रजाः शासदजेय है। वाक्यः। भवांश्चकाशे भुवनत्रयेऽस्मिन्नेकी यथा वीतधनों * विवस्वान्।।५१॥विधिविपक्तप्रतिपेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतर' प्रधानम् गुणो परो मुख्यनियामहेतुर्नयः सं दृष्टान्तसम - - - . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * vvvvvvvvview vwwww vvv ** बृहज्जैनवाणीसंग्रह र्थनस्ते ॥ ५२ ॥ विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणो विव क्षो न निरात्मकस्ते । तथारिमित्रानुभयादिशक्तिर्द्वयावधिः । १ कार्यकरं हि वस्तु ॥ ५३ ॥ दृष्टान्तसिद्धावुभयोर्विवादे सा ध्यं प्रसिद्धयेन तु तागस्ति । यत्सर्वथैकान्तनियामदृष्टं स्व* दीयदृष्टिभिवत्यशेषे ॥५४॥ एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धिन्या* येशुभिर्मोहरिपुं निरस्य । असि स्म कैवल्यविभूतिसम्राट् । ततस्त्वमर्हन्नसि मे स्तवाहः ॥ ५५ ॥ १२ वासुपूज्य स्तुति । शिवासु पूज्योऽभ्युदयक्रियासु त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्रपूज्यः ।। * मयापि पूज्योऽल्पधिया मुनीन्द्र दीपार्चिषा किं तपनो न पूज्य ॥५६॥ न पूज्ययार्थस्त्वयि वीतरागा न निन्दया नाथ ! विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्त दुरितांजनेभ्यः ।। ५७ ॥ पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावध लेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका । * शीतशिवाम्बुराशौ ॥ ५८ ॥ यद्वस्तु वाह्यं गुणदोषसतेनिमि- 1 त्तमभ्यन्तरमूलहेतोः । अध्यात्मवृतस्य तदंगभूतमभ्यन्तरं । । केवलमध्यलं ते ॥ ५९॥ बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते । द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाभिवन्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।। ६०॥ १३ विमलस्तुति। । य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रAणाशिनः। त एव तत्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्व*** * * Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * SHAR 5 वृहज्जैनवाणीसंग्रह AAAAAAAAAAAAAAAAna * परोपकारिणः ॥ ६१ ॥ यथैकशः कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेष स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्यविशेषमातृका नयास्त* वेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥६२॥ परस्परेशान्वयभेदलिंगतः। । प्रसिद्धसामान्यविशेषयोस्तव । समग्रतास्ति स्वपरावभासक * यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥६३॥ विशेषदाच्यस्य विशे-4 कषणं वचो यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत्। तयोश्च समान्य मतिप्रसज्यते विवक्षितात्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम्॥६४ानया स्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छिता रसोपविद्धा इव लोहधातवः।। । भवन्त्यभिप्रतगुणा यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणिता हितैषि णः ॥ ६५ ॥ १४ अनन्तनाथ स्तुति । ॐ अनन्तदोषाशयविग्रहो ग्रहो विषगवान्मोहमयश्चिरं हृदि ।। * यतो जितस्तत्वरुचौ प्रसीदता त्वया ततोभूभगवाननन्त जित् ॥६६॥ कषायनाम्नां द्विषतां प्रमाथिनामशेषयन्नाम । * भवानशेषवित् । विशोषणं मन्मथदुर्मदामयं समाधिभैषज्य गुणैर्व्यलीनयन् ॥६७॥ परिश्रमाम्बुर्भयवीचिमालिनी त्वया । । स्वतृष्णासरिदार्य ! शोषिता । असंगधर्किगभस्तितेजसा । परं ततो निर्वृतिधाम तावकम् ॥६८॥ सुहत्त्वयि श्रीसुभग-1 त्वमश्नुते द्विपन त्वयि प्रत्ययवत्प्रलीयते । भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् ॥ ६९ ॥ त्वमीदृशस्त दृश इत्ययं मम प्रलापलेशोऽल्पमतेमहामुने! । अशेष* माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधे।।।७०॥ MAHARASHTRA Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** * * * * SAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA बृहज्जैनवाणीसंग्रह १५ धर्मनाथ स्तुति। है। धर्मतीर्थमनघं प्रवर्तयन् धर्म इत्यनुमतः सतां भवान् । *कर्मकक्षमदहत्तपोऽग्निभिः शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः ॥७॥ । देवमानवनिकायसत्तमै रेजिषे परिवृतो वृतो बुधैः। तारका-! परिवृतोऽतिपुष्कलो व्योमनीव शशलाञ्छनोऽमलः ॥७२॥ * प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् । मोक्षमार्गमशिषनरामरान्नापि शासनफलेषणातुरः ॥ ३ ॥ कायवाक्यमनसां प्रवृत्तयो नाऽभवस्तव मुनेश्चिकीर्षया। नासमीक्ष्य भवतः प्रवृत्तयो धीर तावकमचिन्त्यमीहितम्।।७४ मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । • तेन नाथ ! परमासि देवता श्रेयसे जिनवृष प्रसीद नः ।।७५॥ ___१६ शान्तिनाथ स्तुति। विधाय रक्षा परतः प्रजानां राजा चिरं योऽप्रतिमप्रतापः। व्यधात्पुरस्तात्स्वत एव शान्तिर्मुनिर्दयामूर्तिरिवाधशान्तिम् ॥७६॥ चक्रेण यः शत्रुभयंकरेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेण पुनर्जिगाय महोदयो दुर्जयमोहचक्रम् । ॥७७॥ राजश्रिया राजसु राजसिंहो रराज यो राजसुभोगतन्त्रः । आर्हन्त्यलक्ष्म्या पुनरात्मतन्त्रो देवासुरोदारसमे रराज ॥७८॥ यस्मिन्नभूद्राजनि राजचक्रं सुनौ दयादीधिति धर्मचक्रम् । पूज्ये मुहुः प्रांजलिदेवचक्रं ध्यानोन्मुखे ध्वंसि । * कृतान्तचक्रम् ॥७९॥ स्वदोषशान्त्यावहितात्मशान्तिः शा*न्तेविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भवक्लेशभयोपशान्त्यै शा न्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ॥८०॥ *RKAR -SARK K -* Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R K2KRANTRA बृहज्जैनवाणीसंग्रह annnnnnnnnnnnnnnnnnnnnanna .nAmAhAAAAAAAAAAAAAA १७ कुन्थुनाथस्तुति । कुन्थुप्रभृत्यखिलसत्वदयैकतानः, कुन्थुर्जिनो ज्वरजरामरणोपशान्त्यै । त्वं धर्मचक्रमिह वर्तयसि स्म भूत्यै, भूत्वा । पुरा क्षितिपतीश्वरचक्रपाणिः ॥८॥ तृष्णाषिः परिदह-। पन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेत्र । स्थि। त्यैव कायपरितापहरं निमित्तमित्यात्मवान्विषयसौख्यपरा मुखोऽभूत् ॥८२॥ बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरस्त्वमाध्या-1 त्मिकस्य तपसः परिवहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुषद्वय* मुत्तरस्मिन्, ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्न ॥८॥ हुत्वा । स्वकर्मकटुकप्रकृतींश्चतस्रो, रत्नत्रयातिशयतेजसि जातवीर्यः।। विभ्राजिवे सकलदेवविधेर्विनेता, व्यभ्रे यथा वियति दीप्त१ रुचिर्विवस्वान् ॥८॥ यस्मान्मुनीन्द्र ! तव लोकपितामहा-1 • द्या, विद्याविभूतिकणिकामपि नाप्नुवन्ति । तस्माद्भवन्तमज, मप्रतिमेयमार्याः, स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितैकतानाः॥ १८ अरहनाथस्तुति। * गुणस्तोकं सदुल्लंध्य तद्दुत्वकथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते * गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ।।८६॥ तथापि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामापि कीर्तितम् । पुनाति पुण्यकीर्तेर्नस्ततो । याम किश्चन ॥८॥ लक्ष्मीविभवसर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलाछनम् । साम्राज्यं सार्वभौमं ते जरत्तृणमिवाभवत्।।८८॥ तव । रूपस्य सौन्दर्यं दृष्ट्वा तृप्तिमनापिवान् । द्वयक्षः शक्रः सह* साक्षो बभूव बहुविस्मयः ॥८९॥ मोहरूपो रिपुः पापः कषा। यभटसाधनः । दृष्टिसम्पदुपेक्षास्त्रस्त्वया धीर! पराजितः । R-RSS R K* Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- - --- - KAR* au r av. wow ....... वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ॥९०॥ कन्दर्पस्योद्वरो दर्पस्त्रैलोक्यविजयार्जितः । हेपयामास ते धीर त्वयि प्रतिहतोदयः ॥९१॥ आयत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिनिरुत्तरा। तृष्णानदी त्वयोत्तीर्णा,विद्यानावा विवि तया ॥१२॥ अन्तका क्रन्दको नृणां जन्मप्रज्वरसखा सदा।। * त्वामन्तकान्तकं प्राप्य व्यावृत्तः कामकारतः ॥ भूषावेषायुध त्यागी विद्यादमदयापरम् । रूपमेव तवाचष्टे धीर ! दोषविनिग्रहम।।९४॥ समन्ततोज्गमासां ते परिवेषेण भूयसा । तमो । वाह्यमपाकीर्णमध्यात्मध्यानतेजसा ॥१५॥ सर्वज्ञज्योतिषो द्भूतस्तावको महिमोदयः। कं न कुर्यात् प्रणमं ते सत्वं नाथ! । सचेतनम् ।।९६॥ तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् । प्रणीयत्यमृतं यद्वत् प्राणिनो व्यापि संसदि ॥९७॥ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः । ततः सर्व मृषोक्तं स्यात्तिदयुक्तं स्वघाततः ॥४८॥ ये परस्खलितोनिद्राः स्त्रदोषेभ। निमीलिनः । तपस्विनस्ते किं कुर्युरपात्रं त्वन्मतश्रियः ॥९९॥ * ते तं स्वघातिनं दोष शमीकर्तुमनीश्वराः । त्वद्विषः स्वहनो। बालास्तत्त्वावक्तव्यतां श्रिताः ॥१००॥ सदेकनित्यवक्तव्या। स्तद्विपक्षाश्च ये नयाः। सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति सादि तीहिते ॥१०१॥ सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः ।। । स्याच्छदस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥१०२॥ । अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः । प्रमाणाते तदेकन्तोऽर्पितानयात् ॥१०३॥ इति निरुपमयुक्ति शासनः प्रियहितयोगगुणानुशासनः । अरजिनदमतीर्थना*AR KAR-52225 * -- - - -- Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RAKANKSHIRK -wooooooor १.८६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * यकस्त्वमिव सतां प्रतिबोधनायका१०४॥ मतिगुणविभवा नुरूपतस्त्वयि वरदागमदृष्टिरूपतः । गुणकृशमपि किंचनोदितं मम भवता दुरिताशनोदितम् ।।१०५॥ १६ मल्लिनाथस्तुति । यस्य महर्षेः सकलपदार्थप्रत्यवबोधः समजनि साक्षात्।। सामरमत्यं जगदपि सर्व प्रांजलिभूत्वा प्रणिपतति स्म।१०६॥ , यस्य च मूर्तिः कनकमयी व स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा । वा गपि तत्त्वं कथयितुकामा स्यात्पदपूर्वा रमयति साधून॥१०॥ । यस्य पुरस्ताद्विगलितमाना न प्रतितीर्थ्या भुवि विवदन्ते ।। भूरपि रम्या प्रतिपदमासीजातविकोशाम्बुजमृदुहासा ।। यस्य । समन्ताजिनशिशिरांशोः शिष्यकसाधुग्रहविभवोऽभूत् ।। तीर्थमपि स्वं जननसमुद्रत्रासितसत्त्वोत्तरणपथोऽग्रम् ।।१०९|| यस्य च शुक्लं परमतपोऽग्निानमनन्तं दुरितमधाक्षीत् ।। । जिनसिंह कृतकरणीयं मल्लिमशल्यं शरणमितोऽस्मि ॥११०॥ ____२० मुनिसुव्रतनाथस्तुति। है अधिगतमुनिसुव्रतस्थितिर्मुनिवृषभो मुनिसुव्रतोऽनघः ।। मुनिपरिषदि निर्वभौ भवानुडुपरिषत्परिवीतसोमवत्।।१११॥ परिणतशिखिकण्ठरागया कृतमदनिग्रहनिग्रहाभया । भव। जिनतपसः प्रसूतया ग्रहपरिवेषरुचेव शोभितम् ॥ ११२ ॥1 * शशिरुचिशुक्तलोहितं सुरमितरं विरजो निजं वपुः । तव ! शिवमतिविस्मयं पते यदपि च वाङ्मनसोऽयमीहितम् ॥११३॥ स्थितिजनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् । इति । ** KSHA Ke* Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MANARAAAAAAAAA. *- - - - -- - वृहज्जैनवाणीसंग्रह , ८७ जिनसकलज्ञलाञ्छनं वचनमिदं वदतां वरस्य ते ॥ ११४॥ दुरितमलकलङ्कमष्टकं निरुपमयोगबलेन निर्दहन् । अभवदभवसौख्यवान् भवान् भवतु ममापि भवोपशान्तये ।।११५॥ २१ नमिनाथस्तुति। * स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा, भवेन्मा * वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीना जगति सुलभं श्रायसपथे, स्तुयानत्वा विद्वान्सततमपि पूज्यं । नमिजिनम् ॥११६॥ त्वया धीमन् ब्रह्माणिधिमनसा जन्मनिगलं, समूलं निर्मिन्नं त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी | त्वयि । ज्ञानज्योतिर्विभवकिरणैर्भाति भगवन्नभूवन् खद्योता इव शुचिरवावन्यमतयः ॥ ११७ ॥ विधेयं बार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तत्, विशेषैः प्रत्येकं नियमविषयैश्वापरिमितैः । सदान्योन्यापेक्षैः सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं । बहुनयविवक्षेतरवशात् ॥ ११८ ।। अहिंसा भूतानां जगति। * विदितं ब्रह्म परमं, न सा तत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रम- " विधौ। ततस्तत्सिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः ।। ११९ ॥ वपुर्भूषावेषव्यवधिरहितं शान्तिकरणं, यतस्ते संचष्टे स्मरशरविषातकविजयम् । विना भीमैः शस्त्रैरदयहृदयामर्षविलयं ततस्त्वं निर्मोहः * शरणमसि नः शान्तिनिलयः ॥ १२०॥ २२ नेमिनाथस्तुति। , भगवानृषिः परमयोगदहन तकल्मषेन्धनम् । ज्ञानविपुल-1 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwww * ARKARMA-SHKKAR* 1८८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह किरणैः सकलं प्रतिवुध्य बुद्धः कमलायतेक्षणः ।। १२१॥ हरिवंशकेतुरनवद्यविनयदमतीर्थनायकः । शीलजलधिरभवो विभवस्तत्त्वमरिष्टनेमिजिनकुंजरोऽजरः ॥ १२२ ॥ त्रिदशेन्द्रमौलिमणिरत्नकिरणविसरोपचुम्बितम् । पादयुगलममलं भवतो विकसत्कुशेशयदलारुणोदरम् ॥ १२३ ॥ नखचन्द्र-५ क रश्मिकवचातिरुचिरशिखरांगुलिस्थलम् । स्वार्थनियतमनसः । सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः ॥ १२४॥ युतिमद्रथांगरविविम्वकिरणजटिलांशुमण्डलः । नीलजलजदल-1 राशिवपुः सहबन्धुभिर्गरुडकेतुरीश्वरः ॥१२५॥ हलभृच्च ते । । स्वजनभक्तिमुदितहृदयौ जनेश्वरौ । धर्मविनयरसिकौ सुतरां । चरणारविन्दयुगलं प्रणेमतुः ॥ १२६॥ ककुदं भुवः खचर। योषिदुषितशिखरैरलंकृतः । मेघपटलपरिवीततटस्तव लक्ष णानि लिखितानि वज्रिणा ॥ १२७ ॥ वहतीति तीर्थमृषिमिश्च सततमभिगम्यतेऽद्य च । प्रीतिविततहृदयैः परितो । * भृशमूर्जयन्त इति विश्रुतोऽचलः ॥ १२८ ॥ बहिरन्तर प्युभयथा च करणमविधाति नार्थकृत् । नाथ युगपदखिलं १ च सदा त्वमिदं तलामलकवद्विवेदिथ ॥ १२९ ॥ अतएव । ते बुधनुतस्य चरितगुणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य । जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयं ॥ १३०॥ २३ पार्श्वनाथस्तुति। ___ तमालनीलैः सधनुस्तडिद्गुणैः प्रकीर्णभीमाशनिवायु॥ वृष्टिमिः। बलाहकै.रिवशैरुपद्रुतो महामना यो न चचाल Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X- -- * ----- - ---- वृहज्जैनवाणीसंग्रह योगतः ॥ १३१ ॥ बृहत्कणामण्डलमण्डपेन यं स्फुरत्तडिपिङ्गरुचोपसर्गिणाम् । जुगूह नागो धरणो धराधरं विरागसन्ध्यातडिदम्बुदो यथा ॥ १३२ ।। स्वयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशात्य यो दुर्जयमोहविद्विषम् । अवापदार्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजातिशयास्पदं पदम् ॥ १३३॥ यमीश्वरं वीक्ष्य विधूतकल्मषं तपोधनास्तेऽपि तथा बुभूषवः। वनौकसः स्वश्रमवन्ध्यबुद्धयः । शमोपदेशं शरणं प्रपेदिरे॥ १३४ ॥ स सत्यविद्यातपसां। प्रणायकः समग्रधीरुपकुलाम्बरांशुमान् । मया सदा पार्श्व* जिनः प्रणम्यते विलीनमिथ्यापथदृष्टिविभ्रमः ॥ १३५ ॥ २४ महावीरस्तुति। * का भुवि भासितया वीरत्वं गुणसमुच्छ्या भासितया। भासोडुसभासितया सोम इव व्योम्नि कुन्द शोभासितया॥ तव जिनशासनविभवो जयति कलावपि गुणानुशासनविभवः । दोषकशासनविभवः स्तुवंति चैनं प्रभाकशासनवि* भवः ॥ १३७ ॥ अनवद्यः स्याद्वादस्तव दृष्टेष्टाविरोधतः स्थाद्वादः । इतरोन स्याद्वादो सद्वितयविरोधान्मुनीश्वराऽस्याद्वादः ॥ १३८ ॥ त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्त्या शयप्रणामामहितः। लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरु* ज्वलद्धामहितः ॥ १३९ ॥ सभ्यानामभिरुचितं दधासि । गुणभूषणं श्रिया चारुचितम् । मन्नं स्वस्यां रुचिरं जयसिच मृगलाञ्छनं स्वकान्त्या रुचितम् ॥ त्वं जिन! गतमदमा-1 * **KSATT A Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- KE- ---- - -* vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह । यस्त्व भावानां मुमुक्षुकामदमायः । श्रेयान् श्रीमदमाय। स्त्वया समादेशि सप्रयामदमायः ॥ १४१ ॥ गिरिभित्त्यवदानवतः श्रीमत इव दन्तिनः श्रवदानवतः । तव शमवादानवतो गतमूर्जितमपगतप्रमादानवतः ॥१४२॥ बहुगु णसंपदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नयभ-* भक्त्य वतंसकलं तव देव ! मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ १४३॥ * यो निःशेषजिनोक्तधर्मविषयः श्रीगौतमाधैः कृतः, सूक्तार्थे । रिमलैः स्तवोयमसमः स्वल्पैः प्रसन्नैः पदैः। तद्वयाख्यानमदो। । यथाह्यवगतः किञ्चित्कृतं लेशतः स्थयाँश्चन्द्रदिवाकरावधि बुधप्रललादचेतस्थलम् ॥ भगवजिनसेनाचार्यकृत । ५८-श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्र।। र स्वयंभुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मनैव । तथोद्भूतवृत्तये चिंत्यवृत्तये॥१॥ नमस्ते जगतां पत्ये लक्ष्मी-1 भत्रे नमो नमः ! विदांवर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥ कामशत्रुहणं देवमामनंति मनीषिणः । त्वामानमस्तुरेन्मोलिभामालाभ्यर्चितक्रमम् ॥३॥ ध्यानदुर्घणनिर्मिनधनपातिमहातरुः । अनंतभवसंतानजयोप्यासीरनंतजित्।। त्रैलोक्यनिर्ज याव्याप्तदुर्दप्पमतिदुर्जये । मृत्युराजं विजत्यासीजन्ममृत्यु-। * जयो भवान्।।५॥विधूताशेषसंसारो बंधुतॊ भव्यबांधवः । त्रिपुरारिस्त्वमीशोसि जन्ममृत्युजरांतकृत् ।। त्रिकालविजयाशेपतत्स्वभेदात् त्रिविधोच्छिदं । केवलाख्यं दधच्चक्षुत्रिनेत्रोसि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAKKKRAKASK AR AAAAAnnnnn वृहज्जैनवाणीसंग्रह पूजितः । ऋत्विग्यज्ञपतियज्ञो यज्ञांगममृतं हविः ॥९॥ व्योममूर्तिरमूर्तात्मा निर्लेपो निर्मलोऽचलः । सोममूर्तिः । | सुसौम्यात्मा सूर्यमूर्तिर्महाप्रभः॥७॥मंत्रविन्मंत्रकृन्मंत्री मंत्रमूतिरनंतकः । स्वतंत्रस्तंत्रकृत्स्वांतः कृतांतांतः कृतांतकृत् । ॥ कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृतकृत्यः कृतक्रतुः । नित्यो । * मृत्युंजयो मृत्युरमृतात्मामृतोद्भवः ॥९॥ ब्रह्मनिष्ठः परंब्रह्म ब्रह्मात्मा ब्रह्मसंभवः । महाब्रह्मपतिब्रोट् महाब्रह्मपदेश्वरः । ॥१०॥ सुप्रसन्नः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभुः । प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तमः ॥ ११ ॥ इति स्थविष्टादिशतम् ॥ ३ ॥ अर्थ । । महाशोकध्वजोऽशोकः कः स्रष्टापद्मविष्टरः । पद्मशः पद्म संभूतिः पद्मनाभिरनुत्तरः ॥१॥ पद्मयोनिर्जगद्योनिरित्यः । स्तुत्यः स्तुतीश्वरः। स्तवनार्हो हृषीकेशो जितजेयः कृतक्रियः ॥२॥ गणाधिपो गणज्येष्ठो गण्यः पुण्यो गणाग्रणीः । में गुणाकरो गुणांभोधिर्गुणज्ञो गुणनायकः ॥३॥ गुणाकरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः । शरण्यः पुण्यवाक्पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥ ४ ॥ अगण्यः पुण्यधीर्गण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः । धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः * ॥५॥ पापापेतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मषः । निद्वो । निर्मदः शांतो निर्मोहो निरुपद्रवः ॥६॥ निनिमेषो निरा। हारो निःक्रियो निरुपप्लवः । निष्कलंको निरस्तैना निधू तांगो निराश्रयः ॥७॥ विशालो विपुलज्योतिरतुलोचिंत्य Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** 5 * 2 RRAKAR vwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ६६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * वैभवः । सुसंवृतः सुगुप्तात्मा सुव्रत्सुनयतत्त्ववित् ।।८।। एकविद्यो महाविद्यो मुनिः परिवृढः पतिः। धीशो विद्यानिधिः । साक्षी विनेता विहतांतकः ॥६॥ पिता पितामहः पाता पवित्रः ।। • पावना गतिः । त्राता भिषग्वरो वयों वरदः परमः पुमान् । * ॥१०॥ कविः पुराणपुरुषो वर्षीयान्वृषभः पुरुः । प्रतिष्ठः प्रसवा हेतुर्भुवनैकपितामहः ॥११॥ इति महाशोकध्वजादिशतम् ॥ ४॥ अर्ध । श्रीवृक्षलक्षणः श्लक्ष्णो लक्षण्य शुभलक्षणः निरक्षः पुंड-1 रीकाक्षः पुष्कलः पुष्करेक्षणः ॥१॥ सिद्धिदः सिद्धसंकल्पः । । सिद्धात्मा सिद्धिसाधनः । बुद्ध बोध्यो महाबोधिर्वर्धमानो। महर्द्धिकः ॥ २ ॥ वेदांगो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवरः।। वेदवेद्यः स्वयंवेद्यो विवेदो वदतांवरः ॥३॥ अनादिनिधना व्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासनः । युगादिकृयुगाधारो युगादिर्जगदादिजः । ४ ॥ अतीन्द्रोऽतींद्रियो धींद्रो महेंद्रोऽती- 1 * द्रियार्थदृक् । अनिद्रियोऽहमिंद्रायॊ महेन्द्रमहितो महान् । १॥५॥ उद्भवः कारणं कर्ता पारगो भवतारकः । अग्राह्यो । । गहनं गुह्यं परायं परमेश्वरः ॥६॥ अनंतद्धिरमेयदिरचित्यद्धिः समग्रधीः। प्राग्रचः प्राग्रहरोऽभ्यग्रयः प्रत्यग्रोग्रयो ग्रिमोग्रजः ॥ ७॥ महातपा महातेजा महोदकों महोदयः ।। * महायशो महाधामा महासत्त्वा महाकृतिः ॥ ८॥ महा धैर्यो महावीर्यो महासंपन्महाबलः । महाशक्तिर्महाज्योति1 महाभूतिर्महाद्युति।। महामतिर्महानीतिर्महाक्षांतिर्महोदयः ।। *- 4K K R45 - * Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RAKSARASHTRARY RAM RANAAMRAMMAnnwww . बृहज्जैनवाणीसंग्रह * महाप्राज्ञो महाभागो महानंदो महाकविः ॥ १० ॥ महा महामहाकीर्तिर्महाकोतिर्महावपुः । महादानो महाज्ञानो महा* योगो महागुणः ॥ ११ ॥ महामहपतिः प्राप्तमहाकल्याणपंचकः। महाप्रभुमहाप्रातिहार्याधीशो महेश्वरः ॥ १२॥ इति श्रीवृक्षादिशतम् ॥ ५ ॥ अर्थे। महामुनिमहामौनी महाध्यानी महादमः। महाक्षमो । ॐ महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥१॥ महावतपतिर्मह्यो * महाकांतिधरोऽधिपः। महामंत्री मयोऽमेयो महोपायो महोदयः ॥ २ ॥ महाकारुण्यको मंता महामंत्रो महा* यतिः। महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपतिः ॥३॥ महाध्वाधरो धुर्यों महौदार्यों महेष्टवाक् । महात्मा महसांधाम । महर्षिर्महितोदयः ॥४॥ महाक्लेशांकुशः शूरो महाभूतपति गुरुः । महापराक्रमोऽनंतो महाक्रोधरिपुर्वशी ॥५॥ महाभवाब्धिसतारिर्महामोहाद्रिसूदनः । महागुणाकरः । * शांतो महायोगीश्वरः शमी॥ ६ ॥ महाध्यानपतियाता। । महाधर्मा महाव्रतः। महाकारिरात्मज्ञो महादेशे महे शिता ॥७॥ सर्वक्लेशापहः साधुः सर्वदोषहरो हरः । असं। ख्येयोऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः ॥ ८॥ सर्वयोगी-1 श्वरोऽचित्यः श्रुतात्मा विष्टरश्रवाः । दांतात्मा दमतीर्थेशो! * योगात्मा ज्ञानसर्वगः ॥९॥ प्रधानमात्मा प्रकृतिः परमः । * परमोदयः। प्रक्षीणबंधः कामारिः क्षेमकक्षेमशासनः॥१०॥ र प्रणवः प्रणयः प्राणः प्राणदः प्रणतेश्वरः । प्रमाणं प्राणि* - * - *-*- * - ** Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NANNANA NANrnwAAAAMR. *-- *- 1१८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह दिक्षो दक्षिणोध्वर्युरध्वरः ॥ ११ ॥ आनंदो नंदनो नंदो * वंद्योऽनियोऽभिनंदनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुररिंजयः ।। १२ ॥ इति महामुन्न्यादिशतम् ॥ ६ ॥ अर्ध । ___ असंस्कृतः सुसंस्कारः प्राकृतो वैकृतांतकृत् । अंतकृत्कातिगुः कांताश्चंताममणिरभीष्टदः ॥१॥ अजितोजितकामारिरमितोऽमितशासनः जितक्रोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितांतकः ॥२॥ जिनेंद्रः परमानंदो मुनींद्रो दुंदुभिक स्वनः । महेंद्रवंद्यो योगींद्रो यतीन्द्रो नाभिनंदनः।।शानाभयो । नाभिजो जातः सुत्रतो मनुरुत्तमः । अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरु सुधीः॥४॥ सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षा निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टभुक् शिष्टः प्रत्ययः कामनोऽनघः ॥५॥ क्षेमी क्षेमंकरोऽक्षय्यः क्षेमधर्मपतिः क्षमी । * अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥६॥ सुकृती। * धातुरिज्याहः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवाशश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्यविज्ञानः सत्यवाक्स-1 त्यशासनः । सत्याशीः सत्यसंधानः सत्यः सत्यपरायणः । * ॥ ८॥ स्थेयान्स्थवीयान्नदीयान्दवीयान्दूरदर्शनः । अणो रणीयाननणुर्गुरुरायो गरीयसां ॥९॥ सदायोगः सदाभोगः । । सदातृप्तः सदाशिवः । सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः॥ १०॥ सुघोपः सुमुखः सौम्यः मुखदः सुहितः । * सुहृत् । सुगुप्तोगुप्तिभृद्गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥११॥ इति असस्कृतादिशतम् ॥ ७॥ अयं । *RKARISHMARAKA Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *7--- AREE* ..... ....... ....... ...........vv www. . ... -- बृहज्जनवाणीसग्रह वृहन्वृहस्पतिग्मिी वाचस्पतिरुदारधीः । मनीषी धिषणो । धीमाञ्छेमुशीषो गिरांपतिः ॥ १ ॥ नैकरूपो नयस्तुंगो । नैकात्मा नैकधर्मकृत् । अविज्ञेयोऽप्रतात्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥ २ ॥ ज्ञानगो दयागर्भो रत्नगर्भः प्रभास्वरः।। पद्मगर्भो जगद्गर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः ॥३॥ लक्ष्मीवांत्रिदशाऽध्यक्षो दृढ़ीयानिन ईशिता । मनोहरो मनोज्ञांगो धीरो गंभीरशासनः ॥ ४॥ धर्मयूपो दयायागो धर्मनेमि । मुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषणः ॥ ५ ॥ अमोधवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासनः । सुरूपः सुभगस्त्यागी समयज्ञः समाहितः ॥ ६॥ सुस्थितः स्वास्थ्यभास्वस्थो नीरजस्को निरुद्धवः । अलेपो निष्कलंकात्मा वीतरागो गतस्पृहः ॥७॥ वश्येन्द्रियो नियुक्तात्मा निःसपत्नो जितेन्द्रियः । प्रशान्तोऽनन्तधामर्षिमंगलं मलहा नधः ॥ ८॥ अनीगुपमाभूतो दृष्टिबमगोचरः । अमूर्ती । * मूर्तिमानेको नैको नानकतत्त्वहक् ॥ ९॥ अध्यात्मगम्यो । गम्यात्मा योगविद्योगिवन्दितः । सर्वत्रगः सदाभावी त्रिकालविषयार्थदृक् ॥ १० ॥ शंकरः शंवदो दान्तो दमी। शान्तिपरायणः । अधिपः परमानन्दः परात्मज्ञः परात्परः । ॥ ११॥ त्रिजगवल्लभोऽभ्यर्च्यनिजगन्मलोदय । त्रिजग* पतिपूजांघिस्त्रिलोकाग्रशिखामणिः ॥ १२ ॥ इति बृहदादिशतम् ॥८॥ *RAKAKKAKASKHER* Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *R KSRK १०० वृहज्जैनवाणीसंग्रह . त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृव्रतः । सर्वलोका- : तिगः पूज्यः सालोकैकसारथिः ॥ १ ॥ पुराणपुरुषः पूर्वः । * कृत्पूर्वांगविस्तरः । आदिदेवः पुराणायः पुरुदेवोऽधिदेवता । ॥२॥ युगमुख्यो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशकः ।। कल्याणवर्णः कल्याणः कल्यः कल्याणलक्षणः ॥ ३॥ कल्याणः प्रकृतिर्दीतः कल्याणात्मा विकल्मषः । विकलंका, कलातीतः कलिलघ्नः कलाधरः ॥ ४ ॥ देवदेवो जगन्नाथो । जगद्वन्धुर्जगद्विभुः । जगद्धितषी लोकज्ञः सर्वगो जगदग्रजः । ॥५॥ चराचरगुरुर्गोप्यो गूढात्मा गूढगोचरः । सद्यो नातः । * प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसमभः ॥६॥ आदित्यवर्णो है भर्माभः सुप्रभः कनकप्रभः । सुवर्णवर्णो रुक्माभः सूर्यकोटि। समप्रभः ॥७॥ तपनीयनिभस्तुंगो बालाकाभोऽनलप्रमः * संध्याभ्रव हेमाभस्तप्तचामीकरच्छविः ॥८॥ निष्टप्तकनच्छायः कनकाञ्चनसन्निभः। हिरण्यवर्णः स्वर्णाभः । शातकुम्भनिभप्रभः ॥९॥ द्युम्नभाजातरूपाभो दीराजाम्बूनदद्युतिः । सुधौतकलधौतश्रीः प्रदीप्तो हाटकद्युतिः॥१०॥ । शिष्टेटः पुष्टिदः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टाक्षरक्षमः । शत्रुघ्नोप्रतियो- । ऽमोघः प्रशास्ता शासिता स्वभूः ॥ शान्तिनिष्ठो मुनिज्येष्ठः । । शिवतातिः शिवप्रदः । शान्तिदः शान्तिकृच्छान्तिः कांति* मान्कामितप्रदः ॥ १२ ॥ श्रेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठः पतिष्ठितः । सुस्थितः स्थावरः स्थाणुः प्रथीयान्मथितः पृथुः।।१३ । इति त्रिकालदर्यादि शतम् ॥ ६ ॥ अर्थ: Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MMMMMMMMMM KK ------ - -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ११ दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बरः। निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः ॥१॥ तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाब्धिः शीलसागरः। तेजोमयोऽमितज्योतिज्योतिमूर्तिस्तमोपह॥२॥ जगच्चूडामणिदीप्तः सर्वविघ्नविनायकः । कलिघ्नः । कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशकः ॥ । अनिद्रालुरतंद्रालुर्जागरूकः प्रमामयः । लक्ष्मीपतिर्जगज्ज्योतिधर्मराजः प्रजाहितः। * ॥४॥ मुमुक्षुधमोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथः । प्रशांतरस* शेलूलो भव्यपेटनायकः ॥५॥ मूलकर्ताखिलज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणः । आप्तो वागीश्वरः श्रेयाञ्छ्रायसोक्तिनिरुक्त। वाक् ॥६॥ प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित् । सुत स्तनुर्निमुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ॥ ७॥ श्रीशः श्रीश्रित* पादाब्जो भीतभीरभयंकरः । उत्सन्नदोषो निर्वि घ्नो निश्चलो लोकवत्सलः ॥८॥ लोकोत्तरो लोकपतिर्लोक- १ चक्षुरपारधीः । धीरधीर्बुद्धसन्मार्गः शुद्धः सूनृतपूतवाक्॥९॥ र प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिनियमितेंद्रियः । भदंतो भद्रकद्भ द्रः कल्पवृक्षो वरपदः ॥१०॥ समुन्मूलितकारिः कर्मकाष्ठा * शुशुक्षणिः । कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुहेयादेयविचक्षणः ॥११॥ अनंतशक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारिस्त्रिलोचनः। त्रिनेत्रस्न्यवक* स्त्र्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ॥१२॥ समंतभद्ः शांतारिधर्माचार्यो दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शी जितानंगः कृपालुधर्मदेशकः । ॥१३॥ शुभंयुः सुख साद्भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो। - जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥१४॥ इति दिग्वासादि शतं ॥१०॥ इत्यष्टाधिकसहस्रनामावला समाप्ता। अर्घ। *** * - - * Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwww. - -- ---* । १०२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह 4 धाम्नांपते तवामूनि नामान्यागमकोविदैः । समुच्चिता न्यनुध्यायन्पुमान्पूतस्मृतिर्भवेत् ॥१॥ गोचरोऽपि गिरामासां । * त्वमवाग्गोचरो मतः । स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं लभेत् ॥२॥ त्वमतोऽसि जगद्वन्धुस्त्वमऽतोसि जगद्भिषक् ।। * त्वमतोसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ॥३॥ त्वमेकं, जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् । त्वं त्रिरूपैकमुक्त्वगं । * सोत्थानंतचतुष्टयः ॥४॥ त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायकः। षड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः॥५॥ दिव्या गुणमूर्तिस्त्रं नवकेवलब्धिकः । दशावतारनिर्धाों मां * पाहि परमेश्वरः ॥६॥ युष्मन्नामावलीब्धाविलसत्स्तोत्रमा- . कलया। भवंतं वरिवस्यामः प्रसीदानुग्रहाण नः ॥ ७ ॥ इदं । स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिकः । यः सपाठं पठत्येन । १ स स्यात्कल्याणभाजनं ॥८॥ ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान्प ठति पुण्यधीः । पौरुहूतीं श्रियं प्राप्तुं परमाममिलाषुकः ॥९॥ * स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुं। ततस्तीर्थविहारस्य । * व्यधात्मस्तावनामिमां ।।१०॥ स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तो है ता भव्यः प्रसन्नधीः। निष्ठितार्थो भवांस्तुत्ययः फलं नैश्रेयसं सुखं ॥११॥ यः स्तुत्यो जगतां त्रयस्य न पुनः स्तोता खयं कस्य* चित् । ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वयं कस्य चित् ॥ यो नेतृन् नयते नमस्कृतिमलं नंतव्यपक्षेक्षणः । स * श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देवः पुरुः पावनः॥१२॥तं देवं । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -4+*«-«<>>> -->--><--<-«-<-K बृहज्जैनवाणीसंग्रह RRAAA SAARAAAA~ त्रिदशाधिपार्चितपदं घातिक्षयानंतरं । प्रोत्थानंतचतष्टयं जिनमिमं भव्याब्जनीनामिनं । मानस्तंभविलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकी पर्ति । प्राप्तार्चित्यवहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रचंदामहे ॥ १३ ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत् । इति श्री जिनसहस्रनामस्तवनं समाप्तम् । ५९ - भक्तामर स्तोत्र | I भक्तामर प्रणत मौलिमणि प्रभाणामुद्योतकंदं लितपापतपोवितानं । सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा वालंबनं भवजले पततां जनानां १॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्वबोधादुद्धृतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तोत्रैर्जगत्त्रितयचित्तहरैरुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जितेंद्र ॥२॥ बुद्धा विनापि विबुधार्चितपादपीठस्तोतुं समुद्यतमतिविंगतत्रपोऽहं । वालं विहाय जलसंस्थितमिदुर्विवमन्यः क इच्छति जनः सहसा गृहीतुं ॥ ३ ॥ वक्तुं गुणान्गुणसमुद्र शशांककांतान्, कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपिबुद्ध्या । कल्पांतकाल पवनोद्धतनऋचक्रं, को वा तरीतुमल मंबुनिधि भुजाभ्यां ॥ ४ ॥ सोहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश, कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगीमृगेंद्र, नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थ ||५|| अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्मां । यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, तच्चाम्रचारु १०३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १RKI ११९४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * कलिकानिकरैकहेतु ॥ ६॥ त्वत्संस्तवेन भवसंततिसनिबद्धं । पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजां। आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु, सूर्याशुभिन्नमिव शार्वरमंधकारं ॥ ७ ॥ मत्वेति । नाथ तत्र संस्तवनं मयेदमारभ्यते तनुधियापि तव प्रभा- . * वात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु, मुक्ताफलद्युतिके मुपैति ननूबिंदुः ॥८॥ आस्तां तव स्तवनमस्तसमस्तदोपं, * त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि ॥९॥ नात्यद्भुतं भुवनभूषण भूतनाथ ! भूतैर्गुणे विभवंतमभिष्टुवंतः । तुल्या भवंति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं । य इह नात्मसमं करोति ॥ १० ॥ दृष्ट्वा भवंतमनिमेपवि- । * लोकनीयं, नान्यत्र तोषमुमयाति जनस्यचक्षुः । पीत्वा पयः । शशिकरद्युतिदुग्धसिंघोः क्षारं जलं जलनिधे रसितुं क। । इच्छेत् ॥ ११॥ यः शांतरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वं निर्मा* पितत्रिभुवनैकलालमभूत । तावंत एव खलु तेप्यणवः पृथि व्यां यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥ १२ ॥ वक्त्रं व । ते सुरनरोरगनेत्रहारि, निश्शेषनिर्जितजगत्रितयोपमानं ।। विवं कलंकमलिनं क निशाकरस्य, यद्वासरे भवति पांडुपला। शकल्प ॥ १३ ॥ संपूर्णमंडलशशांककलाकलाप-शुभ्रा * गुणास्त्रिभुवनं तबलंघयंति । ये संश्रितास्त्रिजगदीश्वरनाथ* मेकं, कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टं ॥ १४ ॥ चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिनीतं मनांगपि मनो न । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह विकारमार्ग | कल्पांतकालमरुता चलिताचलेन, किं मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् || १५ || निर्धूमवर्तिरपवर्जिततैलपूरः, कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ॥ १६ ॥ नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोपि सहसा युगपज्जगंति । नांभोधरोदरनिरुद्धमहाप्रभावः सूर्यातिशायिमहिमासि मुनींद्र लोके ॥ १७ ॥ नित्योदयं दलित मोह महांघकार, गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानां । विभ्राजते तव सुखाब्जमनल्पकांति, विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकविं ॥ १८ ॥ किं शर्वरीषु शशिनाहि विवखता वा, युष्मन्सुर्खेदुदलितेषु तमस्सु नाथ । निष्पन्नशालिवनशालिनि जीवलोके, कार्य कियज्जलधरैजलभार नमैः ॥ १९ ॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं । नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु । तेजःस्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं नैवं तु काचशकले किरणाकुलेपि ॥ २० ॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति नाथ भवांतरेपि ॥ २१ ॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंति पुत्रान्, नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता । सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मि, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालं ।। २२ ।। त्वामामनंति मुनयः परमं पुमांसमादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति १०५ wwwwwww Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww । ११० वृहज्जैनवाणीसंग्रह सोय ॥को करि छीरजलधिजलपान । क्षारनीर पीवै मति* मान ॥ ११ ॥ प्रभु तुम वीतराग गुनलीन । जिन परमानु । देह तुम कीन ॥ हैं तितने ही ते परमानु । यात तुम सम । । रूप न आनु ॥ १२ ॥ कहँ तुम मुख अनुपम अविकार ।। सुरनरनागनयनमनहार । कहां चंद्रमंडल सकलंक । दिनमें ढाकपत्र सम रंक ॥ १३॥ पूरनचंद जोति छविवंत । तुमगुन तीनजगत लंधत ॥ एक नाथ त्रिभुवन आधार। तिन । विचरतको करै निवार ॥१४॥ जो सुरतिय विग्रम आरंभ ।। मन न डिग्यो तुम तौ न अचभ ।। अचल चलावै प्रलय * समीर । मेरुशिखर डगमगै न धीर ॥ १५ ॥ धूमरहित वाती गतनेह । परकाशै त्रिभुवन घर एह ॥ वातगम्य नाहीं । परचंड । अपर दीप तुम बलो अखंड ॥ १६॥ छिपहु न । लुपहु राहुकी छाहिं । जगपरकाशक हो छिनमाहिं । धन अनवर्त दाह विनिवार । रवित अधिक धरो गुणसार॥१०॥ सदा उदित विदलित मनमोह । विघटित मेघराहु अविरोह॥ । * तुम मुखकमल अपूरव चंद । जगतविकाशी जोति अमं॥१८॥ निश दिन शशि रविको नहिं काम । तुम मुखचंद हरै तमधाम ॥ जो स्वभावतै उपजै नाज । सजल मेघ तो कौनहु । काज ॥ १९ ॥ जो सुबोध सोहै तुममाहिं । हरि हर आदि। * कमें सो नाहि ॥ जो दुति महारतनमें होय । काचखंड पावै । नहिं सोय ॥२०॥ नाराच छंद. सराग देव देख मै भला विशेष मानिया । स्वरूप जाहि । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANARARANAGARAARA RAAAAAA बृहज्जैनवाणीसग्रह १११ । र देख वीतराग तू पिछानिया ।। कछु न तोहिं देखके जहां तुही विशेखिया । मनोग चित्तचोर और भूलहू न पेखिया ॥२१॥ * अनेक पुत्रवंतिनी नितंविनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और मातः प्रसूत हैं ।। दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को। गिनै दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ॥ २२॥ पुरान * हो पुमान हो पुनीत पुन्यवान हो । कहैं मुनीश अधकारनाशको सुभान हो ॥ महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके। न और मोहि मोखपंथ देय तोहि टालके ।। २३॥ अनंत नित्य चित्तकी अगम्य रम्य आदि हो । असंख्य सर्व । व्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ।। महेश कामकेतु योग ईश। योग ज्ञान हो । अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो॥२४॥ तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धिके प्रमान । तुही जिनेश शंकरो । जगत्त्रये विधानतै । तुही विधात है सही सुमोखपंथ भारत। नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थके विचारतें ॥ २५॥ नमों करूँ । * जिनेश तोहि आपदा निवार हो । नमो करूँ सुभूरि भूमि लोकके सिंगार हो ॥ नमो करूँ भवाब्धिनीरराशिशोषहेतु हो । नमो करूँ महेश सोहि मोखपंथ देतु हो ॥ २६ ॥ * चौपाई-तुम जिन पूरनगुनगन भरे। दोष गर्वकरि तुम परिहरे ॥ और देवगण आश्रय पाय । स्वप्न न देखे तुम फिर । * आय ॥ तरुअशोकतर किरन उदार । तुमतन शोभित है * अविकार ।। मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत । दिनकर दिष तिमिर* निहनंत ॥ २८॥ सिंहासन मनिकिरन विचित्र । तापर। * RKKK- SKRK * Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १RKSHER १११२ बृहज्जैनवाणीसग्रह * कंचनवरन पवित्र ॥ तुमतनशोभित किरनचिथार । ज्यों। • उदयाचल रवितमहार ॥ २१॥ कुंदपुहुपसितचमर दुरंत ।। * कनकवरन तुमतन शोभंत ॥ ज्यों सुमेरुतट निर्मल कांति।। । झरना झरै नीर उमगाँति ॥३०॥ उंचे रहै सूर दुति लोप।। * तीन छत्र तुम दिएँ अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहैं। मोती झालरसों छवि लहैं ।। ३१ ॥ दुन्दुमि शब्द गहर गम्भीर।। १ चहुँदिशि होय तुम्हारै धीर । त्रिभुवनम्न शिवसंगम करै।। मानूँ जय जय रख उच्चरै ॥ ३२ ॥ मंद पवन गंधोदक इष्ट ।। विविध कलपतरु पुहुपसुट ॥ देव करै विकसित दल सार।। * मानों द्विजपंकति अवतार ॥३३॥ तुमतन-भामण्डल जिन* चंद । सब दुलिवंत करत है मंद ॥ कोटिशख रवितेज छि पाय । शशिनिमलनिशि करै अछाय ॥३१॥ स्वगमोखमा रगसंकेत । परमधरम उपदेशनहेत ॥ दिव्य वचन तुम सिरें । । अगाध । सब भाषागर्भित हितसाध ॥ ३५॥ * दोहा-विकसितसुवरनकमलदुति, नखदुति मिलि चमकाहिं ।। तुमपद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहि ॥३६॥ एसी महिमा तुमविपै, और धरै नहिं कोय। सूरज में जो जोत है, नहिं तारागण होय ॥ ३७॥ 1 षट्पद-मदअवलिप्तकपोल-मूल अलिकुल झंकारें । तिन । सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्धतअतिधार ॥ कालवरन विकराल, * कालवत सनमुख आवै । ऐरावत सो प्रबल, सकल जन भय। * उपजावै ॥ देखि गयंद न भय करै तुम पदमहिमा छीन।। ३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAR वृहज्जैनवाणीसंग्रह ११३ । विपतिरहित संपतिसहित, वरतै भक्त अदीन ॥ ३८॥ अति । मदमत्तगयंद कुंभथल नखन विदार। मोती रक्त समेत डारि । भूतल सिंगार। वांकी दाढ विशाल, वदनमें रसना लोले।। भीमभयानकरूप देखि जन थरहर डोलै । ऐसे मृगपति * पगतलैं, जो नर आयो होय । शरण गये तुम चरणकी, बाधा करै न सोय ॥ ३९॥ मलयपवनकर उठी आग जो तास . पटतर । मैं फुलिंग शिखा उतंग परजलै निरंतर ॥ जगत समस्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानों । तड़तडाट दक्अनल, जोर चहुंदिशा उठानों । सो इक छिनमें उपशमें, नामनीर * तुम लेत । होय सरोवर परिनमै विकसित कमल समेत ॥ ॥४०॥ कोकिलकंठसमान. श्याम तन क्रोध जलंता । रक्त१. नयन फुकार, मारविषकण उगलन्ता ॥ फणको ऊंचो करै । वेग ही सन्मुख धाया । तब जन होय निशंक, देख कणपतिको आया॥जो चांपै निज पगतलैं, व्यापै विष न लगा-1 र । नागदमनि तुम नामकी है, जिनके आधार ॥४१॥ ६ जिस रनमांहिं भयानक रखकर रहे तुरंगम । घनसे गज । गरजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम ॥ अति कोलाहलमाहिं वात । जहँ नाहिं सुनीजै । राजनको परचन्ड, देख बल धीरज । छीजै ॥ नाथ तिहारे नामतै सो छिनमाहिं पलाय । ज्यों। * दिनकर परकाशर्ते अंधकार विनशाय ॥ ४२ ॥ मारै । जहां गयद कुंभ हथियार विदारै। उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै ॥ होय तिरन असमर्थ महा। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vuuuuuuuuuuuu MVON. । ११४ हज्जैनवाणीसंग्रह जोधा बलपूरे। तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर सूरे।। • दुर्जय अरिकुल जीतके, जय पावै निकलंक। तुम पदपंकज । मन वस ते नर सदा निशंक ॥ ४४ ॥ नक्र चक्र मगरादि । मच्छकरि भय उपजावै । जामैं बडा अग्निदाहत नीर * जलावै ॥ पार न पावै जास थाह नहिं लहिये जाकी। गरजै अतिगंभीर, लहरकी गिनति न ताकी ॥ सुखसों तरें । * समुद्रको, जे तुमगुनसुमराहिं । लोलकलोलनके शिखर, पार । । यान ले जाहिं ॥ १४ ॥ महाजलोदर रोग, भार. पीडित नर जे हैं। वात पित्त कफ कुष्ठ आदि जो रोग गहे हैं॥ । सोचत रहैं उदास नाहिं जीवनकी आशा। अति घिनावनी देह, धरै दुर्गधि निवासा ।। तुम पदपंकजधूलको, जो लावै निज अंग । ते नीरोग शरीर लहि, छिनमें होय । अनंग ॥ ४५ ॥ पांव कंठ जकर बांध सांकल अति भारी। गाढ़ी वेडी पैरमाहिं, जिन जांध विदारी ॥ भूख प्यास । चिंता शरीर दुख जे विललाने । सरन नाहिं जिन कोय। भूपके बंदीखाने ॥ तुम सुमरत स्वयमेव ही बंधन सब । खुल जाहिं । छिनमें ते संपति लहैं, चिंता भय विनसाहिं । ॥१६॥ महामत्त गजराज और मृगराज दवानल। फण। पति रणपरचन्ड नीरनिधि रोग महावल । बन्धन ये भय ! आठ डरपकर मानों नाशै । तुम सुमरत छिनमाहिं अभय कथानक परकाशै ॥ इस अपार संसारमें शरन नाहिं प्रभु कोय । यात तुम पदभक्तको भक्ति सहाई होय ॥४७॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RAHARASHKKR* वृहज्जैनवाणीसंग्रह १९५४ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ * यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुननसँवारी । विविधवर्णमय पुहुप गूथ मैं भक्ति विथारी ॥ जे नर पहिरे कन्ठ भावना मनमें भावें। मानतुंग ते निजाधीन शिवलछमी पा । भाषा भक्तामर कियो, हेमराज हित हेत । जे नर । पढ़े सुभावसों, ते पावै शिवखेत ।। ४८॥ इति । ६१--कल्याणमंदिरस्तोत्र। कल्याणमंदिरमुदारमवद्यभेदि भीताभयप्रदमनिंदितमघिपमं । संसारसागरनिमजदशेषजंतुपोतायमानमभिनम्य जिनेश्वरस्य ॥१॥ यस्य स्वयं सुरगुरुगरिमाबुराशेः स्तोत्रं । * सुविस्तृतमतिर्न विभुर्विधातुं । तीर्थेश्वरस्य कमठस्मयधूमकेतोस्तस्याहमेष किल संस्तवनं करिष्ये ॥२॥ सामान्यतोपि तव वर्णयितुं स्वरूपमस्मादृशाः कथमधीश भवंत्यधीशाः । धृष्टोपि कोशिकशिशुर्यदि वा दिवांधो रूपं प्ररूपयति किं किल धर्मरश्मेः ॥३॥ मोहक्षयादनुभवन्नपि * नाथ मयों नूनं गुणान्गणयितुं न तव क्षमेत् । कल्पांतवांत-* * पयसः प्रगटोऽपि यस्मान्मीयेत केन जलधेननु रत्नराशिः * ॥ अभ्युद्यतोस्मि तव नाथ जडाशयोपि कर्तुं स्तव लसद* संख्यगुणाकरस्य । बालोपि किं न निजवाहयुगं वितत्य वि स्तीर्णतां कथयति स्वधियांबुराशेः ॥५॥ ये योगिनामपि न * यांति गुणास्तवेश वक्तुं कथं भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमसमीक्षितकारितेयं जल्पंति वा निजगिरा ननु पक्षि*णोपि॥६॥ आस्तामचिंत्यमहिमा जिन संस्तवस्ते नामापि, *K -S HEX Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह पाति भवतो भवतो जगति । तीव्रा तपोपहतपांथजनान्निदायें प्रीणाति पद्मसरसः सरसो ऽनिलोपि ॥७॥ हृद्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवंति जंतोः क्षणेन निविडा अपि कर्मबंधाः । सद्यो भुजंग ममया इव मध्यभागमभ्यागते वनशिखंडिन चंदनस्य ||८|| म्रुच्यंत एव मनुजाः सहसा जिनेंद्र रौद्रैरुपद्रवशतैस्त्वयि वीक्षितेऽपि । गोस्वामिनि स्फुरिततेजसि दृष्टमात्रे चौरैरिवाशुपशवः प्रपलायमानैः ॥ ९ ॥ त्वं तारको जिन कथं भविनां त एव त्वामुद्वहंति हृदयेन यदुत्तरंतः । यद्वा दृतिस्त रंतियज्ञ्जलमेष नून: मंतर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ यस्मिन्हरप्रभृतयोऽपि हतप्रभावाः सोपि त्वया रतिपतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन पीतं न किं तदपि दुर्धरवाड्वेन ॥ ११॥ स्वामिन्ननल्पगरिमाणमपिप्रपन्नास्त्वां जंतवः कथमहो हृदये दधानाः । जन्मोदधिं लघु तरंत्यतिलाघवेन चिंत्यो न हंत महतां यदि वा प्रभावः॥१२॥ क्रोधस्त्वया यदि विभो प्रथमं निरस्तो ध्वस्तास्तदा वद कथं किल कर्मचौरा : 1 प्लोषत्यमुत्र यदि वा शिशिरापि लोके नीलडुमाणि विपिनानि न किं हिमानी || १३|| त्वां योगिनो जिन सदा परमात्मरूपमन्वेषयंति हृदयांबुजकोषदेशे । पूतस्य निर्मलरुचैर्यदि वा किमन्यदक्षस्य संभवपदं ननु कर्णिकायाः ॥१४॥ ध्यानाजिनेश भवतो भविनं क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजेति । तीव्रानलादुपलभावमपास्य लोके 1 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - - * * . वृहज्जैनवाणीसंग्रह . ११७ चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥१५॥ अंतः सदैव जिन +यस्य विभाव्यसे त्वं भव्यैः कथं तदपि नाशयसे शरीरं। एत स्वरूपमथ मध्यविवर्तिनो हि यद्विग्रहं प्रशमयंति महानु-* * भावाः ॥१६॥ आत्मा मनीपिभिरयं त्वदभेदबुद्धया ध्यातो जिनेंद्र भवतीह भवत्प्रभावः । पानीयमप्यमृतमित्यनुचिंत्यमानं किं नाम नो विषविकारमपाकरोति ॥१७॥ त्वामेव वीततमस परवादिनोऽपि नूनं विभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः। कि काचकामलिभिरीश सितोऽपि शंखो नो गृह्यते विविध वर्णविपर्ययेण ॥१८॥ धर्मोपदेशसमये सविधानुभावादास्तां । जनो भवति ते तरुरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि किं वा विबोधसुपयाति न जीवलोकः ॥१९॥ चित्रं विभो कथमवाङ्मुखतमेव विष्वक्पतत्यविरला सुरपुष्पवृष्टिः।। * त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश ! गच्छंति नूनमध एव हि । * बन्धनानि ॥२०॥ स्थाने गभीरहृदयोदधिसम्भवाया : पीयू-1 पतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परमसम्मदसंगभाजो भव्या व्रजन्ति तरसायजरांमरत्वम् ॥२१॥ स्वामिसुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो मन्ये वदन्ति शुचयः सुरचामरौघाः । येऽस्मै नतिं विदधते मुनिपुंगवाय ते नूनमूर्ध्वगतयः खलु शुद्धभावामा२२॥श्यामं गभीरगिरमुज्ज्वलहेमरत्नसिंहा-1 सनस्थमिह भव्यशिखंडिनस्त्वां । आलोकति रभसेन । नदंतमुच्चैश्वामीकराद्रिशिरसीव नवांबुवाहं ॥२३॥ उद्ग-1 च्छता तव शितिद्युतिमंडलेन लुमच्छदच्छविरशोकतरु Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww wwwwwwwwwww ११५८ हज्जैनवाणीसंग्रह भूव । सांनिध्यतोपि यदि वा तव वीतराग! नीरागता ब्रजति को न सचेतनोपि ॥२४॥ भो भोः प्रमादमवधूय । भजध्वमेनमागत्य निवृतिपुरी प्रति सार्थवाहम् । एतनिवेद-1 * यति देव जगत्त्रयाय मन्ये नदन्नभिनभः सुरदुन्दुभिस्ते॥२५॥ * उयोतितेषु भवता भुवनेषु नाथ तारान्वितो विधुरयं विह तांधकारः। मुक्ताकलापकलितोरुसितातपत्रव्याजास्त्रिधा धृतधनुर्बुवमभ्युपेतः ॥२६॥ स्वेन प्रपूरितजगत्त्रयपिंडितेन कातिप्रतापयशसामिव संचयेन। माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन सालत्रयेण भगवन्नमितो विभासि ॥२७॥ दिव्य* जो जिन नमत्रिदशांधिपानामुत्सृज्य रत्नरचितानपि * मौलिबंधान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वापरत्र त्वत्संगमे १ सुमनसो नरमंत एव ॥२८॥ त्वं नाथ जन्मजलधेर्विपरा मुखोपि यत्तारयत्यसुमतो निजपृष्ठलग्नान् । युक्तं हि पाचिनिपस्य सतस्तवैव चित्रं विभो यदसि कर्मविपाकशुन्यः । * ॥२९॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुर्गतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृतिकरप्यलिपिस्त्वमीश । अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव ज्ञान त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतु ॥३०॥ प्राग्मारसंभृतनभांसि । रनांसि रोपादुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि । तैस्तव न नाथ हता हताशो ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं * दुरात्मा ॥३१॥ यद्गर्जदूर्जितघनौघमदभ्रभीमभ्रश्यत्तडि-। न्मुसलमांसलधोरधारं । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि दधे । * तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारिकृत्यम् ॥३२॥ ध्वस्तोर्ध्वकेश Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RARAKSHA- * बृहज्जैनवाणीसंग्रह ११६ विकृताकृतिमयमुंडप्रालंबभूद्भयदवक्त्रविनियंदग्निः । प्रेतवजः प्रति भवंतमपीरितो यः सोऽस्यभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव भवनाधिप ये त्रिसंध्यमारा धयंति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः । भक्त्योल्लसत्पुलकपक्ष्मल* देहदेशाः पादद्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः॥३४॥ अस्मि नपारभववारिनिधौ मुनीश मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमंत्रे किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥३५॥ जन्मांतरेऽपि तव पादुयुग न देव मन्ये मया महितमीहितदानदक्षं । तेनेह जन्मनि * मुनीश! पराभवानां जाता निकेतनमहं मथिताशयानां॥३६॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितासि । मर्माविधो विधुरयंति हि मामनर्थाः प्रोद्यत्प्रबंधगतयः कथमन्यथते ॥३७॥ आकर्णितापि महितोपि निरीक्षितोपि नूनं न चेतसि मया विधृतोसि भक्त्या । जातोस्मि तेन जनबांधव दुःखपात्रं यस्मास्क्रियाः प्रतिफलंति न भाव शून्याः ॥३८॥ त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य कारुण्य* पुण्यवसते वशिनां वरेण्य । भक्त्या नते मयि महेश दयां । विधाय दुखांकुरोदलनतत्परतां विधेहि ॥३९॥ निःसख्यसार । शरणं शरणं शरण्यमासाद्य सादितरिपुप्रथितावदानं । त्वत्पा दपंकजमपि प्रणिधानवंध्यो वंध्योस्मि चेद्भुवनपावन हा * हतोस्मि ॥४०॥ देवेंद्रवंद्य ! विदिताखिलवस्तुसार संसारतारका विभो भुवनाधिनाथ । त्रायख देव करुणाहद मां पुनीहि । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAAAAAAAAAAAAAAAAA mmmmmmromanmaina Ann । १२० बृहज्जैनवाणीसंग्रह सीदंतमय भयदव्यसनांबुराशेः ॥४१॥ यद्यस्ति नाथ भव। दंघ्रिसरोरुहाणां भक्तेः फलं किमपि संततसंचितायाः । तन्मे । त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः स्वामी त्वमेव भुवनेत्र भवांत रेऽपि ॥४२॥ इत्थं समाहितधियो विधिवजिनेन्द्र सांद्रोल्ल-1 * सत्पुलककंचुकितांगभागाः । त्वविनिर्मलमुखांबुजबद्धल क्ष्याः ये संस्तवं तव विभो रचयंति भव्याः ॥४३।। जननयन* कुमुमदचंद्रप्रभास्वराः स्वर्गसंपदो मुक्त्वा। ते विगलितमल* निचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यते ॥४४॥ ६२-कल्याणमंदिरस्तोत्र भाषा। दोहा-परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन ॥ बदूं परमानंदमय, घट घट अन्तरलीन ॥१॥ चौपाई-निर्भय करन परम परधान । भवसमुद्रजलतारनयान ॥ शिवमंदिर अघहरन अनिंद। बंदह पासचरन , अरविंद ॥ १ ॥ कमठमानभंजन वरवीर । गरिमासागर * गुनगंभीर ॥ सुरुगुरु पार लहैं नहिं जास। मैं अजान जंपू * जस तास ॥ २ ॥ प्रभुखरूप अति अगम अथाह । क्यों है । हमसेती होय निवाह । ज्यों दिनअंध उलूको पोत । कहि । *न सकै रवि-किरन-उदोत ॥३॥ मोहहीन जानै मन माहिं । तोहु न तुम गुन वरने जाहिं ॥ प्रलयपयोधि करै । * जल बौन । प्रगटहिं रतन गिनै तिहिं कौन ॥ ४॥ तुम का असंख्य निर्मल गुनखान । मैं मतिहीन कहूं निजवान ॥ ज्यों बालक निज बांह पसार । सागर परमित कहै विचार॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K R -5- 5ARKARY बृहज्जैनवाणीसंग्रह १२५ ॥ ६३-एकीभावस्तोत्र। एकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबंधो घोरं दुःख * भवभवगतो दुर्निवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेन्जेतुं शक्यो भवति न तया कोपरस्ताप* हेतुः॥ १ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्यांतविध्वंसहेतुं त्वामे, वाहुर्जिनवर चिरं तत्त्वविद्याभियुक्ताः । चेतो वासे भवसिं च मम स्फारमुद्रासमानस्तस्मिन्नहः कथमिव तमो वस्तुतो। वस्तुमीष्टे ॥२॥ आनंदाश्रुस्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्प-1 न्यश्चायेत त्वयि दृढ़मनाः स्तोत्रमंत्रैर्भवत । तस्याभ्यस्ता* दपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यानिष्कास्यते विविधविषमव्याधयः कान्वेयाः॥३॥ प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्पृथिवीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदं । ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वांतगेहं प्रविष्टस्ततिक चिंत्र जिन* वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि ॥ ४॥ लोकस्यैकस्त्वमसि भगव* निनिमित्तेन वन्धुस्त्वय्येवासौ सकलविषया शक्तिरप्रयत्नी का। भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्तशय्यां मय्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेशयूथ सहेथाः ॥ ५॥ जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घ भ्रमित्वा प्राप्तवैयं तव नयकथा स्फारपीयूषवापी । तस्या मध्ये हिमकरहिमव्यूहशीते नितांत । , निर्मग्नं मां न जहति कथं दुःखदावोपतापाः॥६॥ पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीहे माभासो भवति सुरभिः श्रीनिवासश्चपद्मः । सर्वांगेण स्पृशति भगवन्स्त्वय्य ARRRRR* Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M K ARKR-SAMSKRR* a AAAAAAAAAAAR r uk १२८ वृहज्जैनवाणीसग्रह । नामभिमतफलाः पारिजाता भवंति ॥२१॥ कोपावेशो न तव । नतव क्वापि देव प्रसादो व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपेक्षयैवानपेक्षं । आज्ञावश्यं तदपि भुवनं सन्निधिरहारी क्वैवंभूतं । भुवनतिलक ! प्राभवं त्वत्परेसु ॥२२॥ देव स्तोतुं त्रिदिवग-1 णिकामंडलीगीतकीर्ति तोतूति त्वां सकलविषयज्ञानमूर्ति ज* नो यः । तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पंथास्तत्त्वग्रंथ। स्मरणविषये नैष मोमूर्ति मर्त्यः ॥२३॥ चित्ते कुर्वनिरवधि सुखज्ञानदृग्वीर्यरूपं देव तां यः समयनियमादादरेण स्तवीति । श्रेयोमार्ग स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा कल्याणानां भवति विषयः पंचधा पंचितानां ॥२४॥ भक्तिप्रमहेंद्रपूजितपद त्वत्कीर्तने न क्षमाः सूक्ष्मज्ञानदृशोपि संयमभृतः के हंत मंदा वयं । अस्माभिः स्तवनच्छलेन तु परस्त्व- । य्यादरतन्यते स्वात्माधीनसुखैपिणां सखलु नः कल्याण। कल्पद्रुमः ॥५५|| वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु । तार्विकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ॥२६॥ ६४-एकीभावस्तोत्र भाषा। दोहा-वादिराज मुनिराजके, चरणकमल चित लाय। ___ माषा एकीभावकी, करूँ स्वपर सुखदाय ॥१॥ - रोला छन्द अथवा "अहो जगत गुरुदेव०"वीनतोको चालमें।। ___ जो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी । सो मुझ । कर्मप्रबंध करत भव भव दुख भारी॥ ताहि तिहारी भक्ति। -ke-karnaSasareenkanaSance-rkersentencessnearete-assurance-rankar* Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ romanimun.AVARANA वृहज्जैनवाणीसंग्रह १ जगतरवि जो निरवारै । तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदार॥ १॥ तुम जिन जोतिखरूप दुरित अँधियारि। निवारी । सो गणेश गुरु कहैं तत्वविद्याधनधारी ॥ मेरे * चितघरमाहिं वसौ तेजोमय यावत। पापतिमिर अवकाश तहां सो क्योंकरि पावत ॥२॥ आनंदआंसूघदन धोय। तुमसों चित सानै। गदगद सुरसों सुयशमंत्र. पढ़ि पूजा ठानें । ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकालनिवासी। भाजै थानक छोड़ देहवांवइके वासी ॥३॥ दिवितै आवन* हार भये भविभागउदयवल। पहलेही सुर आय कनक मय कीय महीतल ॥ मनगृहध्यानदुवार आय निवसो। जगनामी । जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी * ॥४॥ प्रभु सब जगके विनाहेतुबांधव उपकारी। निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी ।। भक्तिर चित ममचित्त सेज * नित बास करोगे। मेरे दुखसंताप देख किम धीर धरोगे ॥५॥ भववनमें चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम श्रुतिकथापियूषवापिका भागन पाई ॥ शशि तुषार धनसार । * हार शीतल नहिं जा सम। करत न्हौन तामाहिं क्यों न भवताप बुझे मम ॥६॥ श्रीविहार परिवाह होत. शुचिरूप * सकल जग । कमलकनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग ॥ मेरो मन सर्वग परस प्रभुको सुख पावै । अब सो कौन कल्यान जो न दिन दिन ढिग आवै.॥७॥ भवतज । सुखपद बसे काममदसुभट संहारे । जो. तुमको निरखंत । K ----- * Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० , वृहज्जैनवाणीसंग्रह सदा प्रियदास तिहारे || तुमवचनामृतपान भक्ति अंजुलि सों पीवै । तिन्हें भयानक क्रूररोगरिषु कैसे छी ||८|| मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर । ऐसे और अनेक रतन दीखें जगअंतर || देखत दृष्टिप्रमान मानमद तुरत मिटावै । जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावै ॥ ९ ॥ प्रभुतन पर्वतपरस पवन उरमें निवहै है । तासों ततछिन सकल रोगरज वाहिर है है । जाके ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं । कौन जगत उपकारकरन समरथ सो नाहीं ॥ १० ॥ जनम जनमके दुःख सहे सब ते तुम जानो । याद किये मुझ हिये लगै आयुधसे मानों । तुम दयाल जगपाल स्वामि मै शरन गही है। जो कछु करनो होय करो परमान वही है ॥ ११ ॥ मरनसमय तुम नाम मंत्र जीवकतै पायो । पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो || जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरंतर | इन्द्रसम्पदा लहै कौन संशय इस अंतर || १२ || जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै । अनवधि सुखकी सार भक्ति कूँची नहिं लावै ॥ सो शिववांछक पुरुष मोक्षपट केम उघारे । मोह मुहर दिन करी मोक्ष मंदिरके द्वारे ||१३|| शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अतिछायो । दुखसरूप बहु कूपखाडसों बिकट बतायो । खामी सुखसों तहां कौन जन मारग लागें । प्रभुप्रवचनमणिदीप जोतके आगैं आगैं ॥१४ ॥ कर्मपटलभूमाहिं दबी आतमनिधि भारी । देखत अतिसुख होय विमुखजन नाहिं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RKEKKERS-15HREKK 1.ས བཀའགག བགམ བཀའག ཀཀཀཀ - MANANAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA. . वृहज्जैनवाणीसंग्रह १३१ । उधारी ॥ तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धार । थुति । कुदालसों खोद बंद भू कठिन विदार ॥१५॥ स्यादवादगिरि उपजै मोक्ष सागर लो धाई। तुम चरणांबुज परस। भक्तिगंगा सुखदाई । मोचित निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव । तामैं । सव वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं ॥१६॥ तुम शिवसुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो । मैं भगवान । समान भाव यो वरतै मेरो॥ यदपि झठ है तदपि तृप्ति । निश्चल उपजावै । तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥१७॥ वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवनमें व्यापै।। मंगतरंगिनि विकथवादमल मलिन उथापै ॥ मनसुमेरुसों। मथै ताहि जे सम्यग्ज्ञानी। परमामृत सों तृषत होहिं ते । चिरलों पानी ॥१८॥ जो कुदेव छविहीन वसन भूषन अभि१ लाख ॥ वैरी सो भयभीत होय सो आयुध राखै ॥ तुम * सुंदर सर्वग शत्रु समग्थ नहिं कोई । भूषन वसन गदादि । ग्रहन काहेको होई ॥ १९॥ सुरपति सेवा करै. कहा प्रभु प्रभुता तेरी । सो सलाधना लहै मिटै जगसों जगफेरी । तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकंत उचरिये। तुही जगतजनपाल नाथथुतिकी थुति करिये ॥२०॥ वचनजाल जड़ रूप आप चिन्मूरति झांई । ताः थुति आलाप नाहिं पहुंचे। है तुम ताई ॥ तो भी निर्फल नाहिं भक्तिरसमीने वायक। संतनको सुरतरु समान वांछित वरदायक ॥२१॥ कोप कमी नहिं करो प्रीति कबडूं नहिं धारो । अति उदास.बेचाहः चित्त * -* -5225 * Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર वृहज्जैनवाणीसंग्रह 1 जिनराज तिहारो ॥ तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये। यह प्रभुता जगतिलक कहां तुम बिन सरदहिये ||२२|| सुरतिय गावै सुजश सर्वगति ज्ञानस्वरूपी । जो तुमको थिर होहिं नमैं भविआनंदरूपी ॥ ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहि हो है | श्रुतके सुमरनमाहिं सो न कबहूं नर मोहै ||२३|| अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चितमें धारै। आदरसों तिहुंकालमाहिं जगथुति विस्तारै || सो सुक्रत शिवपंथ भक्तिरचना कर पूरै । पंचकल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुख चूरें ||२४|| अहो जगपति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे । तुम गुनकीर्तनमाहिं कौन हम मंद विचारे || श्रुति छलसों तुमविषै देव आदर विस्तारे । शिवसुखपूरनहार कलपतरु यही हमारे ॥२५॥ वादिराज मुनि अनु, वैयाकरणी सारे । वादिराज मुनि अनु, तार्किक विद्यावारे || वादिराज मुनितें अनु हैं काव्यनके ज्ञाता । वादिराज मुनि अनु हैं भविजनके त्राता ॥ दोहा - मूल अर्थ बहुविधिकुसुम, भाषा सूत्र मँझार । भक्तिमाल 'भूधर' करी, करो कंठ सुखकार ॥ १ ॥ ६५ - विषापहारस्तोत्र | स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्त व्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः। प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥१॥ परैरैचित्यं युगभारमेकः स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः । स्तुत्योद्य मेसौ वृषभो न भानोः किमप्रवेशे विशति प्रदीपः ||२|| तत्याज शक्रः शकनामिमानं नाहं त्यजामि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह www.* १३३ wwwwwww.w wwwwwwww स्तवनानुबंधं । स्वल्पेनः बोधेन ततोधिकार्थ वातायनेनैवनिरूपयामि ||३|| त्वं विश्वदृश्वा सकलैरदृश्यो विद्वानशेषं निखिलैरवेद्यः । वक्तुं कियान्कीदृशमित्यशक्यः स्तुतिस्ततो शक्तिकथा तवास्तु ||४|| व्यापीडित बालमिवात्मदोषैरुलाघतां लोकमवापिपस्त्वं । हिताहितान्वेषणमांद्यभाजः सर्वस्य जंतोरसि बालवैद्यः ॥५॥ दाता न हर्ता दिवसं विव.. स्वानद्यश्व इत्यच्युतदर्शिताशः । सव्याजमेवं गमयत्यशक्तः क्षणेन दत्सेभिमतं नताय ॥ ६ ॥ उपैति भक्त्या सुमुखः सुखानि त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दुःखं । सदावदातद्युतिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ॥ ७ ॥ अगाधतान्धेः स यतः - पयोधिमेरोश्च तुंगाप्रकृतिः स यत्रः । द्यावापृथिव्यो पृथुता तथैव व्याप त्वदीया भुवनांतराणि ॥ ८ ॥ तवानस्था परमार्थतत्त्वं त्वया न गीतः पुनरागमश्च । दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमैषीर्विरुद्धवचोऽपि समंजसस्त्वं ॥ ९ ॥ स्मरः सुग्धो भवतैव तस्मिन्नुद्धूलितात्मा यदि नाम शंभुः । अशेत वृंदोपहतोपि विष्णुः किं गृह्यते येन भवानजागः ॥ १०॥ 'सनीरजाः स्यादपरोघवान्वा तद्दोषकीत्यैव न ते गुणित्वं ॥ स्वतबुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥११॥ कर्मस्थिति जंतुरनेकभूमिं नयत्यमुं सा च परस्परस्य । त्वंनेतृभावं हि तयोर्भवाब्धौ जिन्द्र नौनाविकयोरिवाख्यः ॥ १२ ॥ सुखाय दुःखानि गुणाय दोषान्धर्माय पापानि समाचरंति । तैलाय बालाः सिकतासमूहं निपीडयंति स्फु wwwwwwwwww Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४" वृहज्जेनवाणीसंग्रह टमत्वदीयाः ॥ १३ ॥ विषापहारं मणिमौषाधानि मंत्रं समुदिश्य रसायनं च । भ्रम्येत्यहो न त्वमतिस्मरंति पर्यायनामानि तवैव तानि ॥ १४ ॥ चित्ते न किंचित्कृतवानसि त्वं देवः कृतश्चेतसि येन सर्वं । हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्र सुखेन जीवत्यपि चित्तवाह्यः ॥ १५ ॥ त्रिकालतत्त्वं त्वमवैत्रिलोकीस्वामीति संख्यानियतेरमीषां । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यंस्तेन्येपि चेद्वयाप्स्यदम्नपीदं || १६ || नाकस्य पत्युः परिकर्म रम्यं नागम्यरूपस्य तवोपकारि । तस्यैव हेतु: स्वसुखस्य भानोरुद्विभ्रतछन्नमिवादरेण ॥ १७ ॥ कोपेक्षकस्त्वं क्व सुखोपदेशः स चेत्किमिच्छा प्रतिकूलवादः । क्वासौ क्व वा सर्वजगत्प्रियत्वं तन्नो यथातथ्यमवेविजं ते ॥ १८ ॥ तुंगात्फलं यत्तद किंचनाच्च प्राप्यं समृद्धान धनेवरादेः । निरंभसोप्युच्चतमा दिवाद्रेर्नैकापि निर्याति- धुनीपयोधेः ॥ १९ ॥ त्रैलोक्यसेवानियमाय दंडं दधे यादेंद्रो विनयेन तस्य । तत्प्रातिहार्य भवतः कुतस्त्यं तत्कर्मयोगाद्यदि वा तवास्तु ॥ २० ॥ श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वः श्रीमानकश्वित्कृपणं त्वदन्यः । यथा प्रकाश स्थितमंधकारस्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमःस्थं ॥ २१ ॥ स्ववृद्धिनिः श्वासनिमेषभाजि प्रत्यक्षमात्मानुभवेपि मूढः । किं चाखिलज्ञेयविवर्तिबोधस्वरूपमभ्यक्षमवैति लोकः ||२२|| तस्यात्मजस्तस्य पितेति देव त्वां येऽवगायंति कुलं प्रकाश्य । तेद्यापि नन्वाश्मनमित्यवश्यं पाणौ कृतं हेम पुनस्त्यंजति AAAAA AAAAA Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** ANNARRANARANARANAANN +456226HKA वृहज्जैनवाणीसंग्रह १३५ ॥ २३ ॥ दत्तत्रिलोक्यां पटहोभिभूताः सुरासुरास्तस्य महा न्स लामः। मोहस्य मोहस्त्वयि को विरोधुमूलस्य नाशो । * बलचद्विरोधः॥२४॥मार्गस्त्वयको ददृशे विमुक्तेश्चतुर्गती ना गहनं परेण । सर्व मया दृष्टिमिति स्मयेन त्वं माकदाचिद्भुजमालुलोके ॥ २५ ॥ स्वर्भानुरकस्य हविर्भुजोंमः । कल्पांतवातोंबुनिधेर्विधातः । संसारभोगस्य वियोगभावो, । विपक्षपूर्वाभ्युदयास्त्वदन्ये ॥ २६ ॥ अजानतस्त्वां नमतः । फलं यत्तज्जानतोन्यं न तु देवतेति । हरिन्मणि काचधिया दधानस्तं तस्य बुद्ध्या वहतो न रिक्तः ॥२७॥ प्रशस्तवाचश्चतुराः कषायैर्दग्धस्य देवव्यवहारमाहुः । गतस्य दीप स्य हि नंदितत्वं दृष्टं कपालस्य च मंगलत्वं ॥२८॥ नानर्थ। मेकार्थमदस्त्वदुक्तं हितं वचस्ते निशमव्य वक्तुः । निदापतां के न विभावयति ज्वरेण मुक्तं सुगमः स्वरेण ।। २९ ॥ न कापि वांछा ववृत्ते च वाक्ते काले क्वचित्कोपि । १ तथा नियोगः। न पूरयाम्यंबुधिमित्यदंशुः स्वयं हि शीत युतिरभ्युदेति ॥३०॥ गुणा गभीराः परमाः प्रसन्ना बहुप्रकारा बहवस्तवेति । दृष्टोयमंतः स्तवने न तेषां गुणो । गुणानां किमतः परोस्ति ॥३१॥ स्तुत्या परं नाभिमतं हि मक्त्या स्मृत्या प्रणत्या च ततो भजामि । स्मरामि देवं । प्रणमामि नित्यं केनाप्युपायेन फलं हि साध्यं ॥ ३२॥ ततस्रिलोकीनगराधिदेवं नित्यं पर ज्योतिरनंतिशक्ति । * अपुण्यपापं परपुण्यरेतुं नमाम्यहं वंद्यमवंदितारं ॥३३॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * P AAAAAAAAAAAAAAAI RAKA बृहज्जैनवाणीसंग्रह । अशब्दमस्पर्शमरूपगंध त्वां नीरसं तद्विषयाववोधं । सर्व* स्यमातारममेयमन्यैर्जिनेंद्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥ ३४ ॥ * अगाधमन्यैर्मनसाप्यलध्यं निष्किंचनं 'प्रार्थितमर्थवद्भिः ।। विश्वस्य पारं तमदृष्टपारं पति जिनानां शरणं व्रजामि ॥३५॥ - त्रैलोक्यदीक्षा गुरवे नमस्ते यो बर्द्धमानोपिनिजोन्नतोभूत् ।। प्राग्गंडशैलः पुनरद्रिकल्पः पश्चान्न मेरु कुलपर्वतोऽभूत् ।।३६॥ में स्वयंप्रकाशस्थ दिवा निशा वान वाध्यता यस्य न बाधकत्वं । * न लाघवं गौरवमेकरूपं वंदे विभुं कालकलामतीतं ॥३७॥ । इति स्तुति देव विधाय दैन्याद्वरं न याचे त्वमुपेक्षकोसि ।। * छायातरं संश्रयतः स्वतः स्यात्कश्छायया याचितयात्मलाभः । *॥३८॥ अथास्मि दित्सा यदि वोपरोधस्त्वय्येव सक्तां दिश । भक्तिबुद्धिं । करिष्यते देव तथा कृपां मे को वात्म पोष्ये सु-१ मुखो न सरिः ॥ ३९ ।। वितरति विहिता यथाकथंचिजिन । विनताय मनीषितानि भक्तिः । त्वयिनुति विषया पुनर्विशेपादिशति सुखानि यशो 'धनंजय' च ॥४०॥ इति ।। ६६-विषापहारभाषा। दोहा--नमों नामिनंदन वली, तत्त्वप्रकाशनहार । तुकालकी आदिमें, भये प्रथम अवतार ॥ १ ॥ काव्य वा रोला छंद। निज आतममें लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे। जानत सब व्यापार संग नहिं कछु तिहारे।। बहुत कालके हौधुनि जरा। न देह तिहारी । जैसे पुरुष पुरान करहु रछया जु हमारी । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १३७ ||१|| परकरिकै जु अचित्य भार. जुगको अति भारो । सो एकाकी भयो वृषभ कीनों सितारो ॥ करिन सके जोगिंद्र तवन मैं करिहौताको । भानु प्रकाश न करै दीप तमहरै गुफाको ||२|| स्तवनकरनको गर्भ तज्यो सकी बहु ज्ञानी । मै नहि तजैौ कदापि स्वल्पज्ञानी शुभध्यानी । अधिक अर्थको कहूं यथाविधि बैठि झरोके । जालांतरधरि अक्ष भूमिधरकों जु विलोकै ||३|| सकल जगतकों देखत अर सबके तुम ज्ञायक | तुमको देखत नाहि नाहिं जानत सुखदायक ॥ हौ किसाक तुम नाथ और कितनाक बखाने । तातें श्रुति नहिं बनै असक्ती भये सयान || ४ || बालकवत निजदोषपथकी इहलोक दुखी अति । रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ॥ हित अनहितकी समझिमांहि हैं मंदमती हम | सब प्राणिनके हेत नाय तुम. बालवैद सम ॥५॥ दाता हरता नाहि भानु सबकौ वहकावत । आजकालके छलकर नितप्रति दिवस गुमावत ॥ हे अच्युत जो भक्त नमैं तुम चरनकमलकों । छिनक एकमें आप देत मनवांछित फलको ॥ ६ ॥ तुमसों सन्मुख रहे भक्तिसौं सो सुख पावै । जो सुभावतै विमुख आपतें दुखहि बढावै ॥ सदा नाथ अवदात एकद्युतिरूप गुसांई । इन दोन्योंके हेत स्वच्छ दरपणवत झांई ||७|| हैं अगाध जलनिधी समुदजल है जि - तनों ही । मेरू तुंगसुभाव सिखरलौं उच्च भन्यो ही ॥ वसुधा अर सुरलोक एहु इसभांति सई है। तेरी प्रभुता देव भुव vvvvvvvvv --- wwwwwwwww.M M550 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *SARKARK-45-HI K ARKe* wwwwwwwwww vu Vuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuuu * १४२ हज्जैनवाणीसंग्रह शी देव रैन दिनकू नहिं बाधित । दिवस रात्रि भी छ । • आपकी प्रभा प्रकाशित ॥ लाघव गौरव नाहिं एकसो रूप । तिहारों। कालकलाते रहित प्रभूसू नमन हमारो ॥ ३७॥ ॥ * इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम । जाचूं वर । न कदापि दीन है रागरहित तुः ॥ छाया बैठत सहज वृक्षके नीचे है है। फिर छायाकों जाचत यामैं प्रापति क्वै । । है ॥ ३८ ॥ जो कुछ इच्छा होय देनकी तौ उपगारी । यो । । बुधि ऐसी करूं प्रीतिसौं भक्ति तिहारी ॥ करो कृपा जिन-1 * देव हारे परि है तोषित । सनमुख अपनो जानि कौन पंडि त नहिं पोषित ॥ ३९ ॥ यथाकथंचित भक्ति रचै चिनईजन केई । तिनकू श्रीजिनदेव मनोवांछित फल देही । फुनि । विशेष जो नमत संतजन तुमको ध्यावै । सो सुख जस। 'धन-जय प्रापति है शिवपद पावै ॥ ४० ॥ श्रावक माणि* कचंद सुबुद्धी अर्थ बताया। सो कवि 'शांतीदास' सुगम- । * करि छंद बनाया । फिरि फिरिकै ऋषि रूपचंद ने करी। प्रेरणा । माला स्तोतर विषापहारकी पढ़ो भविजना ॥४१॥ ६७-जिनचतुर्दिशीतका।। श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदं वाग्देवीर* तिकेतनं जयरमाक्रीड़ानिधानं महत् । स स्यात्सर्वमहोत्सवै* कभवनं या प्रार्थितार्थपदं प्रातः पश्यति कल्पपादपदल- 1 च्छायं जिनाघ्रिद्वयं ॥ १ ॥ शांतं वपुः श्रवणहारि वचश्चरित्रं । * सर्वोपकारि तवं देव ततः श्रुतज्ञाः । संसारमारवमहास्थलरु* 5 * 22 * Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARMA बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५४३ सांद्रच्छायामहीरुहमवंतमुपाश्रयते ॥२॥ स्वामिनय विनिगतोऽस्मि जननीगर्भाधकूपोदरोदयोद्घाटितदृष्टिरस्मि फलब* जन्मासि चाद्य स्फुट । त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानंदाय लोक* त्रयीनेत्रेदीवरकाननेंदुममृतस्यंदिप्रभाचंद्रिक ॥ निःशेषत्रि दशेंद्रशेखरशिखारत्नमदीपावली सांद्रीभूतमृगेंद्रविष्टरतटीमाणिक्यदीपावलिः । क्वेयं श्रीः क्व च निःस्पृहत्वमिदमित्यहातिगस्त्वादृशः सर्वज्ञानदृशश्चरित्रमहिमा लोकेश ! लो कोत्तरः॥४॥ राज्य शासनकारिनाकपति यत्त्यक्तं तृणावया * हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा यन्मोहमल्लो जितः । लोका लोकमपि स्वबोधमुकुरस्यांतः कृतं यत्त्वया सैषाश्चर्यपरं परा जिनवर क्वान्यत्र संभाव्यते ॥५॥ दानं ज्ञानधनाय * दत्तमसकृत्पत्राय सवृत्तये चीर्णान्युग्रतपांसितेन सुचिरं । * पूजाश्च बह्वयः कृतः । शीलानां निचयः सहामलगुणैः सर्वः ।। ॐ समासादितो दृष्टस्त्वं जिन येन दृष्टिसुभगः श्रद्धापरेण क्षणं ॥६॥ प्रज्ञापारमितः स एव भगवान्पारं स एव श्रुतस्कंधाVब्धेगुर्णरत्नभूषण इति श्लाध्यः स एव ध्रुवं । नीयते जिन * येन कर्णहृदयालंकारतां त्वद्गुणाः संसाराहिविषापहारम*णयस्त्रैलोक्यचूडामणेः ॥७॥ जयति दिविजवृंदान्दोलितैरिंदुरो । * चिनिचयरुचिभिरुच्चैश्चामरैवींज्यमानः । जिनपतिरनुर-1 * ज्यन्मुक्ति साम्राज्यलक्ष्मी युवतिनवकटाक्षक्षेपलीलां दधानः ।। ॥८॥ देवः श्वेतातपत्रत्रयचमरिल्हाशोकभाश्चक्रभाषापुष्पौषासारसिंहासनसुरपटहैरष्टभिः प्रातिहार्यैः। साश्चर्यै*- - * *- *- * Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * वरसो दृष्टेरियान्वर्तते । साक्षात्तत्र भवंतमीक्षितवतां कल्याkणकाले तदा देवानामनिमेषलोचनतया वृत्तः स किं वर्ण्यते । ॥२४॥ दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं दृष्टं । सिद्धरसस्य सम सदनं दृष्टं च चिंतामणेः । किं दृष्टेरथवा* नुषंगिकफलैरेभिर्मयाद्य ध्रुवं दृष्टं मुक्तिविवाहमंगलगृहं दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥२५॥ दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्रविकसद्भूपेंद्रनेत्रो। स्पलैः स्नातं त्वन्नुतिचंद्रिकांभसि भवद्विद्वच्चकोरोत्सवे । । नीतश्चाद्य निदाघजः क्लमभरः शांतिं मया गम्यते देव !! । त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात्पुनदर्शनं ॥ २६ ॥ इति ॥ । ६८-भूपालचतुर्विंशतिका भाषा। सकल सुरासुर पूज्य नित, सकलसिद्धि दातार ।। जिनपदवंदू जोर कर, अशरनजनआधार ॥१॥ चौपाई-श्रीसुखवासमहीकुलधाम । कीरतिहर्षणथल- । अभिराम ॥ सरसुतिके रतिमहल महान । जय जुवतीको * खेलन थान ।। अरुण वरण बंछित वरदाय। जगतपूज्य ऐसे जिन पाय ॥ दर्शन प्राप्त करै जो कोय । सब शिवथानक सो जन होय ॥१॥ निर्विकार तुम सोमशरीर। श्रवणसुखद बाणी गम्भीर ॥ तुम आचरण जगतमें सार।। सब जीवनको है हितकार ॥ महानिंद भवमारू देश। तहाँ । * तुंग तरु तुम परमेश ॥ सघनछांहिंमंडित छवि देत। तुम पंडित सेवै सुखहेत ॥२॥ गर्भकूपते निकस्यौ आज । अब लोचन उघरे जिनराज ॥ मेरो जन्म सफल भयो अवै।। * --- * Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KRAKAR-SAMRA * vvvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह १४७ शिवकारण तुम देखे जबै ॥ जगजननैनकमलबनखंड । विक- सावनशशिशोकविहंड ॥ आनंदकरनप्रभातुमतणी । सोई ।। अमी झरन चांदणी ॥३॥ सब सुरेन्द्र शेखर शुभ रैन । तुम आसन तट माणक ऐन ॥ दोऊं दुति मिल झलकै जोर।। * मानों दीपमाल दुहं ओर ॥ यह संपति अरु यह अनचाह । कहां सर्वज्ञानी शिवनाह ॥ तातै प्रभुता है जगमांहिं । सही " असम है सशय नाहि ।। सुरपति आन अखंडित बहै। तृण ज्यों। राज तज्यो तुम वहै । जिन छिनमै जगमहिमा दली । जी त्यो मोहशत्रु महाबली ॥ लोकालोक अनंत अशेख । कीनो। * अंत ज्ञानसों देख ॥ प्रभु प्रभाव यह अद्भुत सबै । अवर दे मैं भूल न फबै ॥५॥ पात्रदान तिन दिन दिन दियो। तिन चिरकाल महातप कियो । वहुविध पूजाकारक वही । सर्व। शील पाले उन सही ॥ और अनेक अमलगुणरास । प्रापति। आय भये सब तास ॥ जिन तुमशरधासों कर टेक । दृगवल्लभ देखे छिन एक ॥ त्रिजगतिलक तुम गुणगण जेह । भवभुजंगविषहरमणि तेह ॥ जो उरकाननमाहिं सदीन । भूषण कर पहरै भवि जीव ॥ सोई महामती संसार । सो श्रुतसागर पहुंचे। पार ।। सकल लोकमें शोभा लहै । महिमा जाग जगतमैं वहै ।। दोहा-सुरसमूह ढोलै चमर, चंदकिरणयुति जेम। नेवतनबधूकटाक्षतें, चपल चलें अतिएम ॥ छिन छिन ढलक खामिपर, सोहत ऐसो भाव । किधौं कहत सिघि लच्छिसों, जिनपतिके ढिग आव ॥८॥ * -- ------- ---* न . 1 जान 3 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ARMARKSARAK Vvvvvvvvv vvvvvvwwwwvv १ १४८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * चौपाई-शीशछत्र सिंहासन तलै। दिपै देहदुति चामर ढलैं॥ * वाजे दुंदुभि वरसै फूल। दिगअशोक वाणी सुखमूल ।। इहिविधि अनुपम शोभा मान । सुरनरसमा पदमनीभाना। लोक । नाथ बर्दै शिरनाय । सो हम शरण होहु जिनराय ॥ सुरगन। दंत कमलवनमांहि । सुरनारीगण नाचत जाहि । बहुविध । * बाजे गजें थोक। सुन उछाह उपजै तिहुंलोक ॥ हर्षत हरिन । । जै उच्चरै । सुमनमाल अपछर कर धरै ॥ यो जन्मादि समय । * तुम होय । जयो देव देवागम सोय ॥१०॥ तोप बढावन तुम मुखचंद । जननयनामृतकरन अमंद ॥ सुंदर दुतिकर । * अधिक उजास। तीनभवन नहिं उपमा तास ॥ ताहि निरसि । सनयन हम भये । लोचन आज सुफल कर लये ॥ देखनयोग । * जगतमें देख । उमग्यो उर आनंद विशेख ॥११॥ कैयक यो । मानै मतिमंद । विजितकाम विधि ईश मुकंद ।। ये तो हैं । । वनितावश दीन । कामकटकजीतनवलहीन ।। प्रभु आगै सुर कामिनि करै । ते कटाक्ष सब खाली परै ॥ यात मदनवि* ध्वंसन वीर। तुम भगवंत और नहिं धीर ॥१२॥ दर्शनीति । । हिये जब जगी। तवै आम्रकोपल बहु लगी॥तुम समीप उठ आवन ठयो। तवसो सघन प्रफुल्लित भयो । अबहूं निज । नैनन ढिग आय । मुखमयंक देख्यो जगराय । मेरो पुन विरख इहबार । सुफलफल्यो सवसुखदातार ॥१३॥ । * दोहा-त्रिभुवनवनमें विस्तरी कामदवानल जोर। वाणीवरषाभरणसों, शांति करहु चहुँ ओर ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह इंद्र मोर नाचै निकट, भक्तिशाव घर मोह । मेघ सघन च बीस जिन, जैवंते जग होय ॥१४॥ चौपाई - भविजनकुमुदचंद सुखदैन । सुरनरनाथप्रमुखजगजैन || ते तुम देख रमै इह भांति । पहुप गेह लह ज्यों अलि पांत || शिरधर अंजुलि भक्तिसमेत । श्रीगृहप्रति परिदक्षण देत || शिवसुखकीसी प्रापति भई । चरणछांहसों भवतप गई । वह तुमपदनखदर्पण देव | परम पूज्य सुंदर स्वयमेव ॥ तामै जो भविभागविशाल । आनन अविलोकै चिरकाल || कमलाकीरति कांति अनूप | धीरजप्रमुख सकल सुखरूप ॥ वे जगमंगल कौन महान । जो न लहै वह पुरुष प्रधान ॥ १६ ॥ इंद्रादिक श्रीगंगा जेह उत्पतिथान हिमाचल येह || जिनमुद्रामंडित अतल । हर्ष होय देखे दुःख नरौ || शिखर ध्वजागण सोहैं एम । धर्मसुतरुवर पल्लव जेम | यों अनेक उपमाआधार | जयो जिनेश जिनालय सार ||१७|| शीश नवाय नमत सुरनार । केशकांतिमिश्रित मनहार ॥ नखउद्योत वरतैं जिनराजे | दशदिशपूरित किरण समाज | स्वर्गनागनरनायक संग | पूजत पायपद्मअतुलंग ॥ दुष्टकर्मदल दलनसुजान | जैवंतो वरतो भगवान || १८ || सो कर जागै जो घीमान । पंडित सुधी सुमुख गुणवान || आपन मंगलहेतु प्रशस्त । अवलोकन चाहै कछु बस्त || और वस्तु देखे किसकाज | जो तुम मुख राजे जिनराज || तीन लोकको मंगलथान | प्रेक्षणीय तिहुं जगकल्यान ॥ १९ ॥ धर्मोदय १४६ wwwwwwww Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १५० वृहज्जैनवाणीसंग्रह । तापसगृहकीर । काव्यबंधवनपिक तुम वीर ॥ मोक्षमल्लिका मधुपरसाल । पुन्यकथा कजसरसि मराल ॥ तुम जिनदेव । * सुगुण मणिमाल । सर्वहितंकर दीनदयाल ॥ ताको कौन न उन्नतकाय । धेरै किरीटमाहि हर्षाय ॥ केई बांछे शिवपुर । * बास । केई करै वर्गसुख आस ॥ पचै पँचानल आदिक काठान । दुख बंधै जस बँधै अयान ॥ हम श्रीमुखवानी अनु* भवै । सरधा पूरव हिरदै वै । तिस प्रभाव आनन्दित रहैं। स्वर्गादि सुख सहजे लहैं ।। न्होन महोच्छव इन्द्रन कियो।। सुरतिय मिल मंगल पढ लियो। सुयशशरदचंद्रोपम सेत ।। सो गंधर्व गान कर लेत ॥और भक्ति जो जो जिस जोग।। * शेष सुरन कीनी सुनियोग ॥ अव प्रभु करैं कौनसी सेव । १ * हम चित भयो हिंडोलो एव ॥२२॥ जिनवर जन्म कल्यानक योस । इंद्र आप नाचै कर होस । पुलकित अंग । पिताघर आय । नाचनविधिमें महिमा पाय ॥ अमरी वीन ! बजावै सार। धरी कुचाग्र करत झंकार ॥ इहिविधि कौतुक क देख्यो जबै । औसर कौन कह सकै अवै ॥ २३॥ श्रीप्रति * विब मनोहर एम । विकसतवदन कमलदल जेम॥ ताहि । * हेर हरखे ग दोय । कह न सकू इतनो सुख होय ॥ तय । सुरसंग कल्यानक काल । प्रगटरूप जोवै जगपाल ॥ इकपटक दृष्टि एक चितलाय । वह आनंद कहा क्यों जाय ॥२४॥ देख्यो देव रसायन धाम । देख्यो नव निधिको विसराम।। चिंतारयन सिद्धिरस अवै । जिनगृह देखत देखे सबै ॥ | Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १५१ अथवा इन देखे कछु नाहिं | यह अनुगामी फल जगमांहि ॥ स्वामी सरयो अपूव काज । मुक्तिसमीप भई मुझ आज || २५ || अब विनवै भूपाल नरेश । देखे जिनवर हरन कलेश || नेत्रकमल विकसे जगचंद्र । चतुर चकोर करण आनंद ॥ युति जलसों यों पावन भयो । पापताप मेरो मिट गयो || मोचित है तुम चरणनमाहिं । फिर दर्शन हूज्यो अव जाहिं || छप्पय छंद । इहिविधि बुद्धिविशालराय भूपाल महाकवि । कियो ललित धुतिपाठ हिये सब समझ सकै नवि || टीकाके अनुसार अर्थ कछू मन मैं आयो । कहीं शब्द कहिं भाव जोड भाषा जस गायो । आतम पवित्रकारण किमपि, बालख्याल सो जानियो । लीज्यो सुधार भूधरतणी, यह विनती बुध मानियो || २७ ॥ इति समाप्त | ६९ - महावीराष्टकस्तोत्र | शिखरिणी यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः । समं भांति धौव्यव्ययजनिलसंतोंत रहिताः । जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिव यो महावीरखामी नयनपथगामी भवतु मे ( नः ] ॥ १ ॥ अतामूं यच्चक्षुः कमलयुगलं स्पंदरहितं जनान्कोपापार्थं प्रकटयति वाभ्यंतरमपि । स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला, महावीर० ॥ २ ॥ नम Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * R -55- 2 KAR NAAAAAAANAAAAAAAAAAAAM ArANAMAN * १५२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह अन्नाकेंद्राली मुकुटमणिमाजालजटिलं लसत्पादांभोजद्वयमि* ह यदीयं तनुभृतां । भवज्ज्वालाशांत्यै प्रभवति जलं वा स्मृत* मपि, महावीर० ॥३॥ यदीमावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगणसमृद्धः सुखनिधिः । लभते सद्भः । ताःशिवसुखसमाजं किमु तदा, महावीर पाकनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगततनु ननिवहो विचित्रात्माप्येको नृपतिवर- है * सिद्धार्थतनयः । अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोद्भुतग तिर् , महावीर० ॥ ५॥ यदीया वाग्गंगा विविधनयल्लोल, विमला, वृहज्ज्ञानांभोमिर्जगति जनतां या स्नपयति । इदा-1 * नीमप्येषा बुधजनमरालैः परिचिता, महावीर० ॥६ । अनि । # वारोद्रेकत्रिभुवनजयी कामसुभटः कुमारावस्थायामपि निज बलायेन विजितः । स्फुरनित्यानंदप्रशमपदराज्याय स जिना महावीर० ॥ ७ ॥ महामोहातंकप्रशमनपराकस्मिकभिषङ् । निरापेक्षो बंधुर्विदितमहिमामंगलकरः। शरण्यः साधूनां । भवभयभृतामुत्तमगुणो, महावीर० ॥ ८॥ महावीराष्टकं स्त्रोत्रं भक्त्या मागेदुना कृतं ! यः पठेच्छृणुयाचापि स याति परमां गति ॥९॥ ७०-अकलंकस्तोत्र शार्दूलविक्रीडितछंदः । त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं सालोकमालोकित साक्षा घेन यथा स्वयं करतले रेखात्रयं सांगुलि । रागद्वेषभयामयांतकजरालोलत्वलोभादयो नालं यत्पदलंघनाय स महा। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- - -- -- -- --* -> wwwvvvv wwwwwwwwwwww Z4 वृहज्जैनवाणीसंग्रहं १५३ । * देवो मया बंद्यते ॥१॥ दग्धं येन पुरत्रय शरभवा तीव्रा चिषा वह्निना, यो वा नृत्यति मत्तवत्पितृवने यस्मात्मजो। * वागुहः । सोयं किं मम शंकरो भयतृषारोपातिमोहक्षयं कुत्वा यः स तु सर्ववित्तनुभृतां क्षेमकरः शंकरः ॥२॥ यत्ना-1 घेन विदारितं कररुहेर्दैत्येंद्रवक्षःस्थलं सारथ्येन धनंजयस्य । * समरे योऽमारयत्कौरवान् । नासौ विष्णुरनेककालविषयं । यज्ञानमव्याहतं विश्वं व्याप्य विजृमते स तु महाविष्णुः । सदेष्टो मम ॥३॥ उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः पात्रीदंडकमंडलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थिति । आवि गर्भावयितुं भवंति स कथं ब्रह्माभवेन्मादृशां,क्षुत्तष्णाश्रमरागो-५ परहितो ब्रह्माकृतार्थोस्तु नः॥४॥ यो जगवा पिशितं । समत्स्यकवलं जीवं च शून्यं वदन्, कर्ता कर्मफलं न भुंक्त ई. इति यो वक्ता स बुद्धः कथं । यज्ज्ञानं क्षणवर्तिवस्तुसकलं ज्ञातुं न शक्तं सदा यो जानन्युगपज्जगत्त्रयमिदं साक्षात्स। बुद्धो मम ॥५॥ स्रग्धरा छंदः। ईशः किं छिन्नलिंगो यदि विगतमयः शूलपाणिः कथं स्यान् नाथः किं भैक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः । *सात्मनश्च । आर्द्राजः किंत्वजन्मा सकलविदितिं किं वेत्ति । * नात्मांतरायं संक्षेपात्सम्यगुक्तं पशुपतिमपपशुः कोऽत्र धी मानुपास्ते ॥६॥ ब्रह्मा चर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेशविधां। तचेताः शंभुः खट्वांगधारी गिरिपतितनयापांगलीलानु Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAAAAAAAA । १५४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह विद्धः । विष्णुश्चक्राधिपः सन्दुहितरमगमद्गोपनाथस्य मोहादर्हन्विध्वस्तरागो जितसकलभयः कोयमेष्वाप्तनाथः ॥७॥ एको नृत्यति विप्रसार्य कुकुभां चक्रे सहस्रान्भुजानेका शेप। भुजंगभोगशयने व्यादाय निद्रायते। दृष्टुं चारुतिलोत्तमामुखमगादेकश्चतुर्वक्त्रतामेते मुक्तिपथं वदंति विदुषामित्येतदत्यद्भुते ॥ ८॥ यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिगिनः । * पारदृश्वा पौर्वीपर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलंकं यदीयं ।। तं वदे साधुवंधं सकलगुणनिधि ध्वस्तदोपद्विपंतं बुद्धं या वर्द्ध- । मानं शतदनिललयं केशवं वा शिंव वा ॥९॥ माया नास्ति । * जटाकपालमुकुटं चन्द्रो न मुर्दावली, खट्वांगं न च वासु किन च धनुः शूलं न चोग्रं मुखं । कामो यस्य न कामिनी नच वृषो गीतं न नृत्यं पुनः सोऽस्मान्पातु निरंजनो जिनपतिः सर्वत्र सूक्ष्मः शिवः ॥ १० ॥ नो ब्रह्मांकितभूतलं न। च हरेः शंभोर्न मुद्रांकितं नो चंद्रार्ककरांकितं सुरपतेर्वजांकितं नैव च । षड्वक्त्रांकितवौद्धदेवहुतभुग्यक्षोरगैनों कितं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेंद्रमुद्रांकितं ॥११॥ में मौजीदंडकमलुप्रभृतयो नो लांछनं ब्रह्मणो । रुद्रस्यापि जटाकपालमुकुट कोपीनखट्वांगना। विष्णोश्चक्रगदादि। शंखमतुलं बुद्धस रक्तांवरं नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं । - जैनेंद्रमुद्रांकितं ॥१२॥ खवांगं नैव हस्ते न च हृदि रचिता लंबते मुंडमाला भस्मांग नैव शूलं न च गिरिदुहिता नैव । । हस्ते कपालं । चन्द्रार्द्ध नैव मूर्द्धन्यपि वृषगमनं नैव कण्ठे ___ * AKERAKSHARA Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -* - *- * * wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwroom घृहज्जैनवाणीसंग्रह १५६ ॥ क रचना कारण, सुरपति आज्ञा दीनी। मणिमुक्ता हीराकंचनमय, धनपति रचना कीनी ॥ ७॥ तीनों कोट रचे मणिमंडित, धूलीसाल बनाई । गोपुर तुंग अनूप विराजै, * मणिमय गहरी खाई ।। सरवर सजल मनोहर सोहैं, वन उपवनकी शोभा । वापी विविध विचित्र बिलोकत, सुरनर । खगमन लोभा ॥८॥ खे देद गलिनमै घटभरि धूपसुगंध । सुहाई। मंद सुगंध भतापपवनवश, दशहूं दिशिमैं छाई ॥ गरुड़ादिकके चिह्न अलंकृत धुज चहुंओर विराजें। तोरन* वंदनवारी सोहैं, नवनिधिकी छवि छाजै ॥९॥ देवीदेव खड़े 1 दरवानी, देखि बहुत सुख पावै । सम्यकवंत महाश्रद्धानी, भविसों प्रीति बढावै ॥ तीन कोटिके मध्य जिनेश्वर, गंध* कुटी सुखदाई । अंतरीक्षसिंहासनऊपर, राज त्रिभुवनराई । ॥१०॥ मणिमय तीन सिंहासन सोमा, वरणत पार न पाऊं। प्रभुके चरणकमलतल सोमैं, मनमोदित शिर नाऊं। चंद्रकांतिसमदीप्ति मनोहर, तीन छत्रछवि आखी। तीनभुवन-1 ईश्वरताके हैं, मानों वे सव साखी ॥ दुंदुमि शब्द गहिर । * अति वाजै, उपमा बरणी न जाई । तीनभुवन जीवन प्रति । * भाई, जयघोषण सुखदाई ॥ कलपतरूवर पुष्प सुगंधित, * गंधोदककी वर्षा । देवीदेव करें निशवासर, भविजीवनमन । हर्षा ॥१२॥ तरु अशोककी उपमा वरणत, भविजन पार न पा । रोग वियोगदुखीजन दर्शत, तुरतहि शोक नशा ।। * कुंदपुहुपसम श्वेत मनोहर, चौसठि चमर दुराहीं। मानों Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *AKRAKAKKRSS WAAAAAAAARAHMA ArranArenamARA १६० हज्जैनवाणीसंग्रह निरमल सुरगिरिके तट, झरना झमकि झराहीं ॥१६॥ प्रभु-ई * तन-श्रीभामंडलकी दुति, अद्भुत तेज विराजै । जाकी । * दीप्ति मनोहर आगैं, कोटि दिवाकर लाजै ॥ दिव्य वचन । सब भाषा गर्भित, खिरहिं त्रिकाल सुवानी । 'आसा' आस । कर सो पूरण, श्रीपारस सुखदानी ॥१४॥ सुर नर जिय। तिरजंच घनेरे, जिनवंदन चित आने । वैरभावपरिहार निरंतर प्रीति परस्पर ठानें ।। दशहूं दिश निरमल अति दीखें, भयो है शोभ घनेरा । स्वच्छसरोवरजलकर पूरे, वृक्ष फरे । * चहुँ फेरा ॥ साली आदिक खेती चहुँदिश, भई स्वमेव घनेरी । जीवनवध नहिं होय कदाचित, यह अतिशय प्रभुकेरी । नख अरु केश बडै नहिं प्रभुके, नहिं नैनन टभकारे। ई * दर्पणवत प्रभुको तन दीपै, आनन चार निहारे॥१६॥ । इन्द्र नरेन्द्र धनेन्द्र सबै मिलि, धर्मामृत अभिलाषी । गण* घरपदशिरनाय सुरासुर, प्रभुकी थुति अतिलाषी ॥ दीन- 1 दयाल कृपाल दयानिधि, त्रिषावंत भवि चीन्हें । धर्मामृत । वर्षाय जिनेश्वर, तोषित बहुविध कीन्हें ॥ १७॥ आरजखंडविहार जिनेश्वर, कीनो भविहितकारी । धर्मचक्र । आगौनि चलै प्रभु, केवल महिमा भारी॥ पंद्रह पांति । * कमल पंद्रह जुग सुंदर हेम सम्हारे । अंतरीछ डग सहित, खलै प्रभु चरणांबुजतल धारे ॥ १८ ॥ मिटि उपसर्ग भये प्रभु केवलि, भूमि पवित्र सुहाई । सो अहिक्षेत्र थप्यो सुरनर । मिल, पूजककों सुखदाई ॥ नाम लेत सब विघन विनाश । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सरस- वृहज्जैनवाणीसंग्रह * Vvvvvvvvv संकट क्षणमें चूरै। वंदन करत बदै सुख संपति, सुमिरत आसा पूरै ॥ १९॥ जो अहिक्षेत्र विधान पढे नित, . अथवा गाय सुनावै । श्रीजिनभक्ति धरै मनमैं दिढ, मनवांछित फल पावै ।। जुगल वेद वसु एक अंक गणि, बुधजन वत्सर जान्यो। मारग शुक्ल दशैं रविवासर, 'आसाराम' बखान्यो ॥२०॥ समाप्त ॥ ७४-मंगलाष्टकस्तोत्र। । श्रीमन्नम्रसुरासुरेंद्रमुकुटप्रद्योतरत्नप्रभा-भास्वत्पादनखेदवः प्रवचनांभोघींदवः स्थायिनः । ये सर्वे जिनसिद्धसर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः स्तुत्या योगिजनैश्च पंचगुरवः कुर्वतु ते । मंगलम् ॥१॥ सम्यग्दर्शनवोधवृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं मुक्ति श्रीनगराधिनाथजिनपत्युक्तोपवर्गप्रदः। धर्मः सूक्तिसुधा च । - चैत्यमखिलं चैत्यालयं श्यालय, प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विध ममी कुर्चतु ते मंगलं ॥२॥ नामेयादिजिनाधिपास्त्रिभुवन-1 ख्याताश्चतुर्विशति श्रीमंतो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश । ये विष्णुप्रतिविष्णुलांगलधराः सप्तोत्तराः विंशति। स्काल्ये प्रथितांत्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वतु ते मंगलं ॥३॥ देव्योष्टौ । च जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः श्रीतीर्थकरमा तुकाच जनका यक्षाश्च यक्ष्यस्तथा । द्वात्रिंशत्रिदशाधि । * पास्तिथिसुरा दिकन्यकाश्चाष्टधा दिक्पाला दश चैत्यमी सुर*गणाः कुर्वतु ते मंगलं ॥४॥ ये सर्वोषधऋद्धयः सुतपसो वृद्धि । गताः पंच ये ये चाष्टांगमहानिमित्तिकुशला येष्टाविधाश्चार Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RK-RS-5 2KRAM wwww. -- vw vwvva var. LMAN ~ ~ wwwvvvwwwwvosuvan १६२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह णाः। पंचज्ञानधरास्त्रयोपि वलिनो ये वुद्धिऋद्धीश्वराः । सप्तैते । । सकलार्चिता गणभृतः कुर्वतु ते मंगलं ॥५॥ कैलासे वृषभ* स्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे चंपायां वसुपूज्यसज्जिनपतेः। * संमेदशैलेहतां । शेषाणामपि चोर्जयंत शिखरे नेमीश्वरस्याहतो । निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वतु ते मंगलं ॥६॥ ज्योतियंतरभावनामरगृहे मे कुलाद्रौ तथा जंबूशाल्म-2 लिचैत्यशाखिषु तथा वक्षाररूप्याद्रिषु । इष्वाकारगिरौ च * कुंडलनगे द्वीपे च नंदीश्वरे शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः । । कुर्वतु ते मंगलं ॥७॥ यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्मा-1 *भिषेकोत्सवो यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञान भाक् । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा संभाविनः स्वर्गिभिः क* ल्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वतु ते मंगलं ॥८॥ * इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपदत्प्रदं कल्या णेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थंकराणामुषः । ये शृण्वति पठंति । । तैश्च सुजनैर्धर्मार्थकामान्विता लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि ॥११॥ ॥ इति मंगलाष्टकं समाप्तं ॥ ७५-मंगलाष्टकस्तोत्र भाषा कवित्त-संघसहित श्रीकुंदकुंदगुरु, वेदनहेत गये गिरनार । वाद परयो तहँ संशयमतिसों, साक्षी बदी अंबिकाकार ॥ 'सत्य' । पंथ निरग्रंथ दिगंबर, कही सुरी तहँ प्रगट पुकार । सो गुरु* देव वसौ उर मेरे, विधनहरण मंगल करतार ॥ १॥ स्वामि। समंतभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हठ कियो अपार । वंदन ! --- - -- -- Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAA वृहज्जैनवाणीसंग्रह १६३ । 1 करो शंभुपिंडीको, तव गुरु रच्यो स्वयंभू भार ॥ वंदन । करत पिंडिका फाटी, प्रगट भये जिन चंद्र उदार । सो०॥२॥ श्रीअकलंकदेव मुनिवरसों, वाद रच्यौ जहँ बौद्ध विचार। । तारादेवी घटमें थापी, पटके ओट करत उच्चार ॥ जीत्यो स्यादवादवल मुनिवर, बौद्धवोध तारामद टार । सो०॥३॥ श्रीमत विद्यानंदि जवै, श्रीदेवागमथुति सुनी सुधार। अर्थहेत पहुंच्यो जिनमंदिर, मिल्यो अर्थ तहँ सुखदातार ॥ तव । * व्रत परमदिगम्बरको धर, परमतको कीनों परिहार । सो * ॥४|| श्रीमत मानतुंग मुनिवरपरभूप कोप जब कियौ गँवार। बंद कियो तालोंमें तवही, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार ॥ चक्रे । *श्वरी प्रगट तव बैंक,बंधन काट कियो जयकार ।सो०॥५॥ श्रीमत वादिराज मुनिवरसौं, कहो कुष्टि भूपति जिहँ वार ॥ श्रावक सेठ कह्यो तिहँ अवसर, मेरे गुरु कंचन तनधार। तब ही एकीभाव रच्यो गुरुतन सुवरणदुति भयौ अपार ।सो० १॥६॥ श्रीमत कुमुदचन्द्र मुनिवरसों, चाद परयो जहँ सभा मैंझार । तब ही श्रीकल्यानधामथुति, श्रीगुर रचना 'रची । अपार ॥ तव प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथकी, प्रगट भई त्रिभुवन । जयकार । सो०॥७॥ श्रीमत अभयचन्द्र गुरुसों जब, दिल्ली। पति इमि कही पुकार । कै तुम मोहि दिखावहु अतिशय, कै पकरौ मेरो मत सार ॥ तब गुरु प्रगट अलौकिक अतिशय * तुरत हरयो ताको मदभार । दोहा-विधन हरण मंगल करण, वांछित फलदातार । - 'वृन्दावन' अष्टक रच्यो, करौ कंठ सुखकार ॥ ** - -- ------ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह चतुर्थ अध्याय ! नित्यपूजा संग्रह । ७६ - जिनेन्द्र पंचकल्याणक | पणविवि पंच परमगुरु, गुरुजिनसासनो | सकलसिद्धिदातार सु, विधनाविनासनो | सारद अरु गुरु गौतम, सुमति प्रकासनो | मंगलकर चउ-संघहि, पापपणासनो | पापहि पणासन गुणहि गरुआ, दोष अष्टादश- रहिउ । धरिध्यान करमविनासि केवल ज्ञान अविचल जिन लहिउ || प्रभु पंचकल्याणक विराजित, सकल सुरनर घ्यावीं । त्रैलोक्वनाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥१॥ १ । गर्भकल्याणक । १६४ जाके गरभकल्याणक, धनपति आइयो । अवधिज्ञानपरवान सु, इंद्र उठाइयो | रचि नव बारह जोजन, नयरि सुहावनी | कनकरयणमणिमंडित, मंदिर अति बनी ॥ अति बनी पौरि पगार परिखा, सुवन उपवन सोहये । नर नारि सुंदर चतुरमेख सु, देख जनमन मोहये ॥ तहं जनकगृह छहमास प्रथमहिं, रतनधारा वरसियो । पुनि रुचिकवासिनि जननि सेवा, करहिं सब विधि हरसियो || सुरकुंजरसम कुंजर, धवल धुरंधरो । केहरि केशरशोभित, नख सिखसुंदरो | कमलाकलस-न्हवन, दुइदाम सुहावनी | रविससिमंडल मधुर, मीनजुग पावनी ॥ पावनिकनक घट जुगम पूरन, कमलकलित सरोबरो । कल्लोलमालाकुलितसागर, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह सिंहपीठ मनोहरो ॥ रमणीक अमरविमान फणिपति-भुवन रवि छवि छाजई । रुचि रतनरासि दिपंत, दहन सु तेजपुंज विराजई ||३|| ये सखि सोरह सुपने सूती सयनहीं । देखे माय मनोहर, पच्छिम रयनहीं ॥ उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधि प्रकाशियो । त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहँ भासियो || भासियो फल तिहिं चित्त दंपति परम आनंदित भये । छहमासपरि नवमास पुनि तई, रैन दिन सुखसों गये || गर्भावतार महंत महिमा, सुनत संव सुख पावहीं। भणि 'रूपचंद ' सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं ॥४॥ 1 १६५ २ । जन्मकल्याणक । मतिश्रुतअवधिविराजित, जिन जब जनमियो । तिहुलोक भयो छोभित, सुरगन भरमियो । कल्पवासि घर घंट, अनाहद बज्जिया | जोतिषघर हरिनाद, सहज गल गजिया | गजिया सहजहिं संख भावन, भुवन सवद सुहावने । विंतरनिलय पटु पटह बजहि, कहत महिमा क्यों बने || कंपित सुरासन अवधिवल जिन जनम निहचै जानियो । धनराज तव गजराज माया-मयी निरमय आनियो ||५|| जोजन लाख गयंद, बदन सो निरमये | बदन बदन वसुदंत, दंत सर संठये ॥ सरसर- सौ पनवीस, कमलिनी छाजहीं । कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजहीं ॥ राजहीं कमलिनी कमलSठोतर सो मनोहर दल बने । दल दलहिं अपंछर नटहिं नवरस, हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनककिंकणि वर वि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvv १६६ वृहज्जैनत्राणीसंग्रह चित्र, सु अमरमंडप सोहये । घन घंट चँवर धुजा पताका देखि त्रिभुवन मोहये ॥६॥ तिहिं करि हरि चढि आयउ, सुरपरिवारियो । पुरिहि प्रदच्छन देवय, जिन जयकारियो॥ गुप्तजाय जिनजननिहि, सुखनिद्रा रची। मायामयि सिसु । राखि तौ, जिन आन्यो सची । आन्यो सची जिनरूप निर- 1 से खत, नयन तृपित न हूजिये । तब परम हरषित हृदय हरणा सहस लोचन पूजिये । पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इंद्र, उछंग । धरि प्रभु लीनऊ । ईसान इंद्र सु चंद्र छवि सिर, छत्र प्रभुके। दीनऊ ॥७॥ सनतकुमार माहेंद्र, चमर दुइ ढारहीं। सेस । * सक्र जयकार, सबद उच्चारहीं ॥ उच्छवसहित चतुरविधि, । सुर हरषित भये । जोजन सहस निन्यानव, गगन उलँघि । • गये ॥ लँधिगये सुरगिरि जहां पांडुक-वन विचित्र । विराजहीं ।, पांडुकशिला तहँ अर्द्धचंद्र समान, मणि । छवि छाजहीं ॥ जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु । * ऊंची गनी । घर अष्ट-मंगल-कनक कलसनि सिंह* पीठ सुहावनी ॥ ८॥ रचि मणिमंडप सोभित, मध्य- सिंहासनो । थाप्यो पूरच मुख तहँ, प्रभु कमलासनो। वाजहिं ताल, मृदंग, वेणु वीणा घने । दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु बाजने ॥ वाजने वाजहिं सची सव मिलि, धवलमंगल गात्रहीं। पुनि करहिं नृत्य सुरांगना सब, देव । * कौतुक धावहीं ॥ भरि छीरसागर जल जु हाथहि, हाथ । सुरगिरि ल्यावहीं । सौधर्म अरु ईशान इंद्रमु कलस ले प्रभु। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RK -KH वृहज्जैनवाणीसंग्रह A R १६७ ramnormammmmmmmmmmmmmamarrammrrrrrrrrrrr न्हावहीं ॥९॥ वदन उदर अवगाह, कलसगत जानिये । एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ॥ सहस-अठोतर कलसा, प्रभुके सिर ढरहै । पुनि सिंगार प्रमुख आचार सबै । करइँ ॥ करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छत्र, आनि पुनि मातहिं दये। धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गये ॥ जनमाभिषेक महंत महिमा, सुनत सब सुख पावहीं । भणि रूपचंद'सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं॥ ३ तपकल्याणक। श्रमजल रहित सरीर, सदा सब मलरहिउ। छीर वरन। *वर रुधिर, प्रथम आकृति लहिउ ॥ प्रथम सार संहनन, सरूप विराजहीं । सहज सुगंध सुलच्छन, मंडित छाजहीं॥ छाजहिं अतुलवल परम प्रिय हित, मधुर वचन सुहावने।। * दस सहज अतिशय सुभग मूरति, बाललील कहावने ॥ आवाल काल त्रिलोकपति मन, रुचिर उचित जु नित नये। * अमरोपनीत पुनीत अनुपम, सकल भोग विभोगये ॥११॥ भवतन-भोग-विरत्त, कदाचित चित्तए । धन जोवन पिय पुत्त, कलत्त अनित्तए । कोउ न सरन मरनदिन, दुख चहुंगति भरयो । सुखदुख एकहि भोगत, जिय विधिवसिपरचो॥ परयो विधिवसि आन चेतन, आन जड़ जु कलेवरो। तन, * असुचि परतें होय आस्रव, परिहरेतै संवरो ।। निरजरा तप बल होय, समकित,-विन सदा त्रिभुवन भन्यो। दुर्लभ विवेक विना न कबहूं परम धरमविष रम्यो ॥१२॥ ये प्रभु। * SKRIK * Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० वृहज्जैनवाणीसंग्रह " मानंद सबको, नारि नर जे सेवता । जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहां मारुत देवता || पुनि करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पदकमलतर, सुरखिपहिं कमलसु, धरणि ससिसोभा बनी ॥१९॥ अमलगगनतल अरु दिसि, तहँ अनुहारहीं । चतुरनिकाय देवगण, जय-जयकारहीं ॥ धर्मचक्र चलै आगे, रवि जहँ लाजहीं । पुनि भृंगार - प्रमुख वसु मंगल राजहीं " राजहीं चौदह चारु अतिशय, देव रचित सुहावने । जिनराज केवलज्ञानमहिमा, अवर कहत कहा वनै ॥ तव इद्र आय कियो महोच्छव, सभा सोभा अति बनी। धर्मोपदेश दियो तहां, उच्चरिय वानी जिनतनी ॥२०॥ छुधातृषा अरु रोग, रोष असुहावने । जनम जरा अरु मरण, त्रिदोष भयावने || रोग सोग भय विस्मय, अरु निद्रा घनी । खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गनी || गनिये अठारह दोष तिनकरि रहित देव निरंजनो । नव परम केवललब्धिमंडिय, सिवरमनि- मनरंजनो ॥ श्रीज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर, जगतमंगल गावहीं ॥ २१ ॥ ५ निर्वाणकल्याणक । , केवलदृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो। भव्यनिप्रति उपदेस्यो जिनवर तारिस || भवभयभीत भविकजन, सरणे आइया । रत्नत्रयलच्छन सिवपंथ लगाइया || लगाइया पंथ जु भव्य पुनि प्रभु, तृतिय सुकल जु पूरियो । तजि Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १७१ 27333L तेरवां गुणथान जोग, अजोगपथपग धारियो || पुनि चौदहें चौथे सुकलवल, बहत्तर तेरह हती । इमिघाति वसुविध कर्म पहुंच्यो, समय में पंचमगती ॥ २२ ॥ लोकसिखर तनुवात, वलय महँ संठियो । धर्मद्रव्यविन गमन न जिहि आगे कियो || मयनरहित भूपोदर, अंचर जारिसो। किमपि हीन निजतनुतै, भयो प्रभु तारिसो॥ तारिस पर्जय नित्य अविचल, अर्थपर्जय छनछयी । निश्चयनयेन अनंतगुण, विवहार नय वसुगुणमयी | वस्तुस्वभाव विभावविरहित, सुद्ध परिणति परिणयां । चिदरूपपरमानंदमंदिर, सिद्ध परमातम भयो || २३ || तनुपरमाणू दामिनिपर, सब खिर गए। रहे सेस नखकेश-रूप, जे परिणए । तत्र हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभसच्यो । मायामयि नख केशरहित, जिनतनुरच्यो । रचि अगर चंदन प्रमुख परिमल, द्रव्य जिन जयकारियो । पदपतित अगनिकुमार मुकुटानल, सुविध सँस्कारियो || निर्वाणकल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। भणि 'रूपचंद' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ||२४|| मै मांतहीन भगतिवस भावन भाइया । मंगलगीत प्रबंध, सुजिनगुण गाइया || जो नर सुनहिं, चखानहिं सुर धरि गावहीं। मनवांछित फल सो नर, निह पावहीं ॥ पावहीं आठों सिद्धि नवनिधि मनप्रतीत जो लावहीं | भ्रम भाव छूटै सकल मनके, निजस्वरूप लखावहीं ॥ पुनि हरहिं पातक ठरहिं विधन, सु ++ को दू Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १७४ ८ औं आं क्रीं ह्रीं ऐशान आगच्छ आगच्छ ऐशानाय स्वाहा ९ ओं आं क्रौं ह्रीं धरणींद्र आगच्छ आगच्छ धरणींद्रायस्वा० १० ओं आं क्रौं ह्रीं सोम आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा wwwwwwwwwww. PAWAN इति दिक्पालमंत्राः । दध्युज्ज्वलाक्षतमनोहरपुष्पदीपैः पौत्रार्पितं प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्य मंगलसुखानलकामदाहमारार्तिकं तवविभोरवतारयामि || दधि अक्षत पुष्प और दीप रकावीमें लेकर मंगल पाठ तथा अनेक वादित्रों के साथ त्रैलोक्यनाथको आरती उतारनी चाहिये । ये पांडुकामलशिलागतमादिदेवमस्त्रापयन्सुरवराः सुरशैलमूनि । कल्याणमीप्सुरहमक्षततोयपुष्पैः संभावयामि पुरएव तदीयविव ॥ ९ ॥ जल अक्षत पुष्पक्षेपकर श्रीकार लिखित पीठपर जिनविवकी स्थापना करना चाहिये | सत्पल्लवार्चितमुखान्कलधौतरूप्यताम्रारकूठ घटितान् पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान् संस्थापयामि कलशान जिनवेदिकांते ॥ १० ॥ जलपूरित सुन्दर पत्तोंसे ढके हुये सुवर्णादि धातुके चार कलश चौकी या वेदी के चारों कोनोंमें स्थापन करना चाहिये । आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमलबहुलेनामुनाचंदनेन, श्रीदृक्पेयैरमीभिः शुचिसदलचयैरुद्गमैरेभिरुद्धैः । हृद्यैरेमि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K-MARKKR K ER १८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * नो॥ मणिकनककुंभ निकुंभकिल्विष, विमल शीतल भरि । * धरौं । श्रम स्वेद मल निरवार जिन त्रय धारदे पायनि परौं॥४॥ (मंत्रसे शुद्धजलकी तीन धारा जिनबिंवपर छोड़ना) ___ अति मधुर जिनधुनि सम सुप्राणित प्राणिवर्ग सुभावसों। * बुधचित्तसम हरिचित्त नित्त, सुमिष्ट इष्ट उछावसों । तत्का लइक्षुसमुत्थानासुक रतनकुंभविष भरौं । यमनासतापनिवार । जिन त्रयधार दे पायनि परौं ॥ ५॥ (ऊपरका मंत्र पढ़ इक्षुरसकी धारा देना) निष्टप्लक्षिप्तसुवर्णमददमनीय ज्यों विधि जैनकी। आयुप्रदा बलवुद्धिदा रक्षा, सु यौँ जियसैनकी ॥ तत्कालमंथित, । क्षीर उत्थित, प्राज्य मणिझारी भरौ । दीजै अतुलवल मोहि जिन, त्रयधार दे पायनि परौ ॥६॥ (घृतरसकी धारा देना) ___ शरदभ्र शुभ्र सुहाटकयुति, सुरभि पावन सोहनो। * क्लीवत्वहर बल धरन पूरन, पयसकल मनमोहनो ॥ कृत* उष्ण गोथन समाहृत घटजटितमणिमें भरौ । दुर्वल दशा • मो मेट जिंन त्रयधार दे पायनि परौं ॥७॥ . (दुग्धकी धारा) वर विशदजैनाचार्य ज्यों मधुराम्लकर्कशताधरै । * शुचिकर रसिक मंथन विमंथन नेह दोनों अनुस।। गोद-* घि सुमणिभृगार पूरन लायकर आगै धरौं । दुखदोष कोष निवार जिन त्रयधार दे पायनि परौ ॥८॥ * --- * Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसग्रह १७६ (दहीको धारा) सौषधी मिलायके, भरि कंचन भंगार । * जजौ चरण त्रयधार दे, तारतार भवतार ॥९॥ (सौषधिकी धारा) ___७९-अथ जलाभिषेक वा प्रक्षाल करनेका पाठ प्रक्षाल करते समय बोलना। जय जय भगवंते सदा, मंगल मूल महान । वीतराग सर्वज्ञ प्रभु, नौं जोरि जुगपान ॥ ____ ढाल मंगलकी छंद अडिल्ल और गीता।। श्रीजिन जगमें ऐसो, को बुधवंत जू । जो तुम गुण वरननि करि पावै अंत जू ॥ इन्द्रादिक सुर चार ज्ञानधारी मुनी । कहि न सकै तुम गुणगण हे त्रिभुवनधनी ॥ * अनुपम अमित तुमगणनिवारिध, ज्यों अलोकाकाश है। किमि धरै हम उर कोषमें सो अकथगुणमणिराश है ॥पै । जिनप्रयोजन सिद्धिकी तुम नाममें ही शक्ति है । यह चित्त* में सरधान यातै नाम हीमें भक्ति है ॥१॥ ज्ञानावरणी दर्शन आवरणी भने । कर्ममोहनी अंतराय चारों हने ॥ लोकालोक विलोक्यो केवलज्ञानमें । इन्द्रादिकके मुकुट नये सुर थानमें ॥ तव इन्द्र जान्यो अवधितै, उठि सुरनयुत बंदत * भयो। तुम पुन्यको प्रेरयो हरी है मुदित धनपतिसौं चयो। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८० वृहज्जैनवाणीसंग्रह * अब बैगि जाय रचौ समवसृति सफल सुरपदको करौ।। * साक्षात् श्रीअरहंतके दर्शन करौ कल्मष हरौं ॥२॥ ऐसे व चन सुने सुरपतिके धनपती । चल आयो ततकाल मोद धार । । अती॥ वीतराग छवि देखि शब्द जय जय चयौ । दै परद- 1 च्छिना बार बार बंदत भयो । अति भक्ति भीनो नग्रचित । लै समवशरण रच्यो सही । ताकी अनूपम शुभगतीको, कहन समरथ कोउ नहीं ॥ प्राकार तोरण सभामंडप कनकमणिमय छाजही । नगजडित गंधकुटी मनोहर मध्यभाग विरा-1 जही ॥३॥ सिंहासन तामध्य बन्यौ अदभुत दिपै । तापर। * बारिज रच्यो प्रभा दिनकर छिौ । तीनछत्र सिर शोमित * चौसठ चमरजी। महाभक्तियुत ढोरत है तहां अमरजी। प्रभु * तरन तारन कमल ऊपर अंतरीक्ष विराजिया । यह वीत- । * रागदशा प्रतच्छ विलोकि भविजन सुख लिया ॥ मुनि ! आदि द्वादश सभाके भवि जीव मस्तक नायकैं।। बहुभांति वारंवार पूज, नमैं गुणगण गायकै ॥४॥ परमौदारिक दिव्य देह पावन सही । क्षुधा तृषा चिंता भया गद । । दूषण नहीं। जन्म जरा मृति अरति शोक विस्मय नसे।। राग रोष निद्रा मद मोह सबै खसे॥ श्रमविना श्रमजलरहित । 1. पावन अमल ज्योतिस्वरूपजी । शरणागतनिको अशुचिता। हरि, करत विमल अनूपजी। ऐसे प्रभूकी शांतिमुद्राको न्ह* वन जल करें । 'जस' भक्तिवश.मन उक्तिनैं हम, भानु । ढिग दीपक धरै ॥५॥ तुमतौ सहज पवित्र यही निश्चय भयो।। * - --- - - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwww १८१ 303. 3www. wwwww तुम पवित्रताहेत नहीं मज्जन ठयो || मैं मलीन रागादिक मलते है रह्यो । महामलिन तनमें वसुविधिवश दुख सह्यो । वीत्यो अनंत काल यह, मेरी अशुचिता ना गई । तिस अशुचिताहर एक तुम ही भरहु बांछा चित उई । अब अष्टकर्म विनाश सब मल रोषरागातिक हरौ । तनरूप कारागेहतै उद्धार शिववासा करौ ||६|| मैं जानत तुम अष्टकर्म हरि शिव गये। आवागमन विमुक्त रागवर्जित भये || पर तथापि मेरो मनरथ पूरत सही । नयप्रमानतें जानि महा साता लही ॥ पापाचरण तजि न्हवन करता चित्तमें ऐसे धरूं । साक्षात् श्रीअरहंतका मानों न्हवन परसन करूं || ऐसे विमल परिणाम होते अशुभ नसि शुभबंधतै । विधि अशुभ नसि शुभबंधतैं ह्रूं शर्म सब विधि तासतें ॥ ७ ॥ पावन मेरे नयन, भये तुम दरसतें । पावन पान भये तुम चरननि परसतें || पावन मन है गयो तिहारे ध्यानतै । पावन रसना मानी, तुम गुण गानते || पावन भई परजाय मेरी, भयौ मैं पूरणधनी । मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्णभक्ति नहीं बनी ॥ धन्य धन्य ते बड़भागि भवि तिन नीव शिवघरकी धरी । वर क्षीरसागर आदि जलमणि कुंभभरि भक्ती करी ||८|| विघ्न सघन वनदाहन-दहन प्रचंड हो । मोहमहातमदलन प्रबल मारतंड हो ॥ ब्रह्मा विष्णु महेश, आदि संज्ञा धरो । जगविजयी यमराज नाश ताको करो | आनंदकारण दुखनिवारण, परममंगलमय सही | मोसो पतित नहिं और तुमसो, पतित तार www.www Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAA SANAM १८२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सुन्यौ नहीं । चिंतामणी पारस कलपतरु, एकभव सुखकार * ही। तुम भक्तिनवका जे चढे ते, भये भवदधि पार ही ॥९॥ * दोहा-तुम भविदधिः तरि गये, भये निकल अविकार । 1 तारतम्य इस भक्तिको, हमें उतारो पार १४१०॥ इति ॥ ८०-विनयपाठ दोहावली। * इहिविधि ठाडो होयके, प्रथम पढे जो पाठ । धन्य जिने श्वर देव तुम. नाशे कर्म जु आठ ॥१॥ अनंत चतुष्टयके । * धनी, तुमही हो सिरताज ॥ मुक्ति बधूके कंथ तुम, तीन । । भुवनके राज ॥२॥ तिहुं जगकी पीडाहरन, भवदधि शोष*णहार, ज्ञायक हो तुम विश्वके, शिवसुखके करतार ॥ * हरता अघअंधियारके, करता धर्मप्रकाश । थिरतापददातार हो, धरता निजगुण रास ॥४॥ धर्मामृत उर जलधिसों, । ज्ञानभानु तुम रूप । तुमरे चरणसरोजको, नावत तिहुं जग । भूप ॥५॥ मैं बंदौं जिनदेवको, कर अति निरमल भाव। * कर्मबंधके छेदने, और न कछु उपाय ॥६॥ भविजनकों भवकूपते, तुमही काढनहार ॥ दीनदयाल अनाथपति । • आतमगुणभंडार ॥ ७॥ चिदानंद निर्मल कियो, धोय। * कर्मरज मैल ॥ सरल करी या जगतमें भविजनको शिवगैल। ८॥ तुमपदपंकज पूजतें, विघ्न रोग टर जाय ॥ शत्रु मि* त्रताको धरै, विष निरविषता थाय ॥ ९॥ चक्रीखगधर* इंद्रपद मिलैं आपतै आप। अनुक्रमकर शिवपद लहै, है * नेम सकल हनि पाय ॥ १०॥ तुय विन मैं व्याकुल * - K HERI Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-- - - * www.or....... wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ------ -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह १८३ । भयो, जैसें जलविन भीन । जन्मजरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥ पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव । अंजनसे तारे कुधी, जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाव भवदधिविष, तुम प्रभु पार करेय । खेवटिया * तुम हो प्रभू, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ रागसहित जगर में रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतराग भेटयो अरूँ, मेटो । राग कुटेव ॥१४॥कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच। अज्ञान | आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान॥१५॥ तुमको पूजै सुरपती, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग्य * मेरो भयो, करनलग्यो तुम सब सेव ॥१६॥ अशरणके तुम शरण हो, निराधार आधार ॥ मै डूबत भवसिंधुमें खेओल * गाओ पार ॥ इंद्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान। अपनो विरद निहारिकै, कीजे आप समान ॥१८॥ तुमरी । नेक सुदृष्टितै, जग उतरत है पार । हाहा डूब्यो जात हों, नेक निहार निकार ॥१९॥ जो मै कहूहूं औरसों तो न मिटै उरझार। मेरी तो तोसों बनी, तामें करौं प्रकार ॥ २० ॥ बंदों पाचौं परमगुरु, सुरगुरु वंदत जास। विधन हरन मंगल करन, पूरन परम प्रकाश ॥२१॥ ८१-देवशास्त्रगुरुपूजा संस्कृत। * ओं जय जय जय । नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु । णमो अरहंताणं, पमो सिद्धाणं णमो आयरीयाण। णमो * उवज्झायाणं, णमो लोये सवसाहूणं ॥१॥ ओं ही अनादि-1 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * SHAKAKKAR* । १८४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह मूलमंत्रेभ्यो नमः । (पुष्पांजलि क्षेपए करना) चत्तारि । मंगलं-अरहंतमंगलं सिद्धसंगलं साहूमंगलं केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा अरहंतलोगुत्तमा सिद्धलो गुत्तमा, साहूलोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा । *चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंतसरणं पन्यज्जामि, सिद्ध- । पसरणं पञ्चज्जामि, साहुसरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मोसरण पन्चज्जामि ॥ओं नमोऽर्हते स्वाहा । (यहां पुष्पांजलि क्षेपण करना) अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्याये* पंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं स वाह्याभ्यंतरे शुचिः । अपराजितमंत्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥३॥ एसो पंचणमोयारो सव्वपावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसि, पढम होइ मंगलं * || अर्हभित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहं ॥५॥ कर्माष्टकविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मीनिकेतनं । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहं ॥६॥ विघ्नौधाः प्रलयं यांति शाकिनी भूतपन्नगाः। विषं निर्विपतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥७॥ (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) (यदि अवकाश हो, तो यहांपर सहस्रनाम पढ़कर दश अर्घ देना अ चाहिये । नहीं तो नीचे लिखा श्लोक पढ़कर एक अर्थ चढ़ाना चाहिये। * उदकचंदनतंदुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलाकैः । धवल Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KKRAKASHA* वृहज्जैनवाणीसंग्रह १८५ MAARAANAI MARAANAMAMANNA मंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिननाथ महं यजे ॥७॥ * ओं ही श्रीभगवजिनसहस्रनामेभ्योऽयं निर्धपामीति स्वाहा। __ श्रीमजिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेश स्याद्वादनायकमनंतचतुष्टयाह । श्रीमूलसंघसुदृशां सुकृतैकहेतुजैनेन्द्रयज्ञविधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥८॥ स्वस्ति त्रिलोकगुरुवे जिनपुंगवाय, खस्तिस्वभावमहिमोदयसुस्थिताय, स्वस्ति प्रकाशसह* जोर्जितदृङ्मयाय, स्वस्ति प्रनन्नललिताद्भुतवैभवाय । ॥९॥ स्वस्त्युच्छलद्विमलबोधसुधाप्लवाय, स्वस्ति स्वभावपरभावविभासकाय, स्वस्ति त्रिलोकविततैकचिदुगमाय, स्वस्ति त्रिकालसकलायतविस्तृताय ॥१०॥ द्रव्य स्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धिमधिकामधिगं* तुकामः। आलंबनानि विविधान्यवलंव्यवल्गन् , भूतार्थयज्ञ। पुरुषस्य करोमि यज्ञं ॥११॥ अर्हत्पुराणपुरुषोत्तमपावनानि, वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेकएव । अस्मिन् ज्वलद्विमलकेव* बोधवह्नौ, पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि ॥ (पुष्पांजलि क्षेपण करना) __श्रीवृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअजितः । श्रीसं* भवः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअभिनंदनः । श्रीसुमतिः स्वस्ति, । स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः । श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशीतलः।। * श्रीश्रेयांसः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः । ' श्रीविमलः का स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअनंतः। श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशां तिः। श्रीकुंथुःस्वस्ति, स्वस्ति श्रीअरनाथः। श्रीमल्लिः । *** * * Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KKRK-R- 52R . LAAAAAAA. AAAAA AAAAAAAAAAAAAPAN १८६ बृहज्जैनवाणीसग्रह। १ स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः । श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः । श्रीपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः । (पुष्पांजलि क्षेपण) नित्याप्रकंपाद्भुतकेवलौघाः स्फुरन्मनःपर्यय शुद्धयोधाः । * दिव्यावधिज्ञानवलपबोधाः स्वस्तिकक्रियासुः परमर्षयोनः॥, यहां व आगेभी प्रत्येक श्लोकके अंतमें पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये ,. * कोष्ठम्थधान्योपममेकवीज सभिन्नसं श्रोतृपदानुसारि।च* तुर्विध बुद्धिवलं दधानाः स्वस्ति क्रि यासु परमर्पयो नः ॥२॥ । संस्पर्शन संश्रवणं च दूरादास्वादनघ्राणविलोकनानि । दि-है * व्यान्मतिज्ञानवलाद्वहंतः स्वस्ति क्रियासुः परमर्पयो नः।। प्रज्ञाप्रधानाः श्ररणाः समृद्धाः प्रत्येकबुद्धा दशसर्वपूर्वैः । प्रवादिनोऽष्टांगनिमित्तविज्ञाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्पयो । १ नः । जंघावलिश्रेणिफलांबुतंतुपसूनबीजांकुरचारणाह्वाः ।। नभोंऽगणस्वैरविहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परम* पयो नः। अणिम्नि दक्षाः कुशलाः महिम्नि लघिम्नि ! * शक्ता कृतिनो गरिम्णि । मनोवपुर्वाग्यलिनश्च नित्यं, स्वस्ति। * क्रियासुः परमर्पयो नः ॥६॥ सकामरूपित्ववशित्वमैश्यं । प्राकाम्यमंतद्धिमथाप्तिमाताः । तथाऽपतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयोः नः ॥७॥ दीप्तं च तप्तं च तथा । * महोग्रं घोरं तपो घोरपराक्रमस्थः । ब्रह्मापरं घोरगुणाच रंतः स्वस्ति क्रियासुः परमर्पयो नः ॥ ८॥ आमर्पसर्वोषध। यस्तथाशीविषविषादृष्टिविविपाश्च । सखिल्ल विड्जल्ल Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARArrnAnnAAAAAAm AAAAAAAAAAAAAAA *- ----- * वृहज्जैनवाणीसंग्रह । । १८७ * मलौषधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥९॥ क्षीरं * लवंतोऽत्र घृतं स्रवंता मधुस्रवतोऽप्यमृतं स्रवंतः । अक्षीण* संवासमहानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥ ___इति परमर्षिवस्तिमंगलविधानं । सार्चः सर्वज्ञनाथः सकलतनुभृतां पापसंतापहर्ता, त्रैलोक्याक्रांतकीतिः क्षतमदनरिपुर्धातिकर्मप्रणाशः । श्रीमानि-1 पणिसंपदरयुवतिकरालीढकंठः सुकंठेदेवेंद्रचंद्यपादो जयति जिनपतिः प्राप्तकल्याणपूजः ॥१॥ जय जय जय श्रीसत्कांतिप्रभो जगतां पते ! जय जय भवानेव स्वामी भवांभसि मज्जतां । ___ जय जय महा मोहध्वांतप्रभातकृतेऽर्चनं । ॐ जय जय जिनेश त्वं नाथ प्रसीद करोम्यहम् ॥२॥ ।ओं ह्रीं भगवजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ( इत्याह्वानम् ) ओं ही भगवज्जिनेंद् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ठः ठः (इति स्थापनम्) ओं ही * भगवजिन्द्र ! अन मम सन्निहितो भव भव । वषट् (इति सन्निधिकरणं) देवि श्रीश्रुतदेवते भगवति ! त्वत्पादपकेरुह, द्वंदे यामि शिलीमुखित्वमपरं भक्तयामया प्रार्थ्यते।। . मातश्चेतसि तिष्ठ मे जिनमुखोद्भूते सदा त्राहि मां * दृग्दानेन मयि प्रसीद भवती संपूजयामोऽधुना ॥३॥ ओं हीं जिनमुखोद्भूतद्वादशांगश्रुतज्ञान ! अत्र अवतर अवतर। संवौषट् । ओं ह्रीं जिनमुखोद्भूतद्वादशांगनृतज्ञान ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ओं ही जिनमुखोद्भूतद्वादशांगश्रुतज्ञान ! अत्र मम सन्निहितो भव भववषट्। * SANS Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह संपूजयामि पूज्यस्य पादपद्मयुगं गुरोः । तपःप्राप्तप्रतिष्ठस्य गरिष्ठस्य महात्मनः ||४|| ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमूह ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । मों ह्रीं आचार्योपाध्यायसवसाधुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषटू । देवेद्रनागेन्द्रनरेन्द्रद्यान् भत्पदान् शोभितसारवर्णान् । दुग्धान्धिसंस्पधिंगुणैर्ज लोधैर्जिनेंद्र सिद्धांतयतीन् यजेऽहम्॥१॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति० ॥ ताम्यत्त्रिलोकोदर मध्यवर्तिसमस्तसच्चा हितहारिवाक्यान् । श्रीचंदनैर्गधविलुब्धभ्रंगैजिनेंद्र सिद्धांतयतीन् यजेऽहम् ॥२॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चदनं निर्वपामीति० ॥ अपारसंसारमहासमुद्र प्रोत्तारणे प्राज्यतरीन् सुभक्त्या । दीर्घाक्षतांगैर्घवलाक्षतोषै जिनेंद्र सिद्धांतयतीन् यजे ऽहं ॥३॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ विनीतभव्याब्जविबोधसूर्यान्वर्यान् सुचर्याकथनैकधुर्यान् । कुंदारविंद प्रमुखैः प्रसूनैजिनेंद्र सिद्धांतयतीन यजेऽहं || ४ || ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा || कुदर्पकंदर्पविसर्पसंप्रसह्य निर्णाशनचैनतेयान् । प्राज्याज्यसारैश्वरुभी रसाढ्यैर्जिनेंद्र सिद्धांतयतीन् यजे ऽहं ॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ं निर्वपामीति स्वाहा ॥, ध्वस्तोद्यमांधीकृतविश्वविश्व मोहांधकारप्रतिघातदीपान् । १८८ wwwww www333UL HUDU...! 7 " Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anna AAAAAAA . . बृहज्जैनवाणीसंग्रह १८६ दीपैः कनकांचनभाजनस्थैजिनेंद्रसिद्धांतयतीन् यजेऽहं ॥६॥ ओं हों देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति० ॥ * दुष्टाष्टकर्मेन्धनपुष्टजालसंधूपने भासुरधूमकेतून् । धूपैविधूतान्यसुगंधगंधैर्जिनेंद्रसिद्धांतयतीन् यजेहं ॥७॥ *ओं हों देवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ क्षुभ्यद्विलुभ्यन्मनसाप्यगम्यान कुवादिवादाऽस्खलितपमा वान् । फलैरलं मोक्षफलामिसारैर्जिनेंद्रसिद्धांतयतीन् यजेहं ।। | ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वामि०॥ . सद्वारिंगंधाक्षतपुष्पजातैनैवेद्यदीपामलधूपधूमः । फलै विचित्रैर्धनपुण्ययोगान् जिनेंद्रसिद्धांतयतीन् यजेहं ॥१९॥ । ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्धपदप्राप्तये अर्ध निर्वपामीति० ॥ ये पूजां जिननाथशास्त्रयमिनां भक्त्या सदा कुर्वते, । त्रसंध्यं सुविचित्रकाव्यरचनासुच्चरयंतोनराः।। * पुण्यात्या मुनिराजकीर्तिसहिता भूत्वा तपोभूषणांस्ते भव्याः सकलावबोधरुचिरां सिद्धिं लभन्ते पराम् ॥ १॥ इत्याशीर्वादः ( पुष्पांजलि क्षेपण करना) वृषभोऽजितनामा च संभवश्वाभिनंदनः। सुमतिः पद्मभासश्च सुपार्यो जिनसत्तमः ॥ १॥ चंद्राभः पुष्पदंतश्च । शीतलो भगवान्मुनिः । श्रेयांश्च वासुपूज्यश्च विमलो विमल-1 * युतिः॥ २ ॥ अनंतो धर्मनामा च शांतिः कुंथुर्जिनोत्तमः ।। । अरश्च मल्लिनाथश्च सुव्रतो नमितीर्थकृत् ॥ ३॥ हरिवंश१. समुद्भुतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । ध्वस्तोपसर्गदैत्यारिः । *KSRK Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 स क के द वृहज्जैनवाणीसंग्रह आयासरिद्धि || जे पाणाहारी तोरणीय । जे रुक्खमूल आतावणीय || ३ || जे मोणिधाय चंदाहणीय । जे जत्थत्थवणि णिवासणीय || जे पंचमहन्वय धरणधीर । जे समिदिगुत्ति पालणहि वीर ॥ ४ ॥ जे चड्ढाहिं देहविरतचित्त । जे रायरोसभयमोहवत्त || जे कुमइहि संवरु विग - यलोह | जे दुरियविणासणकामकोह ॥ ५ ॥ जे जल्लमल्लतणलित्त गत | आरंभपरिग्गह जे विरत ॥ जे तिष्णु काल बाहर गर्मति । छहहम दसमउ तउ चरंति || ६ || जे इकगास दुइगास लिति । जे गीरसभोयण रइ करंति । ते मुणिवर बंदउं ठियमसाण । जे कम्मडहह वर सुक्कझाण ॥ ७ ॥ बारहविहसंजम जे धरंति । जे चारिउ विकहा परि हरंति || बावीस परीषह जे सहति । संसारमहण्णउ ते तरंति ॥ ८ ॥ जे धम्मबुद्धि महियलि थुगंति । जे काउसग्गो खिसि गर्मति ॥ जे सिद्धविलासणि अहिलसंति । जे पक्खमास आहार लिंति ॥ ९ ॥ गोदूहण जे वीरासणीय जे धणुहसेज वज्जासणीय | जे तववलेण आयास जंति । जे गिरि गृहकंदर विवरथंति ॥ १० ॥ जे सत्तु मित्र समभाव चित्त । ते मुनिवर वंदउं दिढचरित ।। चउवीसह गंथह जे विरत । ते मुनिवर वंदउं जगपवित्त ॥ ११ ॥ जे सुज्झाणिज्झा एकचित्त । वंदामि महारिस मोखपत्त ॥ रणयत्तयरंजिय सुद्धभाव । ते मुणिवर बंदउं ठिदिसहाव १२ ॥ धत्ता - जे तपसूरा, संजमधीरा, सिद्धवधू अणुराईया । रयणतंयर जिय, कम्महगंजिय, ते ऋषिवरमय झाईया || wwwwwwwwwww. 13 १६३ wwwwwwww Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jnwr AvvvvvvNEW १६४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * ओं ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्योपाध्यायस- 4 । र्वसाधुभ्यो महाधु निर्वपामीति स्वाहा। ८२-अथ देवशास्त्रगुरुकी भाषा पूजा । अडिल्ल-प्रथमदेव अरहंत सुश्रुत सिद्धांतजू । गुरु निर* ग्रंथ महंत मुकतिपुरपंथजू । तीनरतन जगमांहि सो ये भवि। ध्याइये। तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥ १॥ दोहा-पूजौं पद अरहंतके, पूजौ गुरुपदसार।। ___ . पूजौं देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार ॥२॥ ओं ही देवशावगुरुसमूह ! अत्रावतरावतर ! संबौषट् । ओं ही देवशास्त्रगुरुसमह अन्न तिष्ट तिष्ट ठः ठः। * ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह अत्र मम सत्रिहितो भव भव । वषट् । गीता छंद। । सुरपति उरगनाथ तिनकर, वंदनीक सुपदभमा । अति शोभनीक सुवरण उज्वल, देखि छवि मोहित सभा॥ *वर नीर क्षीरसमुद्रघटभरि, अग्र तसु बहुविधि नचूं। १ अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥१॥ दोहा-मलिन वस्तु हरलेत सब, जल स्वभाव मलछीन । जासों पूनौं परमपद देवशास्त्रगुरु तीन ॥१॥ Lओं ही देवशालगुरुभ्यो जन्मजरामृत्यविनाशनाय जलं निर्वः ॥१॥ जे त्रिजग उदर मझार पानी, तपत अति दुद्धर खरे। । तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे ॥ तसु । * भ्रमर लोभित घाण पावन, सरस चंदन घसि सचूं ॥अरहंत०॥ AAKAARAKSHMISHRA Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ~ ~ ~ vuWAuru. ~ ~ बृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-चंदन शीतलता करै, तपत वस्तु परवीन।। जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ *ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्व० ॥२॥ है यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सु विधि ठई।। * अति दृढ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही। उज्वल * अखंडित सालि तंदुल पुंज धरि त्रयगुण जजू । अरहंत० ॥ दोहा-नंदुल सालि सुगंधि अति, परम अखंडित वीन। जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥३॥ * ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। जे विनयवंत सुभव्य उर अंबुज प्रकाशन भान हैं। जे । एकमुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं । लहि कुंद कमलादिक पहुप, भव २ कुवेदनों बचूं ।। अरहंत० ॥ * दोहा-विविधांति परिमलसुमन, भ्रमर जास आधीन। जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरुतीन ॥४॥ 1 ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्व० ॥४॥ * अतिसवल मदकंदर्प जाको क्षुधाउरग अमान है । दुस्सह * भयानक तास नाशनको सुगरुड' समान । उत्तम छहों । रसयुक्त नित, नैवेद्यकरि घृतमें पचूं । अरहंत० ॥५॥ * दोहा-नानाविध संयुक्तरस, व्यंजन सरस नवीन । ___जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥५॥ *ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि० ॥५॥ *RKAR5- 2 RR Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAA 1911 १६६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली । तिहिक कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशजोति प्रभावली ! इहभांति दीप । प्रजाल कंचनके सुभाजनमैं खचूं । अरहंत० ॥६॥ दोहा-स्वपर प्रकाशक जोति अति, दीपक तमकरि हीन। * जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥६॥ .. । ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निव० ॥६॥ जो कर्म-ईधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै। वर धूप तासु सुगंधताकरि, सकल परिमलता हँसे ।। इहभांति । धूप चढाय नित भवज्वलनमांहि नहीं पचूं । अरहंत० ॥ दोहा-अग्निमांहि परिमलदहन, चंदनादि गुणलीन। जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥ * औं ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥७॥ * लोचन सु रसना धान उर, उत्साहके करतार हैं । मोपैन । उपमा जाय वरणी, सकलफलगुणसार हैं। सो फल चढावत * अर्थपूरन, परमअमृतरस सचूं । अरहंत०॥ दोहा-जो प्रधान फल फलविषै, पंचकरण-रस लीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥८॥ १ ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। * जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धलं । * वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनमके पातक हरूं ॥ इह भांति अर्थ चढाय नित भवि करत शिवपकति मचूं । अरहंत०॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-सुविधि अर्थ सँजोयफे, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥९॥ ओं ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्व्यपदप्राप्तये अश्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ अथ जयमाला । * दोहा-देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीनरतनकरतार। है , भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुणविस्तार ॥१॥ पद्धरि छंद-कर्मनकी त्रेसठ प्रकृति नाशि । जीते अष्टादश । * दोषराशि । जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवतके छया लिस गुण गंभीर ॥२॥ शुभ समवसरण शोभा अपार, शत* इंद्र नमत करसीसधार । देवाधिदेव अरहंत देव, बंदों मनर बचतनकरि सु सेव ॥३॥ जिनकी धुनि है ओंकाररूप, निर A अक्षरमय महिमा अनुप । दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुए भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गण धर गूंथे बारह सु अंग ॥ रवि शशि न हरै सो तम हराय, * सो शास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय॥५॥ गुरु आचारज उवझाय साध, तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसारदेह वैराग धार, निरवांछि तपै शिवपद निहार ॥६॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस, भवतारन तरन जिहाज ईस। गुरुकी। महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपों मनवचनकाय ॥७॥ * सोरठा-कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै।। । धानत सरधावान, अजर अमरपद भोगवै। #ओं ही देवशास्त्रगुरुभ्यो महाघ निर्वपामीति स्वाहा । *R KAKKARKA* Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwwwwwww wwwwwwwwwwwwwwwwÿÿÿ ८३ - विद्यमानविंशतिजिनपूजा संस्कृत । www wwwwˇˇˇˇˇˇˇ पूर्वापरविदेहेषु विद्यमानजिनेश्वरान् । स्थापयाम्यहमत्र, शुद्धसम्यक्त्व हेतवे ॥१२॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करा ! अत्र अवतरत अवतरत संचौपट् । ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करा ! अत्र तिष्टत तिष्ठत ठः ठः । ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थङ्करा ! अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वपट् कर्पूरवासितजलैर्भूतहेमभृन्गैः धारात्रयं ददतुजन्मजरापहानि । तीर्थकराय जिनविंशविहरमानैः, संचर्चयामि पदपंकजशांतिहेतोः ॥ ओं ह्री विद्यमान विशतितीर्थ करेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्व० । (इस पूजा में यदि वीस पुंज करना हो, तो इस प्रकार मंत्र बोलना चाहिये) ओं ह्रीं सीमंधर - युग्मंधर- बाहु- सुबाहु-संजात स्वयंप्रभ-ऋपभाननअनंतवीर्य-सूरप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर - चन्द्रानन- चन्द्रवाहु-भुजंगम-ई. श्वर-नेमिप्रभ-वीरपेण-महाभद्र - देवयशोऽजितवीर्येतिविंशतिविद्यमानतीर्थकरेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति खाहा ॥ काश्मीरचंदन विलेपनमग्रभूमि, संसारतापहरचूरिकरोमि नित्यं । तीर्थंकरायजिनविंशविहरमानैः, संचर्चयामि पद० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेम्यो भवतापविनाशनाय चन्दनं निर्व० ॥ अखंड अक्षतसुगंधसुनम्रपुंजै-रक्षयपदस्य सुख संपतिप्राप्तहेतोः । तीर्थकरायजिन विंशविहरमानैः, संचर्चयामि पद० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेम्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व० ॥ ३ ॥ अंभोजचंपक सुगंधसुपारजातैः कामैर्विध्वंसन करोम्यहं - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह AAAA जिनाय । तीर्थंकराय जिनविंशविहरमानैः, संचर्चयामि पद० 11 ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं नि० ॥४॥ नैवेद्यकैः शुचितरैर्धृतपस्वखंडे, क्षुधादिरोगहरिदोषविनाशनाय । तीर्थंकराय जिनविंशविहरमानैः, संचर्चयामि पद ० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निव० ! दीपैर्मदीपितजगत्त्रयरश्मिपुञ्ज, दूरीकरोतितममोह विनाशनाय । तीर्थंकराय जिनविंशविहरमानैः संचचयामि पद ० ॥ ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि० ॥६॥ कर्पूरकृष्णांगुरुचूर्णरूपै, धूपैः सुगंधकृतसारमनोहराणि । तीर्थकराय जिन विंशविहरमानैः, संचचयामि पदपंकज ० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्योऽकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपा० ॥७॥ ॥ 1 " ^^^^^ १६६ AAAAAAAAV नारिंगदाडिममनोहर श्रीफलाद्यैः, फलंअभीष्टफलदायकप्राप्तमेव । तीर्थंकराय जिनविंशविहरमानैः, संचर्चयामि पद० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतिथंकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपा० ||८|| जलस्यगंधाक्षतपुष्पचरुभिः, दीपस्य धूपफलमिश्रितमर्घपात्रैः । अ करोमि जिनपूजनशांतिहेतोः संसारपूर्णाकुरुसेविकानां ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितोर्थकरेभ्योऽनर्धपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामी० ॥ ॥ अथ जयमाला | दोहा - दीप अढाई मेरु पुनि, तीर्थकर हैं वीस । तिनको नित प्रति पूजिये, नमो जोरिकर सीस ॥१॥ प्रथम सीमंदिर स्वामि, युगमंदिर त्रिभुवनधनिये । बाहु Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०० वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सुबाहु जिनंद, सेवहिं सुखसंपतिधनिये ॥२॥ संजात स्वयं। प्रभुदेव, ऋषभाननगुण गाइये । अनंतवीर्यजीकी सेव, मनवांछितफल पाइये ॥३॥ सरप्रभु सुविशाल, वनाधर जिन दिये । चंद्रानन चंद्रवाहु, देखत मन आनंदिये । वीरसेन । जयवंत, ईश्वर नेमीश्वर कहिये। भुजंगवाहु भगवंत, तारण । भव जलते कहिये ॥५॥ देव यशोधरराय, महाभद्र जिन। बंदिये। अजितवीर्यजीको तेज, कोटि दिवाकर जो दिपिये। पत्ता-ये बीस जिनवर संग प्रभुके, सेव तुमरी कीजिये। । ये वीसौ बंदन करै सेवक, मनवांछित फल लीजिये ॥७॥इति॥ ८४-श्रीबांसतीर्थकरपूजा भाषा। दीप अढाई मेरु पन, अरु तीर्थकर बीस। तिन सबकी पूजा करूं, मनवचतन धरि सीस ॥ * ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थकराः ! अत्र अवतरत अवतरत । संवौषट् । । 1 ओं ही विद्यमानविंशतिथंकराः । अत्र तिष्ठत तिष्ठत । ठः ठः। *ओं ह्रीं विद्यमानविशतितीर्थंकराः अत्र मम सन्निहिताः भवत भवत वषट्।। ___ इंद्र फणींद्र नरेंद्र वैद्य, पद निर्मल धारी । शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी ॥ क्षीरोदधि सम नीरसों । (हो), पूजों तृषा निवार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मझार ॥ श्री जिनराज हो भव, तारणतरण जिहाज ॥ *ओं ह्रीं विद्यमामविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्व०॥ (इस पूजा में बीस पुंज करना हो, तो इसप्रकार मंत्र बोलना चाहिये) Tओं ही सीमंधर-जुगर्मधर-बाहु-सुबाहु-संजातक-स्वयंप्रभ-ऋषभानन *KKARKKHASRK-* Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AhAAAAAAI nrnAPAMA Anonwr Anananana र वृहज्जैनवाणीसंग्रह . २०१ ।। , अनंतवीर्य-सूरप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चंद्रानन-भद्रबाहु-भुजंगम । ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन महापद्र-देवयशोऽजितवीर्येतिविंशतिविद्यमान* तीर्थे करेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जल निवपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ तीनलोकके जीव, णप आताप सताये । तिनको साता * दाता, शीतल बचन सुहाये | वावन चंदनसों जजू (हो) * भ्रमन-तपत निरवार । सीमंधर० ॥२॥ ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेम्यो भवातापविनाशनाय चदनं निव०॥२॥ (इसके स्थानमें यदि इच्छा हो, तो बड़ा मत्र प. ) यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी । तातै तारे । बड़ी, भक्ति-नौका जगनामी । तंदुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार । सीमंधर० ॥३॥ 2 ओं हों विद्यमानविशतितीथ करेभ्योऽक्षयदप्राप्तये अक्षतान् निर्व० ॥३॥ भविक-सरोज-विकाश, निंद्यतमहर रविसे हो। जति । * श्रावक आचार, कथनको, तुमही बडे हो॥ फूलसुबास । * अनेकसों (हो) पूजों मदन प्रहार । सीमंधरः ॥४॥ ओं ही विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय दीपं निर्व० ॥४॥ काम नाग विषधाम, नाशको गरुड कहे हो। छुधा * महादवज्वाल, तासको मेघ लहे हो। नेवज बहुघृत मिष्टसों । * (हो), पूजों भूखविडार । सीमंधर० ॥५॥ . ओं ही विद्यमानविशतितीर्थ करेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्व० ॥ * उद्यम होन न देत, सर्व जगमाहिं भरयो है । मोह महा **ARKKAKKSKRIS R KAR* Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स २०२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह तमघोर नाश परकाश करयो है || पूजों दीप प्रकाशसों ( हों) ज्ञानज्योति करतार | सीमंधर० ||६|| ओहीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्व० ॥६॥ कर्म आठ सब काठ, भार विस्तार निहारा । ध्यान अगनि कर प्रगट, सरव कीनों निवारा || धू' अनूपम खेवतैं (हो), दुःख जलें निरधार । सीमंधर० ॥७॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्योऽकमविध्वंसनाय धूपं निबं० ॥७॥ मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें जीत जैनके मेर खरे हैं || फल अति उत्तमसों जजों (हो) वांछित फलदातार । सीमंधर० ||८|| ओं ह्रीं विद्यमान विशतितीर्थंकरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वः ||८|| जल फल आठों दर्व. अरघकर प्रीति धरी है। गणधर इंद्रनहतै श्रुति पूरी न करी है । द्यानत सेवक जानके (हो) जगतें लेहु निकार | सीमं० ॥ ओं ह्रीं विद्यमानविंशतितीथंकरेभ्योऽनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निव० ॥६॥ अथ जयमाला आरती | सोरठा - ज्ञान सुधारक चंद, भविकखेतहित मेघ हो । भ्रमतमभान अमंद, तीर्थकर बीसों नमों ॥ चौपाई - सीमंधर सीमंधर स्वामी | जुगमंधर जुगमंधर नामी। बाहु बाहु जिन जगजन तारे । करम सुबाहु बाहुबल दारे ॥ १ ॥ जात सुजात केवलज्ञानं । स्वयंप्रभू प्रभू स्वयं प्रधानं । ऋषभानन ऋषि भानन दोषं । अनंतवीरज एस एस एस केले केले 1 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAARAKSHA- KHARA wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह २०३ ॥ *वीरजकोषं ॥ २ ॥ सौरीप्रभ सौरीगुणमालं । सुगुण विशा ल विशाल त्यालं । वज्रधार भव गिरिवज्जर हैं । चंद्रानन चंद्रानन वर हैं।३ ।। भद्रबाहु भद्रनिके करता। श्री भुजंग भुजंगम हरता ॥ ईश्वर सबके ईश्वर छाजै । नेमि* प्रभु जस नोंमे विराजै ॥ ४॥ वीरसेन वीरं जग जाने । * महाभद्र महभद्र बखानै ।। नमों जसोधर जसधरकारी । नमों अजितवीरज बलधारी ॥५॥ धनुष पांचसै काय विराजै। आव कोडिपूरव सब छाजै ॥ समवसरण शोभित जिनराजा। भवजलतारनतरन जिहाजा ॥६॥ सम्यक * रत्नत्रयनिधिदानी । लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी ॥ शत इन्द्रनिकरि बंदित सोहैं। सुरनर पशु सबके मन मोहैं ॥७॥ * दोहा-तुमको पूजै बंदना, करै धन्य नर सोय। ___'चानत' सरधा मन धरै, सो भी धरमी होय ॥ ___ ओहीं विद्यमानविशतितीर्थकरेभ्यो महा निर्वपामीति स्वाहा ॥ *३२ । अथ विद्यमानवीस तीर्थंकरोंका अर्घ। ॥ उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलाकैः। धवलमंगललगानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे ॥ * ओं ही श्री सीमंधरयुग्मंघरबाहुसुबाहुसंजातस्वयंप्रभऋषिभानन । ॐ अनन्तवीर्यसूर्यप्रभविशालकीर्तिवनधरचद्राननभद्रबाहुभुजंगमईश्वरनेमिप्रभवीरसेनमहाभद्रदेवयशअजितवीर्येतिविंशतिविद्यमानतीथे करेभ्योऽर्ध निर्वपामीति स्वाहा। KANTR6- 55K Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAKKAKKARK-* १२०८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह *ओं ह्रीं सिद्ध चक्राधिपतये सिद्ध परमेष्ठिने अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ॐ ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं, सूक्ष्मस्वभावपरमं यद* नंतवीर्य । कौषकक्षदहनं सुखसस्यबीजं वंदे सदा निरुपमम् वरसिद्धचक्रम् ॥१०॥ * ओ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाव्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ त्रैलोक्येश्वरवंदनीयचरणाः प्रापुः श्रिय शाश्वती । * यानाराध्य निरुद्धचंडमनसः संतोऽपितीर्थकराः ॥ सत्सम्य क्त्वविवोधवीर्यविशदाऽव्यावाधताधैर्गुणैर्, युक्तांस्तानिह * तोष्टवीमि सततं सिद्धान् विशुद्धोदयान् ॥ ( पुष्पांजलिं० ) ___ अथ जयमाला। विराग सनातन शांत निरंश । निरामय निर्भय निमल । हंस ॥ सुधाम विवोधनिधान विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसि। द्धसमूह ॥१॥ विदूरितसंसृतिभाव निरंग । समामृतपूरित 1. देव विसंग ॥ अबंधकषाय विहीन विमोह । प्रसीद विशुद्ध * सुसिद्धसमूह ॥ २ ॥ निवारितदुष्कृतकर्मविपास । सदामल * केवलकेलिनिवास ॥ भवोदधिपारग शान्त विमोह । प्रसीद.. । विशुद्धसुसिद्धसमूह ॥३॥ अनंतसुखामृतसागर धीर । कळं-1 करजोमलभूरिसमीर || विखंडितकाम विराग विमोह ।। * प्रसीद विशुद्धसुसिद्धसमूह ॥४॥ विकारविवर्जित तर्जितशोक। विवोधसुनेत्रविलोकितलोक ! विहार विराग विरंग विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥५॥ रजोमलखेदविमुक्त विगात्र । * निरंतर नित्य सुखामृतपात्र । सुदर्शनराजित नाथ विमोह।। प्रसिद्ध विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥ नरामरवंदित निर्मल भाव Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RAK AS- RR* vvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह २०६ अनंत मुनीश्वरपूज्य विहाव ॥ सदोदय विश्वमहेश विमोह । . प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥७॥ विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र । परापरशंकरसार वितन्द्र ॥ विकोप विरूप विशंक विमोह। प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥ ८॥जरामरणोज्झित। वीतविहार । विचिंतित निर्मल निरहंकार ॥ अचिंत्यचरित्र विदर्प विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥ ९॥ विवर्ण विगंध विमान विलोभ । विमाय विकाय विशब्द विशोभ । अनाकुल केवल सर्व विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह॥ पत्ता-असमसमयसारं चारुचैतन्यचिह्न, परपरणतिमुक्तं * पद्मनंदींद्रवंद्यं । निखिलगुणनिकेत सिद्धचक्रं विशुद्धं, स्मरति । नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिं ॥ ११॥ ___ ओं ही सिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा । अथाशीर्वाद। अडिल्लछंद । ___ अविनाशी अविकार परमरसधाम हो । समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्धबोध अविरुद्ध अनादि अनंत हो।। जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो ॥१॥ ध्यान अ* गनिकर कर्म कलंक सबै दहे । नित्य निरंजनदेव सरूपी है रहे । ज्ञायकके आकार ममत्व-निवारिक, सो परमातम सिद्ध न सिर नायकें ॥२॥ दोहा-अविचलज्ञानप्रकाशतें, गुण- अनंतकी खान। * ध्यान धेरै सो पाइये, परम सिद्ध भगवान ॥ ३ ॥ * * 14 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAN । २१० वृहज्जैनवाणीसग्रह ८८-अथ सिद्धपूजाका भावाष्टक ।। निजमनोमणिभाजनभारया, समरसैकसुधारसधारया।। । सकलबोधकलारमणीयकं, सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥जलं सहजकर्मकलकविनाशनैरमलभावसुवासितचंदनैः। अनुप मानगुणावलिनायक, सहजसिद्धमहं परिपूजये॥ चंदनम् ॥ • सहजभावसुनिर्मलतंदुलैः सकलदोषविशालविशोधनैः ।। * अनुपरोधसुवोधनिधानकम्, सहज सिद्धमहं परिपूजये ।। अक्ष० । समयसारसुपुष्पसुमालया, सहजकर्मकरेण विशोधया। । परमयोगवलेन वशीकृतम्, सहजसिद्धमहं परिपूजये ।पुष्पा अकृतबोधसुदिव्यनिवेधकैर्विहितजातजरामणांतकैः। निरवधिमचुरात्मगुएलायं, सहजसिद्धमहं परिपूजये ।।नैवेद्य। सहजरत्नरुचिप्रतिदीपकै, रुचिविभूतितमःम बनाशनैः।। निरवधिस्वविकाशप्रकाशनैः, सहजसिद्धमहं परिपूजये||दीपम्।। निजगुणाक्षयरूपसुधूपनैः, स्वगुणघातिमलप्रविनाशनैः।। विशदवोधसुदीर्घसुखात्मकम्, सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥धूप। परमभावफलावलिसम्पदा, सहजभावकुभावविशोधया। निजगुणास्फुरणात्मनिरंजनम्, सहजसिद्धमहं परिपूजये फलं १ नेत्रोन्मीलिविकाशभावनिवहैरत्यन्तबोधाय वै । वागंधाक्षतपुष्पदामचरुकै सद्दीपधूपैम्फलैः ॥ यश्चितामणिशुद्धभावपरमज्ञानात्मकैरर्चयेत् । सिद्धं स्वादुमगाधबोधमचलं संचर्चयामो वयम् ॥९॥ इति ॥ ८९-सोलहकारणका अध। उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैवरुसुदीपसुधूपफलार्यकैः । SARKARKAR Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह २११ ।। धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिनहेतुमहं यजे ॥१॥ ओं ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।।। ९०-दशलक्षणधर्मका अर्ध । उदकचन्दतन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलायकैः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिनधर्ममहं यजे॥ ओं ही अहन्मुखकमलसमुभूतोत्तामामार्दवाजवसौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्राह्मचयेदशलाक्षणिकधर्मेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । ९१-रत्नत्रयका अर्थ । उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलाकैः । धवलमंगलगानरवालेजिनगृहेजिनरत्नमहं यजे ॥ * ओं ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यज्ञानाय त्रयोदशप्रकारसम्यकू। चारित्राय अर्थ निर्बपामीति स्वाहा ॥ . ९२-अथ पंचपरमेष्ठिजयमाला। मणुय-णाइन्द-सुरधरियछत्तत्तया, पंचकल्लाणसुक्खावली पत्तया । दसणं गाण झाणं अणतं बलं, ते जिणा दितु में । अम्हं वरं मगलं ॥१॥ जेहिं झाणग्गिवाणेहि अइथडयं, जम्मजस्मरणणय रनयं दद्वयं । जेहिं पत्तं सिवं सासयं ठाणयं, है ते जिणादितु सिद्धावरं णाणयं ॥२॥ पंचहाचारपंचग्गि सं। साहया, वारसंगाइ सुयजलहिं अवगाहया । मोक्खलच्छी महंती महंते सया, मरिणो दितु मोक्खं गया संगया ॥३॥ घोरसंसारभीमाड वीकाणणे, तिक्खवियरालणहपावपंचा*--- ----- -- ra.. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAnnnnnnnNA0AM १ २१२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह गणे । गठ मग्गाण जीवाण पहदेसया, बंदिमो ते उचल्झाय * अम्हे सया ॥४॥ उग्गतवयरणकरणेहिं झीणं गया, धम्म वरझाणसुक्केकझाणंगया । णिन्भरं तघसिरीएसमालिंगया, साहओ ते महामोक्खपहमग्गया ॥५॥ एण थोत्रेण जो पंचगुरु बंदये, गुरुयसंसारघणवेल्लि सो छिंदए। लहइ सो सिद्ध सुक्खाइवरमाणणं, कुणइ कम्मिधणं पुंजपजालणं ॥६॥ । आर्या-अरिहा सिद्धाइरीया, उवज्झाया साहु पंचपरमिट्टी। एयाण णमुक्कारो, भवे भवे मम सुहं दितु ॥ . ओं ही अहेत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुपंचपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपा० ॥ . इच्छामि भंते पचगुरुभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालो चेओ अट्टमहापाडिहेरसंजुत्ताणं अरहंताणं । अहगुणसंप-1 ण्णाण उड्ढलोयम्मि पइडियाणं सिद्धाणं। अपवयणमाउस* जुत्ताणं आइरीयाणं । आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं. उव। ज्झायाणं । तिरयणगुणपालणरयाणं सच्चसाहूणं । णिचकालं अच्चेमि पुजेमि बंदामि णमस्सामि, दुक्खक्खओ कम्म खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति * होउ मज्झं । इत्याशीर्वादः। (पुष्पांजलिं क्षिपेत् ) ९३-शांतिपाठ। (शांतिपाठ बोलते समय दोनों हाथोंसे पुष्पवृष्टि करते रहना चाहिये ) __ दोधकवृत्तं-शातिजिनं अशिनिर्मलवक्त्रम्, शीलगुणव्रतसंयमपात्रम् । अष्टशतार्चितलक्षणगात्रम्, नौमि जिनोत्तम-* मम्बुजनेत्रम् ॥१॥ पंचममीस्पितचक्रधराणां पूजितमिंद्रनरेRRC-RSHAN Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * KKR- RHKKRAK-* , बृहज्जैनवाणीसंग्रह २१३ । न्द्रगणैश्च । शांतिकरं गणशांतिमभीप्सुः षोडशतीर्थकरं प्रण* मामि॥२॥ दिव्यतरुसुरपुष्पसुवृष्टिदुंदुमिरासनयोजनघोषौ।। आतपवारणचामरयुग्मे यस्य विभाति च 'मंडलतेजः ॥३॥ तं जगदर्चितशांतिजिनेद्रं शांतिकरं, शिरसा प्रणमामि । सर्व* गणाय तु यच्छतु शांतिं मह्यमरं पठते परमां च ॥४॥ - बसंततिलका छंद-येऽभ्यर्चिता मुकुटकुंडलहाररत्नैःश* क्रादिमिः सुरगणैः स्तुतपादपद्माः। ते मे जिनाः प्रवरवंश जगत्प्रदीपास्तीर्थकराः सततशांतिकरा भवंतु ॥५॥ । इन्द्रवज्रा-सपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति । । भगवान् जिनेन्द्रः ॥६॥ 4 स्रग्धरावृत्त-क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको । * भूमिपालः । काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यांतु, नाश । दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोके, जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥७॥ १ अनुष्टुप-प्रध्वस्तपातिकमाणः केवलज्ञानभास्कराः। कुर्वतु जगतः शांति वृषभाद्या जिनेश्वराः ॥८॥ प्रथम करणं चरणं द्रव्यं नमः ।। अथेष्ट प्रार्थना। शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायः । सदव*त्तानां गुणगणकथादोषवादे च मौनं । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे । संपातां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः ॥९॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwe NAVING * - ---- - - - २१४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह . + आर्यावृत्तं तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये । लीनं । तिष्ठतु जिनेंद्र ! तावद्यावनिर्वाणसंप्राप्तिः ॥१०॥ । अक्खरपयत्थहीण मत्ताहीणं च ज मए भणियं । तं खमउ । का माणदेव य मज्झवि दुक्खक्खयं दितु ॥११॥ दुःक्खखओ। * कम्मखओ, समाहिमरणं च बोहिलाहो य । मम होउ जगदबंधव तव, जिणवर चरणसरणेण ॥२॥ . संस्कृतप्रार्थना। त्रिभुवनगुरो ! जिनेश्वर! परमानंदैककारणं कुरुस्व । मयि किंकरेत्र करुणा यथा तथा जायते मुक्तिः ॥१३॥ निविष्णोहं नितरामर्हन् बहुदुक्खया भवस्थित्या। अपुनर्भवाय भवहर ! कुरु करुणामत्र मयि दीने ॥१४॥ उद्धर मां पति* तमतो विषमाद् भवकूपतः कृपां कृत्वा। अर्हन्नलमुद्धरणे त्व। मसीति पुनः पुनर्वच्मि ॥१५॥ त्वं कारुणिकः स्वामी स्व। मेव शरणं जिनेश ! तेनाहं । मोहरिपुदलितमानं फूत्करण। * तव पुरः कुर्वे ॥१६॥ ग्रामपतेरयि करुणा परेण केनाप्युपद्रते हैं पुंसि । जगतां प्रभो ! न किं तव, जिन ! मयि खलु कर्मभिः । प्रहते ७१॥ अपहर मम जन्म दयां, कृत्वैत्येकवचसि वक्त* व्यं । तेनानिदग्ध इति मे देव ! बभूव पलापित्वम् ॥ १८ ॥ तब जिनवर चरणाब्जयुगं करुणामृतशीतलं यावत् । संसारतापतप्तः करोमि हृदि तावदेव सुखी ॥१९॥ जगदेकशरण भगवन् ! नौमि श्रीपअनंदितगुणौष ! किं बहुना कुरु । करुणामत्र जने शरणमापन्ने ॥२०॥ (परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् ) । * ** K KR* Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** बृहज्जैनवाणीसंग्रह ९४ - अथ विसर्जन पाठ | ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्तं न कृतं भया । तत्सर्वं पूर्णमेवास्तु त्वत्प्रसादाजिनेश्वर । आह्वानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनं । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ||२|| मंत्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्वं क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ||३|| आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमं । ते मयाऽभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यांतु यथास्थिति ॥ ९५ - अथ भाषास्तुतिपाठ । तुम तरणतारण भवनिवारण, भविकमन आनंदनो । श्रीनाभिनंदन जगतवंदन, आदिनाथ निरंजनो ॥१॥ तुम आदिनाथ अनाद देवकि सेय पदपूजा करूँ । कैलाश गिरिपर रिषभजिनवर, पदकमल हिरदै धरूँ ||२|| तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महाबली । इह विरुद सुनकर सरन आयो, कृपा कीज्यो नाथ जी ॥३॥ तुम चन्द्रचंदन सु चन्द्रलच्छन चन्द्रपुरि परमेश्वरो । महासेननन्दन जगतबन्दन चन्द्रनाथ जिनेश्वरो ||४|| तुम शांति पांचकल्याण पूजों, शुद्धमनवचकाय जू । दुर्भिक्ष चोरी पापनाशन विधन जाय पलाय जू ||५|| तुम बालब्रह्म विवेकसागर, भव्यकमल विकाशनो | श्रीनेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो ॥६॥ जिन तजी राजुल राजकन्या, कामसैन्या वश करी | चारित्ररथ चढ़ि भये दूलह, जाय शिव 1 २१५ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA वृहज्जैनवाणीसंग्रह रमणी वरी ॥७॥ कन्दर्प दर्प सुसर्पलच्छन, कमठ शठ निर्मद कियो । अश्वसेननन्दन जगतवंदन सकलसँग मंगल कियो । ८ ॥ जिन धरी वालकपणे दीक्षा, कमठमानवि दारकै । श्रीपार्श्वनाथ जिनेद्रके पद, मैं नमों शिरधारके ॥९॥ * तुम कर्मघाता मोक्षदाता, दीन जानि दया करो । सिद्धाकथनंदन जगत वंदन, महावीर जिनेश्वरो॥ १० ॥ छत्र तीन सोहैं सुरनर मोहैं, वीनती अवधारिये । करजोड़ि। सेवक बीनवै प्रभु आवागमन निवारिये ॥ ११ अब होउ * भवभव स्वामि मेरे, मैं सदासेवक रहों। करजोड़ यों वरदान मांगू, मोक्षफल जावत लहों ॥१२॥ जो एक माहीं एक राजत एकमाहिं अनेकनो । इक अनेककि नहीं संख्या नयूँ सिद्ध निरंजनो ॥१३॥ * चौ०- मैं तुम चरण कमलगुण गाय । बहुविधि भक्ति करी मनलाय ॥ जनम जनम प्रभु पाऊँ तोहि । यह सेवा१ फल दीजे मोहि ॥ १४ ॥ कृपा तिहारी ऐसी होय। जामन मरन मिटावो मोय ॥ बार बार मैं विनती करूँ | तुम सेयां भवसागर तरूँ॥ १५॥ नाम लेत सब दुख मिट जाय । तुमदर्शन देख्यां प्रभु आय ॥ तुम हो प्रभु देवनके । ॐ देव । मै तो करूँ चरण तव सेव ॥ १६॥ मै आयो पूजनके । * काज । मेरो जन्म सफल भयो आज । पूजाकरके नवाऊं, शीश । मुझ अपराध छमहु जगदीश ॥ १७॥ दोहा-सुखदेना दुख मेटना, यही तुम्हारी वान । मो. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwvvvvvvvvvi * - *- *-* * वृहज्जैनवाणीसंग्रह २१७ ५ गरीबकी बीनती, सुन लीज्यो भगवान ॥ पूजन करते में देवकी, आदिमध्य अवसान । सुरगनके सुख भोगकर, पावै मोक्ष निदान ।। १९॥ जैसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय | जो सूरजमें जोति है, तारनमें नहिं सोय *॥२०॥ नाथ तिहारे नामतै, अघ छिनमाहिं पलाय। ज्यों दिनकर परकाशतै, अंधकार विनशाय ॥ २१ ॥ बहुत प्रशंसा क्या करूं मैं प्रभु बहुत अजानं । पूजाविधि जान्यो * नहीं, सरन राखि भगवान ।। २२ ॥ इति समाप्तं ॥ पंचम अध्याय। पर्वपूजा-संग्रह। ९६-देवपूजा भाषा। दोहा-प्रभु तुम राजा जगतके, हमें देय दुख मोह । तुम-पद-पूजा करत हूं, हमपै करुणा होहि ॥१॥ ओं ही अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेन्द्रभगवन् ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओ. ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट- से * चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेन्द्रभगवन् ! अन तिष्ठ तिष्ठ 1. ठः ।। मों ही अष्टादशदोषरहित षट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेन्द्रभगवन् ! * अत्र मम सन्निहतो भव भव। वषट् । बहु तृषा सतायो, अति दुख पायो, तुमपै आयोजल लायो।। * -*-*-* 5225- * Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * KAREK KA * १२१८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह उत्तम गंगाजल, शुचि अतिशीतल प्राशुक निर्मल गुनगायो॥ प्रभु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोप हो। यह अरज सुनीजै, ढील न कीजै, न्याय करीजै दया धरो॥ ओं ही अष्टादशदोपरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेभ्यो जलं नि ।। अब तपत निरन्तर, अगनिपटन्तर, मो उर अन्तर। * खेद करयो । लै बावन चन्दन, दाहनिकन्दन, तुमपदवन्दन । * हरष धरयो ॥ प्रभु० ॥ चंदनं ॥२॥ औपुन दुखदाता, कहो न जाता, मोहि असाता बहुत करै । तन्दुल गुनमण्डित, अमल अखंडित, पूजत पंडित, प्रीति धरै ॥ प्रभु० ॥ अक्षतान् ॥३॥ र सुरनरपशुको दल, काम महावल, वात कहत छल माह लिया। ताके शर लाऊ, फूल चढ़ाऊं, भक्ति बढ़ाऊ, खोल * हिया ॥ प्रमु०॥ पुष्पं ॥४॥ सब दोषनमाहीं, जासम नाहीं, भूव सदाहीं, मो लागे । सद घेवर वावर, लाडू बहुधर, थार कनक भर, तुम आगै॥ ॐ प्रमु०॥ नैवेद्य ॥५॥ * अज्ञान महातम, छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम, दुख . पावै। तम मेटनहारा, तेज अपारा, दीप सँवारा, जस गावै ॥ प्रभु०॥ दीपं ॥६॥ * इह कर्म महावन, भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत। है। कृष्णागरुधूपं, अमलअनूपं, सिद्धस्वरूपं ध्यावत है ॥ प्रभु०॥ धूपं ॥ ७॥ ** *KRKKH e Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwwwww सबतै जोरावर, अन्तराय अरि, सुफल विघ्नकरि डारत हैं । फलपुंज विविध भर, नयन मनोहर, श्रीजिनवरपद धारत हैं || प्रभु० || फलं ॥८॥ आठों दुखदानी, आठनिशानी, तुम ढिंग आनि निवारन हो । दीनन निस्तारन, अधम उधारन, 'द्यानत' तारन, कारन हो | प्रभु० ॥ अर्ध ॥९॥ २१६ जयमाला । दोहा - गुण अनन्तको कहि सकै, छियालीस जिनराय । प्रगट सुगुन गिनती कहूं, तुम ही होहु सहाय ॥ १ ॥ चौपाई - एक ज्ञान केवल जिनस्वामी । - दो आगम अध्यातम नामी || तीन काल विधि परगट जानी । चार अनंत चतुष्टय ज्ञानी ||२|| पंच परावर्तन परकासी । छहों दरबगुनपरजयभासी || सातभंगवानी परकाशक । आठों कर्म महारिपुनाशक || ३ || नवतत्त्वन के भाखनहारे । दशलक्षनसों भविजनतारे || ग्यारह प्रतिमाके उपदेशी । बारह सभा सुखी अकलेशी ॥ ४ ॥ तेरहविध चारितके दाता । चौदह मारगनाके ज्ञाता । पन्द्रह भेद प्रमाद निवारी । सोलह भावन फल अधिकारी || ५ || तारे सत्रह अंक भरत भुव । ठारै थान दान दाता तुव ॥ भाव उनीस जु कहे प्रथम गुन । वीस अंक गणधरजी की धुन ॥६॥ इइस सर्वघातविधि जानै । वाइस बंध नवम गुणथांने ॥ तेइस विधि अरु रतन नरेश्वर । सो पूजै चौबीस जिनेश्वर ॥ ७ ॥ नाश Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARE -RESARKA K RA वृहज्जैनवाणीसग्रह से पंचम व्याख्याप्रज्ञपति दरसं । दोय लाख अट्ठाइस . सहसं ॥ छहो ज्ञातुकथा विसतारं । पांचलाख छप्पन ह ज्जारं ॥ ३॥ सप्तम उपासकाध्यनंग। सत्तर सहस ग्यारलख भंग। अष्टम अंतकृतं दस ईस । सहस अठाइस लाख * तेईस ॥ ४ ॥ नवम अनुत्तरदश सुविशालं । लाख बानवै । से सहस चवालं । दशम प्रश्नव्याकरण विचारं । लाख तिरानव सोल हजारं ॥५॥ ग्यारम सूत्रविपाक सु भाख, एक कोड़ चौरासी लाख ॥ चार कोड़ि अरु पंद्रह लाखे । दो हजार सब पद गुरुशाख ॥६॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं । इकसौ * आठ कोडि पन वेदं ॥ अडसट लाख सहस छप्पन हैं। सहित पंथपद मिथ्या हन हैं ॥ ७ ॥ इक सौ बाहर कोडि • बखानो। लाख तिरासी ऊपर जानो । ठावन सहस पंच अधिकाने । द्वदश अंग सर्व पद माने ॥ ८॥ कोडि इकावन आठ हि लाख । सहस चुरासी छहसौ भाख ॥ साढ़ेइकीस। सिलोक बताये। एक एक पदके ये गाये ॥१०॥ । घत्ता-जा बानीके ज्ञानमैं, सूझै लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवंत हो, सदा देत हों धोक ॥ ओं ही श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतादेव्यै महा निर्वपामीति स्वाहा । ९८-गुरुपूजा। दोहा-चढुंगति दुखसागरविय, तारनतरन जिहाज। रतनत्रयनिधि नगन तन, धन्य महा मुनिराज ॥१॥ 1ओं ह्रीं श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्रावतरावतर । संवौ** * Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APRAHARI rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr २२४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह षट् । ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । 2. ठः । ओं ह्रीं श्राआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट्। । शुचि नीर निर्मल छीरदधिसम, सुगुरु चरन चढाइया । तिहुँधार तिहुँ गदटार खामी, अति उछाह बढ़ाइया ॥ भव* भोगतनवैराग्य धार, निहार शिवतप तपत हैं । तिहुँ जग तनाथ अधार साधु सु, पूज नित गुन जपत हैं ॥१॥ ओं ही श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाम जलं , करपूर चंदन सलिलसौं घसि, सुगुरुपद पूजा करौं । सव ।। * पापताप मिटाय स्वामी, धरम शीतल विस्त ॥भवभोग०॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो भवातापविनाशनाय चंदनं० ॥२॥ १ तन्दुल कमोद सुवास उज्जल, सुगुरुपगतर धरत हैं । गुनकार । * औगुनहार स्वामी, वंदना हम करत हैं ॥ भवभोग० ॥३॥ ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षताम् नि० ॥ * शुभफूलरासप्रकाश परिमल, सुगुरु पायनि परत हों । निरवार । मारउपाधि स्वामी, शील दृढ उर धरत हों ।। भवभो० ॥४॥ ओं ही आचर्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं० ॥४ पकवान मिष्ट सलौन सुदंर, सुगुरु पायनि प्रीति सौं । धर है छुधारोग विनाश स्वामी, सुथिर कीजे रीतिसौं ॥ भवभोग०॥ *ओं ह्रीं आचर्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य० ॥५॥ * दीपकउदोत सजोत जगमग, सुगुरुपद पूजों सदा। तमनाश ज्ञानउजास स्वामी, मोहि मोह न हो कदा ॥ भवभोगः ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KRAKARSANKRAK Vivvvvwww www. Press वृहज्जैनवाणीसंग्रह २२५ *ओं ह्रीं आचार्योपध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं०॥ बहु अगर आदि सुगंध खेऊँ, सुगुण पद पद्महि खरे । दुखपुंजकाठ जलाय स्वामी, गुण अछय चितमै धरे ॥ भवभोग०॥ ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि० ॥७ * भर थार पूग बदाम बहुविध, सुगुरुक्रम आगें धरों। मंगल.. महाफल करो स्वामी, जोर कर विनती करों ॥ भवभोग०॥ *ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि० ॥८॥ * जल गंध अक्षत फूलनेवज,दीप धूप फलावली । द्यानत सुगु रुपद देहु स्वामी, हमहिं तार उतावली ॥ भवभोग० ॥ ९॥ *ओं ही आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽनयंपदप्राप्तये अयं नि० ॥६ अथ जयमाला। दोहा-कनककामिनीविषयवश, दीसै सब संसार । त्यागी। वैरागी महा, साधुसुगुनभंडार ॥ १॥ तीन घाटि नव कोड सब, बंदौं सीस नवाय । गुन तिन अट्ठाईस लों कहूं । * आरती गाय ॥२॥ वेसरी छंद-एक दया पालें मुनिराजा। रागदोष द्वै हरन परं। तीनोंलोक प्रगट सब देखें, चारौं । * आराधन निकरं ।। पंच महाव्रत दुद्धर धारै, छहों दरव जानें । सुहितं । सात मंगवानी मन लावै, पावै आठ रिद्ध उचितं ॥३॥ नवों पदारथ विधिसौं भाई, बंध दशों चूरन करनं । ग्यारह शंकर जानै मान, उत्तम बारह व्रत धरनं ॥ तेरह भेद काठिया चूरै, चौदह गुनथानक लखियं । महाप्रमाद पंचदश * नारौं, सोलकषाय सबै नशियं ।। ४ ।। बंधादिक सत्रह सब Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २२६ हज्जैनवाणीसंग्रह चूरै, ठारह जन्मन मरन मुंन । एक समय उनईस परीसह, बीस प्ररूपनिमै निपुणं ॥ भाव उदीक इकीसों जानें, वाइस अभखन त्याग करं । अहिमिदर तेईसों वेदै, इन्द्र सुरग । चौवीस वरं ॥५॥ पच्चीसों भावन नित भावें, छब्बिस अंग उपंग पढ़ें । सत्ताईसों विषय विनाशैं, अट्ठाईसों गुण । सु पढें । शीत समय सर चौहटवासी, ग्रीषमगिरिशिर जोग धरं । वर्षा वृक्ष तरै थिर ठा, आठ करम हनि सिद्ध वरं ॥६॥ * दोहा-कहों कहालों भेद मैं, बुध थोरी गुन भूर। * 'हेमराज' सेवक हृदय, भक्ति करो भरपूर ॥७॥ ओं ही आचर्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो अयं निर्वपामीति स्वाहा। ९९-अकृत्रिम चैत्यालयपूजा । * आठ किरोड़ रु छप्पन लाख । सहस सत्यावण चतुशत भाख । जोड़ इक्यासी जिनवर थान । तीनलोक आह्वान करान ॥ ओं ही ब्रलोक्यसंवंध्यष्टकोटिषट्पचाशलझसप्तनवतिसहस्रचतुःशतका* शीति अकृत्रिमजिनचैत्यालयानि अत्र अवतरत अवतरत । संवौषट् । *ओं ही त्रैलोक्यसंबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशलझसप्तनवतिसहस्रचतुःशतकाशीति है। * अकृत्रिमजिनचैत्यालयानि अत्र तिष्ठत तिष्ठत । ठः ठः । ओं हो त्रैलो क्यसंबंध्यष्टकोटिपटपंचाशलक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतकाशीति अकृत्रि। मजिनचैत्यालयानि अत्र मम सन्निहितो भवत भवत । वषट् । क्षीरोदधिनीरं उज्ज्वल सीरं, छान सुचीरं, भरि झारी ।। अति मधुर लखावन, परम सु पावन, तृपा बुझावन, गुण भारी ॥ वसुकोटि सु छप्पन लाख संत्ताणव, सहस चार - -- - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ORRRRR R* ~ ~ ~~~~uvvv~ ~ ~ ~ ~ ~ vvvvvvvvvvvv ~ ~ ~ बृहज्जैनवाणीसंग्रह २२७ सत इक्यासी। जिनगेह अकीर्तिम तिहुँजगभीतर, पूजत है पद ले अविनाशी ॥१॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यसंबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशल्लक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतैकाशीति अकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ * मलयागर पावन, चंदन बावन, तापबुझावन घसि लीनो । धरि कनक कटोरी द्वैकरजोरी, तुमपद ओरी चित दीनो ॥ वसु०॥ चंदनं ॥२॥ बहुभांति अनोखे, तंदुल चोखे, लखि निरदोखे, हम लीने । धरि कंचनथाली, तुमगुणमाली, पुंजविशाली, कर दीने ॥ * वसु० ॥ अक्षतान् ॥३॥ * शुभ पुष्प सुजाती है बहुभांती, अलि लिपटाती लेय श्री हैं. वरं । धरि कनकरकेवी, करगह लेवी,तुमपद जुगकी भेट घरं॥ वसु०॥ पुष्यं ॥४॥ खुरमा जुगदौड़ा, बरफी पेड़ा, घेवर मोदक भरि * थारी । विधिपूर्वक कीने, घृतपयभीने, बँडमै लीने, सुख*कारी ॥ वसु० ॥ नैवेद्यं ॥ ५॥ मिथ्यात महातम, छाय रह्यो हम , निजभव परणति नहिं सूझै । इहकारण पार्क, दीप सजाकै, थाल धराकै, हम पूजै ॥ वसु० ॥दीपं ॥६॥ * दशगंध कुटाकै, धूप बनाकैं, निजकर लेक, धरि ज्वाला। *तसु धूम उडाई, दशदिश छाई, बहु महकाई, अति आला॥ चसु० ॥धूपं ॥ ७॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२२८ बृहजनवाणीसंग्रह . *. बादाम छुहारे, श्रीफल धारे, पिस्ता प्यारे, दाख वरं । .. इन आदि अनोखे, लखि निरदोखे, थाल पजोखे, भेट धरं ॥ वसु० ॥ फलं ॥ ८॥ जल चंदन तंदुल कुसुम रु नेवज, दीप धूप फल थाल रचौं । जयघोष कराऊँ. बीन बजाऊँ, अर्घ चढ़ाऊँ, खूब । नचौं । वसु० ॥ अर्थ ॥ ९॥ अथ प्रत्येक अर्घ । चौपाई। अधोलोक जिन आगमसाख । सात कोडि अरु वहतर लाख ।। • श्रीजिनभवन महा छवि देइ । ते सब पूजौं वसुविध लेइ ॥१॥ ओं ही अधोलोकसंबंधिसप्तकोटिद्विसप्ततिलक्षाकृत्रिमश्रीजिनचैत्यालयेअभ्यो अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ * मध्यलोकजिनमंदिरठाठ । साढे चारशतक अरु आठ ॥ ते सब पूजौं अर्घ चढाय । मन वच तन त्रयजोग मिलाया२॥ ओं ही मध्यलोकसंबंधिचतुःशताष्टपंचाशत् श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्ध । ___ अडिल्ल-उज़लोकके मांहि भवनजिनजानिये । लाख * चुरासी सहस सत्याणव मानिये ॥ ताप धरि तेईस जजौ । शिर नायकैं। कंचन थालमझार जलादिक लायकै ॥३॥ । ओं ही उर्ध्वलोकसंबंधिचतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्रत्रयोविंशतिश्रीजिन चैत्यालयेभ्यो अध्यं ॥३॥ + वसुकोटि छप्पनलाख ऊपर, सहसत्याणव मानिये। । सतच्यारपै गिनले इक्यासी,भवन जिनवर जानिये ॥ तिहुँ-1 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XKAKKAKKAR वृहज्जैनवाणीसंग्रह २२६ mammam vvvvvvvvvvvvv लोकभीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करै। तिन भवनकों, । हम अर्थ लेकै, पूजि हैं जगदुख हरें ॥४॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यसबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशलक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतकाशीतिअकृत्रिमजिनचैत्यालयेभ्यो पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ * दोहा--अब वरणों जयमालिका सुनो भव्य चितलायं । जिनमंदिर तिहुँलोकके, देहु सकल दरसाय ॥ १॥ पद्धरि छंद-जय अमल अनादि अनंत जान । अनिमित । जु अकीर्तम अचल थान ॥ जय अजय अखंड अरूपधार । षटद्रव्य नहीं दीसे लगार ॥२॥जय निराकार अविकार। * होय । राजत अनंत परदेश सोय ॥जे शुद्ध सुगुण अव गाह पाय । दशदिशामाहिं इहविध लखाय ॥ ३ ॥ यह * भेद अलोकाकाश जान । तामध्य लोक नभ तीन मान ॥ * स्वयमेव बन्यो अविचल अनंत । अविनाशि अनादि जु कहत संत ।। ४ ।। पुरषा अकार ठाडो निहार । कटि हाथ। धारि द्वै पग पसार । दच्छिन उत्तरदिशि सर्व ठौर । राजू जु सात भाख्यो निचोर ।। ५ ॥ जय पूर्व अपर दिश घाटबाधि । सुन कथन कहूं ताको जुसाधि | लखि श्वभ्रतलै। राजू जु सात । मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥ फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पांच । भूसिद्ध एक राजू जु सांच ॥ दश * चार ऊंच राजू गिनाय ।षद्रव्य लये चतुकोण पाय ।। ७I . तसु वातवलय लपटाय तीन । इह निराधार लखियो प्रवीन ॥ सनाड़ी तामधि जान खास । चतुकोन एकराजू जु व्यास।। * * * Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-*--*- *- *- *-* -* -* १.२३० वृहज्जैनवाणीसंग्रह राजू उतंग चौदह प्रमान । लखि स्वयंसिद्ध रचना महान ।। तामध्य जीव त्रस आदि देय। निज थान पाय । तिष्ठं भलेय ॥ ९॥ लखि अधो भागमें श्वभ्रथान । गिन । सात कहे आगम प्रमान ॥ षट थानमाहिं नारकि बसेय ।। * इक श्वभ्रभाग फिर तीन भेय ।। १०॥ तसु अधोभाग। नारिक रहाय । फुनि ऊर्ध्वभाग द्वय थान पाय ॥ वस रहे है । भवन व्यंतर जु देव । पुर हर्म्य छजै रचना स्वमेव ॥ ११ ॥ सिंह थान गेह जिनराज भाख । गिन सातकोटि बहतरि जु । लाख ॥ ते भवन नमों मनवचनकाय । गति वभ्रहरनहारे । * लखाय ॥ १२ ॥ पुनि मध्यलोक गोला अकार । लखि । का दीप उदधि रचना विचार ॥ गिन असंख्यात भाखे जु संत लखि संभुलन सबके जु अंत ॥ १३ ॥ इक राजुव्यासमैं सर्व जान । मधिलोक तनों इह कथन मान ।। सवमध्यदीप जंबू गिनेय । त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥ १४ ॥ इन * तेरहमै जिनधाम जान । शतचार अठावन है प्रमान ॥ खग ॥ देव असुर नर आय आय । पद पूज जांय शिर नाय नाय ॥ १५ ॥ जय उप्रलोकसुर कल्पवास । तिहें थान छैजै जिन भवन खास ॥ जय लाख चुरासीपै लखेय । जय सह ससत्याणव और ठेय ॥ १६ ॥ जय वीसतीन फुनि जोड * देय। जिनभवन अकीर्तम जान लेय ॥ प्रतिभवन एक रचना कहाय । जिनबिंब एकसत आठ पाय ॥ १७॥ * शतपंच धनुष उन्नत लसाय । पदमासनजुत पर ध्यान । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २३१ लाय || शिर तीनछत्र शोभित विशाल । त्रय पादपीठ मणिजडित लाल ॥ १८ ॥ भामंडलकी छवि कौन गाय । फुनि चँवर दुरत चौसठि लखाय ॥ जय दुंदाभिरव अदभुत सुनाय । जय पुष्पवृष्टि गंधोदकाय ॥ १९ ॥ जय तरु अशोक शोभा भलेय | मंगल विभूति राजत अमेय । घट तूप छजै मणिमाल पाय | घटधूप धूम्र दिग सर्व छाय ॥ २० ॥ जय केतुपंक्ति सोह्रै महान | गंधर्वदेवगन करत गान || सुर जनमत लखि अवधि पाय । तिहँ थान प्रथम पूजन कराय जिनगेहतणो चरनन अपार । हम तुच्छबुद्धि किम लहत पार जय देव जिनेसुर जगत भूप । नमि 'नेम' मँगै निज देहरूप ॥ ओं ह्रीं त्रैलोक्यसंबंध्यष्टकोटिषट्पंचाशलक्षसप्तनवतिसहस्रचतुःशतैकाशीतिअकृत्रिमश्रीजिनचैत्यालयेभ्यो मघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २३ ॥ तिहुँ जगभीतर श्रीजिनमंदिर, बने अकीतम अति सुखदाय | नर सुर खग करि वंदनीक जे, तिनको भविजन पाठ कराय ॥ धनधान्यदिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय ॥ चक्री सुर खग इन्द्र होयकै करम नाश सिवपुर सुख थाय ||२४|| (इत्याशीर्वाद - पुष्पांजलिंक्षिपेत् ) १०० - अथ सिद्धपूजा भाषा । छप्पय - स्वयंसिद्ध जिनभवन रतनमय विंग विराजै । नमत सुरासुरभूप दरश लखि रवि शशि लाजै ॥ चारिशतकपंचास आठ अवलोक बताये। जिनपद पूजनहेत धारि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ovuvvvvvvvvvvvvvvvvwww Now wwwwwwwyv ** * ---- १ २३२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह र भविमंगल गाये ॥ मंगलमय मंगलकरन शिवपद दायक जानि ।। अहनन करिकै नमू सिद्धसकल उर आनिकै ॥ ओं ही अनंतगुणविराजमानसिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र अबतर अवतर। संवौपटी ओं ह्रीं अनंतगुणविराजमानसिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ठः ठः । ओं ह्रीं । * अनंतगुणविराजमान सिद्धपरमेष्ठिन् ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अथ अष्टकं ( चाल-नंदीश्वरकी ) । उजल जल शीतल लाय, जिनगुन गावत हैं। सब सिद्धनकौं । सुचढाय, पुन्य बढावत हैं । सम्यक्त्व सु छायक जान, यह गुण पइयतु हैं । पूजौ श्रीसिद्धमहान, वलिवलि जइयतु हैं। * ओं ह्रीं णमोसिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिने ( सम्मत्त, णाण, देसण, वीय त्व, सुहमत्त, अवगाहनत्व, अगुरुलधुत्व, अव्यावाधत्व अष्टगुण सहिताय ) जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ करपूर सुकेश रसार, चंदन सुखकारी। पूजों श्रीसिद्ध निहार ! आनंद मनधारी॥ सब लोकालोक प्रकाश, केवलज्ञान जगौ।। * इह ज्ञान सुगुण मनभास, निजरस मांहिंपगौ ॥ चंदनं ।। *मुक्ताफलकी उनमान, अच्छित धोय धरे। अक्षयपद प्रापति जान,पुन्यभंडार भरै ॥ जगमें सुपदारथ सार, ते सब दरसावै ।। * सो सम्यकदरसन सार, यह गुण मन भावे ।। अक्षतान् ॥ । का सुंदर सुगुलाव अनूप, फूल अनेक कहे । श्रीसिद्ध सु पूजत * भूप, बहु विधि पुन्य लहे। तहां वीर्य अनंतौ सार, यह गुण । मन आनौ । संसार-समुदतै पार, कारक प्रभु जानौ ॥पुष्पा फैनी गोजा पकवान, मोदक सरस बने। पूजों श्रीसिद्ध Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv Muvvvvvvvvvvvvvvvv RAN *KAHANI वृहज्जैनवाणीसंग्रह महान, भूख-विथा जुहने ॥ झलकै सब एकहि बार, ज्ञेय कहे । जितने । यह सूक्षमता गुण सार, सिद्धनकौं पूजौं । नैवेद्य॥ 1. दीपककी जोति जगाय, सिद्धनकौं पूजौं। कर आरंति सनमुख जाय, निरभय पद हूजौं ॥ कछु घाटि न बाधिप्रमाण, गुरुलघु। * गुन राखौ हम शीस नवावत आन तुम गुण मुख भाखौ। दीपं वर धूप सुदशविध लाय, दश दिश गंधवरै । वसु करम जरावत जाय, मानौ नृत्य करै । इक सिद्धमै सिद्ध अनंत, सत्ता। सब पायें । यह अवगाहन गुण संत, सिद्धनके गावै ॥ धूपं । लै फल उत्कृष्ट महान, सिद्धनको पूजौ । लहि मोक्ष परमसुख थान, प्रभु सम तुम हूजौ ॥ यह गुणवाधाकरि हीन, बाधा " नास भई। सुख अव्यावाध सुचीन,शिवसुंदरि सु लई । फलंग जल फल भरि कंचन थाल, अरचन करजोरी । तुम सुनियौ दीनदयाल, विनती है मोरी ॥ करमादिक दुष्ट • महान, इनकौं दूरि कर । तुम सिद्ध महामुख दान, भवभव, दुःख हरौ । अध्ये॥ अथ जयमाला। दोहा--नमौं सिद्ध परमातमा, अदभुत परम रसाल।। तिन-गुण अगम अपार है, सरस रची जयमाल ॥१॥ छन्द पद्धरी--जय जय श्रीसिद्धनकौं प्रणाम । जय शिवसुख-सागरके सुधाम । जय बलि बलि जात सुरेश जान । जय पूजत तनमन हरष आन ॥२॥ जय छायकगुण सम्यक्त्वलीन । जय केवलज्ञान सगुण नवीन । जय लोका Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह प्रथममेरु सुदर्शनदि स्थितान्, यजत० ॥ अक्षतं ॥ ३ ॥ अमरपुष्पसुवारिज चंपकै, र्वकुलमालतिकेत किसंभवैः । प्रथममेरुसुदर्शनदिस्थितान्, यजत० ॥ पुष्पं ॥४॥ घृतवरादिसुगंधचरूत्करैः, कनकपात्र चितैर्रसनाप्रियैः । प्रथममेरुसुदर्शनदिस्थितान् यजत० ॥ नैवेद्यं ॥५ ॥ मणिघृतादिनवैर्वरदीपकै, स्तरलदीप्तिविरोचित दिग्गणैः । प्रथममेरुसुदर्शनदि स्थितान्, यजत० ॥ दीपं ॥ ६ ॥ अगुरुदेवतरुद्भव धूपकैः, परिमलोद्रमधूपितविष्टपैः । प्रथममेरुसुदर्शनदिस्थितान्, यजत० ॥ धूपं ॥७ ॥ क्रमुकदाडिमनिम्बुकसत्फलैः, प्रमुख पक्कफलैः सुरसोत्तमैः । प्रथममे सुदर्शनदिस्थितान्, यजत० ॥ फलं ॥८॥ विमलसलिलधाराशुभ्रगंधाक्षतौघैः कुसुमनिकरचारुस्वेटनैवेद्यवग्गैः । प्रहततिमिरदीपैर्धूपधूमैः फलैश्थ, रजतरचितमर्थ रत्न चंद्रो भजेऽहं ॥ अर्धं ॥ अथ जयमाला । 夺心超出发 जम्बूद्वीपधरास्थितस्य सुमहा मेरुस्थपूर्वादिवु, दिग्भागेषु चतुर्षु षोडशमहा चैत्यालये सद्नैः । नानाक्ष्माजवि - भूषितैर्मणिमयैर्भद्रा दिशालांतकैः, संयुक्तस्य निवासिनो' जिनवरान् भक्त्यास्तवीमि स्तवैः ॥१॥ जन्मदूरानतादेव कैनिष्कलाः, स्वेदवीताः सदक्षीरदेहाकुलाः । मेरुसंबधिनोवीतरागाजिनाः, संतु भव्योपकाराय संपूजिताः॥ २॥ शुद्धवणींकिताः शुद्धभावोद्धरा, रत्नवर्णोज्वलाः सद्गुणैर्निर्भराः Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvN बृहज्जैनवाणीसंग्रह २३६ ॥ मेरु० ॥३॥ मानमायातिगामुक्तिभावोद्धरा, शुद्धसद्बोधशंकादिदोषाहराः ।।मेरु०॥४॥ क्षुत्तृषामोहकक्षेषुदावानलाः, मोल्लसद्वोधदीपा: सुधांशूत्कगः ॥ मेरु० ॥५॥ पूर्णचन्द्रा भतेजोभिनिवेशकाः, चन्द्रसूर्यप्रतापाः करावेशकाः मेरु०॥ । यत्ता-इतिरचितफलौषाः प्राप्तसुज्ञानपाराः, हततमधनपापाः * नम्रसर्वामरेन्द्राः। गतनिखिलविलापाः कान्तिदीप्ताजिनेन्द्राः, अपगतधनमोहाः सन्तु सिद्धयैजिनेन्द्राः ॥७॥ अ सुदर्शनमेरुसम्बन्धिभद्रशाल-नन्दन-सौमनस-पांडुकवनसम्बन्धिपूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थाजनबिम्बेभ्यः पूर्णाः ॥ * सर्वव्रताधिपं सारं, सर्वसौख्यकरं सता। * पुष्पांजलिव्रतं पुष्पायुष्माकं शाश्वतीं श्रिय।।(इत्याशीचीदः) ___ अथ द्वितीयविजयमेरु पूजा। जिनान्संस्थापयाम्यत्रा-बानादिविधानतः। धातुकीखण्डपूर्वाशा, मेरोर्विजयवर्तिनः ॥ १॥ * ओं ही विजयमेरुसम्बन्धिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतरत अवतरत है। * संवौषट् । ओं ही विजयमेरुसम्बन्धिजिनप्रतिमासमूह ! अन्न तिष्ठ तिष्ठ । * : १ओं ह्रीं विजयमेरुसम्बन्धिजिनप्रतिमासमूह । अत्र मम सन्निहितो । भव भव वषट् । सुतोयैः सुतीर्थोद्भवैर्वीतदोषैः, सुगांगेयभृगारनालास्यसंगैः। द्वितीयं सुमेरुं शुभ धातुकीस्थं,यजे रत्नविवोज्वलं रत्नचन्द्रः *ओं ही श्रीविजयमेरुसम्बन्धिभद्रशाल-नन्दन-सौमनस-पांडुकवनसंबन्धिपर्व-दक्षिण-पश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो जलं.।। *AR -595 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RK* PAANnnnn0AAAnnnnn AAAAAAAM AAAAAA. *RKAR+ S १. २४० बृहज्जनवाणीसंग्रह सुगंधागतालिवजैः कुंकुमादि, द्रवैश्चन्दनैश्चंद्रपूर्णाभिरामैः ।। * द्वितीयं सुमेरुं शुभ धातुकीस्थं, यजे० ॥ गंधं ॥ २ ॥ सुशाल्यक्षतैरक्षितदिव्यदेहैः, सुगंधाक्षतारब्ध गारगानः।। द्वितीयं सुमेरुं शुभ धातुकीस्थं, यजे० ॥ अक्षतान् ॥३॥ * लवंगैः प्रसनैस्ततामोदवद्भिः सुमंदारमालापयोजादिजातैः।। द्वितीयं सुमेरुं शुभं धातुकीस्थं, यजे० ॥ पुष्पं ॥ ४ ॥ है मनोज्ञैः सुखाधैर्गवीनाज्यतप्तैः सुशाल्योदनैमादकैमडकायैः। द्वितीयं सुमेरुं शुभं धातुकीस्थं, यजे० ॥ नैवेद्यं ॥ ५॥ । प्रदीपैर्हतवांतरत्नादिभूतैः, ज्वलत्कीलजातैद्मशभासुरैश्च । द्वितीयं सुमेरुं शुभं धातुकीस्थं, यजे० ॥ दीपं ॥६॥ सुधूपैः सुगन्धीकृताशासमूहै,- म गयूथैः शुभैश्चंदनाद्यैः ।। * द्वितीयं सुमेरुं शुभं धातुकीस्थं, यजे० ॥ धूपं ॥ ७ ॥ * शुभैर्मोचचोचाम्रजभीरकाद्यै, मनोभीष्टदानप्रदैः सत्फलाथैः। । द्वितीयं सुमेरुं शुभं धातुकीस्थं, यजे० ॥ फलं ॥ ८॥ विशुद्धैरष्टसद्व्यै, रर्धमुत्तारयाम्यहं । हेमपात्रस्थित भक्त्या जिनानां विजयोकसां अयं ॥९॥ अथ जयमाला सकलकलिविमुक्ताः सर्वसंपत्तियुक्ता, गणधरगणसेव्याः । कर्मपंकमणष्टाः । महतमदनमानास्त्यक्तमिथ्यात्वपाशाः, कलितनिखिलभावास्ते जिनेन्द्रा जयन्तु ॥ १॥ विमोहविसारितकामभुजंग, अनेकसदाविधिभाषितभंग। कषायदवानलतत्त्वसुरंग, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww * --- - - - - - * वृहज्जैनवाणीसंग्रह २४१ निरीह निरामय निर्मलहंस, सुचामरभूषितशुद्धसुस । • अनियचरित्रविमानितकंस, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ॥ प्रबोधविवोधजगत्त्रयसार, अनंतचतुष्टयसागरपार। ' . .. निवारित सर्वपरिग्रहभार, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ।।। तपोभरदारितकर्मकलंक, विरोग विभोग वियोग विशंक। अखंडितचिन्मयदेहप्रकाश, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग॥ । विवर्जितदोषगुणौषकरंड, प्रसारितमानतमोमददंड। अपारभवोदधितारतरंड, प्रसीद जिनोत्तम मुक्तिप्रसंग ॥ धत्ता-गवगमचरित्राः प्राप्तसंसारपारा, सकलशशिनिभा* साः सर्वसौख्यादिवासाः। विदितविभवविशिष्टाः प्रोल्ल-1 सद्ज्ञानशिष्टाः, ददतु जिनवरास्ते मुक्तिसाम्राज्यलक्ष्मी ॥ ओं ही विजयमेरुसम्बन्धिभद्रशाल-नंदन-सौमनस-पांडुकवनसम्बन्धिपूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनबिम्बेभ्यः पूर्णाय। सर्वव्रताधिप सारं सर्वसौख्यकरं सतां। * पुष्पांजलिव्रतं पुष्पायुष्माकं शाश्वतीं श्रिया(इत्याशीर्वादः) । अथ तृतीय अचलमेरुपूजा। जिनान्संस्थापयाम्यत्रा,-बानादिविधानतः। धातुकीपश्चिमाशास्था,-चलमेरुप्रवर्तिनः ॥१॥ ओं ह्रीं अचलमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर * संवौषट् । ओं ही अचलमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। ठः ठः । ओं ही अचलमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। ___16 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424ক* वृहज्जैनवाणीसंग्रह सौरभ्याहृतसद्गंधसारयाजलधारया । अचलमेरुजिनेंद्राय जराजन्मविनाशिने ॥ जलं ॥ चारुचंदवनकर्पूरकाश्मीरादिविलेपनैः । अचलमे ० ॥ चंदनं ॥ अक्षतैरक्षतानंदसुखध्यान विधानकैः ॥ अचल० || अक्षतं ॥ जातिकुंदादिराजी व चंपकानेकपल्लवैः । अचलमे० ॥ पुष्पं ॥ खाद्यस्वाद्यपदैः स्वाद्यैः सन्नाढ्यैः सुकृतैरिव | अचल || नैवेद्य || दशाग्रैः प्रस्फुरद्दीपैदींपैः पुण्यजनैरिव । अचल० || दीपं ॥ धूपैः संधूपितानेककर्मभिर्धूपदा यिनैः || अचल ० ॥ धूपं ॥ -नारिकेलादिभिः पुंगैः फलैः पुण्यजनैरिव । अचल० ॥ फलं ॥ जलगंधाक्षता नेकपुष्पनैवेद्यदीपकैः । अचल० || अ || २४२ अथ जयमाला | सिरिसंताने रिसह जिणजाह, अजित जिणंद जिगदह पय कमलो । इह कुसुमांजलि होइ मनोहर मेलहिया, गिरिकैलासे जापहारे मेलहिया ॥१॥ संभवजिण सेवंतिसही, अहि अहिनंदन मेहजिणंदह पयकमलो । इह कुसुमांजलि ० ॥ २ ॥ सुमति जे सुमत जेहुजिण, पदमप्पहजिन हेद जिणंदह पयकमलो । इह कुसुमांजलि ० || ३ || मंदारिहि सुपासजिन, चंदप्पइ चंपेह जिणंदह पयकमलो | इह कुसु० ||४|| पुष्पदंत परमेष्ठिजिन, सीतल सीय जिणंद जिणंदह पयकमलो । इह कुसु० ॥ ५ ॥ जिणश्रेयांसह असोयपही, वासुपूज्यवडलेह जिगदह पयकमलो || इह० ||६|| विमलभंडारो सुरतरही, शुकलवेहि जिणंद जिणंदह पयकमलो | इह० || ७ || Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvv wwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह २४३ । बहुमचकुंदहिं धर्मजिन, रत्नप्पह जिणशांति जिंणदजिणदह पयकमलो । इह० ॥ ८ ॥ युक्तय फुल्लय कुंथुजिणुं, अरु । *जिणपास जिणंदजिणंदह पयकमलो । इह० ॥९॥ मल्लिय हुल्लिय मल्लिजिणु, मुनिसुव्रत जिनहुल्ल जिणंदह । पयकमलो। इह ॥ १० ॥ नमिजिणवर केवलयाही, जापे अजितजिणंद जिणंदह पयककमलो ।इह० ॥११॥ पाडलहुल्लिय पासजिन, वढमान कमलोहि जिंणदजिणदह पयकमलो । इह० ॥१२॥ पापनेहु पुजहु अवले, अवनिअवर अभ्रयारि जिणंदह पयकमलो । इह०॥ १३ ॥ गुरुपयपुंजह । 'तिनिलए, अवनिपडहु संसार जिणंदह पय कमलो । इह०५ ॥ ॥१४॥इह रयणांजलि विणयसहु, जो जिणनाही होइ । जिणदह पयकमलो । इह० ॥ १५ ॥ भाद्रशुक्ल सुपंचमिए, पंचदिवस कारेह जिणंदह पयकमलो । इह कुसुमांजलि०॥१६॥ घत्ता-यावंति जिनचैत्यानि विद्यते भुवनत्रये । ___तावति सततं भक्त्या त्रिपरीत्या नमाम्यहं ॥१७॥ 4 ओं ह्रीं मंदिरमेरुसंबंधिभद्रशाल-नन्दन-सौमनस-पांडुकवनसंबंधि* पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनबिंबेभ्यः पूर्णा नि० ॥ सर्वव्रतादिकं सारं सर्वसौख्यंकरं सतां । पुष्पांजलिव्रतं पुष्यायुष्माकं शास्वतीं श्रियं ॥इत्याशीर्वादः । . अथ चतुर्थ मंदिरमेरु पूजा। । जिनान्संस्थापयाम्यत्रा, हानादिविधानतः। * मेरुमन्दिर नामानं, पुष्पांजलिविशुद्धये ॥ १ ॥ * - * Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AARAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAJ बृहज्जैनवालीसग्रह ओं ही मदिरमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर सं-4 । बौषट् ।ओं ही मंदिरमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। की ओं ह्रीं मंदिरमेरुसंबंधिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव । । भव वषट् । गंगागतैर्जलचयः सुपवित्रतांगैः । रम्यै सुशीतलतरैर्भव। * तापभेद्यैः । मेरुं यजेऽखिलसुरेद्रसमर्चनीयं, श्रीमंदिरं चित तपुष्करद्वीपसंस्थम् ॥ 1 ओं ह्रीं मंदिरमेरुसम्बन्धिभद्रशाल-नन्दन-सौमनस-पाण्डुकवनसंवन्धिपूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो जलं निर्व॥ काश्मीरकुंकुमरसैर्हरिचंदनाद्यैः, गंधोत्कटैर्वनभवैधनसारमित्रैः । मेरुं यजेऽखिलसुरेंद्रसमर्चनीयं०॥चन्दनं ॥२॥ चंद्रांशुगौरविहितैः कलमाक्षतोषै, ओणमियरवितथैविमलै-- रखंडैः । मेरुं यजेऽखिलसुरेंद्र समर्चनीय, श्रीमन्दिरं०॥अक्षता • गंधागतालिनिवहै शुभचंपकादि, पुष्पोत्करैरमरपुष्पयुतैर्म नोझैः । मेरुं यजेऽखिलसुरेंद्र समर्चनीयं, श्रीमंदिरं०॥पुष्पं०॥ स्वर्णादिपात्रनिहितैघृतपक्वखंडैर्नानाविधैर्युतवरै रसनेंद्रियेष्टैः । । मेरुं यजेऽखिलसुरेंद्र समर्चनीयं० ॥ नैवेद्य ॥ कर्पूरदीपनिचयनिहितांधकार, रुद्भासिनीशनिकरैः शुभकीलजालैः । मेरुं यजेऽखिलसुरेंद्र समर्चनीय० ॥ दीपं॥ * कालागुरुत्रिदशदारसुचन्दनादि, द्रव्योद्भवैः सुभगगंधसु* धूपधुमैः । मेरु यजेऽखिलसुरेंद्रसमचनीय, श्रीमन्दिरं०॥धूप । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ- 5225*R KK* NAANAAhemAnAnanANNARANNnAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMANN ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २४५ ॥ नारिंगपुंगपनसाम्रसुमोचचोचः श्रीलांगलप्रमुखभव्यफलैः । सुरम्यैः। मेरुं यजेऽखिलसुरेंद्र समर्चनीयं० ॥ फलं॥ जलैः सुगन्धाक्षतचारुपुष्पै. नैवेद्यदीपैर्वरधूपवनः। फलैर्महा यवतारयामि, श्रीरत्नचन्द्रोयतिवृंद सेव्यं ॥अध। अथ जयमाला। प्रोद्यत्षोडशलक्षयोजनमिति श्रीपुष्कराईस्थितः।। । श्रीमत्पूर्वविदेहमंदिरगिरिदेवेंद्रवृंदाचितः॥ चंचत्पंचसुवर्णरत्नजटतो माभ्रमौद्योर्जित-स्तत्संबधिजिनौकसां गुणगणां संस्तौम्यहं सर्वदा ॥ १॥ देवविद्याधरासुरसंचर्चित किन्नरीगीतकलगानसंगॅमितं । नर्तितानेकदेवांगनासुंदर है श्रीजिनागारवारं भजे भासुरं ॥ २॥ जन्मकल्याणसंमोहितामरवलं, दर्शितानेकदेवांगनासुंदरं । प्रोल्लसत्केतुमालालयैः सुंदरं, श्रीजिनागार० ॥३॥ धूपघटधूपितावासशोभावरं, रत्नसंभर्जितालिभिराशाकुलं । । अष्टमंगलमहाद्रव्यचयसुंदरं, श्रीजिनागार० ॥४॥ तालवीणामृदंगादिपटहस्वरं, कल्पतरुपुष्पवापीतडागावरं ।। * चारणार्द्धिमुनिसंगतासाधरं, श्रीजिनागार० ॥५॥ रुचिरमणिमयैर्गोपुरैसंयुतं,प्रेमहावलीमुक्तिमालाभृतं । ' तुंगतोरणलसद्धटिकाभंगुरं, श्रीजिनागार० ॥६॥ ' घत्ता-विविधविषयभव्यं भव्यसंसारतारं, शतमखशत-* पूज्यं प्राप्तसज्ञानपारं । विषयविषमदुष्टाव्यालपक्षीशमीश जिनवरनिकर त रत्नचन्द्रोऽभजेहं॥ * - - -- -- - --* Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww २४६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ओं ही मंदिरमेरुसम्बन्धिभद्रशाल-नंदन-सौमनस-पांडुकवनसम्वन्धि- 4 । पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनविवेभ्यो अध्य० ॥ सर्वत्रता धिप सार सर्वसौख्यकरं सतां। पुष्पांजलिव्रतं पुष्पाग्रष्माकं शास्वतीं श्रिय।(इत्याशीर्वादः) । अथ पंचमविद्युन्मालिमेरुपूजा। जिनान्संस्थापयाम्यत्रा,-बानादिविधानतः। ' पुष्करापश्चिमाशास्थां, विद्युन्माली प्रवर्तिनः॥१॥ * ओं ही विद्युन्मालिमेरुसम्बन्धिजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर।। संवौषट् । ओं ह्रीं विद्युन्मालिमेरुसम्बन्धिजिनप्रतिमासमूह ! अन्न तिष्ठ । * तिष्ठ । ठः ठः । ओं ही विद्युन्मालिमेरुसम्बान्धजिनप्रतिमासमूह ! अत्र । * मम सन्निहितो भव भव । वषट् । निर्मलैः सुशीतलैर्महापगाभवैर्वनैः, शांतकुंभकुंभगैर्जगजनांगतापहैः । जैनजन्ममजनांभसाप्लातिपावनं, पंचमं । । सुमंदिर महाम्यहं शिवपदम् ॥ ओं ह्रीं विद्युन्मालिमेरुसंबंधिभद्रशाल-नन्दन-सौमनस-पांडुकवनसम्व*न्धिपूर्वपश्चिमोत्तरस्थजिनचेत्यालस्थजिनविस्वेभ्यो जलं० ।। • चंदनैः सुचन्द्रसारमिश्रितैः सुगंधिभिरकवेणुमूलभूतवर्जितै । गुणोज्वलैः । जैनजन्ममजनांभसाप्लवातिपावनं० ॥चंदन। इंदुरश्मिहारयष्टिहेमभासभासितैरक्षतैरखंडितैः सलक्षितै- 1 मनप्रियः । जैनजन्ममज्जनांभसाप्लवातिपावनं० ॥अक्षतं ॥ गंधलुब्धषट्पदैः सुपारिजातपुष्पकैः पारिजातकुंददेवपुष्पमालतीभवैः । जैनजन्ममज्जनांभसाप्लवातिपावनं० ॥पुष्पा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **KHRSSRKAR* • वृहज्जैनवाणीसंग्रह' माज्यपूरपूरितैः सुखज्जकैः सुमोदकैः इन्द्रियप्रमूत्करैः सुचारुभिश्चरूत्करः। जैनजन्ममज्जनांभसाप्लवातिपावनं०॥नैवेद्या अधकारभारनाशकारणैर्दशेधनैः रत्नसोमजैः प्रदीप्तिभूपितैः शिखोज्वलैः । जैनजन्ममज्जनांमसा०॥ दीपं ॥ * सिल्हिकागुरूद्भवैः सुधूपकैनभोगतैः गंधवासचक्रकेशवृंदकैः गुणोज्वलैः । जैनजन्ममज्जनांमसाप्लवातिपावनं० ॥धूपं आम्रदाडिमैः सुमोचचोचकैः शुभैः फलैः मातुलिंगनारिकेलपूगचूतकादिभिः जैनजन्ममज्जनांभसाप्लवातिपावनं०फलंग जलगंधाक्षतैपुष्पैश्चरुदीपसुधूपकैः । । फलैरुत्तारयाम्य विद्युन्मालिप्रवर्तनां । अर्ध । अथ जयमाला। स्तुवे मंदिरपंचमंसद्गुणौधं, सुमुक्त्यंगचैत्यालयं भासुरांगम् । चलद्रत्नसोपानविद्याधरीश, नमोदेवनागेद्रमत्येंद्रव॒दम् ।। भद्रशालाभिधारण्यसंशोभित, कोकिलानां कलालापसंकूजित । पुष्पकराओँचलसंस्थितं मन्दिरं, चंचलामालिनं पूजयेसुन्दरम् ॥२॥ नन्दनैनंदितानेकलोकाकरै,-जमानसदाशोकवृक्षोत्करैः ॥ पुष्क० ॥३॥ सौमनस्यैर्वनैः कल्पवृक्षादिभिः, भ्राजमानबुधागारकेत्वादिभिः । पुष्क०॥ . ऊर्ध्वगः पांडुकैः काननैर्राजितं, पांडुकाख्याशिलाभिः । * समालिंगित । पुष्क० ॥ निर्जितानेकरत्नप्रभाभासुरं, दिक्चतुष्काश्रितार्हत्प्रभामासुरम् । पुष्क०॥ पत्ता-घंटातोरणतालिकाब्जकलशैः छत्राष्टद्रव्यैः परैः। । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * HARKHA* AAVA बृहज्जैनवाणीसंग्रह * : 'श्रीभामंडलचामरैः सुरचितैः चन्द्रोपकरणादिभिः ॥ : त्रैकाल्येवरपुष्पजाप्यजपनैजैनाकरोत्वय॑ता । .. भव्यैर्दीनपरायणैः कृतदयैः पुष्पांजलि शुद्धये ॥७॥ है, ओं ही विद्युन्मालिमेरुसम्बन्धिभद्रंशाल-नन्दन-सौमनस-पांडुकवनसम्बे-1 *न्धिपूर्वपश्चिमोत्तरस्थजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यों अर्धे निर्व० ॥ ॥ सर्वत्रताधिपंसारं सर्वसौख्यकरं सतां। . . पुष्पांजलिंबतं पुष्याधुष्माकं शाश्वतीं श्रियं ॥(इत्याशीर्वादः) । विधुवसुरसचंद्रांकः प्रयुक्तेकृतार्चा शरदि नभसिमासेरत्नचंद्र-1 क चतुर्था । धवलभृगुसुवारे सांगवादे पुरेत्र जिनवृषगगला*दिश्रावकादेशतोऽव्यात् ।। (इत्याशीर्वादः) ... १०३-अथ पंचमेरुपूजा भाषा। गीताछंद-तीर्थकरोंके न्हवनजलतें, भये तीरथ शर्मदा।। । तातै प्रदच्छन देत सुरगन, पंचमेरनकी सदा ।। दो जलधि । , ढाईदीपमें सब, गनतमूल विराजही। पूजौं असी जिनधाम प्रतिमा, होहि सुख, दुख भाजही ॥१॥ ओं ही पंचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर 'संवौषट् । ओं ह्रीं पंचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमा । समूह ! अन्त्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ओं ही पंचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्याका लयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अन्न मम सन्निहितो भव भव वषट् । . * चौपाई-सीतलमिष्टसुवास मिलाय, जलसौं पूर्जी श्रीजिनराय।। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥.. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMuvvvvvv - ---- -- -- - ---* वृहज्जैनवाणीसंग्रह. * श्रीचंदनाठ्याक्षततोमित्रैर्विकाशिपुष्पांजलिना सुभक्तया । * सद्व्यंतराणां निलयेषुसंस्थान् जिनेंद्रर्विवान्प्रयजे मनोज्ञान् । ओं ही अष्टप्रकारज्यन्तरदेवानां गृहेषु जिनालयविवेभ्योऽधू निर्व० ॥ श्रीचंदनाढयाक्षततोयमित्रैर्विकाशिपुष्पांजलिना सुभत्या ।। चंद्रार्कताराग्रतऋक्षज्योतिष्काणां यजे वै जिनविंबर्यान् । ओं ही पंचप्रकारज्योतिष्काणां देवानां जिनालयविबेभ्योऽधं निर्व०॥ कल्पेषु कल्पातिगकेषु चैव देवालयस्थान जिनदेवविवान् ।। सन्नीरगंधाक्षतमुख्यद्रव्यैर्यजे मनोवाक्तनुभिर्मनोज्ञान् ॥ ओं ही कल्पकल्पानीतसुरविमानस्थजिनविबेभ्योऽधं निर्व ॥ कृत्याक्रत्रिमचारुचैत्यानिलयानित्यं त्रिलोकीगतान् । वंदे भावनव्यंतरयतिवरस्वर्गामरावासगान् ॥ सद्गंधाक्षतपुष्प* दामचरुकैः सदीपधूपः फलै-द्रव्यैर्नीरसुखैर्नमामि सततं दुष्कर्मणां शांतये ॥ ओं ही कृत्याकृत्रिमजिनालयस्थजिनबिबेभ्योऽध निर्वः । * वर्षेषु वर्षातरपर्वतेषु नन्दीश्वरे यानि च मंदरेषु । यावंति । चैत्यायतनानि लोके सर्वाणि बंदे जिनपुंगवानां ॥ अवनितलगतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां वनभवनगतानां दिव्यवैमा निकानां । इह मनुजकृतानां देवराजार्चितानां जिनवरनिल यानां भावतोऽहं स्मरामि ॥ जम्बूधातकिपुष्करार्धवसुधा• क्षेत्रत्रये ये भवाश्चंद्राम्भोजशिखंडिकंठकनकप्रावृड्घनामा जिनाः । सम्यग्ज्ञानचरित्रलक्षणधरा दग्धाष्टकर्मेधना । भू * तानागतवर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥ श्रीमन्मेरौ । ka-* Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RKARS - N K - - * AAAAAAAAAAAAAAAA २५४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * कुलाद्रो रजतगिरिवरे शाल्मलो जंबुवृक्षे । वक्षारे चैत्यवृक्षे रति कररुचके कुंडले मानुषांके इष्वाकारेजनाद्रौ दधिमुखशिखरे । * व्यंतरे स्वर्गलोके, ज्योतिर्लोकेऽमिवंदे भुवननहितले यानि । चैत्यालयानि ॥ द्वौ कुदेंदुतुषारहारधवलौ द्वाविंद्रनीलपभौ । द्वौ बंधूकसममभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगुप्रभौ । शेषाः षोडश है जन्ममृत्युरहिताः संतप्तहेमप्रभास्ते संज्ञानदिवाकरा सुरनुताः । सिद्धिं प्रयच्छंतु नः । नोकोडिसया पणवीसा तेपणलक्खाण सहससत्ताईसा। नौसेते पडियाला जिणपडियाला जिणडि माकिट्टिमा बंदे ॥ । ओं ही कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयस्थजिनविवेभ्योऽर्घ निर्बपामीति स्वाहा ! * अतीतचतुर्विंशतितीर्थ करनामानि । निर्वाणसागरराभिख्यो माधुर्यों विमलपमः । शुद्धवाक् ।। * श्रीधरो धीरो दत्तनाथोऽमलप्रभुः ॥ १ ॥ उद्धराह्वोग्निना। थश्च संयमः शिवनायकः । पुष्पांजलिर्जगत्पूज्यस्तथा शिवगणाधिपः ॥२॥ उत्साही ज्ञाननेता च महनीयो जिनो चमः । विमलेश्वरनामान्यो यथार्थश्च यशोधरः ॥ ३॥ कर्म१ संज्ञोऽपरो ज्ञान-मतिः शुद्धमतिस्तथा । श्रीभद्रपदकांतश्चा तीता एते जिनाधिपाः॥ ४ ॥ नमस्कृतसुराधीशैर्महीपतिभिरचिताः । बंदिता धरणेंद्राद्यैः संतु नः सिद्धिहेतवे ॥ ५॥ * ओं ही अतीतचतुर्विंशतितीर्थी करेभ्योऽध निर्वपामीति स्वाहा ॥ * ____ वर्तमानचतुर्विशतितीर्थ करनामानि । ऋषभोजितनामा च संभवश्चाभिनंदनः। सुमतिः । * KKKR6* Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RKKHATRIKA . बृहज्जैनवाणीसंग्रह ~ ~ २५५ पद्मभासश्च सुपार्यों जिनसत्तमः ॥ १ ॥ चन्द्रामः पुष्पदंतश्च शीतलो भगवान्मुनिः । श्रेयांसो वासुपूज्यश्च । विमलो विमलद्युतिः ॥२॥ अनन्तो.धर्मनामा च शांति कुंथौ जिनोत्तमौ । अरश्च मल्लिनाथश्च सुव्रतो नमितीर्थ- 1 * कृत् ॥ ३॥ हरिवंशसमुद्भूतोऽरिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । ध्वंस्तो पसर्गदैत्यारिः पार्थो नागेंद्रपूजितः॥४॥ कर्मातकृन्महा• वीरः सिद्धार्थ कुलसंभवः । एते सुरासुरौघेण पूजिता विमलविषः ॥५॥ पूजिता भरताद्यैश्च भूपेट्टै रिभूतिभिः । चतुर्विधरुय संघस्य शांतिं कुर्वतु शाश्वती ॥६॥ ओं ही वर्तमानचतुर्विंशतिजिनेभ्योऽर्ष निर्वपामीति स्वाहा ॥ अनागततीर्थ करनामानि । तीर्थकृच्च महापद्मः सूरदेवो जिनाधिपः। सुपार्श्वनामधेयोऽन्यो यथार्थश्च स्वयंप्रभुः ॥१॥ सर्वात्मभूतइत्यन्यो देवदेवप्रभोदयः । उदयः प्रश्नकीर्तिश्वजयकीर्तिश्च सुव्रतः ॥ * अरश्च पुण्यमूर्तिश्च निष्कषायो जिनेश्वरः। विमलो निर्मलाभि-* ख्यश्चित्रगुप्तो वरः स्मृतः ॥ ३॥ समाधिगुप्तनामान्यौ । स्वयंभूरनिवर्तकः । जयो विमलसंज्ञश्च दिव्यपाद इतीरितः ॥४॥ चरमोऽनंतवीर्योऽमीवीर्यधैर्यादिसद्गुणाः । चतुर्विशति। संख्याता भविष्यत्तीर्थकारिणः ॥५॥" ओं ही अनागतचतुत्रिंशतिजिनेभ्योर्चे निर्वपामीति स्वाहा ॥ कंपिल्लाणयरीमंडणस्स विमलस्स विमलणाणस । आरत्तिय वरसमये णच्चंति अमररमणीओ। *RKER Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * + R-52-5 --2-RR* २५६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह क : छंद-अमररमणीउ गच्चंति जिणमंदिरं । विविहवरता-* लतूरहिं सुचंगमपुरं ॥ जडियबहुरयणचामीयरं पत्तयं । जोइयं सुन्दरं जिणघ आरत्तियं ॥ १ ॥ रुणझडकारणेवरघ चलणुडिया । मोतियादाम बच्छच्छले संठिया ॥ गीय । * गायंति णचंति जिणमंदिरं । जोइयं सुंदरं०॥३॥ केशभरि कुसुमपयसरसढोलंतिया । वयण छणइन्द समकंतवियसतिया १ कमलदलणयण जिणवयणपेखंतिया | जोइयं सुंदरं० ॥४॥ । इन्दधरिणिंदजक्छेदवोहंतिया । मिलिव सुर असुर घणरासि • खेतिया । के वि सियचमर जिणबिंब ढोलंतिया । जोइयंगा। * गाथा-गंदीसुरम्मि दीवे वावण्णजिणालयेसु पडिमाणं । अहाहिवरपव्वे इन्दो आरत्तियं कुणई ॥ छंद-इन्द आरत्तियं कुणइ जिणमंदिरं, रयणमणिकिरणकमलेहि बरसुंदरं । गीय गायंति गच्चंति वरणाडियं, तूर । वज्जति गाणाविहप्पाडियं ॥ गाथा-एक्ककम्मि य जिणहरे चउचउ सोलहवावीओ। ___जोयणलक्वपमाणं अहमणंदीसुरं दीवे ॥८॥ * अहमं दीवणंदीसुरं भासुर चैत्यचैत्यालये बंदि अमरासुरं ।। * देवदेवीउ जह धम्मसंतोसिया, पंचमं गीय गायति रसपोसिया * गाथा-दिव्वेहि खीरणीरेहि गंधड्ढाइहिं कुसुममालाहि । * सबसुरलोयसहिया पुजा आरंभए इंदो ॥१०॥ * इंदसोहम्मिसग्गाववजोसयं, आयऊसजि ऐरावयं वरगयं । । सब्दव्वेहिं भव्वेहि पूजाकरा, मिलित्र पडिबक्खया तस्स . तिहु देसया। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RKA R-* बृहज्जैनवाणीसंग्रह २५ गाथा-कंसालतालतिवली, झल्लरभर मेरिवेणुविण्णाओ। वजंति भावसहिया भव्वेहि णउज्जिया सव्वे ।। . छंद-सव्वदव्वेहिं भव्वेहिं करताडियं, सद्दए संझिगणझिगण-* णिद्धाडयं । गिझिनिझं झिगिनिझं वज्जये झल्लरी, गच्चये इंद इंदायणी सुंदरी। णयणकज्जलसलायाम दिण्णय, हेम-1 है हीरालय कुंडलं कंकणं । झंझणं झंकरं तं पिये णेवरं, जिणघ* आरत्तियं जोइयं सुंदरं ॥ दिहिणासनि अंगुलियदावंतिया, खिणहिं खिण सिंणहिं जिणबिंब जोइत्तिया ॥ णारिणच्चंति गायंति कोइलसुरं, जिणघ० ॥ रुणुझुणकारणे वरपकर-1 कंकणं, गाइ जेपंति जिणणाहवे बहुगुणं ।। जुवइ णच्चंति सुमरति ण उणियघरंजिणधारत्तियं जोइयं सुंदरं । कंठकदलीह। मणिहार झुल्लंतऊ, जिणइ थुइ थुई सोणाय संतुहऊ। विविह* कोऊहलं रयहि णाराधरं, जिणघ आरत्तिय जोइयं सुंदरं ॥१७॥ १ घत्ता-आरत्तिय जोवइ कम्मइ धोवइ, सग्गावग्ग हलहु लहइ।। जंजमण भावइ तं सुह पावइ, दीण विकासुण भासुणइ॥ ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरदीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपंचाशजिनालयेभ्यो अध्य । यावंति जिनचैत्यानि, विद्यते भुवनत्रये। तावंति सततं भक्त्या, त्रिःपरीत्य नमाम्यहं (इत्याशीर्वादः)। १ १०५-श्रीनंदीश्वरद्वीप[अष्टाहिका]पूजा भाषा अडिल्ल-सरब परवमें बड़ो अठाई परब है, नंदीश्वर । * सुर जाहिं लेय वसु दरय है। हमें सकति सो नाहिं इहां करि थापना, पूजें जिनग्रह प्रतिमा है हित आफ्ना ॥१॥ * ओं ही श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमा *-- E KX Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VAAAAAw १२५८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * समूह ! अन अवतर अवतर संवौषट् । आ ही श्रीनन्दीश्वरद्वीपे द्विप वाशजिनालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ ठः ठः । ओं ही श्री • नन्दीश्वरद्वीपे द्विपञ्चाशजिनालयस्था नप्रतिमासमूह ! अन मम । सनिहितो भव भव वषट् । _ कंचनमणिमय भृगार, तीरथनीरभरा, तिहुं धार दयी निरवार जामन मरन जरा। नंदीश्वरश्रीजिनधाम, वावन, . पुंज करों । वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनंदभावधरों ॥ * ओ ही श्रीनन्दीश्वरदीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो जन्मजरामृतविनाशनाय जलं निर्बपामोतिस्वाहा । भवतपहर शीतल वाच, सो चन्दन नाही, प्रभु यह गुन कीजे सांच, आयौ तुम ठांहीं ॥नंदीलाचंदनं ।। उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहैं, । सब जीतै अक्षसमाज, तुम सम अरुको है।नंदीगाअक्षतान्।। • तुम कामविनाशकदेव, ध्याऊं फूलनसौं। ' लहि शील लच्छमी एव, छूएं सूलनसौ ॥ नंदी०॥ पुष्पं ॥ नेवज इंद्रियबलकार, सो तुमने चूरा। चरु तुम ढिंग सोहै सार, अचरज है पूरा ।। नंदी० ॥नैवेद्य । दीपककी ज्योति प्रकाश, तुम तनमाहिं लसै। टूटै करमनकी राशि, ज्ञानकणी दरसे ।। नंदी०॥ दीपं ॥ । कृष्णागरुधूपसुवास, दशदिशिनारि वरै। * अति हरषभाव परकाश, मानों नृत्य करै ।। नंदी० ॥ धूपं ।। बहुविधफल ले तिहुंकाल, आनँद राचत हैं। तुम शिवफल देहु दयाल, तो हम जाचत हैं ।।नंदी०॥फलं ** - - -* Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २५६ यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हों। . * 'धानत' कीनों शिवखेत, भूमि समरपतु हो ।नंदी०॥अर्घ्य ! अथ जयमाला। दोहा-कातिक फागुन साढके, अंत आठ दिनमाहिं । नंदीसुर सुर जात हैं, हम पूजै इह ठाहिं ॥१॥ *. एकसौ त्रेसठ कोडि जोजनमहा । लाख चौरासि एक एक दिशमें लहा ।। अहमें द्वीप नंदीश्वरं भास्वरं। मौन बावन्न । प्रतिमा नमों सुखकरं ॥२॥ चारदिशि चार अंजनगिरी राज ही। सहस चौरासिया एकदिश छाजहीं। ढोलसम गोल। 1. ऊपर तले सुंदरं । भौन ॥३॥ एक इक चार दिशि चार शुभ र बावरी । एक इक लाख जोजन अमल जलभरी। चहुँदिशा चार वन लाख जोजन बरं । भौन० ॥४॥ सोल वापीनमधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महा जोजन लखत ही * सुखं । बावरीकोंन दोमांहिं दो रतिकरं । भौन० ॥५॥ शैल * बत्तीस इक सहस जोजन कहे । चार सोलै मिले सर्व बावन लहे ॥ एक इक सीसपर एक जिनमंदिरं । भौन० ॥६॥ बिंब आठ एकसौ रतनमइ सोहही, देवदेवी सरव नयनमन मोहही । पांचसै धनुष तन अमआसन परं । भौन० ॥७॥ लाल नख मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं, स्यामरंग भोंह सिरकेश । छवि देत हैं । वचन बोलत मनो हँसत कालुषहरं । भौन कोटि शशि भानदुति तेज छिप जात है, महावैराग परिणाम ठहरात वियन नहिं कह लखि होत सम्यकधरं मौन०॥९॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 | २६० वृहज्जैनवाणीसंग्रह सोरठा - नंदीश्वर जिनधाम, प्रतिमामहिमाको कहै, 'धानत' लीनों नाम, यह भगति सब सुख करे || ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चाशजिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा । ( इत्याशीर्वादः -) १०६ - षोडशकारणपूजा संस्कृत । ऐंद्रं पदं प्राप्य परं प्रमोदं धन्यात्मतामात्मनि मन्यमानः । डक्शुद्धिमुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्म्या महाम्यहं षोडशकारणानि ओहों दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणानि ! अत्रावतरत अवतरत संवौ - षट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् । सुवर्ण श्रृंगारविनिर्गताभिः पानीयधाराभिरिमाभिरुच्चैः । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्या महाम्यहं ॥१॥ 2 ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धि-विनयसम्पन्नता - शीलत्रतेष्वनतीचारा-भीक्ष्णज्ञानोपयोग-संवेग-शक्तितस्त्यागतपः-साधुसमाधि-वैयावृत्यकरणा- ईद्भक्ति बहुश्रुतभक्ति- प्रवचनभक्ति-आवश्यकापरिहाणि मार्गप्रभावना- प्रवचनवात्सल्येति- तीर्थंकरत्वकारणेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्व० ॥ श्रीखंडपिंडोद्भवचंदनेन, कर्पूरपूरैः सुरभीकृतेन । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्म्या० ॥ चंदनं ॥ स्थूरलैर खंडेरमलैः सुगंधैः शाल्यक्षतैः सर्वजगन्नमस्यैः । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्म्या० ॥ अक्षतं ॥ गुंजद्द्द्विरेफैः शतपत्रजातीसत्केतकीचंपक मुख्यपुष्पैः । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्म्या० ॥ पुष्पं ॥ नवीनपक्कान्नविशेषसारैर्नानाप्रकारैश्वरुभिर्वरिष्ठैः । हृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेंद्रलक्ष्म्या० ॥ नैवेद्यं ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 5425 * vuvvvvvvvvvvvvvvvvv बृहज्जैनवाणीसंग्रह २६१ ॥ तेजोमयोल्लासशिखैः प्रदीपैः दीपप्रभैर्ध्वस्ततमोवितानैः। दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेन्द्रलक्ष्म्या० ॥ दीपं ।। कर्पूरकृष्णागरुचूर्णरूपैथुपैर्हताशाहुतदिव्यगंधैः । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेन्द्रलक्ष्म्या० ॥ धूपं ॥ * सन्मालिकेराक्रमुकाम्रवीजपूरादिभिः सारफलै रसालैः । । दृक्शुद्धिमुख्यानि जिनेन्द्रलक्ष्म्या० ॥ फलं ।। पानीयचंदनरसाक्षतपुष्पभोज्यसद्दीपधूपफलकल्पितमपा ! आईत्यहेत्वमलषोडशकारणानां पूजाविधौ विमलमंगकलमातमोतु ॥ अथ प्रत्येकार्थ। ॥ यदा यदोपवासाः स्युराकण्यते तदा तदा।। । मोक्षसौख्यस्य कर्तृणि कारणान्यपि षोडश ।। (इति पठित्वा यंत्रोपरिपुष्पांजलि क्षिपेतू-यंत्रके ऊपर पुष्प चढाने चाहिये)। । असत्यसहिता हिंसा मिथ्यात्वं च न दृश्यते। * अष्टांग यत्र संयुक्तं दर्शनं तद्विशुद्धये ॥१॥ *ओं ही दर्शनविशुद्धयेऽधं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ । दर्शनज्ञानचारित्रतपसां यत्र गौरवं । मनोवाक्कायसंशुद्धया साख्याता विनयस्थितिः ॥२॥ ओं ह्रीं विनयसंपन्नतायै अर्धे निवेपामोति स्वाहा ॥२॥ * अनेकशीलसंपूर्ण व्रतपंचकसंयुतं ।। * पंचविंशतिक्रिया यत्र तच्छीलव्रतमुच्यते ॥३॥ मों ही निरतिचारशीलबतायाधं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ .. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-* -- - २६२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह काले पाठस्तवो ध्यानं शास्त्र चिंता गुरौ नुतिः। । यत्रोपदेशना लोके शास्त्रज्ञानोपयोगता ॥ ४ ॥ ___ओं हीं अभीक्ष्णज्ञानोपगाया निर्वामीति स्वाहा ॥४॥ पुत्रमित्रकलत्रेभ्यः संसारविषयार्थतः । में विरक्तिर्जायते यत्र स संवेगो बुधैः स्मृतः॥५॥ . ओं ही संवेगायाधू निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टपात्रेभ्यो दीयते भृशं । शक्त्या चतुर्विधं दानं साख्याता दानसंस्थितिः॥६॥ _____ओं ह्रीं शक्तितस्त्यागाया निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ में तपो द्वादशभेदं हि क्रियते मोक्षलिप्सया। शक्तितो भक्तितो यत्र भवेत् सा तपसः स्थितिः॥७॥ है ओं ही शक्तितस्तपसेऽयं निर्गपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ आर्या-मरणोपसर्गरोगादिष्टवियोगादनिष्टसंयोगात् । न भयं यत्र प्रविशति, साधुसमाधिः स विज्ञेयः ॥८॥ A ओं ही साधुसम्माधयेऽम निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ * अनुष्टुप्-कुष्टोदरव्यथाशूलैर्वातपित्तशिरोतिभिः । काशस्खासज्वरारोगैः पीडिता ये मुनीश्वराः ॥ तेषां भैषज्यमाहारं शुश्रूषापथ्यमादरात्। . यत्रैतानि प्रवर्तते वैयावृत्यं तदुच्यते ॥ ९॥ ओं ही वैयावृत्यकरणायाम निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ । मनसा कर्मणा वाचा जिननामाक्षरद्वयं । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAAA TAMAANAAAAAAAANAAANAAANAA वृहज्जैनवाणीसंग्रह २३ । सदैव स्मर्यते यत्र सार्हद्भक्तिः प्रकीर्तिता ॥१०॥ ओं ही तयेऽर्घ निर्वगामीति स्वाहा ॥१०॥ निर्गथभुक्तितो मुक्तिस्तस्य द्वारावलोकनं । तभोज्यालाभतो वस्तुरसत्यागोपवासता ॥ तत्पादचंदनापूजा प्रणामो चिनयो नतिः। एतानि यत्र जायते गुरुभक्तिर्मता च सा ॥११॥ ओं ही आचार्यभस्तयेऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ भवस्मृतिरनेकांतलोकालोकप्रकाशिका। प्रोक्ता यत्रार्हता वाणी वर्ण्यते सा बहुश्रुतिः ॥१२॥ ओं ही बहुश्रुतभक्तऽयेथू निवपामोति स्वाहा ॥ १२ ॥ षद्रव्यपंचकायत्वं सप्ततत्वं नवार्थता । कर्मप्रकृतिविच्छेदो यत्र प्रोक्तः स आगमः। १३॥ ओं ही प्रवचनभक्तयेऽचं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥ अतिक्रमस्तनूत्सर्गः समता वंदना स्तुतिः।। स्वाध्यायः पठ्यते यत्र तदावश्यकमुच्यते ॥१४॥ ओं ही आवश्यकापरिहाणयेऽर्ष निर्वामीति स्वाहा ॥ १४ ॥ जिनस्नानं श्रुताख्यानं गीतवाद्यं च नर्तनं । ___ यत्र प्रवर्तते पूजा सा सन्मार्गप्रभावना ॥ १५॥ ओं ही सन्मार्गप्रभावनायैअर्थ निर्जपामीति स्वाहा १५ ॥ चारित्रगुणयुक्तानां मुनीनां शीलधारिणां। । गौरवं क्रियते यत्र तद्वात्सल्यं च कथ्यते ॥१६॥ ओं ह्रीं प्रवचनवात्सलत्वाया निवपामीति स्वाहा ॥ १६॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANAKAM २६८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह *ओं ह्रीं ,उत्तमक्षमा-मार्दवा-जेव-सत्य-शौच-संयम-तपस्त्यागा-किंचन्य। - ब्रह्मचर्येधर्मेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीचंदनैहलकुंकुमचंद्रमित्रैःसंवासवासितदिशामुखदिव्यसं। स्थैः । संपूजयामि दशलक्षणधर्ममेकं संसार० ॥ चंदनं ॥ * शाली यशुद्धसरलामलपुण्यपुंजै रम्यैरखंडशशिलक्षणरूपतुल्यैः । * संपूजयामि दशलक्षणधर्ममेकं संसार० । अक्षतं ।। * मंदारकुंदवकुलोत्पलपारिजातः पुष्पैः सुगंधसुरभीकृतमूर्ध लोकैः । संपूजयामि दशलक्षणधर्ममेकं संसार० । पुष्पं ।। * अत्युत्तमैः रसरसादिकसघजातैनैवेद्यकैश्च परितोषित भव्य*लोकैः। संपूजयामि दशलक्षणधर्ममेकं संसार० । नैवेद्य। । । दीपैविनाशिततमोत्कररुद्यताशैः कर्पूरवर्तिज्वलितोज्वलभा जनस्थैः । संपूजयामिदशलक्षणधर्ममेकं संसार० । दीपं ।। । कृष्णागरुप्रभृतिसर्वसुगंधद्रव्य पैस्तिरोहितदिशामुखदिव्य धूमः । संपूजयामि दशलक्षणधर्ममेकं संसार० ॥ धूपं ।। * पूगीलवंगकदलीफलनालिकेरैघ्राणनेत्रसुखदैः शिवदानदक्षैः । संपूजयामि दशलक्षणधर्ममेकं संसार० । फलं। पानीयस्वच्छहरिचन्दनपुष्पसारैः शालीयतंदुलनिवेद्यसुचन्द्र। दीपैः । धूपैः फलावलिविनिर्मितपुष्पगंधैः पुष्पांजलिमिरपि । धर्ममहं समरें । *ओं ही उत्तमक्षमा-मार्दवा-र्जव-सत्य-शौच-संयम-तपस्त्यागा-किंचन्य ब्रह्मचर्याधर्मभ्यो अनयंपदप्राप्तये अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ * KAR-52-252 * Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -- - - -* . ----- - - वृहज्जैनवाणीसंग्रह - २६ vuuvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvu अथ अंगपूजा। येनकेनापि दुष्टेन पीडितेनापि कुत्रचित् । क्षमा त्याज्या न भव्येन स्वर्गमोक्षाभिलाषिणा ॥१॥ ओं ह्रीं परब्रह्मणे उत्तमक्षमाधर्मा गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। चंदन निर्व० । अक्षतान् निवे० । पुष्पं निव० । चरुं निवे० । दीपं नि० । धूपं । नि० । फलं नि० । अर्घ निर्वापामीति स्वाहा ॥ 'उत्तमखममद्दउ अज्जउ सच्चउ पुण सउच्च संजम सुतऊ।। चाउवि आकिंचणु भवभयवंचणु बंभचेर धम्मजु अखऊ. ॥ १ ॥ उत्तमखम तिल्लोयहसारी, उत्तमखम जम्मोवहि* तारी। उत्तमखम रयणयधारी, उत्तमखम दुग्गइदुहहारी * ॥ २॥ उत्तमखम गुणगणसहयारी, उत्तमखम मुणिविंदप यारी । उत्तमखम बुहयण चिंतामणि, उत्तमखम संपज्जइ थिरमणि ॥ ३॥उत्तमखम महणिज्ज सयलजणु, उत्तमखम मिच्छत्त विहंडणु। जह असमत्थह दोसु खमिज्जइ, जहिं असमत्थह ण वि रूसिज्जइ ।। जहिं आकोसणवयण । सहज्जइ, जहि परदोस ण जण भासिज्जइ । जह चेयणगुण चित्त धरिज्जइ, तहिं उत्तमखम जिणे कहिज्जइ ॥५॥ वृत्ता-इय उत्तमखमजूया सुरखगणूया केवलणाण लह वि थिरू । हुय सिद्धणिरंजण भवदुहभंजणु अगणियरिमसि पुंगमजि चिरू॥ * ओं ही उत्तम क्षमाधर्मा गायाण निर्वपामीतिखाहा * -- - -- - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RK- ---- * २७० वृहज्जैनवाणीसंग्रह * मृदुत्वं सर्वभूतेषु कार्य जीवेन सर्वदा । * काठिन्यं त्यज्यते नित्यं धर्मबुद्धिं विजानता ॥ २ ॥ ___ओं 'ही परब्रह्मणे उत्तममार्दवधर्मा गाय जलाधा निर्व०॥ * मद्दव भवमद्दणु माणणिकंदणु दयधम्म जु मूल हुई विमलु । सव्वह हिययारउ गुनजनसारउ तिस उचऊ संजम * सयलु ॥ मद्दउ माणकसाय विहंडणु, मद्दउ पंचेंदियमण दंडणु।। मद्दउ धम्मइकरुणावल्ली, पसरइ चित्तमहीरुहवल्ली ॥२॥ * मद्दउ जिनवर भत्तिपयासइ, महउ कुमइपसरु णिण्णासइ । * मद्दवेण बहुविणय पवट्टइ मद्दवेण जणवइरी हहइ ॥ ३ ॥ मद्दवेण परिणामविसुद्धी, महवेण विहु लोयह सिद्धी ।। है मद्दवेण दोविह तब सोहइ, महवेण तीजो पर मोइइ ॥ मद्दड जिणसासण जाणिज्जइ, अप्पापर सरूव मासिज्जा। मद्दउ दोस असेस णिचारउ, मद्दउ जणणसमुद्दह तारउ॥ पत्ता-सम्मइंसण अंगु मद्दउपरिणाम जु मुणहु । ____ हय परियाण विचित्त मद्दउ धम्म अमल थुणहु ॥६॥ __ओं ही उत्तममार्दवधर्मा गाय निर्गपामीति स्वाहा । आर्यत्वं क्रियते सम्यक् दुष्टबुद्धिश्च त्यज्यते । पापचिंता न कर्त्तव्या श्रावकैर्धर्मचिंतकैः ॥३॥ ___ओं ही परमब्रह्मणे आर्जवर्मागाय जलाद्य निर्वपामीति स्वाहा । । धम्मह वरलक्खणु अजउ थिरमणु, दुरियविहंडणु सुहज* गणु । तं इत्थु जि किज्जह तं पालिज्जइ,तं णि सुणिजइ खय जणणु ॥ जारिसु णिजयचित्त चिंतिजइ, तारिसु अण्णहु पुण। • भासिज्जइ । किजइ पुण तारिसु सुहसंचणु, तं अजवगुण मुणहु । *22--5-MS REx Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह अवंचणु ॥२॥ मायासल्ल मणहु णीसारहु, अज्जउ धम्म पवित्त वियारहु । वर तर मायावियउ णिरत्थर, अज्जउ सित्रपुर पंथ सउत्थउ || ३ || जत्थ कुटिलपरिणाम चइज्जह, तहि अज्जउ धम्मजु संपज्जइ । दंसणपाणसरूव अखंडो, परम अतींदिय सुक्खकरंडो ॥ ४ ॥ अप्पे अप्पर भवहतरंडो, एरिसु चेयणभावपयंडो । सो पुण अज्जउ धम्मे लब्भइ, अज्जवेण वैरियमण खुब्भइ ॥ ५ ॥ घत्ता - अज्जउ परमप्पड गयसंकप्पउ चिम्मितु सासय अभयपऊ । तं णिरुजाइज्जइ संसउ हिज्जह, पाविज्जइ जिहि अचलपऊ || ६ || व्यों ह्रीं उत्तमाजवधर्मा गायार्थं निर्वपामीति स्वाहा ॥ असत्यं सर्वथा त्याज्यं दुष्टवाक्यं च सर्वदा । परनिंदा न कर्तव्या भव्येनापि च सर्वदा ॥ ४ ॥ ओं ह्रीं परमब्रह्मणे उत्तमसत्यधर्मा गाय जलाद्यर्घ निर्वपामीति स्वाहा । २७१ wwwww दयधम्भहु कारण दोसणिवारण, इहभवपरभव सुक्खयरू | सच्चुजि वयणुल्लउ भुवणिअतुल्लउ, बोलिज्जइ वीसासयरू ॥ १ ॥ सच्चु जि सव्वह धम्मपहाणु, सच्चु जि महियलगरुवविहाण | सच्चु जि संसारसमुद्दसेउ, सच्चु जि भव्वह मण सुक्खहेउ || २ || सच्चेण जि सोहह मणुवजम्मु, सच्चेण पवित्र पुण्णकम्म। सच्चेण सयल गुणगण सहंति, सच्चेण तियस सेवा वहति ॥ सच्चेण अणुव्वमहव्ययाइ, सच्चेण विणासिय आवयाइ । हियमिय भासिज्ज‍ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANAANAN AAMANANARAAAAA AAAAAAAA * 225- 25 - * १ २७२. वृहज्जैनवाणीसंग्रह मणिभास, ण वि भासिज्जइ परदुहपयास ॥ ४॥ परवाहा" यर भासहु ण भव्य, सच्चु णि छंडेउ विगयगव्य । सच्चु । जि परमप्पा अस्थि एक्कु, सो भावहु भवतमदलण अक्छु। । संधिज्जइ मुणिणा वयणगुत्ति, जखण किट्टइ संसार अति।। * धत्ता--सच्चु जि धम्मफलेण केवलणाण वहेइ थणु ।। तं पालहु भो भव्य ! भणहु ण अलियउ इह वयणु ॥ ओं ह सत्यव मांगायाचं निर्गपामीति स्वाहा। वाह्याभ्यंतरैश्वापि मनोवाकायशुद्धिभिः । शुचित्वेन सदा भाव्यं पापभीतैः सुश्रावकैः ॥९॥ *ओं ही परब्रह्मणे उत्तमशौचधर्मा गाय जलाद्यर्ण निवे० ॥ सच्चु जि धम्मंगो तं जि अभंगो भिणंगो उपओग्गमई। जरमरणविणासणु तिजयपयासणु काइज्जइ अहिणिसु जि थुऊ ॥ धम्म सउच्च होइ मणसुद्धिय, धम्म सउच्च वयणधण गिद्धिये । धम्म सउच्च लोह वजंतउ, धम्म सउच्च सुतव । * पहिजंतउ ॥ धम्म सउच्च वंभवयधारणु, धम्म सउच्च मयहपणिवारणु । धम्म सउच्च जिणायमभणणे, धम्म सउच्च सुगुण * अणुमणणे ॥ धम्म सउच्च सल्लकयचाए, धम्म सउच्चु । जि णिम्मलभाए । धम्म सउच्च कसाय अहावे, धम्म सउ च्च ण लिप्पइ पावे ।। अहवा जिणवर पूज विहाणे, णिम्मल - फासेयजलकयण्हाणे । तं पि स उच्च गिहत्थउ भासइ, गवि । मुणिवरह कहिउलोयासिउ॥ पत्ता-भव मुणि वि अणिच्चो धम्म सउच्चउ पालिज्जा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAN AMAN बृहज्जैनवाणीसंग्रह २०३ सिवमग्ग सहाओ सिवपयदाओ अणुमचिंतहिकिंणिखणि । *ओं ही उत्तमशौचधर्मा गायाधं निवेपामीति स्वाहा ॥५॥ संयम द्विविधं लोके कथित मुनिपुंगवैः । पालनीयं पुनश्चित्ते भव्यजीवेन सर्वदा ॥६॥ ओं ही परब्रह्मणे उत्तमसंयमधर्मा गायजलाधवं निर्वपामीति स्वाहा। संजम जणि दुल्लहु, तं पाविल्लहु, जो छंडइ पुण मूढमई।। । सो भमै भवावलि, जरमरणावलि, किम पावइ सुइ पुण सुगई। संजम पंचेंदिय दंडणेण, संजम जि कसाय विहंडणेण । स* जम दुद्धर तव धारणेण, संजमरस चाय वियारणेण ॥ संजम । उववास वियंभणेण, संजम मणुपसरहु थंभणेण । संजम गुरु । कायकलेसणेण, संजम परिगहगिहचायणेण ॥ संजम तसथावररक्खणेण, संजम तिणि जोयणियत्तणेण । संजमसुतस्थपरिरक्खणेण, संजम बहुगमण चयंतणेण ॥ संजम अणुकंपकुणंतणेण, संजम परमत्थवियारणेण । संजम पोसइ दंसण हु अत्यु, संजम तिसहूणिरुमोक्खपत्थ । संजम विणु परभव । सयल सुण्णु, संजम विणु दुग्गइ जि उपवण्णु । संजम विण घडि यम इत्थ जाउ, संजमाविण विहली अत्थि आउ॥ यत्ता* इहभवपरभव संजमसरणो, होजउ जिणणाहे भणिओ। * दुग्गइ सरसो सण खरकिरणोवम जेण भवारि विसम हणिओ ओं ही संयमधर्मा गायाध निर्वपामीति स्वाहा ॥॥ * द्वादशं द्विविधं लोके वाह्याभ्यंतरभेदतः। स्वयं शक्तिप्रमाणेन क्रियते धर्मवेदिभिः ॥७॥ मों ही परब्रह्मणे उत्तमतपोधर्मा गाय जलाद्य निर्व० ॥ * - * 18 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X- -- १२६४ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww बृहज्जैनवाणीसंग्रह * परभवपावेप्पिणु तच्च मुणेप्पिणु खंड वि पंचेंदियसमणु।। *णिन्वेउवि मंडिवि संगइ छंडिवि तव किज्जइ जाये विवणु॥ तं तउ जहि परिगह छंडिज्जह, तं तउ जहि मयणु जि खडिज्जइ । तं तउ जहि णग्गत्तणु दीसइ, तं तर जहि गिरि-1 कंदर णिवसइ ।।२।। तं तउ जहि उवसग्ग सहिज्जइ, तं तउ जहि रायाइ जिणिज्जइ । तं तउ जहि भिक्खइ अँजिज्जइ, • सावइगेह कालणिविसज्जइ ॥३॥ तं तउ जत्थ समिदिपरि पालणु, तं तउ गुत्तित्तयहणिहालणु । तं तउ जहि अप्पापर। बुझिउ, तं तउ जहि भव माणु जि लज्झिउ ॥ तं तउ जहि । ससरूव मुणिज्जइ, तं तउ जहि कम्महगण खिज्जइ । तं तउ जहि सुरमतिपयासहि, पवयणत्थ भवियणह पभासहि ॥५॥ * जेण तवे केवल उपवज्जइ, सासय सुक्ख णिच संपज्जइ ॥ पत्ता-वारहविहु तउवरु दुग्गइ परिहरु, तं पूज्जिइ थिरगपिणा । मच्छरमयछंडिवि करणइ दंडिवि तं पि धइिज्जइ । ॐ गौरविणा ॥ ओं ही उत्तमतपोधर्मा गायाध निर्वामीति स्वाहा ॥ र चतुर्विधाय संघाय दानं चैव चतुर्विधं । * दातव्यं सर्वथा सनिश्चितकै पारलौकिकैः ।।८।। ओं ही परब्रह्मणे उत्तमत्यागधर्मागाय जलाद्यर्घ नि० ॥ चाउ विधम्मंगो करहु अभंगो णियसत्तिइ भत्तिय जण-* कहु । पत्तह सुपवित्तह तवगुणजुत्तह परगइसंवलु तं मुणहु ॥ चाए आवागवणउ हट्टइ, चाए णिम्मल कित्ति पविट्टइ ।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- - ------ -* Vvvvvvvvvvvvvur Vvvv vvvvvvvvwww वृहज्जैनवाणीसंग्रहः २७५ । चाए चयरिय पणभिइ पाये, चाए भोगभूमि सुह जाए ॥२॥ चाउ विहिज्जइ णिच जि विणए, सुयवयणे भासेप्पिणु । पणए । अभयदाण दिज्जइ पहिलारउ, जिमि णासइ परभव दुहयारउ ॥ सत्थदाण वीजो पुण किज्जइ, णिम्मलणाण * जेण पाविज्जइ । ओसह दिज्जइ रोयविणासणु, कह विण पित्थइ वाहिपयासणु ॥ आहारे धणरिद्धि पविट्टइ, चउविह चाउ जि एहु पविट्टइ । अहवा दुइवियप्पह चाए, चाउ जि एहुमुणहु समवाए ॥५॥ पत्ता-दुहियहिं दिज्जइ दाण, किज्जइ माणु जि गुणियणहिं । दयभावीय अभंग, देसण चिंतिज्जइ मणहं ॥ , *ओं ही उत्तमन्यागधर्मा गाया निवपामीति स्वाहा । चतुर्विशतिसंख्यातो यो परिग्रह ईरितः । - तस्य संख्या प्रकर्तव्या तृष्णारहितचेतसा ॥८॥ ओ हों परब्रह्मणे उत्तमाकिचन्यधर्मा गायाधू निवपा। . आकिंचणु भावहु अप्पा झावहु देहभिण्णउज्झाणमऊ।। निरुवम गयवण्णउ सुहसंपण्णउ, परम अतींदिय विगयभउ * ॥१॥ आकिंचणु चउसंगहणिवित्ति, आकिंचणु चउसुज्झा णसत्ति । आकिंचणु वउवियलियममत्ति, आकिंचणु रयणत्तयपवित्त । आकिंचणु आउ चिएहिचित्त, पसरंतउ इंदिय । वणिविचित्त । आकिंचणु देहहणेहचित, आकिंचणुजं भवसुइ विरत्त । तिणमत्त परिग्गह जत्थ णस्थि, मणिराउ विहि* जइ तव अवस्थि । अप्पापर जत्थ वियारसत्ति, पयडिज्जा। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह जहि परमेद्विभत्ति ॥ जह छंडिज्जइ संकप्पदुङ, भोयण वंछिज्जइ जह अणि । आकिंचण धम्म जि एम होइ, तं ज्झाइज्जइ रुइत्थलोइ || घत्ता - ए हुज्जि पहावे, लद्ध AAAA MAN NAAMARAN IRANANAAAAA सहावे तित्थेसर ' सिवनय रिगया । ते पुण रिसिसारा मयणवियारा बंदणिज्ज एतेण सया ॥ ओं ह्रीं उत्तमाकिंचन्यधर्मा गायार्धं निर्वपामीति स्वाहा । नवधा सर्वदा पाल्यं शीलं संतोषधारिभिः । भेदाभेदेन संयुक्तं सद्गुरूणां प्रसादतः ॥ १०॥ ओं ह्रीं परब्रह्मणे उत्तमत्रह्मचर्यधर्मा गाय जलाद्यघं निर्व० ॥ बंभव दुद्धरु धारिज्जइवरु केडिज्जइ विसयासणिरु । तियसुक्खयरत्तो मणकरिमत्तो तं जि भव्य रक्खेहु थिरु || चित्तभूमि मयणु जि उपवज्जइ, तेण जु पीडउ करइ अकज्जइ । तियह सरीरह णिदह सेवइ, णिय परणारि ण मूढउ चैवइ । णिवडइ गिरय महादुह भुंजइ, जो हीणुजि बंभव्वउ भंजइ ॥ इय जाणेविणु मणत्रयकाए, बंभचेरु पालहु अणुराए । णवपयार सत्थिय सुहयारउ, बंभव्वे विणु वउतउजिअसार । भव्वे विणु काय किलेसह, विहल सयल भा सीय जिसइ | बाहिर फरसें दियसुहरक्खड, परमवंभ आभितर पिक्खउ || एण उवाए लब्भइ सिवहरु, इम रहधू बहुभणइ विणययरु ॥ पत्ता - जिणणाह महिज्जर, मुणि पणविज्जह, दहलक्ख Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww wüw vwwwwwwww wwwwwwwwwwww *** *RAKASH RE " वृहज्जैनवाणीसंग्रह २७७ कण पालीइणिरु। भो खेमसियासुय भन्न विणय जुय होलि* वम्मयह करहु थिरु ।। _ ओं ही उत्तमब्रह्मचर्यधर्मा गाया निर्वामीति स्वाहा ।। . समुञ्चय आरती। ___ इय काऊण णिज्जरं जे हणति भवपिंजरं। नीरोयं अजरामरं ते लहंति सुक्खं परं ॥ १ ॥ जण मोक्खफल तं पाविज्जइ, सो धम्मंगो एहहु गि। जइ । खमखमायलु तुंगय देहउ, मदउ पल्लउ अज्जउ । सेहउ ।। सच्च सउच्च मूल संजमदल, दुविह महातव णवकुसुमाउलु । चउविह चाउय साहियपरमल, पीणिय भवलोय छप्पइयलु ॥ दियसंदोह सद्द कलकलयलु, सुरणरचरखेयर * सुहसयफल । दीणाणाह दीह समणिग्गहु, सुद्ध सोमतणु१ मित्तपरिग्गहु ।। बंभचेरु छायइ सुहासिउ, रायहंस नियरे हि समासिउ । एहउ धम्म रुक्ख लाखिज्जइ, जीवदया है * वयणहि राखिज्जइ ॥ झाणहाण भल्लारउ किज्जइ, मि च्छामई पवेस ण दिज्जइ । सीलसलिलधारहि सिंचि* ज्जइ, एम पयत्तणवड्ढारिज्जइ ॥ पत्ता-कोहानल चुक्कर, होउ गुरुक्कउ, जाइ रिसिदिय सिद्धगई। * जगताइ सुहकरु धम्ममहातरु देइ फलाइ सुमिहमई ॥1 ओं ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मेभ्योऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ (इत्याशीर्वादः) *EKKRKERSARKAR* Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *HR २७८ वृहज्जैनवाणीसग्रह MarwAAAAAAAAAAAAAAHANI MANANAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAMA १०९-अथ दशलक्षणधर्मपूजा भाषा अडिल्ल-उत्तम छिमा मारदव आरजवभाव हैं । सत्य 1 सौच संजम तप त्याग उपाव हैं ।। आकिंचन ब्रह्मचरज धरम दश सार हैं। चहुंगतिदुखतै काढि मुकतिकरतार हैं ॥१॥ , ओं ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौपद ओं ही उत्तमझमादिदशलक्षणधर्म । अन्न तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधम ! अब मम सन्निहितो भव भव वषट् र सोरठा-हेमाचलकी धार, मुनिचित सम शीतल सुरभि । भवआताप निवार, दसलच्छन पूजौं सदा ॥१॥ ___ ओं हो उत्तमक्षमामार्दवार्जव सत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यादिदशलक्षणधर्मेभ्यः जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ चंदन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा । भव०॥ चंदनं । अमल अखंडितसार, तदुल चंद्रसमान शुभ भिव०॥ अक्षतान् । * फूल अनेकप्रकार, महकै ऊरधलोक लो । भव०॥ पुष्पं ॥ * नेवज विविध निहार, उत्तमः पटरससंजुगत भव०॥ नैवेद्यं । को वाति कपूर सुधार, दीपकजोति सुहावनी [भव०॥ दीपं ॥ है अगर धूप विस्तार, फैल सर्व सुगंधता । भवा० ॥ धूपं ॥ । फलकी जाति अपार, प्रान नयन मनमोहने ।भव०॥ फल। आठो दरव संवार, धानत अधिक उछाहसों । भव०॥ अर्घ्य । अंग पूजा। सोरठा-पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥२॥ * --++ KSHRAR* Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XRKIRe* वृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwwwwwwwwww. अथ समुच्चय जयमाला। दोहा-दशलच्छन बंदौं सदा, मनवांछित फलदाय। कहों आरती भारती, हमपर होहु सहाय ॥१॥ वेसरी छंद-उत्तमछिमा जहां मन होई, अंतरबाहिर शत्रु न कोई । उत्तममार्दव विनय प्रकास, नानाभेद ज्ञान सब भासै ॥ २ ॥ उत्तमआर्जव कपट मिटावै, दुरगति त्यागि सुगति उपजावै। उत्तम सत्यवचन मुख बोले, सो प्रानी स सार नं डोलै ॥३॥ उत्तमशौच लोभपरिहारी, संतोषी गुण- 1 भरतनभंडारी। उत्तमसंयम पाले ज्ञाता, नरभव सफल करै । ले साता ॥ ४॥ उत्तमतप निरवांछित पालै, सो नर करम शत्रुको टालै । उत्तमत्याग करै जो कोई, भोगभूमि-सुर-शि* व सुख होई ॥ ५॥ उत्तमआकिंचनव्रत धारै, परमसमाधि । दशा विसतारै। उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावै, नरसुरसहित मुकतिफल पावै ।। ६ ॥ दोहा-करै करमकी निरजरा, भवपींजरा, विनाशि । ___अजर अमरपदको लहै, 'धानत' सुखकी राशि ॥७॥ * भो ही उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्यागार्किचन्थब्रह्म कचर्यदशलक्षणधर्माय पूर्णाध्य निर्वपामीलि स्वाहा ॥ । ११०-अथ रत्नत्रयपूजा भाषा दोहा-चढुंगतिफनिविषहरनमणि, दुखपावक जलधार ।। शिवसुखसुधासरोवरी, सम्यकत्रयी निहार ॥१॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ niruramwammmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwer. १. २८४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ओं ही सम्यग्ररत्नत्रय ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही सम्यग्ररत्नत्रय ! अन तिष्ठ तिष्ठ । ठ ठ । ओं ह्रीं सम्यग्रस्नत्रय ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । सोरठा-क्षीरोदधि उनहार, उज्वल जल अति सोहनो। जनमरोग निरवार, सम्यकरत्नत्रय भजू ॥१॥ ओं ह्रीं सम्यग्ररत्नत्रयाय जन्मरोगविनाशाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । चंदन केसर गारि, परिमल महासुरंगमय । जन्म०॥चंदनं । * तंदुल अमल चितार, वासमती सुखदासके । जन्म०||अक्षतान् । • महकैं फूल अपार, अलि गु0 ज्यों थुति करें । जन्म०iपुष्पा । लाडू वहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत ॥ जन्म नैवेद्य।। * दीपरतनमय सार, जोत प्रकाशै जगतमें । जन्म० दीपं ॥ धूप सुवास विथार, चंदन अगर कपूरकी । जन्म० ॥धूप। * फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल ।जन्माफल।। आठदरब निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये । जन्म०॥ अयं ॥1 सम्यकदरशरनज्ञान, व्रत शिवमग तीनों मयी । पार उतारन जान, 'धानत' पूजों व्रतसहित ॥१०॥ दर्शनपूजा। ॥ दोहा-सिद्ध अष्टगुनमय प्रगट, मुक्तजीवसोपान । जिहविन ज्ञानचरित अफल, सम्यकदर्श प्रधान ॥१॥ *ओं ही अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्रावतर अवतर । संवौषट् । *ओं ह्रीं अष्टोगसम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठठः। ओं ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । * HEKRISe* Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * AKAKARKARISKRR* vNNNN ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह २८५ * सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै। . र सम्यकदर्शनसार, आठअंग पूजौं सदा ॥१॥ *ओं ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जल केसर धनसार, ताप हरै सीतल करै। सम्यगचंदन। अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै । सम्य०|अक्षतान् । पहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्य० ॥पुष्पा नेवज विविधप्रकार, छुघा हरै थिरता करै। सम्य० ॥नैवेद्यो । दीपज्योति तमहार, घटपट परकाशै महा । सम्य० ॥दीपं॥ धूप घानसुखकार, रोग विघन जड़ता हरै । सम्यक०'धूप श्रीफलआदि विथार, निहचै सुरशिवफल करै । सम्य० ॥फलं॥ जल गंधाक्षत चार, दीप धूपे फलफूल चरु। सम्यक०॥अर्घ अथ जयमाला । * दोहा-आप आप निह लखै, तत्वप्रीति व्योहार।. रहितदोष पच्चीस है, सहित अष्ट गुन सार ॥१॥ चौपाई-मिश्रित गीताछन्द। , सम्यकदरशन रतन गहीजै । जिनवचमें संदेह न कीजै।। । इहभव विभवचाह दुखदानी । परभवभोग चहै मत प्रानी॥ पानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरुप्रभु परखिये। परदोष ढकिये धरम डिगतेको, सुथिर कर हरषिये ।। * चहुसंघको वात्सल्य कीजे, धरमकी परभावना। *गुन आठसों गुन आठ लहिकैं, इहां फेर न आवना ॥२॥ *ओं ही अष्टांगसहितपञ्चविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णायं ॥ * ---- - ** * Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAARnhArAnnnnnAARAMPARANA MAHA १२८६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह. . ज्ञानपूजा! * दोहा-पंचभेद जाके प्रगट, शेयप्रकाशन भान । 1 मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यकझान ॥१॥ ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । *ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र तिष्ठ ठः ठः। . के ओं ही अष्टविधसम्यग्नान ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । । १ सोरठा-नीरसुगंध अपार, त्रिषा हरै मल छय करे। सम्यकज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ॥१॥ *ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामोति स्वाहा ॥१॥ * जलकेसर घनसार, ताप हरै शीतल करै । सम्य०। चन्दन । * अछत अनूप निहार,दारिद नाशै सुख भरै । सम्य०॥अक्षतान् । १ पहुपसुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्य० ॥पुष्पा । नेवज विविधप्रकार, छुधा हरै थिरता करै । सम्य०निवेद्यो । दीप ज्योति तमहार, घटपट प्रकाशै महा। सम्य० ॥दीप धूप घानसुखकार, रोग विघन जडता हरै । सम्य० ॥धूप।। । श्रीफल आदि विथार, निह. सुरशिवफल करै ।सम्य०फल , जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्य०॥अध्यो । जयमाला। । दोहा-आप आप जाने नियत, ग्रंथपठन व्योहार । संशय विभ्रम मोह विन, अष्टभंग गुनकार ॥१॥ चौपाई-मिश्रित गीताछंद। * सम्यकज्ञान रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * व वृहज्जैनवाणीसंग्रह २८७ । अच्छर शुद्ध अरथ पहिचानो, अच्छर अरथ उभय संग जानौं।' ___जानौं सुकालपठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये। ___ तपरीति गहि बहु मान देक, विनयगुन चित लाइये ॥ ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान-दर्पन देखना। ___इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पटपेखना ॥२॥ ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाथ पूर्णायं निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ ___ चारित्रपूजा। दोहा-विषयरोग औषध महा, दवकषायजलधार । तीर्थकर जाकौं धरै, सम्यकचारितभार ॥१॥ *ओं ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अब अवतर अवतर संौपट् । ओं है ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अन्न तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।ओं ही त्रयोदश• विधसम्यक्चारित्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हर मल छय करै। सम्यकचारितसार, तेरहविध पूजौं सदा ॥ १॥ * ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जलं निवेपामीति स्वाहा ॥१॥ जल केशर घनसार, ताप हैरै शीतल करै । सम्यक०॥चंदन॥ अछत अनूप निहार,दारिद नाशै सुख भरै । सम्य०॥अक्षताना पहुपसुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्य०॥पुष्पा * नेवज विविधमकार, छुधा हरै थिरता करै । सम्एक०॥नैवेद्य।। * दीपजोति तमहार, घटपट परकाशै महा। सम्यक०॥ दीप धूप घान सुखकार, रोग विधन जड़ता हरै । सम्य०॥धूप । श्रीफल आदि विथार, निहचै सुरशिवफल करै। सम्याफलं. * - - * Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ~ ~ ~ - - ~ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww जल गंधाक्षत चार, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यक०॥अर्थ।। अथ जयमाला। दोहा-आप आप थिर नियत नय, तपसंजम व्योहार । ___स्वपर दया दोनों लिये, तेरहविध दुखहार ॥१॥ चौपाई-मिश्रित गीताछंद। * सम्यकचारित रतन संभालौ, पांच पाप तजिकै व्रत पालौ।। । पंचसमिति त्रय गुपति गहीजै,नरभव सफल करहु तन छीजै। ___ छीजै सदा तनको जतन यह, एक संजम पालिये। बहु रुल्यो नरक निगोदमाही, विषयकपायनि टालिये। शुभकरम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। । ___ 'द्यानत' धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥२॥ * ओं ही त्रयोदशबिधसम्यक्चारित्राय महाधु निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ अथ समुच्चय जयमाला। दोहा-सम्यकदरशन-ज्ञान-व्रत, इन विन मुकति न होय । ___अंध पंगु अरु आलसी, जुदे जलै दव-लोय ॥१॥ चौपाई-जापै ध्यान सुथिर बन आवै । ताके करमबंध कट • जावै । तासों शिवतिय प्रीति वढावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥१॥ ताको चहुँगतिके दुख नाहीं। सोन पर भवसागरमाहीं ॥ जनमजरामृतु दोष मिटावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥३॥ सोई दशलच्छनको साधै । सो सोलह । कारण आराधै । सो परमातम-पद उपजावै । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावै ॥४॥ सोई शकचक्रिपद लेई । तीनलोकके Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ૨૮૧ सुख विलसेई || सो. रागादिक भाव बहावै । जोसम्यकरतन - त्रय ध्यावै ॥ सोई लोकालोक निहारै परमानंददशा विसतारै ।। आप तिरै औरन तिरखावै । जो सम्यकरतनेत्रय ध्यावै ॥ दोहा - एकस्वरूप प्रकाश निज, वचन कह्यो नहिं जाय । तीन भेद व्योहार सब द्यानतको सुखदाय ॥ i ओं ह्रीं सम्यग्दर्शनसम्यग् ज्ञानसम्यक् चारित्राय महाष्यं निर्वपामीति० ॥ (अधेके बाद विसर्जन करना चाहिये ) १११ - समुच्चयचौबीसी पूजा वृषभ अजित संभव अभिनंदन, सुमति पदम सुपास जिनराय | चंद पुहुप शीतल श्रियांस नमि, वासुपूज पूजितसुरराय || विमल अनंत धर्मजस उज्जल, शांति कुंथु अर मल्लि मनाय । मुनिसुव्रत नमि नेमि पासप्रभु, वर्द्धमानपद पुष्प चढ़ाय ओं ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह ! अन्न तिष्ठ । ठः ठः। ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतचतुर्विंशतिजिनसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । 'मुनिमनसम उज्वल नीर, प्रासुक गंध भरा। भरि कनक कटोरी धीर, दीनी धार धरा ॥ चैौबीसों श्रीजिनचंद, आनंदकंद, सही । पद जेजत हरत भवनंद, पावत मोक्षमही ॥ ओं ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशानाय जलं० ॥ गोशीर कपूर मिलाय, केशर रंगभरी । जितचरनन देत चढाय, भवआंताप हरी || चौबी● || चंदनं ॥ 19 a Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # २६० बृहज्जैनवाणीसंग्रह के तंदुल सित सोमसमान, सुंदर अनियारे । मुकताफलकी उपमान, पुंज धरों प्यारे ।।चौबी०॥अक्षतान्।। वरकंज कदंब कुरंड, सुमन सुगंध भरे। जिन अग्र घरों गुनमंड, कामकलंक हरे ॥ चौबी० पुष्पं ।। मनमोदनमोदक आदि, सुंदर सद्य बने । रसपूरित प्रासुक स्वाद,जजत छुधादि हने चौबीनैवेद्य।।। । तमखंडन दीप जगाय, धारों तुम आगै । * सब तिमिरमोह क्षय जाय, ज्ञानकला जागे ॥चौबी०॥दीपं दशगंध हुताशनमाहि, हे प्रभु खेवत हों। मिस धूम करम जरि जाहि, तुम पद सेवत हों ।।चौबी०आधूपं १ शुचि पक्क सुरस फल सार, सबऋतुके ल्यायो। में देखत दृगमनको प्यार, पूजत सुख पायो ।चौबी०फिली जल फल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों। तुमको अरपों भवतार, भव तरि मोक्ष वरों ॥चौबी०॥अर्घ्य जयमाला दोहा-श्रीमत तीरथनाथपद, माथ नाय हितहेत। ___गाऊं गुणमाला अवै, अजर अमरपद देत ॥ १॥ __ छंद धत्तानन्द-जय भवतम भंजन जनमनकंजन, रंजन दिनमनि स्वच्छकरा । शिवमगपरकाशक अरिगननाशक, चौबीसौं जिनराज वरा ॥२॥ छन्द पद्धरी-जय ऋषभदेव रिषिगन नमंत । जय अजित जीत वसुअरितुरंत ॥ जय संभव भवभय करत चूर । जय। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KAKKARNERARKe* vavvvvvvvvvvv wwwwwwwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह अभिनंदन आनंदपूर ॥ जय सुमति सुमतिदायक दयाल । जय पद्म पद्मदुति तनरसाल ॥ जय जय सुपास भवपासनाश । जय चंद चंदतनदुतिप्रकाश ॥ ४ ॥ जय पुष्पदंत दुतिदंत सेत । जय शीतल शीतलगुननिकेत । जय श्रेयनाथ * नुतसहसभुज्ज । जय वासवपूजित वासुपुज्ज ॥५॥ जय विमल विमलपददेनहार । जय जय अनंत गुनगन अपार । जय धर्म धर्म शिवशर्म देत । जय शांति शांति पुष्टी करता। जय कुंथु कुंथु वादिक रखेय । जय अर जिन वसुअरि छय करेय ।। जय मल्लि मल्ल हतमोहमल्ल । जय मुनिसुव्रत । व्रतशल्लदल्ल ॥ ७ ॥ जय नमि नित वासवनुत सपेम । जय नेमिनाथ वृषचक्रनेम । जय पारसनाथ अनाथनाथ । * जय वर्द्धमान शिवनगर साथ ॥ ८॥ घत्ता-चौबीस जिनदा आनंदकंदा, पापनिकंदा सुखकारी। तिनपदजुगचंदा उदय अमंदा, वासव वंदा हितकारी ॥९॥ ___ओं ही श्रीवृषभादिचतुर्विंशतिजिनेभ्यो महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा * सोरठा-मुक्ति मुक्ति दातार, चौबीसौं जिनराजवर। तिनपद मनवचधार, जो पूजै सो शिव लहै।।इत्याशीर्वादः॥ ११२-श्रीआदिनाथजिनपूजा । अडिल्ल-परमपूज्य वृषभेश स्वयंभूदेवजू । पिता नाभि । * मरुदेवि करै सुर सेवजू । कनक वरन तनतुंग धनुषपनसततनो । कृपासिंधु इत आय तिष्ठ मम दुख हनो ॥१॥ ओ ह्रीं श्रीआदिनाजिनेन्द्र ! अन अवतर अवतर । संवौषट। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UWVuo vo MMMM. बृहज्जैनवाणीसंग्रह *ओं ही श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः।। ओं ही श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । हिमवनोद्भच वारि सुधारकै । जजतहूं गुणवोध रचार। , परम भाव सुखोदधि दीजिये । जनममृत्युजराक्षय कीजिये। ओं ही श्रीआदिनाजिनेन्द्राय जलं निर्बपामीति स्वाहा । मलय चंदन दाहनिकंदनं । घसि उभे करमै कर वंदनं ॥ जजतहूँ प्रशमाश्रम दीजिये । तपततापत्रिधा छय कीजिये ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय चढ़नं निर्वपामीति स्वाहा। - अमल तंदुल खंडविवर्जितं । सित निसेस हिमामिय तर्जितं ॥ जजतहूं तसुपुंज धरायजी। अखय संपति द्यो जिनरायजी ॥ ओं ही आदिनाथजिनेन्द्राय अक्षतान् निर्व पामीति स्वाहा ! कमल चंपक केतुकी लीजिये । मदनभंजन भेंट घरीजिये॥ परमशील महासुखदाय हैं। समरशूल निमूल नशाय हैं । ओं ही श्रीआदिनाजिनेन्द्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । * सरस मोदन मोदक लीजिये । हरन भूख जिनेश जजीजिये। * शकल आकुलअंतक हेतु हैं। अतुल शांति-सुधारस देतु हैं॥ ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । निवड मोह महातम छाइयो । स्वपरमेद न मोहि लखाइयो । हरन कारन दीपक तासके । जजतहूं पद केवलमासके॥ ओं ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय दीपं निर्बपामीति स्वाहा । अगर चंदन आदिक लेयर्के । परम पावन गंध सुखेयकै ॥ * अगनिसंग जरै मिस धूमके । अकल कर्म उडै यह घूमकें। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिति पुल काल बृहज्जैनवाणीरसह जयपुर wwwwwwwwwwwwwwww VAALTH PROPHY *ओं ही श्रीआदिनाजिनेन्द्राय धूपं निर्वपामोलि स्वाहा । सरस पक्क मनोहर पावने । विविध ले फल पूज रचाने। त्रिजगनाथ कृपा अब कीजिये। हमहि मोक्ष महाफल दीजिये। ओं ही श्रीआदिनाजिनेन्द्राय फलं निर्वपामोति स्वाहा। जल फलादि समस्त मिलायकैं। जजतहूं पद मंगल गायकैं॥ भगतवत्सल दीनदयालजी। करहु मोहि सुखी लख हालजी॥ ओं ही श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक । * असित दोज अषाढ सुहावनी । गरम मंगलको दिन पावनी ॥ हरि सची पितु मातहिं सेवहीं । जजत हैं हम श्रीजिनदेवही॥ *ओं ही आषाढ़कृष्णद्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीआदि० अर्घ ॥ असित चैत सुनौरि सुहाइयो ।जन्म मंगल तादिन पाइयो। * हरि महागिरिमै जजियो तबै । हम जजै पदपंकजको अबै ॥ कमों ही चैत्रकृष्णनवमीदिने जन्ममंगलप्राप्ताय श्रोआदिनाथ० अयं ॥ * असित नौमिसु चैत धन्यो सही। तप विशुद्ध सबै समतागही निज सुधारससौं लव लाइयो। हम जजै पद अर्घ चढ़ाइयो। । ओं ह्रीं श्रीचैत्र कृष्णनवमीदिने दीक्षामंगलप्राप्ताय श्रीआदि० अध्यं ॥ असित फागुन ज्ञारसि सोहनो। परम केवल ज्ञान जग्यो भनो॥ हरि समूह जज तित आयकै । हम जजै इत मंगल गायकैं। *ओं ह्रीं फाल्गुनकृष्णकाद्दश्यां ज्ञानमंगलप्राप्ताय श्रीआदि० अध्यं ॥ असित चौदस माघ विराजई। परम मोक्ष लियो जिनराजई॥ हरिसमूह जजे कैलाशजी। हम जजै इत धार हुलासजी॥ ओं ह्रीं माघकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीआदि० अर्घ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RAKH ARE* २६८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ___ अथ जयमाल छंद भूलना। * महासेन कुलचंद गुणकलाके बंद नहिं निकट आवै कदा मोह मंथी । देखि तुवकांति अतिशांतिताकी सुगति लाजि निजमन स्वपद रहत मंथी ॥ बड़ी छवि छटाधर असित । सो तिमिरहर अहर्निश मंदता लेश नाहीं ॥ कहत 'मनरंग' * निति कर मनरंग जो धेरै मनप्रभू तो चरणमाहीं॥१॥ __ छंद भुजगप्रयात। नमस्ते नमस्ते नमस्ते जिनन्दा। निवारे भली भांतिकै । कर्मफन्दा । सुचन्द्रप्रभू नाथ तो सौ न दूजा। करौं जानिके * पादकी जासु पूजा ॥१॥ लखै दर्श तेरो महादर्श पावै । जो की पूजै तुम्हें आपही सो पुजावै ॥ सुचन्द्र० ॥२॥ जो ध्यावै । * तुम्हें आपने चित्तमांही। तिसै लोक ध्यावै कछू फेर नाहीं॥ * सुचन्द्र० ॥३॥ गहै पंथ तो सो सुपंथी कहावै। महापंथसों । शुद्ध आपै चलावै ।। सुचन्द्र० ॥४॥ जो गावै तुम्हें ताहि । गावें मुनीशा । जो पावें तुम्हें ताहि पावें गणीशा सुचंद्र० । * ॥५॥ प्रभूपाद मांही भयो जोऽनुरागी। महापट्ट ताको * मिलै वीतरागी । सुचंद्र० ॥६॥ प्रभू जो तुम्हें नृत्य करकै । रिझावै । रिझावै तिसे शक्र गोदी खिलावै ॥ सुचंद्र० ॥७॥ घरे पादकी रेणु माथे, तिहारी । न लागैतिसे मोहकी दृष्टि । * भारी॥सुचंद्र०॥८॥लहै पक्ष तो जो वो है पक्षधारी । कहावै । सदासिद्धिको सो विहारी ॥ सुचन्द्र० ॥९॥ नमावै तुम्हें । * सीस जो भावसेरी । नमें तासुको लोकके जीवहेरी सुचंद्र० । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KKRAKASKRRR* wwwwwwwwww NW ~ ~ ~ ~ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ॥१०॥ तिहारो लखे रूप ज्यों दौसदेवा । लगें भोरके चंदसे। . जे कुदेवा । सुचन्द्र० ॥ ११ ॥ भलीभांति जानी तिहारी। सुरीती । भई मोर जीमैं बड़ीसो प्रतीती ॥सुचन्द्र० ॥१२॥ । भयौ सौख्य जो मा कहौ नाहिं जाई । जनौ आजही सिद्धि की ऋद्धि पाई । सुचन्द्र० ॥१३॥ करूँ वीनती मै दोऊ * हाथ जोरी। बड़ाई करूं सो सबै नाथ थोरी ॥सुचंद्र०॥१५॥ । थके जो गणी चारिहू ज्ञान धारे । कहा और को पार पावें विचारे ॥सुचन्द्र० ॥१५॥ पत्ता-चन्द्रप्रभ नामा गुणकी दामा पढेऽअभिरामा धरि मनहीं। अंतक परछाही परिहै नाहीं तापर कबहूं झूठ नहीं।। दोहा-पंथीप्रभु मंथीमथन कथन तुम्हार अपार । करो दया सबपै प्रभो जासें पावें पार ॥ ' (इत्याशीर्वादः) ११४-श्रीअनंतनाथ जिनपूजा। * अडिल्ल-बाझि अभ्यंतर त्यागि परिग्रह जति भये । बहुजन हित शिवपंथ दिखायो हरि नये ॥ ऐसे अनंत जिनेश पाय । नमि हूं सदा । आह्वाननविधि करूं त्रिविध करिके मुदा ॥ *ओं ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेंद्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । 1ओं ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । *ओं ही श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् नाराच छंद क्षीर नीर हीर गौर सोम शीत धारया । मिश्र गंध रत्न भंग । १ * * * Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * KAR+R ASANS- S ER * maraarur AnmoAAAAAAAAAAANI ANA वृहज्जैनवाणीसंग्रह पाप नाश कारया ॥ अनंतनाथ पाय सेव मोख्य सौख्य दाय है। अनंतकाल श्रमज्वाल पूजत नसाय है ॥१॥ ओं ही श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्व० ॥ कुंकुमादि चंदनादि गंध शीत कारया । संभवेन अंतकेन । * भूरि ताप हारया।। अनंतनाथ० ॥चन्दन।। स्वेत इंदु कुंद हार खंड ना अखित्तही। दुर्ति खंडकार पुंज धारिये पवित्त ही॥ अनंतनाथ० ॥ अक्षतान् ॥ * सरोपुनीत पुष्पसार पंथ वर्ण ल्यावही । गंध लुब्ध भंगवृंद शब्द धारि आवही ॥ अनंतनाथ० ॥ पुष्पं ॥ * मोदकादि घेवरादि मिष्ट स्वादसार थी। हेमथाल धारि । भव्य दुष्ट भूख टारही ॥ अनंतनाथ० ॥ नैवेद्यं ।। रत्न दीप ते न भान हेमपात्र धारिये । भवांधकार दुःखमार के मूल निवारिये ॥ अनंतनाथ० ॥ दीपं ॥ देवदारु कृष्ण सार चंदनादि ल्यावही । दशांग धूप धूम्रगंध । * गवृंद धावही ॥ अनंतनाथ० ॥ धूयं ॥ * श्रीफलादि खारिकादि हेमथाल में भरे । सुष्ट मिष्ट गंधसार चक्खि नासिका हरे॥ अनंतनाथ ॥ फलं ॥ छप्पय। . सलिल शीत अति स्वच्छ मिष्ट चंदन मलियागर । तंदुल। सोम समान पुष्प सुरतरुके ला वर ।। चरु उत्तम अति मिष्ट* पुष्ट रसना मनभावन । मणि दीपक तमहरन धूप कृष्ना गर पावन । लहि फल उत्तम कणथाल भरि, अरप'राम* R-52452- * Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwww urv... बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३११ * चंद' इम करै । श्रीअनंतनाथके चरन जुग, बहुविधि * अरचे शिव बरै॥ ओं ही श्री अनंतननाथजिनेंदाय अनयंपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति । ___ पंचकल्याणक। दोहा-पुष्पोत्तर” चय लियो, 'सूर्यादे' उर आय । कातिक पडिवा कृष्ण ही, जजहूं तुर बजाय ॥१॥ ओं ही कार्तिककृष्णप्रतिपदायाँ गर्भमङ्गलमंडिताय श्रोअनंत० अर्ध । जेठ असित द्वादशिविष, जनम सुराधिप जान। १ सनपन करि सुरगिर जजे, जम्हू जनमकल्यान ॥२॥ *ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां जन्ममङ्गलमंडिताय श्रीअनंत० अर्ध । 1 जगतराज्य तृणवत तज्यो, द्वादशि जेठ असेत । * लोकांतिक सुरपति जजे, मै जजहूं शिवहेत ॥३॥ ओ ही ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां तपोमङ्गलमंडिताय श्रीअनंत० अर्घ॥ १ चैत अमावसि अरि हने, घातिकर्म दुखदाय। कह्यो धर्म केवलि भये, जजू चरण सुखदाय ॥४॥ ओं ही चैत्रकृष्णामावस्यां ज्ञानमङ्गलमंडिताय श्रीअनन्त० अर्घ॥ । । चैत अमावसि शिव गये, हनि अघाति भगवान ।। * सुरनरखगपति मिलि जजे, जजडं मोक्षकल्यान ॥ ५॥ *ओं ह्रीं चत्रकृष्णामवास्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीअनंत ० अर्घ ॥ जयमाला। * दोहा-काल अनंताअनंत भव, जीव अनंतानंत। . जिन अनंत उतपति व्यय ध्रुव कही, नमूऽनंत भगवंत ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XRAKARE-SHAKAKK वृहज्जैनवाणीसग्रह NAMANAAMAmar NAAHARANA..Mann (चाल-त्रिभुवनगुरु स्वामीजीकी) जय अनंत जिनेस्वरजी, पुष्पोत्तरतै स्वरजी, सिंघसेन नर सुरके चय सुत भये जी ॥ 'सूर्योदे' माताजी जग पुण्य वि। ख्याताजी, तिनके जगत्राता गर्भविौं थये जी ।।२।। कातिक * अंधियारीजी, परिवा अविकारीजी, साकेत मझारि कल्याणक हरि कियोजी । षटमास अगारेजी, मणि स्वर्ण घनेरेजी, * वरखे नृपकेरे मंदिर धन जयोजी ॥३॥ द्वादशि अधियारीजी । जनमे हितकारीजी, प्रभु जेठमझारि सुरासुर आयकैंजी।। सुरगिरि लै आयेजी, भव मंगल गायेजी, अभिषेक रचाये । * पूजे ध्यायकैंजी ॥४॥ फिर पितुघर लायेजी, नचि तूर वजा येजी, लखि अंग नमाये मातपिता तवैजी । तन हेम महा * छविजी, पंचास धन रविजी, लखि तीस कहे कवि आयु भई । । सबैजी ॥५॥ नृपपदवी धारीजी, लखि पणदह सारीजी, सब । अनीति विचारि तपोवन• गयेजी, बदि जेठ दुवादसिजी, तप देखि स्वरा रिषिजी, पद पूजि नये नसि पाप सबै गये जी॥६॥ षष्टम करि पूरोजी, भोजन हित सरोजी, पुर धर्म * सनरो आवत देखिकैंजी। नव भक्तिथकी पयजी, विसाख तहां दयजी, मणिविष्टि अखय करि सुरगण पेखिकैंजी ॥७॥ धरि ध्यान सुकल तबजी, चउ घाति हनै जवजी, सुर आय मिले सब ज्ञान कल्याण ही जी। बदि चैत अमावसिजी, जखि भुक्ति तुहे वसिजी, समवादि रच्यौ तसु उपमा भी। नहींजी। समवादि जिते भविजी, सुनि धर्म तिरे साजी, *HARASHTRA Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KKAKE- KA T RAKAR wwwwwwwwwwwwwwwwwww. wwwwwwwww ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३०३ प्रभु आयुरही जब मास तणी तवै जी । संमेद पधारेजी, सब • जोग संघारेजी, समभाव विथारि वरी शिवतिय जबैजी ॥ । वसु गुण जुत भूषितजी, भव छारि बसे तितजी, सुख मगन भये जित मावस चैतकीजी । सुर सब मिलि आयेजी, शिव* मंगल गायेजी, बहु पुण्य उपाय चले तुम गुणत कीजी॥१०॥ गुणवृंद तुम्हारेजी, बुध कौन उचारेजी, गणदेव निहारे पै। वचना कहै जी । "चंदराम" करै थुतिजी, वसु अंगथकी । नुतिजी, गुण पूरन यो मति मर्म तुहे लहैजी । ११॥ प्रभु । अरज हमारीजी, सुनिज्यो सखकारीजी, भवमें दुखभारी निवारी हो धणीजी । तुम सरन सहाईजी, जगके सुखदाईजी शिवदे पितुमाई कहो कबलौं धणीजी ॥१२॥ का धत्ता-इति गुण गण सारं, अमल अपारं, जिय अनंतके हिय धरई । हनि जरमरणावलि, नासिभवावलि, सिवसुंदरि ततछिन वरई ॥ १३॥ *ओं ही श्रीअनंतनाथ जिनहाय महार्य निर्वपामोति स्वाहा । ११५-श्रीशांतिनाथ जिनपूजा। सर्वारथ सुविमान त्यागि गजपुरमें आये। विश्वसेन भूपाल तासुके बाल कहाये ।। पंचम चक्री भये दर्प द्वाद* शमें राजें। मैं सेऊं तुम चरन तिष्ठिये जो दुख भाजै ॥ १॥ * ओं ही श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र ! अन तिष्ठतिष्ठ। ठ । * RK- 515AKRA Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 वृहज्जैनवाणीसंग्रह AAAAAAAAM ओं ह्रीं श्राशांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् पंचम उदधि तन जल निर्मल, कंचन - कलश भरे हर-पाय । धार देत ही श्रीजिन सन्सुख, जन्मजरामृत दूर पलाय || शांतिनाथ पंचम चक्रेश्वर, द्वादश मदन तनौ पद पाय । जाके चरणकमलके पूजैं, रोग-शोक-दुख-दारिद जाय । भों ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेंद्राय जमन्जरारोगविनाशनाय, जल निर्वपा० ॥ मलयागिरिचंदन कदलीकंदन, कुकुम जलके संग घिसाय । भवआतप विनाशनकारन, चरं चरन सबैसुख पाय । शांतिनाथ० || गंध || 105Y उज्वल अच्छित पुंज मनोहर, शशिमरीच तिस देख लजाय । पुंजकिये तुम आगे श्रीजिन, अक्षयपदके हेत वनाय । शांतिनाथ || अक्षतं ॥ सुरपुनीत अथवा अवनीके, कुसुम मनोहर लिये मंगाय । भेंटधरत तुमचरननके ढिग, ततखित कामवाण नसिजाय || शांतिनाथ० || पुष्पं ॥ भांति भांतिके सद्य मनोहर, कीने मैं पकवान सम्हार । भरिथारी तुम सनमुख लायो, क्षुधावेदनी रोग निवार । शांतिनाथ० || नैवेद्यं ॥ घृतसनेह कर्पूर लायकर, दीपक ताके देत प्रजार ! जगमग जोति होति मंदिर में, मोह-अंधकों देत सुटार।शांतिनाथ० || दीपं ॥ देवदार कृष्णागरुचंदन, तगर कपूर सुगंध अपार । K --+++ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३०५ खेऊं अष्टकरम जारनको, धूप धनंजयमाहिं सुडार | शांति० ॥ धूपं नारंगी बादाम सु केला, एला दाडिम फल सहकारि । कंचन - थालमाहिं धर लायो, अरचत हूं पाऊं शिवनारि । शांतिनाथ० ॥ फलं ॥ जल फलादि वसु द्रव्य सम्हारे, अर्ध चढाऊं मंगल गाय | 'बखतावर ' के तुमही साहब, दीजै शिवपुरराज कराय । शांतिनाथ || अर्ध || पंचकल्याणक - भादों सप्तम स्यामा, सर्वारथ त्याग नागपुर आये । माता एरा नामा, मैं पूजूं अर्ध सुभ लाये ॥ १ ॥ ओं ह्रीं भाद्रपद कृष्णसप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्राय अघ जनमे तीरथनाथं, वर जेठ असित चतुर्दशी सोहै । हरिगण नावें माथं, मै पूजूं शांतिनाथ जुग जोहै ॥ २ ॥ ओं ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीशांतिनाथ अर्ध ॥ चौदसि जेठ अंधारी, काननमें जाय जोग प्रभु लीना । नौ-निधि रतन सु छारी, मैं बंदू आत्मसार जिन चीना ॥ ३ ॥ ओं ही ज्येष्ठ कृष्णचतुदश्यां निःक्रममहोत्सवमंडिताय श्रीशांति ० अ ।। पौस दसै उजियारा, अरि घात ज्ञानभानु जिन पाया । प्रातहार्य वसुधारा, मै सेऊँ सुरनर जासु यश गाया ॥ ४ ॥ ओं ह्रीं पौषशुक्लदशम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीशांतिनाथ अघं ॥ सम्मेद शैल भारी, हनिकर अघाती मोक्ष जिन पाई । जेठ चतुर्दशि कारी, मैं पूजूं सिद्ध थान सुखदाई ॥ ५ ॥ बों हीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्री शांतिनाथ० अघं ॥ 20 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mom Anm nannr RANnAAAAAAAANAANAANAAAAAAAAAAAAAPhorn वृहज्जैनवाणीसंग्रह जयमाला। छप्पय-भये आप जिनदेव जगतमें सुख विस्तारे । तारे भव्य अनेक तिन्होंके संकट टारे ॥ टारे आठों कर्म मोक्षसुख तिनको भारी। भारी विरद निहार लही भै शरण तिहारी ॥ तिहारे चरणन नमू, दुख दारिद संताप हर। हर सकल कर्म छिन एकमें,शांति जिनेश्वर शांतिक दोहा-सारग लक्षण चरनमें, उन्नत धनु चालीस। ___ हाटकवर्ण शरीरद्युति, नौं शांति जुगईश ॥२॥ * छंद भुजंगप्रयात-प्रभू आपने सर्वके फंद तोड़े। गिनाऊ, कहूं मै तिन्हों नाम थोड़े ।। पडौ अंबुधे बीच श्रीपालराई ।। । जपो नाम तेरो भये थे सहाई ॥३॥ धरौ रायने शेठको सलिकापै । जपी आपके नामकी सार जा ॥ भये थे सहाई । । तबै देव आए । करी फूलवर्षा सुवृष्टिबढाये॥४॥ जबै लाखके धाम वह्नि प्रजारी। भयो पांडकापै महाकष्ट भारी॥ , जबै नाम तेरे तनी टेर कीनी । करी थी विदुरने वहीं राह । दीनी ॥५|| हरी द्रोपदी धातुके खंडमाहीं । तुम्हीं हां सहायी भला और नाहीं ॥ लियो नाम तेरो भलौ शील पालौ । वचाई तहातै सबै दुःख टालौ ॥६॥ जबै जानकी रामने जो निकारी । धरै गर्भको भार उद्यान डारी ॥ रटौ । नाम तेरो सबै सुक्खदायी । करी दूर पीडा सु छिन ना लगाई ॥७॥ विसन सात सेवै करै तस्कराई। सु अंजन-जु । * * *** * Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KKRKAR-5-22- 4 ~ ~ ~ ~ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३०७ तारो घड़ी ना लगाई। सहे अंजना चंदना दुःख जेते । गये भाग सारे जरा नाम लेते ॥ ८॥ घडे बीच में सासुने नाग डारौ । भलौ नाम तेरो जु सोमा सम्हारौ ॥ गई। काडने को भई फूलमाला। भई है विख्यातं सबै दुःख *टाला ॥९॥ इन्हें आदि दैकै कहालौं वखानौ ।।सुनौ वृद्धभारी तिहूलोक जानौ ॥ अजी नाथ ! मेरी जरा ओर हेरो। वडी नाद तेरी रती बोझ मेरो ॥१०॥ गहो हाथ स्वामी! करो वेग पारा । कहूं क्या अबै आपनी मैं पुकारा ।। सबै ज्ञान के बीच भाषी तुम्हारे। करो देर नाही अहो संतप्यारे । पत्ता-श्रीशांति तुम्हारी, कीरति भारी, सुरनरनारी गुणमाला । 'बखतावर' ध्यावै, रतन सुगावें, मम दुखदारिद * सब टाला ॥१२॥ *ओं ही श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णाधं ॥ । अजी एरानंद, छबि लखत हैं आप 'अरनं । धेरै लज्जा भारी, करत थुति सो लाग चरनं ॥ करै सेवा सोई, लहत सुख * है सार छिनमें। घने दीना तारे, हम चहत हैं बास तिनमें ॥ (इत्याशीर्वादः) ११६-श्रीपार्श्वनाथ जिनपूजा। गीता-वर सुरग आनतको विहाय सुमात वोमा सुत भये। विस्वसेनके पारस जिनेसुर चरन तिनके सुर नये ॥ नव हाथ उन्नत तन विराजे उरग लच्छन अतिलसै । थापूं तुम्हे जिन आय तिष्ठहु करम मेरे सब-नसैं॥ । ओं ह्रीं श्रीपाश्वनाथजिनेन्द्र ! अन्न अवतर अवतर संवौषट।। * * *** Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। *ओं ही श्रीपार्श्वनाथजिनेंदू ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। *ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेद् ! अत्र मम सन्निहित्तो भव भव वपट्। . * छन्द नाराच-क्षीर सोमके समान अंबुसार लाइये। । हेमपात्र धारके सु आपको चढ़ाइये ॥ पार्श्वनाथदेव सेव । आपकी करूँ सदा। दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा। ओं ही श्रीपार्श्वनायजिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व० ॥ * चन्दनादि केशरादि स्वच्छ गंध लीजिये । * आप चर्न चर्च मोहतापको हनीजिये ।पार्श्वनाथ ॥चंदन।। फेन चंदके समान अक्षतें मँगाइकै । * पादके समीप सार पूजकौं रचाइकै ॥पार्श्वनाथ०॥अक्षतान्।। केवडा गुलाब और केतुकी चुनाइये। धार चर्नके समीप कामको नसाइये । पार्श्वनाथ० ॥पुष्प।। घेवरादि वावरादि मिष्ट सर्पिमें सने । आप चर्नचर्चते क्षुधादि रोगको हने । पार्श्वनाथ रानैवेद्य। * लाय रत्न दीपको सनेह पूरिकै भरूँ । वातिका कपूरवारि मोहध्वांतको हरूँ । पार्श्वनाथ० ॥दीप।। धूप गंध लेयके सु अग्नि संग जारिये । तास धूपके सुसंग अष्टकर्म वारिये । पार्श्वनाथ० ॥धूपं ॥ । खारिकादि चिर्भटादि रत्नथालमें धरूँ । * हर्षधारके जजू सुमोक्ष सुक्खकू वरूं । पार्श्वनाथ० ॥ फलं॥ नीर गंध अक्षतं सुपुष्प चारु लीजिये। दीप धूप श्रीफलादि अर्घतें जजीजिये ।पार्श्वनाथ ॥ * - * Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KAREKKAKKAK* ~ ~ ~ wwwww बृहज्जैनवाणीसंग्रह · पंचकल्याणक । छंद चाल। शुभ आनत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये। । वैसाख तनी दुति कारी, हम पूजै विघ्न निवारी ॥१॥ ॐ ओंही वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथ० अर्घ ॥ । * जनमे त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता ॥ । श्यामातन अदभुत राजै, रविकोटिक तेजसु लाजै॥ ।ओं ही पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथ० अर्ध ॥ * कलि पौष इकादशि भाई, तब बारहभावन भाई।। 1. अपने कर लोंच सुकीना, हम पूजै चर्न जजीना ॥३॥ ओं ही पौषकृष्णकादश्यां तपःकल्याणमंडिताय श्रीपार्श्वनाथ० अर्धे ॥ , कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवलज्ञान उपाई ॥ । तब वृष-उपदेश जु कीना, भवि जीवनकौं सुख दीना॥ ओं ही चैत्रकृष्णचतुर्थीदिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथ० अर्धं ॥ सित श्रावन सातें आई, शिवनारि वरी जिनराई। १ सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजै मोक्ष कल्याना ॥ ॐ ओं ही श्रावणशुक्लसप्तमीदिने मोक्षमंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथ० अर्घा जयमाला। कवित्त-पारसनाथ जिनेन्द्रतने बच पौन भखी जरते सुन पाये।। कियो सरधान लियो पद आन भये पद्मावती शेष कहाये ॥ नामप्रताप टरै संताप सुभन्यनको शिव शर्म दिखाये। हो विश्वसेनके नंद भले गुन गावतु हैं तुमरे हरखाये ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANA AMANARAN * 95T वृहज्जैनवाणीसंग्रह - ३१३ । तमखंडित मंडितनेह, दीपक जोवत हों। तुम पदतर हे सुखगेह, भ्रमतम खोबत हो ॥श्रीवीर०ादीप हरिचंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा। तुम पदतर खेचत भूरि, आठों कर्म जरा ॥श्रीवीर०॥धूप। * रितुफल कलवर्जित लाय, कंचन-थार भरा। * शिवफलहित हे जिनराय, तुमडिंग भेट घरा ॥श्रीवीर फलं जलफल वसु सजि हिमथार, तनमन मोद धरों। गुण गाऊं भवदधितार, पूजत पाप हरों ॥ श्रीवीर० ॥ अर्घ । पंचकल्याणक । राग टप्पाचालमें। . * मोहि राखो हो, सरना, श्रीवर्धमान जिनरायजी, मोहि० ॥ गरभ साइसित छडलियो तिथि, त्रिशला उर अब हरना। * सुर सुरपति तित सेव करयो नित, मै पूजों भवतरना ।मोहि० *ओं ही आपाढशुम्लपष्टयां गर्ममंगलमण्डिताय श्रीमहावीर० अर्ध ॥ जनम चैतसित तेरसके दिन, कुंडलपुर कनवरना। । सुरगिर सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भवहरना ॥मोहि०॥ *ओं ही चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीमहावीर० अयं ॥ मगसिर असित मनोहर दसमी, ता दिन तप आचरना। १ नृप कुमारघर पारन कीनो, मै पूजों तुम चरना ॥ मोहि० ॥ ? 1ओं ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमण्डिताय श्रीमहावीर० अर्घ ॥ * शुकलदशैं वैसाखदिवस अरि, घात चतुक छय करना । के बललहि भवि भवसर तारे, जजौं चरन सुख भरना ||मोहि *ओं ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणप्राप्ताय श्रीमहावीर० अर्घ ॥ * -2-RAKSHARMARA* Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुरतें वरना । गनफनिवृंद जजे तित बहुविधि, मैं पूजों भयहरना ॥मोहि०॥ *ओं ही कार्तिककृष्णामावस्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीमहावीर० अर्घः ॥ जयमाला । छन्द हरिगीता २८ मात्रा। * गनधर असनिधर चक्रधर, हरधर गदाधर बरवदा। * अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ है । दुखहरन आनंदभरन तारन, तरन चरण रसाल हैं। सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत, भालकी जयमाल हैं ॥१॥ पत्ता-जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगानंदन चंदबर।। * भवतापनिकंदन, तनकनमंदन, रहित सपंदन नयन धरै ॥ छन्द तोटक-जय केवलभानुकलासदनं । भविकोकविकाशनकंदवनं ।। जगजीत महारिपु मोहहरं। रजज्ञानदृगावर चूरकरं ॥१॥ गर्भादिकमंगल मंडित हो । दुख दारिदको । नित खंडित हो ॥ जगमाहिं तुमी सत पंडित हो । तुम ही भवभावविहंडित हो ॥२॥हरिवंशसरोजनकौं रवि हो । वल*वंत महंत तुम्ही कवि हो । लहि केवल धर्मप्रकाश कियो। अवलौं सोइ मारग राजतियौ ॥३॥ पुनि आप तने गुनमाहि सही। सुर मग्न रहैं जितने सवही ॥ तिनकी वनिता गुन । गावत हैं । लय माननिसों मनभावत हैं ॥४॥ पुनि नाचत । रंग उमंग भरी। तुअ भक्तिविर्षे पग येम धरी । झननं झननं * झननं झननं । सुरलेत तहां तननं तननं ॥५॥ धननं घननं । । घनघंट बजे | दृमदं दृमदं मिरदंग सजे ॥ गगनांगन गर्भ sekasi Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ..my वृहज्जैनवाणीसंग्रह . ३१५ ॥ जगता सुगता। ततता ततता अतता वितता ॥६॥ धृगतां । घृगतां गत वाजत है। सुरताल रसाल जु छाजत हैं। सननं सननं सननं नभमें । इकरूप अनेक जुधारि भमें ॥७॥ कइ नारि सु बीन बजावति हैं । तुमरो जस उज्जल गावति । हैं ॥ करतालविर्षे करताल धरें। सुरताल विशाल जु नाद करें॥८॥ इन आदि अनेक उछाह भरी । सुरभक्ति करै प्रभुजी तुमरी ॥ तुमही जगजीवनिके पितु हो। तुमही विनकारनतै हितु हो।.९॥ तुमही सब विघ्नविनाशन हो। तुमही । निज आनंद भासन हो ॥ तुमही चितचिंततदायक हो । जगमाहिं तुम्हीं सब लायक हो ॥१०॥ तुमरे पनमंगलमाहिं। सही। जिय उत्तम पुनलियो सब ही। हमको तुमरी १. सरनागत है । तुमरे गुनमें मन पागत है ॥११॥ प्रभु मोहिय और सदा बसिये। तबलौं वसुकर्म नहीं बसिये ॥ तबलों तुम ध्यान हिये वरतौ । तबलों श्रुतचिंतन चित्त । रतौ ॥ १२ ॥ तबलों ब्रत चारित चाहतु हों। तबलों शुभ के भाव सुहागतु हो ॥ तबलौं सतसंगति नित्त रहौ । तबलों * मम संजम चित्त गहौ ॥ १३ ॥ जबलों नहिं नाश करों । * अरिको । शिवनारि व समता धरिको॥ यह यो तबलों । हमको जिनजी । हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ॥ ४॥ * पत्ता-श्रीवीरजिनेशा,नमितसुरेशा,नागनरेशा भगति भरा। * 'वृंदावन ध्यावै, विधननशावै, वांछित पावै शर्म वरा ॥१५ ॥ १ ओं ही श्रीवर्धमानजिनेन्द्राय महाधू निर्वपामीति स्वाहा - -- - -- --- - -* Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~ ~ - ~ १३१६ वृहज्जैनवाणीसग्रह । के दोहा-श्रीसनमतिके जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत।। ॐ 'वृंदावन' सो चतुर नर, लहै मुक्ति-नवनीत ॥इत्याशीवादः ११८-अथ सप्तऋषिपूजा * छप्पय-प्रथम नाम श्रीमन्व दुतिय स्वरमन्त्र ऋषीश्वर । * तीसर मुनि श्रीनिचय सर्वसुन्दर चौथो वर ।। पंचम श्रीजय वान विनयलालस षष्ठम भनि। सप्तम जयमित्राख्य सर्व * चारित्रधाम गनि ।। ये सातौ चारणऋद्धिधर, करूं तासु पद थापना। मैं पूजूं मनवचकायकरि,जो सुख चाहूं आपना। *ओं ही चारणदिधस्श्रीसप्तर्षीश्वरा । अत्रावतरत अवतरत संवौषट् । * अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ. ठः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्।। गीता छंद-शुभतीर्थउद्भव जल अनूपम, मिष्ट शीतल लायके ॥ भव तृषाकंद निकंद कारण, शुद्ध घट भरवाय के ॥ मन्वादि चारण ऋद्धिधारक, मुनिनकी पूजा करूँ।। *ता करें पातिक हरें सारे, सकल आनंद विस्तसँ॥ * ओं ही श्रीमन्त्रस्वरमन्वनिचयसर्वसुन्दरजयवानविनथलालसजयमित्राषिभ्यो जलं॥ श्रीखण्ड कदलीनन्द केशर, मन्द मन्द घिसायके । तसुगंध प्रसरति दिगदिगन्तर, भरकटोरी लायके ॥मन्वा०ाचंदन।। । अति धवल अक्षत खण्ड वर्जित, मिष्ट राजन भोगके । कल धौत थारा भरत सुन्दर, चुनित शुभउपायोगकाम०॥अक्षता बहु वर्ण सुवरण सुमन आछे, अमल कमल गुलावके । केतकी चम्पा चार मरुआ, चुने निजकर चावके ।मन्वा० ॥पुष्प । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re* *REKKRKE बृहज्जैनवाणीसंग्रह ...... Vvvvvvvvvvvvvvv wwwwwwwwwwwwwwwwww * पकवान नाना भांति चातुर, रचित शुद्ध नये नये । । सदमिष्ट लाडू आदि भर बहु,पुरटके थारालये म नैवेद्य कलधौत दीपक जडित नाना, भरित गोघृतसारसों। अति ज्वलित जगमगजोति जाकी, तिमिरनाशनहारसों ।मादीपं॥ दिक्चक्र गंधित होत जाकर, धूप दशअंगी कही । सो लाय मनवचकाय शुद्ध, लगायकर खेऊ सही ॥मन्वा०॥ धूपं ॥ * वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायके । द्रावडी । दाडिम चारु पुंगी, थाल भरभर भायके ॥मन्वा० ॥फलं। जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु वर, दीप धूप सु लावना। फल * ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्थ कीजे पावना ॥म०॥अर्थ।। अथ जयमाला। छंद त्रिभंगी-बंदू ऋषि राजा, धर्म जहाजा, निज पर काजा करत भले । करुणाके धारी, गगन विहारी, दुख अपहारी, भरम दले ॥ * काटत जमफंदा, भविजनवृन्दा, करत अनंदा चरणनमें । जो पूजै ध्याचे, मंगल गा३, फेर-न आवै भववनमें ॥१॥ छंद पद्धरी-जय श्रीमनु मुनिराजा महंत । स थावरकी। रक्षा करंत ॥ जय मिथ्यातम नाशक पतंग । करुणारस पूरित अंग अंग ॥१॥ जय श्रीस्वरमनु अकलंकरूप। पद में सेव करत नित अमर भूप ॥ जय पंच अक्ष जीते महान ! तप * तपत देह कंचन समान ॥२॥ जय निचय सप्त तत्वार्थभास।। तप रमातनौ तनमें प्रकाश ॥ जय विषयरोध संबोधमान ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KKKKRK-95 - * variowwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwva ३१८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * परणतिके नाशन अचल ध्यान ॥३॥ जय जयहि सर्वसुन्दर । * दयाल । लखि इन्दजालवत जगतजाल ॥ जय तृष्णाहारी रमण राम। निज परिणतिमें पायो विराम ॥ ४ ॥ जय 1. आनंदघन कल्याणरूप । कल्याण करत सबको अनूप । जय * मदनाशन जयवान देव । निरमद विरचित्त सब करत सेव * ॥५॥ जय जेय विनयलालस अमान। सब शत्रु मित्र जानत में समान ॥ जय कृशितकाय तपके प्रभाव । छवि छटा उडति + आनंददाय ॥६॥ जय मित्र सकल जगके सुमित्र । अनगि नत अधम कीने पवित्र ।। जय चंद्रवदन राजीव नैन ! कबहूं विकथा बोलत न बैन ॥ ७॥ जय सातौ मुनिवर एकसंग।। नित गगन-गमन करते अभंग ।। जय आये मथुरापुर मंझार। * तहँ मरी रोगको अति प्रचार ॥ ८॥ जय जय तिन चरणनिके प्रसाद । सब मरी देवकृत भई वाद ।। जय लोक करे निर्भय समस्त । हम नमत सदा नित जोरि हस्त ॥९॥ जय * ग्रीषमऋतु पर्वतमंझार । नित करत अतापन योग सार । जय तृषा परीषह करत जेर। कहुं रंच चलत नहिं मन-सुमेर * ॥१०॥ जय मूल अठाइस गुणन धार। तप उग्र तपत आ नंदकार ॥ जय वर्षाऋतुमें वृक्षतीर । तहं अति शीतल झेलत समीर ॥११॥ जय शीतकाल चौपट मंझार । कै नदी सरोवर तट विचार ॥ जय निवसत ध्यानारूढ़ होय । रंचक ! नहिं मटकत रोम कोय ॥५२॥ जय मृतकासन वज्रासनीय।। । गोदूहन इत्यादिक गनीय ॥ जय आसन नानाभांति धार।। * * Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * H * AR-540522-2 वृहज्जनवाणीसंग्रह wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. उपसर्ग:सहित ममता निवार॥१३॥ जय जपत तिहारो नाम * कोय। लख पुत्रपौत्र कुलवृद्धि होय ॥ जय भरे लक्ष अति शय भंडार।दारिद्रतनो दुख होय छार ।। जय चोर अग्नि डांकिन पिशाच । अरु ईति भीति सब नसत सांच ॥ जय तुम सुमरत सुख लहत लोक । सुर असुर नवत पद देत घोक ।। रोला-ये सातों मुनिराज महातप लक्ष्मीधारी। परम पूज्य पद धरै सकल जगके हितकारी॥ जो मनवचतन शुद्ध होय सेवै औ ध्यावै । सो जन मनरंगलाल अष्ट ऋद्धिनकौं पावै ॥ * दोहा-नमन करत चरनन परत, अहो गरीबनिवाज। पंच परावर्तननित, निरवारो ऋषिराज ॥ *ओं ही श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो पुर्णायं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११९-चतुर्विशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रपूजा। । सोरठा-परम पूज्य चौबीस, जिहँ जिहँ थानक शिव गये। सिद्धभूमि निशदीस, मनवचतन पूजा करौं ॥१॥ __ओं ह्रीं चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र अवतरत अवतरत । * संवौषट् । ओं ही चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र तिष्ठत अतिष्ठन । ठः ठः । ओं ही चतुर्विशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र मम । सन्निहितो भवत भवत वषट् । गीता छंद-शुचि क्षीरदधिसम नीर निरमल, कनकझारीमें । भरौं । संसार पार उतार स्वामी, जोर कर विनती करौं । । सम्मेदगढ़ गिरनार चंपा, पावापुरि कैलाशकों। पूजौं सदा। चौबीसजिन, निर्वाणभूमि निवासकों ॥१॥ *- * -*- *-*- *-* - * Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - R RAANHenr- NA - nnnnArrrrena * -- * ३२० वृहज्जैनवाणीसग्रह *ओं ह्रीं चतुर्विशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेम्यो जलं निवपामीति स्वाहा ॥ । केसर कपूर सुगंध चंदन, सलिल शीतल विस्त । भवपाप । को संताप मेटो, जोरकर विनती करौं । सम्मे० ॥चंदन।। मोती समान अखंड तंदुल, अमल आनंदधरि तरौं । औगुन । हरौ गुन करौ हमको, जोरकर विनती करौं ।सम्मे०||अक्षत। * शुभफूलरास सुवासरासित, खेद सव मनको हरौं । दुखधाम है काम विनाश मेरो, जोरकर विनती करौं । सम्मे० (पुष्पा नेवज अनेक प्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरौं । यह । भूख दूषन टार प्रभुजी, जोरकर विनती करौं ।सम्मेलनैवेद्या।। दीपक प्रकाश उजास उज्जल, तिमिरसेती नहिं डरौं । संशय- विमोहविभर्म-तमहर, जोर कर विनती करौं ।सम्मे०गादीप * शुभ धूप परम अनूप पावन, भाव पावन आचरौं । सव करमपुंज जलाय दीजे, जोर कर विनती करौं । सम्मे० ॥धूप। बहु फल मंगाय चढाय उत्तम, चारगतिसों निरवरौं । निहचै मुकतिफल देहु मोकों, जोरकर विनती करौ। सम्मेगाफलं। * जल गंध अक्षत फूल चरु फल, दीप धूपायन धरौं । धानत' * करो निरभय जगतते, ज़ोरकर विनती करौ । सम्मे०॥अर्थ।। 'जयमाला। सोरठा-श्रीचौवीस जिनेश, गिरिकैलासादिक नमो। तीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवानः ॥९॥ । चौपाई-लमों रिषभ कैलास पहारं । नेमिनाथ गिरनार । निहारं ॥ वासुपूज्य चंपापुर वंदौं। सन्मति पावापुर अभि Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAMANANAMANAAN AAAAAAAAAAAAAMAR * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३२१ । * नदौं ॥२॥ बंदौं अजित अजितपददाता। वंदौं संभव भवदुख घाता ॥ बदौं अभिनंदन गणनायक । बंदौं सुमति सुमतिके । दायक॥बंदौं पदम मुकतिपदमाकर । बंदी सुपार्स आशपासाहर॥वंदौं चंद्रमभ प्रभुचंदा। बंदौं सुविधि सुविधिनिधिकं- १ दा॥ बंदो शीतल अघतपशीतल । बंदो श्रियांस श्रियांस मही* तल ॥ बंदौं विमल विमल उपयोगी। बंदौं अनंत अनंतसुभोगीna बदौं धर्म धर्मविसतारा । वंदौं शांति शांतिमनधारा ॥ बंदौं । * कुंथु कुंथुरखवालं । बौं अर अरिहरगुणमालं ॥६॥ बंदौं मल्लिक काममलचूरन । बंदौं मुनिसुव्रत व्रतपूरन ॥ बंदौ नमि जिन * नमितसुरासुर ।बंदौं पास पासभ्रमजगहर ॥७॥ बीसों सिद्ध भूमि जा ऊपर । शिखरसमेदमहागिरि भूपर ।। एक बार। । वंदै जो कोई । ताहि नरकपशुगति नहिं होई ।।८॥ नरपति नृपःसुरशक्र कहावै । तिहुँजग भोग भोगि शिव पावै ॥ । विधनविनाशक मंगलकारी । गुणविलास बंदौं नरनारी ॥ पत्ता-जो तीरथ जावै, पाप मिटावै, ध्यावै गावै भगति करै।। ताको जस कहिये, संपति लहिये, गिरिक गुणको बुध उचरै।। ओं ही चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्योऽय निर्वपामीति स्वाहा ।।। (अर्धके बाद विसर्जन करना चाहिये) १२०-अथ संस्कृत स्वयंभूस्तोत्रम् । येन स्वयंबोधमयेन लोका आश्वासिता केचन चित्तकायें। प्रबोधिता केचन मोक्षमार्गे तमादिनाथं प्रणमामि नित्यम् ॥ * इन्द्रादिभिः क्षीरसमुद्रतोयैः संस्नापितो मेरुगिरौ जिनेन्द्रः।। ----- -- Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह यः कामजेता जनसौख्यकारी तं शुद्धभावादजितं नमामि || sarasiarat dr निहत्य कर्मप्रकृतीः समस्ताः । मुक्तिस्वरूप पदवीं प्रपेदे तं संभवं नौमि महानुरागात् ||३|| स्वप्ने यदीया जननी क्षपायां गजादिवह्नयंतमिदं ददर्श । यत्तात इत्याह गुरुः परोऽयं नौमि प्रमोदादभिनंदनं तम् ।। कुवादिवादं जयता महांतं नयप्रमाणैर्वचनैर्जगत्सु । जैनं मतं विस्तरितं च येन तं देवदेवं सुमतिं नमामि ||५|| यस्यावतारे सति पितृधिष्णे ववर्ष रत्नानि हरेर्निदेशात् । धनाधिपः षण्णवमासपूर्व पद्मप्रभं तं प्रणमामि साधुं ॥ ६ ॥ नरेन्द्रसर्पेश्वरनाकनाथैर्वाणी भवंती जगृहे स्वचित्ते । यस्यात्मबोधः प्रथितः सभायामहं सुपार्श्व ननु तं नमामि ॥ सत्प्रातिहार्यातिशयप्रपन्नो गुणप्रवीणो हतदोषसंगः। यो लोकमोहांधतमः प्रदीपश्चन्द्रप्रभं तं प्रणमामि भावात् ||८|| गुप्तित्रयं पंच महाव्रतानि पंचोपदिष्टा समितिश्च येन । माण यो द्वादशधा तपांसि तं पुष्पदंतं प्रणमामि देवं ॥९॥ ब्रह्मत्रतांतो जिननायकेनोत्तम क्षमादिर्दशधापि धर्मः । येन प्रयुक्तो व्रतबंधबुद्ध्या तं शीतलं तीर्थकरं नमामि ॥१०॥ गणेजनानंदकरे घरांते विध्वस्तको प्रशमैकचित्ते । यो द्वादशांगं श्रुतमादिदेश श्रेयांसमानौमि जिनं तमीशं ॥ मुक्तयंगनाया रचिता विशाला रत्नत्रयीशेखरता च येन । यत्कंठमासाद्य बभूव श्रेष्ठा तं वासुपूज्यं प्रणमामि वेगात् ॥ ज्ञानी विवेकी परमस्वरूपी ध्यानी व्रती प्राणिहितोपदेशी । wwwwww Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह . 43333 s wwwwwwwwwwwwwww 1 ३२३ wwwwwwww मिथ्यात्वघाती शिवसौख्यभोजी बभूव यस्तं विमलं नमामि ॥ आभ्यंतरं बाह्यमनेकधा यः परिग्रहं सर्वमपाचकार । यो मार्गमुद्दिश्य हितं जनानां वन्दे जिनं तं प्रणमाम्यनंतं ॥ सार्द्ध पदार्था नव सप्ततच्चैः पंचास्तिकायाश्च न कालकायाः । षड्द्रव्यनिर्णीतिरलोकयुक्तिर्येनोदिता तं प्रणमामि धर्मम् ॥ यश्चक्रवतीं भुवि पंचमोऽभूच्छ्रीनंदनो द्वादशको गुणानां । निधिप्रभुः षोडशको जिनेन्द्रस्तं शांतिनाथं प्रणमामि मेदात् प्रशंसितो यो न विभर्ति हर्ष विराधितो यो न करोति रोषं । शीलव्रताद् ब्रह्मपदं गतो यस्तं कुंथुनाथं प्रणमामि हर्षात् ।। यः संस्तुतो यः प्रणतः सभायां यः सेवितो ऽन्तर्गुणपूरणाय । पदच्युतैः केवलिभिर्जिनस्य देवाधिदेवं प्रणमाम्यरं तम् || रत्नत्रयं पूर्वभवांतरे यो व्रतं पवित्रं कृतवानशेषं । कायेन वाचा मनसा विशुद्धया, तं मल्लिनाथं प्रणमामि भक्त्या ॥ ब्रवन्नमः सिद्धिपदाय वाक्य - मित्यग्रहीद्यः स्वयमेव लोचं । लौकांतिकेभ्यः स्तवनं निशम्यं, बंदे जिनेशं मुनिसुव्रतं तं ॥ विद्यावतं तीर्थकराय तस्मा, याहारदानं ददतो विशेषात् ॥ गृहे नृपस्थाजनि रत्नवृष्टिः, स्तौमि प्रणामान्नयतो नर्मि तम् ॥ राजीमतीं यः प्रविहाय मोक्षे, स्थितिं चकरापुनरागमाय । } सर्वेषु जीवेषु दयां दधान, स्तं नेमिनाथं प्रणमामि भक्तया ॥ सर्पाधिराजः कमठारितोयै, र्ध्यानस्थितस्यैव फणा वितानैः यस्योपसर्ग निरवर्तयत्तं नमामि पार्श्व महतादरेण || भवार्णवे जंतुसमूहमेन, माकर्षयामास हि धर्मपोतात् । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-* - RSS R K-* ३२८ wwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह ____ अथ अइसयखेत्तकंडं-अतिशयक्षेत्रकांड पासं तह अहिणंदण णायद्दहि मंगलाउरे वंदे । अस्सारम् । पट्टणि मुणिसुव्वओ तहेव वंदामि ॥ १ ॥ बाहूबलि तह वंदमि पोयणपुरहत्थिणापुरे वंदे। सांति कुंथव अरिहो वाणारसिए सुपासपासं च ।। महुराए अहिछित्ते वीरं पास तहेव । दामि । जैवुमुणिदो वंदे णिव्बुइपत्तोचि जंबुवणगहणे पंचकल्लाणठाणइं जाणवि संजादमज्झलोयम्मि । मणवयण कायसुद्धी सच सिरसा णमस्सामि ॥ ४ ॥ अग्गलदेवं । १. वंदमि वरणयरे णिवडकुंडली वंदे । पासं सिवपुरि वंदमि । होलागिरिसंखदेवम्मि ॥५॥ गोमटदेवं वंदमि पंचसयं । धणुहदेहउच्चंत । देवा कुणंति बुही केसरिकुसुमाण तस्स। । उबरिम्भि ॥६॥णियाणठाण जाणिनि अइसयठाणणि । * अइसए सहिया । संजादभिचलोए सव्वे सिरसा णमस्सामि ॥७॥जो जण पढइ तियालं णिव्वुइकंडपि भावसुद्धीए। भुंजदि परसुरसुक्ख पच्छा सो लहइणिव्वाणं ॥ १२३-अथ निर्वाणकांड भाषा ___ दोहा-चीतराग बंदौं सदा, भावसहित सिरनाय । कहूँ कांड निर्वाणकी भाषा सुगम बनाय ॥१॥ चौ०-अष्टापद आदीश्वरस्वामि। वासुपूज्य चंपापुरि नामि। । नेमिनाथस्वामी गिरनार । वैदौं भावभगतिउरधार ॥ २॥ चरम तीर्थकरचरम शरीर । पावापुरि स्वामी महावीर ॥ शिखरसमेद जिनेसुर बीस। भावसहित बंदौं निशदीस ॥३॥ - - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जेनवाणीसंग्रह wwwww、 www wwwww ३२६ wwwwwwwwwww wwwwwwwww वरदतराय रु इंद मुनिंद | सायरदत्त आदिगुणवृंद || नगरतारवर मुनि उठकोडि | बंदौ भावसहित कर जोडि ॥ ४ ॥ श्रीगिरनार शिखर विख्यात | कोडि बहत्तर अरु सौ सात || संबु प्रदुम्नकुमर द्वै माय । अनिरुध आदि नमूं ततु पाय ॥ ५ ॥ रामचंद्र के सुत द्वै वीर | लाडनरिंद आदि गुणधीर || पांचकोडि मुनि मुक्ति मझार | पावागिरि बंदौ निरधार ॥६॥ पांडव तीन द्रविडराजान | आठकोडि मुनि मुकति पयान || श्रीशत्रुंजय गिरिके सीस | भावसहित बंदौ निशदीस ||७|| जे बलभद्र मुकतिमै गये । आठको डिमुनि और भये || श्री गजपंथ शिखर सुविशाल । तिनके चरण नमूं तिहुंकाल || ८ || राम हणू सुग्रीव सुडील | गवगवाख्य नील महानील || कोडि निन्याणव मुक्तिपयान | तुंगीगिरि बंदौं धरि ध्यान ॥ ९ ॥ नंग अनंग कुमार सुजान | पांचकोडि अरु अर्ध प्रमान ॥ मुक्ति गये सोनागिरिशीश । ते बंदौ त्रिभुवनपति ईस || १० || रावणके सुत आदिकुमार । मुक्ति गये रेवातट सार || कोडि पंच अरु लाख पचास । ते बंदौ धरि परम हुलास ॥। ११ रेवानदी सिद्धवरकूट | पश्चिम दिशा देह जहाँ छूट || द्वै चक्री दश कामकुमार | ऊठकोडि बंदों भव पार || १२ || बड़वानी वडनयर सुचंग । दक्षिण दिश गिरिचूल उतंग || इंद्रजीत अरु कुंभ जु कर्ण | ते बंदौ भवसायवर्ण ॥ सुवरण भद्र आदि सुनि । पावागिरिवर शिखरमझार || चलना नदीतीरके पास । 个 से दूर से को Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAANA * R -5-22-28 ३३. बृहज्जैनवाणीसंग्रह मुक्ति गये चंदौ नित तास ॥ १४॥ फलहोडी वडगाम * अनूप । पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप ॥ गुरुदत्तादि मुनी- . सुर जहां । मुक्ति गये बंदौं नित तहां ॥ १५ ॥ बाल महा बाल मुनि दोय। नागकुमार मिले त्रय होय ॥ श्रीअष्टा१. पद मुक्तिमझार । ते वंदौं नित सुरत सँभार ॥१६॥ अचला पुरकी दिश ईसान । तहां मेगिरि नाम प्रधान ॥ साढे तीन कोडि मुनिराय । तिनके चरण नमूं चितलाय ॥१७॥ * बसस्थल वनके ढिग होय । पश्चिमदिशा कुंथुगिरि सोय ।। कुलभूषण दिशिभूषण नाम । तिनके चरण करूं प्रणाम॥१८॥ । जसरथराजाके सुत कहे ।देश कलिंग पांचसौ लहे ॥ कोटि। शिला मुनि कोटि प्रमान । वंदन करूं जोर जुगपान ॥१९॥ * समवसरण श्रीपार्वजिनंद । रेसिंदीगिरि नयनानंद ॥ * वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते बंदौं नित धरम जिहाज ॥२०॥ तीनलोकके तीरथ जहां। नित प्रति वंदन कीजे तहां ॥ मनवचकायसहित सिर नाय । वंदन करहिं भविक गुणगाय । ॥ २१ ॥ संवत सतरहसौ इकताल। अश्विन सुदि दशमी * सुविशाल । 'भैया' वंदन करहिं त्रिकाल | जय निर्वाणकांड गुणमाल ॥ २ ॥ इति समाप्तं ॥ १२४-श्रीसम्मेदाचलपूजा। दोहा-सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उतकृष्ट सुथान । शिखरसमेद सदा नमों, होय पापकी हान ॥१॥ AK KK SRKERS * Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAR-KATHAGR A ~ ~ auruvvvvvvvvvv -~~~~ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ___ अगणित मुनि जहः गये, लोकशिखरके तीर।। तिनके पदपंकज नमू, नाशै भवकी पीर ।।२।। * अडिल्ल है,उज्वल वह क्षेत्र सुअति निरमल सही। परम, पुनीत सुठौर महा गुणकी मही। सकल सिद्धिदातार महा। । रमणीक है । बदौं निज सुखहेत अचल पद देत है ॥३॥ सोरठा-शिखरसमेद महान, जगमै तीर्थप्रधान है। महिमा अद्भुत जान. अल्पमती मै किमि कहों॥ । सुंदरी छंद-सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है। अति सु उज्वल तीर्थ महान है । करहिं भक्ति सु जे गुण गायकें। वरहि । । सुर शिवके सुख जायकें ॥ अडिल्ल-सुर हरि नर इन आदि और वंदन करें। भवसागरतै तिरे, नहीं भवमें परें। सफल होय तिन जन्मशिखर । दरशन करे, जनमजनमके पाप सकल छिनमै टरै ।। पद्धरीछंद-श्रीतीर्थकर जिनवर जुवीश । अरु मुनि असंख्य । सबगुणन ईश ॥ पहुँचे जहंत कैवल्यधाम । तिनको अब मेरी है प्रणाम ॥ ७॥ गीतिका छंद-सम्मेदगढ है तीर्थ भारी सबहिकों उज्वल करै। चिरकालके जे कर्म लागे दर्शतै छिनमै टरें ॥ है परम पावन पुण्यदायक अतुलमहिमा जानिये ! अरु है अनूप सुरूप। * गिरिवर तास पूजन ठानिये ॥८॥ - दोहा-श्रीसम्मेदशिखर सदा, पूजौं मनवचकाय । A हरत चतुर्गतिदुःखकों, मनवांछित फलदाय ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - MS-R ay ३३२ वृहज्जैनवाणोसंग्रह - ओं ही सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अन्न अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । *ओं ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । अष्टक * अडिल्ल-क्षीरोदधिसम नीर सुनिरमल लीजिये। कनक * कलसमें भरकै धारा दीजिये ॥ पूजौं शिखरसमेद सुमनवच* काय जी । नरकादिक दुख टरें अचलपद पायजी ॥ *ओं हों विशतितीर्थकराद्यसंख्यातमुनिसिद्धपदप्राप्तेभ्यो सम्मेदशिखर। सिद्धक्षेत्रभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ * पयसों घसि मलयागिरिचंदन लाइये । केसरि आदि कपूर । सुगंध मिलाइये ॥ पू० । चंदनं ॥२॥ तंदुल धवल सुवासित । * उज्वल घोयकै । हेमरतनके थार भरों शुचि होयक।। पूजौं०॥ अक्षतान् ॥३॥ सुरतरुके सम पुष्प अनूपम लीजिये। कामदाहदुखहरणचरण प्रभु दीजिये । पूजौं० ॥ पुष्पं ॥४॥ कनकथार नैवेद्य सु षटरसतै भरे। देखत क्षुधा पलाय । सुजिन आण धरे ।। पूजौं० ॥ नैवेद्यं ॥५॥ लेकर मणिमय । दीप सुज्योति प्रकाश है । पूजत होत सुज्ञान मोहतम नाश * है ॥ पूजौशिखरसमेद० ॥ नरका० दीपं ॥६॥ दशविध धूप। * अनूप अगनिमैं खेवहूं । अष्टकर्मको नाश होत सुख लेवहूं ॥ पूजौं० ॥ फलं ॥ ८॥ जल गंधाक्षतपुष्प सुनेवज लीजिये।। * दीप धूप फल लेकर अर्थ सु दीजिये। पूजौं० ॥ अयं ॥९॥ • पद्धरि छंद-श्रीविंशति तीर्थंकर जिनेंद्र । अरु असंख्यात । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३३३ जहते मुनेंद्र || तिनकों करजोरि करौं प्रणाम । जिनको पूजों तजि सकल काम || महार्घ ॥ ^^ AA AAAA AAA अडिल्ल - जे नर परम सुभावनतें पूजा करें। हरि हलि चक्री होंय राज छह खंड करें | फेरि होंय धरणेंद्र इंद्रपदवीधरैं । नानाविध सुखभोगि बहुरि शिवतिय धेरै ॥ इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिंक्षिपेत् ) छंद जोगीरासा श्रीसम्मेद शिखरगिरि उन्नत, शोभा अधिक प्रमानों । विंशति तिहिपर कूट मनोहर, अदभुत रचना जानो || श्रीतीर्थकर बीस तहांत, शिवपुर पहुंचे जाई । तिनके पदपंकजजुग, पूजौं, अर्ध प्रत्येक चढाई ॥ पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥ नं० २४ अजितनाथ सिद्धवर कूट । प्रथम सिद्धिवरकूट सुजानो, आनंद मंगलदाई | अजितनाथ जहतैं शिव पहुंचे पूजों मनचचकाई || कोडि जु अस्सी एक अरब मुनि, चौवन लाख जु गाई । कर्म काटि निर्वाण पधारे, तिनकों अर्घ चढाई ||२|| ओं ह्रीं श्रसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रसिद्धवरकूटते, अजितनाथ जिनेंद्रादि मुनि एक अर्ब असीकोटि चौवनलाख सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रे ० अर्घ नं० १४ संभवनाथ धवलकूट । धवलदत है कूट दूसरो, सब जियको सुखकारी । श्रीसंभव मुक्ति पधारे पापतिमिर को टारी ॥ धवलदत्त दे आदि सुनी, नवकोडाकोडी जानो । लाख बहत्तरि सहस वियालिस, पंचशतक ऋषि मानो || कर्मनाशकरि शिवपुर Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAWARAAAAAAAAAAAAAAA AnnanoranAmA.....-mor... . . * -- -R AM ३३४ . वृहज्जैनवाणीसंग्रह पहुंचे, वंदों शीश नवाई । तिनके पदयुग जजडं भावसों, है हरषि २ चितलाई ॥३॥ ओं ही श्रीसम्मेदशिखिरसिद्धक्षेत्रधवलकूटते सम्भवनाथजिनेन्द्रादि मुनि । । नौकोडाकोडीबहत्तरलाखल्यालीसहजारपांचसौसिद्धपदप्राप्त भ्यः सिद्ध । क्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ नं०१६ अभिनंदननाथ आनंदकूट । चौपाई-आनंदकूट महासुखदाय । अभिनंदन प्रभु शिव* पुर जाय ।। कोडाकोडि बहत्तर जान । सत्तर कोडि लख छत्तिस मान ॥ सहस वियालिस शतक जु सात । कहे । जिनागममैं इह भांत ॥ एऋषि कर्म काटि शिव गये। तिनके पदजुग पूजत भये ॥४॥ ओं ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रे आनंदकूट श्रीअभिनंदनजिनेंद्रादि । मुनि वहत्तरकोडाकोडी सत्तरकोडिछत्तीसलाखन्यालीसहजारसातसौसि*द्धपदप्राप्तभ्यो सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नं०१६ सुमतिनाथ अविचल्लूट। अडिल्ल। अविचल चौथो कूट महासुख धामजी । जहः सुमतिजिनेश गये निर्वाणजी ॥ कोडाकोडी एक मुनीश्वर जानिये ! कोटि चुरासी लाख वृहत्तरि मानिये ॥ सहस * इक्यासी और सातसौ गाइये । कर्म काटि शिवगये तिन्हें । शिर नाइये । सो थानक मैं पूंजू मनवचकायजी । पाप । दर होजाय अचलपद पाय जी ।। ओं ही श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रअविचल्लूटते सुमतिनायजिनेंद्रादि । मुनि एक कोडाकोड़ी चौरासोकोड़ि वहत्तरलाख इक्यासीहजार सातसौ सिद्धपदप्राप्त भ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwww. 1www.i.vauoo --- oooooo वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३३५ नं० ८ पद्मप्रभमोहनकूट । अडिल्ल । मोहन कूट महान परम सुंदर कह्यो। पनाम जिनराज जहां शिवपुर लह्यो । कोटि निन्यावन लाख सतासी जानिये । सहस तियालिस और मुनीश्वर मानिये ॥ सप्त * सैंकरा सत्तर ऊपर वीस जू । मोक्ष गए मुनि तिन्हें नमूं नित। शीसजू ।। कहै जवाहरलाल दोयकर जोरिकै । अविनाशी पद दे प्रभु कर्मन तोरिकै ॥६॥ । ओं ह्रीं श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रमोहनकूटते पदूमप्रभजिनेन्द्रादिमुनि । निन्यानबे कोडि सतासीलाख तैतालिसहजार सातसौ नब्बे सिद्धपदप्राभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ नं० २२ सुपार्श्वनाथ प्रभासकूट । सोरठा । * कूट प्रभास महान, सुंदर जनमन-मोहनो । श्रीसुपार्श्व। भगवान, मुक्ति गये अघ नाशिक ॥ कोडाकोडि उनचास, कोडि चुरासी जानिये । लाख वहत्तर खास, सात सेहस हैं * सात सौ ॥ और कहे व्यालीस, जहः मुनि मुक्ती गए । * तिनहिं नमै नित शीश, दासजवाहर जोरकर ॥ ओं ही श्रीसम्मेदशिखरशिवक्षेत्रप्रभासकूटते श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्रादि मुनि उनचास कोडाकोडी चौरासीकोडि बहत्तरलाख सात हजार सातसौ * बियालिस सिद्धपदप्राप्तभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्बपामीति स्वाहा ॥७ नं०६ चंद्रप्रभ ललितकूट। दोहा-पावन परम उतंग है, ललितकूट है नाम । चंद्रप्रभ * शिवकों गये, बंदौं आठों जाम ।। कोडाकोडी जानिये, चौ रासी ऋषिमान । कोडि बहत्तर अरुकहे, अस्सीलाख प्रमान । सहस चुरासी पंचशत, पचपन कहे गुनिंद । वसुकरमनको । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह नाशकर, पायो सुखको कंद | ललितकूट तैं शिवगये, बंदों शीश नवाय | जिनपद पूजौं भावसों, निजहित अर्घ चढाय ॥ ओं ह्रीं श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रललितकूटतें चंद्रप्रभजिनेन्द्र आदि सुनि चौरासीकोड़ाकोडीबहत्तरकोडिअसीलाख चौरासीहजार पांचसौ पचपन सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अयं निर्वपामीति स्वाहा || २ || नं० ७ पुष्पदंत सुप्रभकूट | पद्धरी छंद । AAAAAAAA श्री सुप्रभकूट सु नाम जान । जहँ पुष्पदंतको मुकति थान || मुनि कोडाकोडि कहे जु भाख । नव ऊपर नवथर कहे लाख || शतचारि कहे अरु सहससात । ऋषि अस्सी और कहे विख्यात ॥ मुनि मोक्षगए हनि कर्मजाल | चंदौं कर जोरि नमाय भाल ||५|| ओं ह्रीं श्रीसम्मेद शिखरसिद्वक्षेत्र सुप्रभकूटतें पुष्पदन्तजिनेंद्रादिमुनि एक कोडाकोडी निन्यानवेलाख सातहजार चारसौ अस्सी सिद्धपदप्राप्ते भ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अघं ॥ ६ ॥ नं० १२ शीतलनाथ विद्यु तकूट । सुन्दरी छंद । सुभग विद्युतकूट सु जानिये | परम अदभुत तापर मानिये ॥ गये शिवपुर शीतलनाथजी । नमहुं तिन इह करधर माथजी || मुनि जु कोडा कोडि अठारहू । मुनिजु कोडि वियालिस जानहू || कहे और जु लाखबत्तीस जू । सहसव्यालिस कहे यतीश जू ॥ अवर नौसौं पांच जु जानिये | गए मुनि शिवपुरको मानिये ॥ करहिं जे पूजा मन लायकैं | धरहिं जन्म न भवमें आयकै ॥१०॥ ॥ ओं ह्रीं सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रविद्युतकूटतें श्री शीतलनाथजितेंन्द्रादि एसस Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *HH KH-KS-6- 6---- ---- वृहज्जैनवाणीसंग्रह मुनि अठारह कोडाकोडिन्यालीसकोडि बत्तीसलाख न्यालीसहजार नौसौ । * पांच सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ १०॥ नं. ६ श्रेयांसनाथ संकुललूट । जोगीरासा। * कूट जु संकुल परममनोहर, श्रीश्रेयान् जिनराई । कर्म नाशकर शिवपुर पहुंचे, वंदौं मनवच काई ॥ छयानव * कोडाकोडि जानो, छयानवकोडि प्रमानो ॥ लाख छयानवे । सहस मुनीश्वर, साढे नव अब जानो ॥ ता ऊपर व्यालीस। के कहे हैं श्रीमुनिके गुण गावें ॥ त्रिविधयोग करि जो कोह । पूजै, सहजानंद तहँ पावै ॥ सिद्ध नमों सुखदायक जगमें, * आनंदमंगलदाई। जजों भावसों चरण जिनेश्वर, हाथजोड शिरनाई। परम मनोहर थान सु पावन, देखत विधन पलाई ॥ तीन काल नित नमत जवाहर मेटो भवभटकाई ।। जहँ जे मुनि सिद्ध भये हैं, तिनको शरण गहाई । जापद को तुम प्राप्त भए हो, सो पद देहु मिलाई ॥११॥ * ओं ही श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रसंकुलकूटते श्रीश्रेयांसनाथजिन्द्रादि* मुनि छयानवे कोडाकोडी छयानवेकोड़ि छयानवेलाख नवहजार पांचसोक वियालिस सिद्धपदप्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। नं० २विमलनाथ सुवीरकलूट । कुसुमलता छंद। ___ श्रीसुवीरकुलकूट परम सुंदर सुखदाई, विमलनाथ भग-1 । वान जहां पचमगति पाई। कोडि सु सत्तर सातलाख पट सहस जुगाई, सात सतक मुनि और वियालिस जानो भाई। दोहा-अष्टकर्मको नष्टकर मुनि अष्टमछिति पाय । .... *- - * * Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -*- *-* १३३४ *25AR वृहज्जैनवाणीसग्रह तिनप्रति अर्थ चढावहूं, जनम मरण दुखजाय ॥ त्रिमलदेव निरमल करण, सब जीवन सुखदाय। मोतीसुत वंदत चरण, हाथ जोर शिरनाय ॥१२॥ ।ओं ह्रीं श्रीसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रसुवोरकुलकूटते श्रीविमलनाथजिनेंद्र । S आदमुनि सत्तरकोडि सातलाख छहहजार सातसौन्यालीस सिद्धपदप्रा* प्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥१२॥ ... नं० १३ अनंतनाथ स्वयंभूकूट । अडिल्ल। - कूट स्वयंभू नाम परमं सुंदर कह्यो । प्रभु अनंत जिननाथ जहां शिवपद लह्यो ॥ मुनि जु कोडाकोडि छयानवे । जानिये । सत्तर कोडि जु सत्तरलाख प्रमानिये ॥ सत्तर सहस.. जुआर मुनीश्वर गाइये । सात सतक ता ऊपर तिनको ध्याइये। मैं जवाहरलाल सुनो मनलायकै । गिरिवरकों नित । पूजो अति सुखपायकैं॥ सोरठा--पूजत विधन पलाय, ऋद्धिसिद्धि आनंद करै । : सुरशिवको सुखदाय, जो मनवचपूजा करै ।। ३॥ को ही श्री सम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्रस्वयंभूकूटते अनंतनाथजिनेन्द्रादिमुनि । । छयानवेकोडाकोड़ी सत्तरकोडि सत्तरलाख सत्तरहजार सातसौ सिद्धपद प्राप्तेभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घ निर्बपामीति स्वाहा ।।१३।। ... . ० १८ धर्मनाथ सुदत्तकूट । चौपाई । * : कूट सुदत्त महाशुभ जान। श्रीजिनधर्मनाथको थान ॥ * मुनि कोडकोडी उनईस। और कहे ऋषि कोडि उनीश ॥ लाख जु नव नवसहस सुजान । सात शतक पंचावन मान | Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३४३ दुखहारण सुख कीजै । यह अरज हहारी सुनिं त्रिपुरारी शिवपदभारी मो दीजै ॥ wwwwww. छंद - यह दर्शनकूट अनंतलह्यो । फलपोडशकोटि उप सकह्यो || जगमें यह तीर्थ को भारी । दर्शन करि पाप करें सारी ॥ मोतीदामछंद - टरें गति बंदत नर्क तिर्यच । कबहुँ दुखको नहि पावै रंच || यही शिवको जगमें है द्वार । अरे नर बंदौ कहत 'वार' | दोहा - पारशप्रभुके नामतै, विधन दूरि टरि जाय । . ऋद्धि सिद्धि निधि तासको, मिलि है निसिदिन आय ॥ ओं ह्रीं श्रोसम्मेदशिखरसिद्धक्षेत्र सुवर्णकूटर्ते श्रीपार्श्वनाथादिमुनि वियासी करोड़ चुरासीलाखपैंतालिस हजारसातसौवियालोससिद्धपदप्राप्तभ्यः सिद्धक्षेत्रेभ्यो अ० ॥ २१ ॥ अडिल्ल - जे नर परम सुभावनतें पूजा करें। हरि हलि चक्री होंय राज्य षटखंड करै ।। फेरि होय धरणेंद्र इंद्रपदवी धेरै । नानाविधि सुख भोगि बहुरि शिवतिय वरै ।। इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत् ) १२५ - श्रीगिरनारक्षेत्र पूजा दोहा - चंदौं नेमि जिनेश पद, नेमि- धर्म - दातार । नेमधुरंधर परम गुरु, भविजन सुख कर्तार ॥१॥ जिनवाणीको प्रणमिकर, गुरु गणधर, उरधार । सिद्धक्षेत्र पूजा रचौं, सब जीवन हितकार || Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XRAKARKETARRRR MAA ३४४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह 1. उर्जयंत गिरिनाम तस, कह्यो जगत विख्यात । गिरिनारी तासों कहत, देखत मन हर्षात ॥३॥ है द्रुतविलंबित तथा सुन्दरी छंद-गिरिसुउन्नत सुभगाकार । है। पंचकूट उत्तंग सुधार है ।। वन मनोहर शिला सुहावनी।। * लखत सुंदर मनको भावनी ॥ अवर कूट अनेक वने तहां! । सिद्ध थान सु अति सुंदर जहां। देखि भविजन मन हर्षावते ।। * सकल जन वंदनको आवते ॥५॥ त्रिंभगी छंद-तहँ नेमकुमारा व्रत तप धारा कर्म विदारा, ! शिव पाई । मुनि कोडि बहत्तर सात शतक धर तागिरिऊपर । । सुखदाई।।द्वै शिवपुरवासी गुणके राशी विधिथिति नाशी ऋद्धि धरा । तिनके गुणगाऊं पूज रचाऊ मन हर्षाऊ सिद्धिकरा ! दोहा-ऐसे क्षेत्र महान तिहिं, पूजों मन वच काय । थापना त्रयवार कर, तिष्ठ तिष्ठ इत आय ॥ ओं ह्रीं श्रीगिरनासिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर । संवौषट् । ओं ही श्रीगिरनारसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। 3 । *ओं ह्रीं श्रीगिरनारसिद्धक्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । अष्टक कवित्त लेकर नीर सुक्षीरसमान महा सुखदान सुप्रासुक लाई । दे। त्रय धार जजों चरणा हग्ना मम जन्म जरा दुखदाई। नेमि-1 *पती तज राजमती भये बालयती तहत शिवपाई । कोडि वहत्तरि सातसौ सिद्ध मुनीश भये सु जजों हरपाई ॥१॥ मों ही श्रीगिरनारिसिद्धक्षेत्रेभ्यो जलं निवपामीति स्वाहा ॥१॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -A VMN M *HARKKR5425+HARKAR* पृहज्जैनवाणीसंग्रह २५ । *चंदनगारि मिलाय सुगंध हु, ल्याय कटोरीमें धरना । मोह महातममेटनकाज सु चर्चतु हों तुम्हरे चरना।।नेमाचंदन।। * अक्षत उज्वल ल्याय धरों, तहँ पुंज करो मनको हर्षाई।। । देहु अखयपद प्रभु करुणाकर, फेरन या भववासकराई। * नेमिः ॥अक्षतान्।। फूल गुलाब चमेली बेल कदंच सु चंप कबीन सु ल्याई । प्रासुकपुष्प लवंग चढ़ाय सु गाय प्रभू गुणकाम नशाई । नेम० ॥ पुष्पं । नेवज नव्य करों भरथाल सुकंचन भाजनमें धर भाई । मिष्ट मनोहर क्षेपत हो । यह रोग क्षुधा हरियो जिनराई ।नेमानैवेद्य।। धूप दशां-1 *ग सुगंधाई कर खेवहुँ अग्निमॅझार सुहाई। शीघ्रहि अर्ज सुना जिनजी मम कर्म महावन देउ जराई ॥ नेम०॥धूपं ।। ले फल सार सुगंधमई रसनाहद नेत्रनको सुखदाई । क्षेपत। * हो तुम्हरे चरणाप्रभु देहु हमैं शिवकी ठकुराई।नेम०॥फल ले वसु द्रव्य सु अर्घ करों धर थाल सुमध्य महा हरपाई।। पूजत हों तुमरे चरणा हरिये वसुकर्मबली दुखदाईशनेमाअर्थ +दोहा-पूजत हों वसुद्रव्य ले, सिद्धक्षेत्र सुखदाय । निजहितहेतु सुहावनो, पूरण अर्थ चढाय ॥ पूर्णा ॥१०॥ पंचकल्याणक अर्ध । छन्द पाइता। * कार्तिक सुदिकी छठि जानो। गर्भागम तादिन. मानो ॥1 उत इंद्र जजै उस थानी। इत पूजत हम हरषानी ॥१॥ +ओं ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ट्यां गर्भमंगलकालाय नेमिनाथजिनेंद्राय अर्थ।। श्रावणसुदि छठि सुखकारी । तब जन्म महोत्सव धारी। * --5-47-05- RRA R Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Anm~ । ३४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह सुरराज सुमेर न्हवाई । हम पूजत इत सुखपाई ॥२॥ । ओं ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ट्यां जन्ममंगलमंडिताय नेमिनाथजिनेद्राय अध सित सावनकी छठि प्यारी । तादिन प्रभु दीक्षा धारी॥ प तप घोर वीर तहँ करना । हम पूजत तिनके चरणा ॥३॥ ओं ही श्रावणशुक्लपष्टीदिने दीक्षामंगलप्राप्ताय नैमिनाथजिनेंद्राय अर्ध। । एकम सुदि आश्विन भाषा। तब केवलज्ञान प्रकाशा ।।। । हरिसमवसरण तब कीना। हम पूर्जत इत मुख लीना ॥ . ।ओं ही आश्विनशुक्लाप्रतिपदि केवलज्ञानप्राप्तायनेमिनाथजिनेद्राय अर्ध | | सित अष्टमि मास आषाढ़ा। तब योग प्रभूने छाडा।। | जिन लई मोक्ष ठकुराई । इत पूजत चरणा भाई ५॥ ओं ही अपाढ़शुक्लषष्ट्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय नेमिनाथजिनेंद्राय अर्थ । । अडिल्ल-कोडि बहत्तरि सप्त सैकड़ा जानिये । मुनिवर मुक्ति गये तहँ सु प्रमाणिये ।। पूजों तिनके चरण सु मनवचकाका यकै । वसुविध द्रव्य मिलायसुगाय बजायकें ।। पूर्णा ।। * दोहा-सिद्धक्षेत्र गिरनारशुभ, सब जीवन सुखदाय । कहों तासु जयमालिका, सुनतहि पाप नशाय ।। पद्धरीछंद-जय सिद्धक्षेत्र तीरथ महान । गिरिनारि सुगिरि । उन्नत वखान ।। तहँ झूनागढ़ है नगर सार। सौगष्ट्रदेशके । * मधिविथार ॥ २॥ तिस झूनागढ़से चले सोड। समभूमि कोस वर तीन होइ ॥ दरवाजेसे चल कोस-आध। इक नदी वहत है जल अगाध ॥३॥ पर्वत उत्तरदक्षिण सु दोय।। जयमाला Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RASER- RAK* wwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह * मधि बहत नदी उज्वल सु तोय ॥ ता नदीमध्य ककुंड जान । दोनों तट मंदिर बने मान ॥ ४ ॥ तहँ वैरागी । 1 वैष्णव रहाय । भिक्षाकारण तीरथ कराय ॥इक कोस तहां । यह मच्यो ख्याल । आगै इक बरनदि बहत नाल॥५॥ * तहँ श्रावकजन करते सनान । धो द्रव्य चलत आगै सुजान। फिर मृगीकुंड इक नाम जान । तहँ बैरागिनके बने थान ॥६॥ वैष्णव तीरथ जहँ रच्यो सोइ। वैष्णव पूजत आनंद होइ ॥ आगे चल डेढ़ सु कोस जाव । फिर छोटे पर्वतको । चढाव । ॥ तहँ तीन कुंड सोहैं महान।श्रीजिनके युगमंदिर। बखान ।। मंदिर दिगंबरी दोय जान । श्वेतांबरके बहुते प्रमान ! ॥८॥ जहँ बनी धर्मशाला सुजोय । जलकुंड तहां निर्मल १ सुतोय ॥ तहँ श्वेतांबरगण दिशा जाय । ता कुंडमाहिं । नितही नहाय ॥९॥ फिर आगें पर्वतपर चढाउ । चढि प्रथम । कूटको चले जाउ ॥ तहं दर्शन कर आगै सुजाय । तहँ दु-1 *तिय टोंकका दर्श पाय ॥१०॥ तहँ नेमनाथके चरण जान । फिर हैं उतार भारी महान ॥ तहँ चढकर पंचम टोंक जाय । । अति कठिन चढाव तहां लखाय ॥ ११ ॥ श्रीनेमनाथका मुक्तिथान । देखत नयनों अति हर्षमान ॥ इक विंच चरन युग तहां जान । भवि करत बंदना हर्ष ठान ॥ १२ ॥ * कोउ करते जय जय भक्ति लाइ । कोऊ थुति पढते तहँ सुनाय ।। तुम त्रिभुवनपति त्रैलोक्यपाल । मम दुःख दूर कीजै दयाल । १३ ।। तुम राजऋद्धि न भुगती न कोइ।। * --5-272 * Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ........ यह अथिररूप संसार जोइ ॥ तज मातपिता घर कुटुम + द्वार । तज राजसतीसी सती नार ॥ १४ ॥ द्वादशभावन भाई निदान || पशुवंदि छोड दे अभयदान | शेसावनमें दीक्षा सुधार । तप करके कर्म किये सुछार ।। १५ ।। ताही बन केवल ऋद्धि पाय | इंद्रादिक पूजे चरण आय ॥ तहँ समदसरण रचियो विशाल । मणिपंथ वर्णकर अति रसाल ॥ १६ ॥ तहँ वेदी कोट सभा अनूप | दरवाजे भूमि व सुरूप। वसु प्रातिहार्य छत्रादि सार । वर द्वादशि सभा बनी अपार ॥ १७ ॥ करके बिहार देशों मझार । भवि जीव करे भवसिंधु पार ॥ पुन टोंक पंचमीको सजाय | शिवनाथ लह्यो आनंद पाय ॥ १८ ॥ सो पूजनीक यह थान जान | बंदत जन तिनके पाप हान || तहतैं सु बहत्तर कोडि और। मुनि सातशतक सब कहे जोर ॥ १९ ॥ उस पर्वतों सब मोक्ष पाय । सब भूमि सु पूजन योग्य थाय ॥ तहँ देश देश के भव्य आय । वंदन कर बहु आनंद पाय ॥ २ ॥ पूजन कर कीने पाप नाश । बहु पुण्यबंध कीनो प्रकाश ।। यह ऐसो क्षेत्र महान जान । हम करी बंदना हर्ष ठान ॥ २१ ॥ उनईस शतक उनतीस जान । संवत अष्टमि सित फाग मान ॥ सब संग सहित बंदन कराय । पूजा कीनी आनंद पाय || २२ || अब दुःख दूर कीजै दयाल । कहै 'चंद्र' कृपा कीजै कृपाल || मैं अल्पबुद्धि जयमाल गाय । भवि जीव शुद्ध लीज्यो बनाय ॥ २३ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३४६ पत्ता- तुम दयाविशाला सब क्षितिपाला, तुम गुणमाला कंठ घरी ते भव्य विशाला तज जगजाला, नावत भाला मुक्तिवरी ओं ह्रीं श्रीगिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ॥ समाप्ता ॥ १२६ - श्रीचंपापुर सिद्धक्षेत्र पूजा । दोहा - उत्सव किय पनवार जहँ, सुरगनयुत हरि आय | जजों सुथल वसुपूज्यसुत, 'चंपापुर हर्षाय ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीचंपापुरसिद्धक्षेत्र ! अन्नावतरावतर । संवौषट् । म श्रीचंपापुर सिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ | ठः ठः । ओं ह्रीं श्रीचंपापुरसिद्धक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । अष्टक | चाल नंदीश्वरपूजनफी । सम अमिय विगतत्रस वारि, लै हिमकुंम भरा। लख सुखद त्रिगदहरतार, दे त्रय धार धरा ॥ श्रीवासुपूज्य जिनराय, निर्वृतिथान प्रिया | चंपापुर थल सुखदाय, पूजौं हर्ष हिया ॥ म ह्रीं श्री चंपापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि० ॥ कश्मीरी केशर सार, अति ही पवित्र खरी । शीतल चंदनसँग सार लै भव तापहरी || श्री० ॥ चंदनं ॥ मणिद्युतिसम खंड विहीन, तंदुल लै नीके | सौरभयुत नव वर बीन, शालि महा नीके ॥ श्री० ॥ अक्षतान् || ३ || अलि लुभन सुभन हग घाण, सुमन जु सरद्रुमके । लै वाहिम अर्जुनवान, सुमन दमन झुमके | श्री० ॥ पुष्पं ||४|| रस पुरित तुरित पकवान, पक्त्र यथोक्त घृती । क्षुधगदमदप्रदमन जान, लै विध युक्तकृती ॥ श्री० ॥ नैवेद्यं ॥ ५ ॥ तमअज्ञप्रनाशक Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- - - -- - - - --* AAAAAAAAAAAAAAAt AAAAAAAAmr AAAAnnnnnnnn Anna * ३५० वृहज्जैनवाणीसग्रह *सूर, शिवमग परकाशी । लै रत्नद्वीप द्युतिपूर, अनुपम सुखराशी ॥ श्री० ॥ दीपं ॥६॥ दर परिमल द्रव्य अनूप सोध पवित्र करी । तस चूरण कर कर धूप, ले विधिकुंज । हरी ।। श्री०॥ धूपं ॥७॥ फल पक्ष मधुररसवान, प्रासुक बहुविवके । लखि सुखद रसनगमान, ले पद पद सिधके । श्री० ॥ फलं ॥८॥ जल फल वसु द्रव्य मिलाय, लै । । भर हिमथारी ॥ वसुअंग धरापर ल्याय, प्रमुदित चित- है धारी ।। श्री०॥ अर्थ ॥९॥ . . अथ जयमाला। दोहा-भये द्वादशम तीर्थपति, चंपापुर निर्वान । तिन गुणकी जयमाल कछु, कहों श्रवण सुखदान ॥ पद्धरिछंद-जय जय श्रीचंपापुर सु धाम। जहँ राजत नृप वसुः । पूज नाम ।। जय पौन पल्यसै धर्महीन । भवनमन दुःखमय है। । लख प्रवीन ॥१॥ उर करुणाधर सो तम विडार। उपजे । * किरणावलिधर अपार ॥ श्री वासुपूज्य तिनके जु बाल ।। द्वादशम तीर्थकता विशाल ॥२॥ भवरोग देहत विरत होय।। वय वालमाहिं ही नाथ सोय ॥ सिद्धन नमि महावत भार । लीन । तप द्वादशविधि उग्रोग्र कीन ॥३॥ तहँ मोक्ष सप्तत्रय आयु येह । दश प्रकृति पूर्व ही क्षय करेह ॥श्रेणीजु पक। आरूढ होय । गुण नवमभाग नवमाहिं सोय ॥४॥ । सोलहवसु इक इक पट इकेय ।। इक इक इक इम इन क्रम 1. सहेय पुन दशमथान इक लोमटार । द्वादशमथान सोलह । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह www.wuuuuuÿÿÿÿÿÿÿÿwww An ३५१ wwwwwUL विहार ||५|| है अनंत चतुष्टय युक्त वाम । पायो सब I सुखद सयोग ठाम || तहं कालं त्रिगोचर सर्व ज्ञेय । युगपत 'हि समय इक महि लखेय ॥ ६ ॥ कछु काले दुविध वृष अमिय दृष्टि | कर पोषे भविविधान्यसृष्टि ॥ इंक मास J आयु अवशेष जान | जिन योगनकी सुप्रवृत्ति हानं ॥७ ताही थल तृतिशितध्यान ध्याय । चतुदशमथानं निवसे जिनाय || तहँ दुचरम समयमझार ईश । प्रकृति जु बहत्तर तिनहि पीश || ८ || तेरह नठ चरम समयमझार | करके श्रीजंगतेश्वर प्रहार || अष्टमि अवनी इक समयमद्ध । निवसे पाकर निज अचल रिद्ध || ९ || युत गुण वसु प्रमुख अमित गणेश | है रहे सदा ही इमहि वेश ॥ तबहीतें सो थानक पवित्र । त्रैलोक्यपूज्य गायो विचित्र ॥ १० ॥ मैं तसु रज निज मस्तक लगाय | बंद पुन पुन भुवि शीश नाय || ताही पद बांछा उरमझार | घर अन्य चाहबुद्धी विचार || दोहा - श्री चंपापुर जो पुरुष, पूजै मन वच काय । वर्णि "दौल" सो पाय ही, सुख सम्पति अधिकाय | : इत्याशीर्वादः । ./. १२६ - श्री पावापुर· सिद्धक्षेत्र - पूजा | जिहिं पावापुर छित अघति, हत सनमति जगदीश । 'भये सिद्ध शुभथान सो, जजों नाय निज शीश ॥.. मों ह्रीं श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्र ! मत्र अवंतर अवतर । संवैौषट् । ओं ह्रीं श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ | ॐ ॐः ! L Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सर-5759 - * AMAnnnnnnnnnnr rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr. ३५२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ओं ही श्रीपावापुरसिद्धक्षेत्र ! अन्न मम सन्निहितो भव भव । वषट् । अथ अष्टक । गीताछंद। है शुचि सलिल शीतौ कलिलरीतौ श्रमन चीतो लै जिसो ॥ । भर कनक झारी त्रिगद हारी दै त्रिधारी जितपो ॥ वर पनवन भर पसरवर बहिर पावाग्राह ही । शिवधाम * सन्मत स्वामि पायो, जजों सो सुखदा मही ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीपावापुतुरसिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथजिनेन्द्रस्य जन्मजरामृत्यु* विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। भव भ्रमन भ्रमत अशर्म तपकी, तपन कर तपताइयो। तसु बलयकंदन मलय-चंदन, उदक संग घिस ल्याइयो । * वरपा० चिंदनं०॥ तंदुल नवीन अखंड लीने, ले महीने में । ऊजरे। मणिकुंद इंदु तुपार घुति-जित, कनरकाबीमें धरे॥ वर० ॥ अक्षतान् ।। मकरंदलोभन सुमन शोभन सुरमि । चोमन लेय जी । मद समर हरवर अमर तरुके, मान-हग हरखेय जी वरपद्मापुष्पं०॥ नैवेद्य पावन छुध मिटावन । सेव्य भावन युत किया । रस मिष्ट पूरति इष्ट सूरति लेयकर प्रभु हित हिया वरपद्म०॥ नैवेद्य० ॥ तमअज्ञनाशक स्वपरभाशक ज्ञेय परकाशक सही। हिमपात्रमें धर मौल्यविन वर द्योतघर मणि दीपही वर०ा दीपं ॥ आमोदकारी। वस्तुसारी विध दुचारी-जारनी। तसु तूप कर कर धूप ले । दश दिश-सुरमि-विस्तारनी ॥ वर० ॥धूप।। कल भक्क पक्क * सुचक्य सोहन, सुक्क जनमन मोहने । वर सुरस पूरित त्वरित * -- - - - -- * Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३५३" मधुरत लेकर अति सोहने || वरपद्म० || फलं ॥ जल गंध आदि मिलाय वसुविध थार स्वर्ण भरायकै । मन प्रमुद भाव उपाय कर ले आय अर्घ बनायकै ॥ वरपद्म || अर्घ ||९|| अथ जयमाला | दोहा - चरम तीर्थकरतार श्री, वर्द्धमान जगपाल । कलमलदलविधविकल है, गाऊँ तिन जयमाल ॥ पद्धरीछंद - जय जय सुवीर जिन मुक्तिथान | पावापुरवनसर शोभवान || जे सित अषाढ छठ स्वर्गधाम । तज पुष्पोत्तर सुविमान ठाम ||१|| कुण्डलपुर सिद्धारथ नृपेश । आये त्रिशला जननी उरेश | शित चैत्र त्रियोदशि युत त्रिज्ञान । जनमे तम अज्ञ-निवार भान ||२|| पूर्वाह्न धवल चउदिश दिनेश । किय नह्वन कनकगिरि - शिर सुरेश ॥ वय वर्ष तीस पद कुमरकाल | सुख दिव्य भोग भुगतेविशाल ||३|| मारगसिर अलि दशमी पवित्र । चढ़ चंद्रप्रभा शिविका विचित्र || चलि पुरसों सिद्धन शीशनाय । धान्यो संजय वर शर्मदाय ||४|| गतवर्ष दुदश कर तप विधान | दिन शित वैशाख दशै महान || रिजुकूला सरिता तट स्व सोध । उपजायो जिनवर चरम बोध ||५|| तब ही हरि आज्ञा शिर चढाय | रचि समवसरण वर धनदराय || चउसंघ प्रभृति गौतम गनेश । युत तीस वरष विहरे जिनेश || ६ || भविजीवदेशना विविध देत | आये वर पावानगर खेत ॥ कार्तिक अलि अन्तिस दिवस ईश | कर योग निरोध अघातिपीस ॥ ज० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह पद्मावती [ह०] २१ वप्पिला [३०] वप्रा [ह० ], २२ सिवादेवी २३ वामादेवी २४ प्रियकारिणी [त्रिसला ] इसप्रकार क्रमशः चौबीस तीर्थकरों की माताका नाम है। १३६ - तीर्थंकरोंका निर्वाणक्षेत्र । ऋषभदेवजीने कैलास पर्वतपरसे, वासुपूज्यजीने चंपापुरसे, नेमिनाथजीने गिरनारसे, महावीरजीने पावापुरसे निर्वाण प्राप्त किया है और शेष २० तीर्थकरोंने श्री सम्मेद - शिखरजी से निर्वाण प्राप्त किया है । 2 १३७ - तीर्थंकरोंके शरीर की ऊंचाई । १ श्री ऋषभनाथजीके शरीरकी ऊँचाई ५०० धनुष, २ अजितनाथजीकी ४५० धनुष, ३ संभवनाथजीकी ४०० धनुष, ४ अभिनंदननाथजीकी ३५० धनुष, ५ सुमतिनाथजीकी ३०० धनुष, ६ पद्मनभुजीकी २५० धनुष, ७ सुपार्श्वनाथजीकी २०० धनुष, ८ चन्द्रप्रभजीकी १५० धनुष, ९ पुष्पदंतजीकी १०० धनुष, १० शीतलनाथजीकी ९० धनुष. १९ श्रेयांसनाथजीकी ८० धनुष, १२ वासुपूज्यजीकी ७० धनुष, १३ विमलनाथजीकी ६० धनुष, १४ अनंतनाथजीकी ५० धनुष, १५ धर्मनाथजीकी ४५ धनुष, १६ शांतिनाथजीकी ४० धनुष, १७ कुंथनाथजीकी ३५ धनुष, १८ अरहनाथजीकी ३० धनुष, १६ मल्लिनाथजीकी २५ धनुष, २० मुनिसुव्रतनाथजीकी २० धनुष, २१ नमि 1 " Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - --- --* wwvvvvvvvvvvvv ... बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३५ नाथजीकी १५ धनुष, २२ नेमिनाथजीकी १०, धनुष २३ ॥ पार्श्वनाथजीकी ९ हाथ और २४ महावीरजीकी ७ हाथ । शरीर-की ऊँचाई है। १३८-तीर्थंकरोंकी जन्मतिथि । ऋषभदेवजीकी जन्मतिथि चैतवदि ९, अजितनाथजीकी माघसुदी १०, संभवनाथजीकी कार्तिकसुदी १५, अभिनदनजीकी माघसुदी १२, सुमतिनाथजीकी चैतसुदी ११, [उ. ॥ श्रावणसुदी ११ (ह० ) , पद्मप्रभुजीकी कार्तिकसुदी १३ ॥ क पार्श्वनाथजीकी जेठसुदी १२, चंद्रप्रभुजीकी पौषवदी ११ ॥ * पुष्पदन्तजी मगसिरसुदी १, शीतलनाथजीकी माधवदी १० १ श्रेयांसनाथजीकी फागुनवदी ११, वासुपूज्यजीकी फागुन । सुदी १४, विमलनाथजीकी माघसुदी १, अनंतनाथजीकी । जेठवदी १२, धर्मनाथजीकी माह सुदी १३, शांतिनाथजी की जेठनदी १४, कुंथुनाथजीकी वैसाख सुदी १, अरहनाथ । *जीकी मगसिरसुदी १४, मल्लिनाथजीकी मगसिरसुदी ११ मुनिसुव्रतनाथजीकी आषाढ़ सुदी १२, नमिजीकी आषाढ़ । बदी १०, नेमिनाथजीकीश्रावण बदी ६ (उ०) वैसाखसुदी १११(६०), पार्श्वनाथजीकी पौषवदी १६ और महावीरजीकी जन्म तिथि चैतसुदी १३ है। १३९-पांच महाकल्याण। १ गर्भकल्याण २ जन्मकल्याण ३ तपकल्याण ४ ज्ञान* कल्याण ५ मोक्षकल्याण । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० 夺敌人 www वृहज्जैनवाणीसंग्रह wwwwwww www wwwww wwwwwwwwwwwwwwww. १४० - चौतीस अतिशय । १ पसेवरहित शरीर २ मलमूत्ररहित शरीर ३ रक्त क्षीरसमान ४ आकृति शोभायमान ५ अतिरूपवान शरीर ६ सुगंधित शरीर ७ समचतुर्सस्थान ८ एकहजार आठ लक्षणयुक्त शरीर ९ बल विशेष १० मिष्ट वचन ( यह दश अतिशय जन्मके हैं ) १ शतयोजन सुभिक्ष २ आकाश गमन ३ अहिंसा ४ उपसर्गरहित ५ आहाररहित ६ चतुर्मुख दर्शन ७ समस्त विद्यामें स्वामित्व ८ छायारहित शरीर ९ नेत्रोंके पलक लगें नहीं १० नख केश बढ़ें नहीं ( यह देश अतिशय केवलज्ञानके हैं ) १ सब भाषा मिश्रित मागधी भाषा २ सब जीवों में मित्रता ३ छहों ऋतुके फल फूलोंका एक ही समय में फलना ४ दर्पण समान पृथ्वी ५ सुगंधित वायु ६ सम्पूर्ण जीवोंको आनन्द ७ एक योजनतक भूमि शुद्ध ८ गन्धोदकवृष्टि ९ आकाश निर्मल १० जय जय शब्द ११ चरणोंतल कमलोंकी रचना १२ धर्मचक्र सन्मुख चले १३ वायुकुमार हवा करें १४ अष्टमंगल द्रव्य ( यह चौदह अतिशय देवकृत हैं ) इस प्रकार १०, १०, और १४ कुल ३४ हुये । १११ - आठ महाप्रतिहार्य । १ अशोकवृक्ष २ पुष्पवृष्टि देवोंकृत ३ दिव्यध्वनि ४चामर ५ छत्र ६ सिंहासन ७ भामण्डल ८ दुन्दुभि शब्द | Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *AMARKESARKE ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६१ । १४२-चार अनंतचतुष्टय । र १ अनन्तज्ञान २ अनन्तदर्शन ३ अनन्तसुख ४ अनन्तवीर्य ।। १४३-चार घातिया कर्म। १ ज्ञानावर्णकर्म २ दर्शनावर्णकर्म ३ मोहनीय कर्म ४ अंत* रायकर्म। १४-समवशरणकी ११ भूमियां। १ चैत्यभूमि २ खातिभूमि ३ लताभूमि ४ उपवनभूमि। 1 ५ ध्वजाभूमि ६ कल्पांगभूमि ७ गृहभूमि ८ सद्गणभूमि * ९-११ तथा तीन पीठिका, ऐसे ११ भूमि हैं। १४५-समवशरणकी १२ सभाएँ। १ पहली सभा गणधरादि मुनिजन २ दूसरी सभामें, कल्पवासी देवियां ३ तीसरी समामें आर्यिकाएं ओर मनुव्यनी ४ चौथी सभामें भवनवासिनी देवियां ५ पांचवीं । सभामें व्यन्तरणी देवियां ६ छठी सभामें ज्योतिष्क देवियां १७ सातवीं सभामें अपने अपने इन्द्रोंके साथ कल्पवासी देव । * ८ आठवीं सभामे भवनवासी देव ९ नवमी सभामें व्यन्तर देव १० दशवीं सभामें ज्योतिष्क देव ११ ग्यारहवीं सभामें मनुष्य १२ बारहवीं सभामें पशु ऐसे १२ सभा हैं। । १४६-अठारह दोषी क्षुधा २ तृषा ३ जन्म ४ जरा ५ मरण ६ रोग। ** - - -- - - - - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AnaAnamn mrana वृहज्जैनवाणीसंग्रह * ७ भय ८ मद ९ राग १० द्वेष १२ मोह १२ चिन्ता १३ रति । १४ निद्रा १५ विस्मय १६ विषाद १७ खेद १८ स्वेद । ४७-षोडश भावना। दर्शनविशुद्धि २ विनयसम्पन्नता ३ शीलवतेष्वनति* चारः ४ अभीक्षणज्ञानोपयोग ५ संवेग ६ शक्तितस्त्याग ७ । तप ८ साधुसमाधि ९ वैय्याव्रत्यकरण १० अर्हन्तभक्ति ११ ॥ आचार्यभक्ति १२ बहुश्रुतिभक्ति १३ प्रवचनभक्ति १४ आवश्यकापरिहान ५ मार्गप्रभावना १६ प्रवचनवात्सल्य । १४८-दशप्रकार के कल्पवृक्ष १ वादिनांग २ पात्रांग ३ भूषणांग ४ पानांग ५ भोजनांग ६ पुष्पांग ७ ज्योतिरांग ८ गृहांग ९ वस्त्रांग और ५ ३० दीप्तांग। १४९-बारह चक्रवर्ती। १ भरत महाराज २ सगर ३ मघवा ४ सनत्कुमार ५ शांतिजिन ६ कुंथुजिन ७ अरहजिन ८ सुभूमि ९ पद्मनामि । १० हरिषेण ११ जयसेन १२ ब्रह्मदत्त ।। १५०-चक्रवर्तीके राज्य के सात अंग। १ ग्वामी २ मन्त्री ३ जनसमूह प्रजा ४ कोट ५ खजाना। ६ मित्रगण ७ सेना। १५१-चक्रवर्तीके चौदहरत्न। * १ सेनापति २ गृहपति ३ शिल्पकार ४ पुरोहित ५ स्त्री Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ૩ I now 37.32www ६ हस्ती ७ अश्व ये सात सजीव रत्न हैं । १ काकिनीमणि २ चक्ररत्न ३ चूड़ामणि ४ चर्म ५ छत्र ६ खड्ग ७ दण्ड ये सात अजीव रत्न हैं । १५२ - चक्रवर्तीके नवविधि । १ कालनिधि २ महाकालनिधि ३ मानवनिधि ४ पिंगलनिधि ५ नैसर्पनिधि ६ पद्मनिधि ७ पांडुकनिधि ८ शंखनिधि ९ नानारत्ननिधि | १५३ - चक्रवती के दश भोग । wwwwwwww १ रत्ननिधि २ सुंदर स्त्रियां ३ नगर ४ आसन ५ शय्या ६ सैन्य ७ भोजन ८ पात्र ९ नाट्यशालाएं ९० वाहन | १५४ - नवनारायण । १ त्रिपृष्ट २ द्विपृष्ट ३ स्वयंभू ४ पुरुषोत्तम ५ पुरुषसिंह पुण्डरीक ७ दत्त ८ लक्ष्मण ९ कृष्ण । १५५ - नव प्रतिनारायण । १ अश्वग्रीव २ तारक ३ मेरुक ४ निशुंभ ५ मधु (मधुकैटभ) ६ बली ७ महलारण ८ रावण ९ जरासंध । १५६ - नव बलभद्र । १ विजय २ अचल ३ भद्र ४ सुप्रभ ५ सुदर्शन ६ आनंद ७ नन्दन (नन्द) ८ पद्म (रामचन्द्र ) ९ राम ( बलभद्र ) । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAAAMANAANANAMAA . ३६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह १५७-नव नारद । १ भीम २ महाभीम ३ रुद्र ४ महारुद्र ५ काल ६ महाकाल ७ दुर्मुख ८ नरकमुख ९ अधोमुख । १५८-ग्यारह रुद्र। १ भीमबली२ जितशत्रु ३ रुद्र ४ विश्वानल ५ सुपतिष्ठ ६ अचल ७ पुण्डरीक ८ अजितधर ९ जितनामि १० पीठ । 1 ११ सात्यकी। १५९-चौबीस कामदेव । ४ १ बाहुबली २ अमिततेज ३ श्रीधर ४ दशभद्र ५ प्रसेन जीत ६ चन्द्रवर्ण ७ अग्निमुक्ति ८ सनत्कुमार (चक्रवर्ती) * ९ वत्सराज १० कनकप्रभु ११ सेधवर्ण १२ शांतिनाथ (तीर्थ*कर) १३ कुंथुनाथ (तीर्थकर) १४ अरहनाथ (तीर्थकर ) १५ ॥ विजयराज १६ श्रीचन्द्र १७ राजा नल १८ हनुमान १६ वल-10 राजा २० वसुदेव २१ प्रद्युम्न २२ नागकुमार २३ श्रीपाल । १२४ जंबूस्वामी। १६०-चौदह कुलकर। * १ प्रतिश्रुति २ सन्मति ३ क्षेमकर ४ क्षेमंधर ५ सीमंकर ६ सीमंधर ७ विमलवाहन ८ चक्षुष्मान् ९ यशस्वी १० अ-1 भिचंद्र ११ चंद्राम १२ मरुदेव १३ प्रसेनजित १४ नाभिराजा।। १६१-बारह प्रसिद्ध पुरुष । १ नाभि २ श्रेयांस ३ बाहुबली ४ भरत ५ रामचन्द्र Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * www. ~ ~ --- वृहज्जैनवाणीसंग्रह । ६ हनुमान ७ सीता ८ रावण ९ कृष्ण १० महादेव ११ भीम । १२ पार्श्वनाथ। । १६२-विदेहक्षेत्रके विद्यमान बीसतीर्थकर। * १ सीमंधर २ युगमंधर ३ बाहु ४ सुबाहु ५ सुजात * स्वयंप्रभु ७ वृषभानन ८ अनंतवीर्य ९ सूरप्रभ १० विशाल कीर्ति ११ वज्रधर १२ चंद्रानन १३ भद्रबाहु १४ भुजंगम * १५ ईश्वर १६ नेमप्रभ (नमि) १७ वीरसेण १८ महाभद्र। ११८ देवयश २० अजितवीर्य । १६३-चौदह गुणस्थान। मिथ्यात्व २ सासादन ३ मिश्र ४ अविरत सम्यक्त्व १५ देशविरत ६ प्रमत्तविरत ७ अप्रमत्तविरत ८ अपूर्वकरण । ९ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसांपराय ११ उपशांतकषाय वा । उपशांतमोह १२ क्षीणकषाय वा क्षीणमोह १३ सयोगकेवली १४ अयोगकेवली। १६४- ग्यारह प्रतिमा। __१ दर्शनप्रतिमा २ व्रतप्रतिमा, ३ सामायिकप्रतिमा, ४ प्रोषधोपवासप्रतिमा, ५ सचित्तत्यागप्रतिमा, ६ गत्रिभुक्ति त्यागप्रतिमा, ७ ब्रह्मचर्यप्रतिमा, ८ आरम्भत्यागप्रतिमा, १९ परिग्रहत्यागप्रतिमा, १० अनुमतित्यागप्रतिमा, ११ ॥ * उदिष्टत्यागप्रतिमा । १६५-श्रावकके १७ नियम। १ भोजन, २अचितवस्तु, ३ गृह, ४ संग्राम, ५ दिशा-1 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anAANAAN.rnmAARAAAA ArrnAAAAAAAI ३६६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह गमन, ६ औषधिविलेपन, ७ तांबूल, ८ पुष्पसुगन्ध, ९ नांच, १० गीतश्रवण, ११ स्नान, १२ ब्रह्मचर्य, १३ आभू*षण, १४ वस्त्र, १५ शैय्या, १६ औषध खानी, १७ घोड़ा । बैलादिककी सवारी * * १६६-बाईस परीषह। क्षुधापरीषह २ तृषा परीषह ३ शीतपरीपह ४ उष्णपरीषह ५ दंशमशकपरीषह ६ नग्नपरीपह ७ अरतिपरीषह * ८ स्त्रीपरीषह ९ चर्यापरीषह १० निषद्यापरीपह, ११ शय्या* परीषह १२ आक्रोशपरीषह, १३ वधपरीषह, १४ याच्या परी पह, १५ अलाभपरीपह, १६ रोगपरीषह १७ तृणस्पर्शपरीपह, ११८ मलपरीषह, १६ सत्कारपुरस्कार परीषह, २० प्रज्ञापरी-1 पह २१ अज्ञानपरीषह २२ अदर्शन परीपह। १६७-सप्त व्यसन दोहा-जूआ खेलन मांसमद, वेश्याविसन शिकार। ___चोरी पररमनीरमन, सातों व्यसन विसार ॥ १६८-बाईस अभक्ष्य। पांच उदम्बर-उदम्बर [गूलर], २ कटूम्बर ३ वड़फल, पीपलफल, ५ पाकर फल [ पिलखन फल ] * तीन मकार १ मध २ मांस, ३ मधु,। * नोट-प्रतिदिन जिन चीजोंकी जरूरत हो उसका प्रमाण कर * कि आज यह कलंगा शेषका प्रतिदिन त्याग करें। * 2 25-25 * Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......... ... M uou.vn . 关于《 长岭分分分分分种类 वृहज्जनवाणीसंग्रह ३६७ ।। www. in है शेष १४ अभक्ष्य-ओला, विदल, रात्रिभोजन,बहुवीजा, बैगन, कन्दमूल,वगैर जाना फल,अचार, विष, माटी, घरफ। तुच्छ फल, चलित रस, माखन । ___ १६९-दशलक्षण धर्म । १ उत्तमक्षमा, २ मार्दव, ३ आर्जव, ४ सत्य, ५ शौच, १६ संयम, ७ तप, ८ त्याग, ९ अकिंचन १० ब्रह्मचर्य । १७०-तीनप्रकारका लोक। १ ऊवलोक २ मध्यलोक २ पाताललोक। १७१-सात नरक। १ धर्मा २ वंशा ३ मेघा ४ अंजना ५ अरिष्टा ६ मघवी ७ माघवी। १७२-नरकोंके १९ पटल । पहले नरकमें १३ पटल, दूसरे नरकमें ११ पटल, तीसरे नरकमें ९ पटल, चौथे नरकमें ७ पटल, पांचवें नरकमें ५ क पटल, छठे नरकमें ३ पटल, सातवें नरकमें १ पटल, इस प्रकार सातौ नरकोंमें ४९ पटल हैं। १७३-नरकोंके ४९ इन्द्रकविल। पहले नरकमें इन्द्रक विले १३, दूसरे नरकमें ११ तीसरे नरकों ९ चौथे नरकमें ७ पांचवे नरकमें ५ छठेमें ३ सातवें । । नरकमें १, इस प्रकार सातौ नरकोंमें कुल ४६ इंद्रकबिले हैं।। * -*-5-25 * Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K -52-25 AAAAAAAAAAAAA AAAAAAAAAAAN । ३६८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह। १७४-नरकोंके श्रेणिबद्ध विलोंकी सख्या।। 'प्रथम नरकमें श्रेणीबद्ध विले ४४२० दूसरे नरकमें। * २६८४ तीसरे नरकमें १४७६, चैथे नरकमें ७००, पांचवें । नरकमें २६० छठे नरकमें ६० और सातवें नरकमें ४ ऐसे * सातौ नरकोंमें ९६०४ इन्द्रकविले हैं। १७५-नरकोंके प्रकीर्णक बिल । . प्रथम नरकमें प्रकीर्णक विल २९,९५,५६७ दूजे नरकमें। 1 २४,९७,३०५ तीजे नरकमें ८४,९८,५१५ चौथे नरकमें । ६,९९,२२३ पांचवें नरकमें २,९९,७३५ छठे नरकमें । * ९९,९७२ सातवें नरकमें नहीं है। इसप्रकार तिरासी ८३ । लाख नब्बे ९० हजार तीन ३ सौ सैंतालीस ४७ प्रकीर्णक बिल हैं। १७६-चारप्रकारका दुःख। १क्षेत्रजनित दुःख २ शरीरजनित दुःख ३ मानसिक S दुःख ४ असुरकुमार देवोंकृत दुःख । १७७-छयानवै कुभोगभूमि। लवण समुद्रके दोनों किनारोंपर २४-२४ कुभोगभूमियां । है, इसीप्रकार कालोदधि समुद्र के दोनों किनारोंपर २४-२४ कुभोगभूमियां हैं ऐसे कुल ९६ हुई । १७८-पांच मंदरगिरि। 1 जम्बूद्वीपमें मन्दर [मेरु] गिरि १, धातकीखंडमें २ और * पुष्करद्वीपमें २ इसतरह ५ मंदरगिरि हैं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viwww.www wwvvv wwwwwwwwww ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६६ १७९-बीरूयमकगिरि। सीता नदीके पूर्व तटपर 'चित्र' नामा एक यमकगिरि है, पश्चिम तटपर 'विचित्र नामा एक यमकगिरि है, सीतोदा नदीके पूर्व तटपर 'यमक' नामवाला एक यम* गिरि है और पश्चिम तटपर 'मेघ' नामवाला एक यमक गिरि है, इसप्रकार एक मेरुसम्बन्धी चार यमगिरि हैं ऐसे पांचौ मेरुसम्बन्धी २० यमगिरि हैं। १८०-एकसौ सरोवर। र देवकुरु भोगभूमिमें सरोवर ५, उत्तरकुरु भोगभूमिमें * सरोवर ५, दोनों ओरके दोनों भद्रशाल बनोंमें ५-५ एसे। एक मेरुसम्बन्धी २० और पांचों मेरुके १०० सरोवर हैं। १८१-एक हजार कनकाचल सीता और सीतोदा महानदियोंमें देवकुरु भोगभूमि । और उत्तरकुरु भोगभूमिके २ क्षेत्र तथा इन ही सीता और। सीतोदा महानदियोंमें पूर्व और पश्चिम भद्रशालके २ क्षेत्र, इन चारों क्षेत्रोंमें पांच पांच द्रह हैं, ऐसे इन बीस द्रहोंके किनारेपर पक्तिरूप पांच पांच कांचनगिरि हैं, ऐसे १ मेरुके * २०० कांचनगिरि और पांचों मेरुके १००० कांचनगिरि हैं। १८२-चालीस दिग्गज पर्वत । * पूर्व भद्रशालमें 'पद्मोत्तर' और 'नील' २ दिग्गज देवकुरु । में 'सस्तिक' और 'अंजन २ दिग्गज, पश्चिम भद्रशालमें। * कुमुद और पलाश २ दिग्गज, उत्तरकुरुमें अवतंश और Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwuur ve .wwwwwwwwwwwwwwww A RRAKSHIKARA* * ३७० वृहज्जैनवाणीसंग्रह रोचन २ दिग्गज ऐसे एक मेरुसंबंधी आठ दिग्गज हैं। 2. इसप्रकार ५ मेरुसम्बन्धी ४० दिग्गज हुए। १८३-सौ वक्षार पर्वत । १ माल्यवान २ महासौमनस ३ विद्युतप्रभ ४ गंधमादन ये चारों गजदन्त पर्वत मेरुकी ईशानादि चारों * विदिशाओंमें हैं । १ चित्रकूट २ पद्मकूट ३ नलिन ४ एक शल ये चारों वक्षार पर्वत सीता नदीके उत्तर तटपर भद्र1 शालवेदीसे आगे क्रमसे हैं। १ त्रिकूट २ वैश्रवण ३ अंज नात्मा ४ अंजन ये चारों वक्षार पर्वत सीता नदीके दक्षिण * तटपर देवारण्य वेदीसे आगे क्रमसे हैं । १ श्रद्धावान २ विजयवान ३ आशीविष ४ सुखावह ये चारों वक्षार पर्वत पश्चिम विदेह सीतोदा नदीके दक्षिण तटपर भद्रशाल वेदी* से आगे क्रमसे हैं । १ चन्द्रमाल २ सूर्यमाल ३ नागमाल ! १४ देवमाल ये चारों वक्षार पर्वत पश्चिम विदेह सीतोदा। नदीके उत्तर तटपर देवारण्य वेदीसे आगे क्रमसे हैं। ४५ * गजदन्त पर्वत, १६ वक्षार पर्वत मिलकर २० वक्षार हुवे, यह एक मेरुसंवन्धी हैं, पांचों मेरुके १०० हुए | इसतरह। * वक्षार पर्वत १०० हैं। १८४-साठ विभंगानदी । * १ गाधवती २ द्रहवती ३ पंकवती यह तीनों नदी सीता नदीके उत्तरवाले वक्षार पर्वतोंके बीच बीचमें हैं । १ तप्तजला *२ मत्तजला ३ उन्मत्तजला यह तीनों नदियां सीतानदीके । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-*- * - * *- * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३७३ । हरिकान्ता ७ सीता ८ सीतोदा ९ नारी १० नरकांता ११ स्वर्णकूला १२ रूप्यकूला १३ रक्ता १४ रक्तोदा यह * १४ महानदी एक मेरुसंबंधी हैं, पांचों मेरुकी ७० महा। नदी हैं। १९१-बीस नाभिगिरि। १ श्रद्धावान २ विजयवान ३ पद्मवान ४ गन्धवान यह। यह एक मेरुसंबन्धी ४ नाभिगिरि हैं, पांचों मेरुके २० * नामिगिरि हैं। १९२-एकसौ सत्तर विजया पर्वत ।। १६० विजार्ध पर्वत तो १६० विदेहक्षेत्रमें और ५ भरत-1 क्षेत्रमें, ५ ऐरावतक्षेत्रमें इसतरह विजया पर्वत १७० हैं। * १९३-एकसौ सत्तर वृषभगिरि पर्वत। । । १६० वृषभगिरि तो विदेहक्षेत्रोंमें, ५ भरतक्षेत्रमें और ५ ॥ ऐरावतक्षेत्रमें ऐसे वृषभगिरि १७० हैं । १९४-चौबीस लोकांतिक देव । १ सारखत २ आदित्य ३चह्नि ४ अरुण ५ गर्दतोय ६ तुषित ७ अव्याबाध ८ अरिष्ट ९ अग्न्याभ १० सूर्याम ११ ॥ * चन्द्राभ १२ सत्याभ १३ श्रेयस्कर १४ क्षेमंकर १५ घृषभेष्ट । १६ कामचर १७ निर्माणरज १८ दिगंतरक्षित १६ आत्मरक्षित १२० सर्वरक्षित २१ मरुत २२ वसु २३ अश्व २४ विश्व। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- KE - 2 ३७४ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १९५-आठ ऋद्धि। १ अणिमा २ महिमा ३ लघिमा ४ गरिमा ५ प्राप्ति ६ प्राकाम्य ७ ईशत्व ८ वशित्व। . १९६-पांच लब्धि। १क्षायोपशम लब्धि २ विशुद्धलब्धि ३ देशनालब्धि * ४ प्रायोग्यलब्धि ५ करणलब्धि। १९७-दशप्रकारका सम्यग्दर्शन। १ आज्ञा सम्यक्त्व २ मार्ग सम्यक्त्व ३ वीज सम्यक्त्त्व ४ उपदेश सम्यक्त्व ५ सूत्र सम्यक्त्व ६ संक्षेप सम्य* क्त्व ७ विस्तार सम्यक्त्व ८ अर्थ सम्यक्त्व ९ अवगाढसम्यक्त्व १० परमारगाढ़ सम्यक्त्व ।। १०८-सात मौनसमय। १ भोजन समय २ मैथुन समय ३ वमन समय ४ स्नान । समय ५ मलमोचन समय ६ सामायिक समयं ७ पूजन समय। १९९-भोजनके सात अन्तराय। १ हड्डी २ मांस ३ पीव (राध) ४ रक्त ५ गीला चमड़ा। १६ विष्ठा ७ मराहुआ प्राणी इनके दृष्टिगोचर होनेसे । श्रावकको भोजनका त्याग करना चाहिये ।। २००-पाचप्रकारके ब्रह्मचारी। १ उपनयन २ अदीक्षित ३ अवलंब ४ गूढ ५ नैष्ठिक।। ** * * * Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हज्जैनवाणीसंग्रह HAARAMAAN Anne २०१-छः आर्यकर्म। 1 १ इज्या २ वार्ता ३ दत्ति ४ संयम ५ स्वाध्याय ६ तप।। । २०२-दश पूजा। १ अर्हन्तपूजा २ सिद्धपूजा ३ आचार्यपूजा ४ उपाध्यायपूजा ५ सर्वसाधुपूजा ६ जिनवित्रपूजा ७ शास्त्रपूजा ८ जिनवाणीपूजा ९ सम्यग्दर्शनपूजा१० दशलक्षणधर्मपूजा।। २०३-चारप्रकारके ऋषि। १ राजर्षि २ ब्रह्मर्षि ३ देवर्षि ४ परमर्षि । २०४-बारह अनुप्रक्षा । १ अवैवानुप्रेक्षा २ अशरणानुरेक्षा ३ संसारानुप्रेक्षा । ४ एकत्वानुभेक्षा ५ अनेकत्वानुप्रेक्षा ६ अशुचित्वानुप्रेक्षा । * ७ आस्त्रवानुप्रेक्षा ८ संवरानुमेक्षा ९ निर्जरानुप्रेक्षा १० लोकानुप्रेक्षा ११ बोधदुर्लभानुप्रेक्षा १२ धर्मानुभेक्षा । २०५-दशप्रकारका प्रायश्चित्त । १ आलोचना २ प्रतिक्रमण ३ उभय ४ विवेक ५ व्युत्सर्ग ६ तप ७ छेद ८ परिहार ९ उपस्थापन १० मूल ऐसे। * दश प्रायश्चित्त हैं। २०६-बारहप्रकारका तप । १ अनशन २ अक्मौदर्य ३ व्रतपरिसंख्यान ४ रसपरित्याग ५ विविक्तशय्यासन ६ कायक्लेश ऐसे ६वाह्य* तप हैं और १ प्रायश्चित २ बिनय ३ वैय्यावृत्य ४ स्वा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ध्याय ५ व्युत्सर्ग ६ ध्यान ऐसे ६ आभ्यन्तर तप, सब । मिलकर वारहप्रकार हैं। २०७-पांचप्रकारका खाध्याय,। * १ वाचना २ पृच्छना ३ अनुपेक्षा ४ आम्नाय ५ धर्मो* पदेश इसप्रकार स्वाध्याय ५ पांचप्रकार है। २०८-दशप्रकारका धर्मध्यान। १ अपायविचय २ उपायविचय ३ जीवविचय ४ । अजीवविचय ५ विपाकविचय ६ विरागविषय ७ भवविचय । ८ संस्थानविचय ९ आज्ञाविचय १० हेतुविचय ऐसे धर्म्यध्यान १० प्रकार है। २०९-सात परमस्थान।। १ सजाति २ सद्गृहीत्व ३ परिव्राज्य ४ सुरेन्द्रता ५ । साम्राज्य ६ परमार्हन्त्य ७ परिनिर्वाण। २१०-ग्यारहप्रकारकी निर्जरा। १ सातिशयमिथ्यादृष्टि २ सम्यग्दृष्टि ३ श्रावक ४ विरत (मुनि) ५ अनंतवियोजक ६ दर्शनमोहक्षपक ७ उपशमक ! ८ उपशांतमोह ९ क्षपक १० क्षीणमोह ११ जिन इसतरह निर्जराके स्थान ११ हैं। २११. मतिज्ञानके ३३६ भेद। मतिज्ञान ४ प्रकार १ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय ४ धारणा।। * मतिज्ञान विषयक पदार्थ १२-१ बहु-२ अल्प ३ बहुविध । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * SATIK K * wwwuuuuuuuuuurvivvvvvvvvv ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३७७ ४ एकविध ५ क्षिप्र ६ अक्षिा ७ निःसृत ८ अनिःसृत ९ । उक्त १० अनुक्त ११ ध्रुव १२ अध्रुव । यह पदार्थ व्यक्त रूप हैं जिसे अर्थावग्रह कहते हैं और यही पदार्थ अव्यक्तरूप हैं जिसे व्यंजनावग्रह कहते हैं। अर्थावग्रहका ज्ञान पांचों इन्द्री और छठे मनसे होता है। व्यंजनावग्रहका ज्ञान मन और नेत्रके सिवा चारों इन्द्रीसे होता है इसकारण, । अर्थावग्रहके भेद = ४x१२x६ = २८८ और व्यंजनावग्रहके भेद १४१२४१=४८ इसप्रकार २८८+४८-३३६ कुल भेद हैं। २१२-मोक्षशास्त्रम्। (आचार्य श्रीमदुमास्वामिविरचितम्) । मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूमृताम् ।। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां बन्दे तद्गुणलब्धे ॥ ___ सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्गः ।।१॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।।२।। तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवाश्बन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ नामस्थापनाद्रव्यभारतस्तन्न्यासः ॥५॥ प्रमाणनयैरधिगमः ॥६॥ निर्देश स्वामित्वसाधनाऽधिकरणस्थितिविधानतः ॥७॥ सत्संख्या। क्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च ॥ ८॥ मतिश्रुताव धिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् ॥९॥ तत्प्रमाणे ॥१०॥ आधे । * परोक्षम् ॥११॥ प्रत्यक्षमन्यन् ॥१२॥ मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽमिनिबोध इत्यनान्तरम् ॥१३ । तदिद्रियानिन्द्रियनिमित्तम् ।।१९।। अवग्रहेहाऽवायधारणाः ॥१५॥ बहुबहु-1 2 * 5 * -* Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Annnnnnnnnnn ३७८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * विधक्षिप्रानिःसृताऽनुक्तगणां सेतरागाम् ॥१६॥ अर्थस , ॥७॥ व्यञ्जनस्थावग्रहः ॥१४ान चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१६॥ श्रुतं मतिपूर्व द्यनेकद्वादशभेदम् ॥२०॥ भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणाम् ॥२६॥ क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषा णान् ॥२२॥ ऋजुविपुलमती मनापर्ययः ॥२०॥ विशुद्ध्यके प्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥ विशुद्धक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यो ऽवधिमनःपर्ययोः ॥२५॥ मतिश्रुतयोनिवन्धो द्रव्येष्वसर्वप- 1 र्यायेषु ॥२६॥ रूतिष्यवधेः ॥२७। तदनन्तभागे मनःपर्य यस्य ॥२८॥ सद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ एकादीनि । * भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः ॥३०॥ मतिश्रुतावधयो* विपर्ययश्च ॥३॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् । ॥३२॥ नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसममिरूदेवभूतानयाः ॥ ___ ज्ञानदर्शनयोस्तत्वं नयानां चेच लक्षणम् । ___ ज्ञानस्य च प्रमाणत्वमध्यायेऽस्मिन्निरूपितम् ।। इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र प्रथमोऽध्यायः । __ औपशमिकक्षायिको भाचौं मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमो। दयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा । * यथाक्रमम् ।।२।। सम्यक्त्वचारित्रे ॥३॥ ज्ञानदर्शनदानला-1 भभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतु*त्रित्रिपंचभेदाः सम्क्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥ गति कषायलिंगमिथ्यादर्शनाऽज्ञानासंयताऽसिद्धलेश्याश्चतुश्चतु* स्न्येकैकैकैकपड्भेदाः॥६॥ जीवभव्याऽभव्यत्वानि च ॥७ । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३७६ उपयोगो लक्षणम् ।।८॥स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥९॥संसारि। णो मुक्ताश्च ॥१०॥ सनमस्कोऽमनस्काः ॥११॥ संसारिणस्त्रसस्थावराः॥१२॥ पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ॥१३॥ द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ पञ्चन्द्रियाणि ॥१५॥ । द्विविधानि ॥१६॥ निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्।।१७।। लब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम् ॥१८॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुश्रोत्राणि ॥१९॥ स्पर्शरसगंधवर्णशब्दास्तदर्थाः ।।२ ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥२१॥ वनस्पत्यन्तानामेकम् ॥२२॥ कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि ॥२३॥ संज्ञिनः समनस्काः । ॥२४॥ विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥२५||अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ विग्रहवती च संसारिणः प्राक् । चतुर्यः ॥२८॥ एकसमयाऽविग्रहा ॥३६॥ एकं द्वौ त्रीन्याऽनाहारकः ॥३०॥ सम्मूर्छनगर्भोपपादाजन्म ॥३१॥ सचि तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥३२॥ जरा-1 * युजांडजपोतानां गर्मः।।३३॥ देवनारकाणामुपपादः ॥३४॥ शेषाणां सम्भूर्छनं ॥३५॥ औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजस• कार्मणानि शरीराणि ॥३६॥ परं परं सूक्ष्म ॥३७॥ प्रदेशतोऽ संख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥३८॥ अनंतगुणे परे ॥३९॥ अ-१ प्रतीपाते ॥४०॥ अनादिसंबंधे च ॥४१॥ सर्वस्य ॥४२॥ * तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्थ्यः ॥४३ निरुप* भोगमंत्यं ॥४४॥ गर्भसंमूर्छनजमाद्यं ॥४५॥ औषपादिकं । | वैक्रियिकं ॥४६॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४७॥ तैजसमपि ॥४८॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३८० ^^^^^AAAAAA AM शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४९ ॥ नारकसंमूच्छिनो नपुंसकानिं ॥५०॥ न देवाः ॥५१॥ शेषास्त्रिवेदाः ||५२॥ औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुपोऽनपत्रर्त्यायुषः ॥५३॥ Ar AAAA . the theme the p इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे द्वितीयोऽध्यायः ||२|| रत्तशर्करावालुकापंकधूमतमो महातमः प्रभा भूमयो घनांवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽधः ॥ १ ॥ तासु त्रिंशत्पंचवि शतिपंचदशदशत्रिपंचे।नैकनरकशतसहस्राणि पंच चैव यथाक्रमं ||२|| नारका नित्याऽशुभतरलेश्या परिणामदेह वेदनाविक्रियाः ॥३॥ परस्परोदीरितदुःखाः || ४ || संक्लिष्टाऽसुरोदीरितदुःखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥५॥ तेष्वेक त्रिसप्तदश सप्तदश द्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्वानां परा स्थितिः ||६|| जंबूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ||७|| द्विद्विर्विष्कंभाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः ||८|| तन्मध्यमेरुनाभिर्वृत्तो योजनशतसहस्र विष्कंभो जंबूद्वीपः ||९|| भरतहैमवत हरिविदेह रम्यक हैरण्यवतैरावतवर्षाक्षेत्राणि ॥ १० ॥ तद्विभाजिना: पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषिधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः॥११॥ हे मार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ॥१२॥ मणिविचित्रपाश्री उपरिमूले च तुल्यविस्ताराः ॥ १३ ॥ पद्ममहापद्म तिगिछ केशरिमहा पुंडरीकपुंडरीका हृदास्तेषामुपरि ||१४|| प्रथमो योजन सहस्रायामस्तदर्द्धविष्कंभो हृदः ||१५|| दशयोजनावगाहः ॥ १६ ॥ र सत्र मे Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -- --- - --- - वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३८१ ॥ तन्मध्ये योजनं पुष्करं ॥ १७ ॥ तद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च ॥ १८ ॥ तन्निवासिन्यो देव्यः श्रीहीतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पल्योपमस्थितयः ससामानिकपरिप काः॥१९॥ गंगासिंधुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकांतासीतासी- तोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्त मध्यगाः ॥ २०॥ द्वयोर्द्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः ॥२१॥ शेषा* स्त्वपरगाः ॥२२॥ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिंध्वदयो नद्यः ॥ २३॥ भरतः षड्विंशतिपंचयोजनशतवि। स्तारः षट्चकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥२४॥ तद्विगुण द्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहहांताः ॥२५॥ उत्तरा * दक्षिणतुल्याः ||२६|| भरतैरावतयोवृद्धिहासौ षट्समयाभ्याहै मुत्सपिण्यवसर्पिणीभ्यां ॥२७॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थ* ताः॥२८॥ एकद्वित्रिपल्योपमस्थितयो हैमवतकहारिवर्षकदैवकुरवकाः ॥२९॥ तथोत्तराः ॥३०॥ विदेहेषु संख्येय कालाः ॥३१॥ भरतस्य विष्कमो जंबूद्वीपस्य नवतिशतभा-. * गः ॥३२॥ द्विीतकीखंडे ॥३३॥ पुष्कराढ़े च ॥३४॥ प्रा* इमानुषोत्तरान्मनुष्यः ॥३५॥ आर्याम्लेच्छाश्च ॥३६॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः ।। ॥३५॥ नृस्थिती परावरे त्रिपल्योपमांतर्मुहूर्ते ॥३८॥ तिर्यग्यो निजानां च ॥३९॥ इति तत्त्वार्थधिगमे मोक्षशास्त्रे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥ । देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥आदितस्त्रिषु पीतांतलेश्याः ॥२॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Navvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvu0-Ja.. । ३८२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यंताः ॥३॥ इंद्रसा• मानिकत्रायस्त्रिंशत्पारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णका*भियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः ॥४॥ त्रायस्त्रिंशल्लोकपाल वा व्यंतरज्योतिष्काः ॥५॥ पूयोर्वीन्द्राः ॥६॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ।। ७ ।। शेषाः स्पर्शरूपब्दमनःप्रवीचाराः ।।८।। परेऽप्रवीचाराः ॥९॥ भवनवासिनोसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः||१०|व्यंतराः । किन्नरकिंपुरुषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११ ॥ ज्योतिष्काः सूर्याचन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ॥१२॥ मेल्प्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके।। तत्कृतः कालविभागः ॥ वहिरवस्थिताः ॥१५॥ वैमानिकाः ॥ १६ ॥ कल्पोपपन्नाः । कल्पातीताश्च ॥१७॥ उपर्युपरि ॥ सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारे- १ बानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु अवेयकेषु विजयवैजयंतजयंतापराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १९॥ स्थितिप्रभावसुखद्युतिलेश्या विशुद्धींद्रियावधिविषयतोधिकाः ॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१॥ पीतपनशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥२०॥ ब्रह्मलोकालया लोकांतिकाः ||२४|| सारस्वतादित्यवह्वयरु*णगर्दतोयतुषिताव्यावाधारिष्टाश्च ॥२५॥ विजयादिषु द्विचका रमाः॥२६॥ औपपादिकममुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ । स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपम-त्रिपल्योपमा । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwww vvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvx. ** * ----- - वृहज्जनवाणीसंग्रह . ३८३ । । हीनमिताः ॥२८॥सौधर्मेशानयोसगिरोपमेऽधिक ॥६॥सान कुमारमाहेन्द्रयोः सप्ता॥ ३०॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशमिरधिकानि तु ॥३१॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु । । अवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥३२॥ अपरा पल्योप- 1 ममधिकं ।।३३|| परतः परतः पूर्वापूर्वानंतराः ॥३४॥ नार काणां च द्वितीयादिषु ॥३५॥ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां * ॥३६॥ भवनेषु च ॥३७॥ व्यंतराणां च ॥४०॥ तदष्टभागोऽ * परा ॥४१॥ लोकांतिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषां ॥४२॥ . इति तत्त्वार्धाधिगमे मोक्षशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥ * अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः॥१॥ द्रव्याणि ॥२॥ जीवाश्च ॥३॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥४॥ रूपिणः पुद् गलाः ॥ आआकाशादेकद्रव्याणि।।६॥निष्क्रियाणि च।। असं *ख्येयाः प्रदेशाधर्माधमैकजीवानां ।।८। आकाशस्यानंताः॥ संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानां ॥१०॥ नाणोः ॥ लोका*काशेऽवगाहः ॥१२॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने । एकपदेशादिषु । भाज्यः पुद्गलानां॥१६॥असंख्येयेभागादिषु जीवानांप्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माध-५ मयोरुपकारः ॥१७॥ आकाशस्यावगाहः ॥१८॥ शरीरवाङ् । । मनः प्राणापानाः पुद्गलाना॥१९॥ सुखदुःखजीवितमरणो-1 पग्रहाश्च ॥२०॥ परस्परोपग्रहो जीवानां ॥२३॥ वर्तनापरि* णामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य ॥२२॥ स्पर्शरसगंधवर्ण२. वंतः पुद्गलाः||२३||शब्दवंधसौम्यस्थौल्यसंस्थानमेदतम-1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह AMAA AM मीणबंधनसंघातसंस्थान संहनन स्पर्शरसगंधवर्णीनुपूर्व्यगुरु'लघूपघात परघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रससुभगसुस्वरशुभसूक्ष्मपर्याप्तिस्थिरांदेयं यशः कीर्तिसे तराणि तीर्थकरत्वं च ॥ उच्चैनीचैश्च ॥ दनिलाभभोगोपभोगवीर्याणां ॥ आदितस्तिसृणामंतरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः परा स्थितिः ।। सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ विंशतिर्नामगोत्रयोः || १६ | त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ अपरा द्वादशमहूर्ता वेदनीयस्य || १८ || नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १६ ॥ शेषाणामं तर्मुहूर्त्ता ॥ २० ॥ विपाकोनुभवः ॥२१॥ स यथानाम ||२२|| ततश्च निर्जरा ||२३|| नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनंतानंतप्रदेशाः ||२४|| सद्वेद्यशुभायुनार्मगोत्राणि पुण्यं ॥ २५ ॥ अतोऽन्यत्पापं ||२६|| इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र ऽष्टमोध्यायः ॥ ८॥ आस्रवनिरोधः संवरः ॥ १॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः ॥२॥ तपसा निर्जरा च ||३|| सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः || ईर्याभाषैणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ||५|| उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्माः ॥६॥ अनित्याशरण संसारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मखाख्यात तत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षाः ||७|| मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः ||८|| क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्री Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ~ ~~~~Vvvm www wwwvi KARNAKAKASHAKAKAR* हजनवाणीसंग्रह ३८६ निषद्याशय्याक्रोशवधयानालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्का। रपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ॥ ९॥ सूक्ष्मसापरायच्छमस्थवीतरायोचतुर्दश ॥१०॥ एकादश जिने ॥११॥ बादरसां पराये सर्वे ॥१२॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने ॥१३॥ दर्शनमोहां। * तराययोरदर्शनालाभौ ॥१४॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयानासत्कारपुरस्काराः ॥१५॥ वेदनीये शेषांक ॥६॥ एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नकोनविंशतिः ॥१७॥ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथा । ख्यातमिति चारित्रं ॥१८॥ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्या* नरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा वाह्य तपः ॥१६॥ प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्यस्वाध्यायव्युसर्गध्यानान्युत्तरं॥२०॥ नवचतुर्दशेपंचद्विभेदायथाक्रमं प्राग्ध्यानात् ॥२१॥ आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥शा ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः ॥ २३ ॥ आचार्यों-1 पाध्यायतपस्विशैक्ष्यालानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानां॥२४॥ क वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः ॥२५|| वाह्याभ्यंत। रोपध्योः ॥२६॥ उत्तमसंहननस्यैकाग्राचिंतानिरोधो ध्यान मांतर्मुहूर्तात् ॥२ा आर्चसेद्रधर्म्यशुक्लानि ॥२८॥ परे मोक्ष। हेतू॥२९॥ आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृति- । * समन्वाहारः ॥३०॥ विपरीत मनोज्ञस्य ॥३१॥ वेदनायाश्च । ॥३२॥ निदानं च ।।३३।। तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयताना . ॥३४॥ हिंसानृस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतददेशविर* - * -* Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YAKARATHIKARAKSHANKARAK RAMPARANAARAAAAAAAAAA ३६० वृहज्जैनवाणीसंग्रह । तयोः ॥३५॥ आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म ॥ शुक्ले । चाये पूर्वविदः ॥३॥ परे केवलिनः ॥३८॥ पृथक्त्वकत्व- । वितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवतीनि॥ ३९॥ * यकयोगकाययोगायोगानां ॥४०॥ एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥४६॥ अवीचारं द्वितीयं ॥४० वितर्कः श्रुतं ॥४३॥ वीचारोथव्यंजनयोगसंक्रांतिः॥४४॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥ पुलाकचकुशकुशीलनिग्रंथस्नातका निग्रंथाः ॥४६॥ संयमश्रुतप्रतिसे नातीर्थलिंगलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥४॥ 1 इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे नवमोऽध्यायः ॥ ६ - मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच केवलं ॥१॥ बंधहे. त्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ औप* शमिकादिभव्यत्वानां च ॥३। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञा-1 नदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ॥ ४॥ तदनंतरमूर्ध्व गच्छत्यालोकांता त ॥५॥ पूर्वप्रयोगादसंगत्वाइन्धच्छेदात्तथागतिपरिणा* माच ॥६॥ आविद्धकुलालचक्रवद्वयपगतलेपालांबुवदेरंडबी जदग्निशिखावच ॥७॥ धर्मास्तिकायाभावात् ॥ ८॥ क्षेत्र कालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनांतरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ॥९॥ * इति तत्वार्थाधिगमै मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ * अक्षरमात्रपदस्वरहीनं व्यजनसंधिविवर्जितरेफं। साधुभिरत्र । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६१ मम क्षमितव्यं को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे ॥१॥ दशाध्याये । परिच्छिन्ने तत्वार्थे पठिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भाषित तं मुनिपुंगवैः ॥२॥ तत्वार्थसूत्रकतारं गृध्रापिच्छोपलक्षित। । वंदे गणींद्रसंयातमुमास्वामिमुनीश्वरं ॥३॥ इति तत्त्वार्थसूत्रापरनाम तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र समाप्त ॥ २१३-छहढाला। सोरठा-तीन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता। । शिवस्वरूप शिवकार नौं त्रियोग सम्हारिक ॥१॥ पहिली ढाल । चौपाई (१५ मात्रा) जे त्रिभुवनमें जीव अनंत । सुख चाहैं दुखत भयवंत ॥ तातै दुखहारी सुखकारि । कहैं सीख गुरु करुणा धारि ॥२॥ ताहि सुनो भविमन थिर आन। जो चाहो अपनो कल्यान॥ मोह महामद पियो अनादि । भूलि आपको भरमत बादि। * आशा तास भ्रमनकी है बहु कथा । पै कछु कहूं कही मुनि । जथा ॥ काल अनंत निगोदमझार। बीत्यो एकेंद्रिय-तन धार ॥५॥ एक स्वासमें अठदश वार । जन्म्यो मरयो भरयो दुख। भार । निकसि भूमि जल पावक भयो । पवन प्रतेक वनस्पति थयो ॥५॥ दुर्लभ लहि ज्यों चिंतामणी । त्यो परजाय । लही सतणी ॥ लटपिपीलि अलि आदि शरीर । धरधर । कमरयो सही बहु पीर ॥३॥ कबहुं पंचेंद्रिय पशु भयो । मन विन निपट अज्ञानी थयो। सिंहादिक सैनी है कूर । निबल । + -+ -+SRK-5 -* Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R EKK6522 - ARE* AAAAAAAAAAAAAAAAAAA १३९२ हज्जैनवाणीसंग्रह पशू हति खाये भूर ॥णा कवहूं आप भयो बलहीन । सबल* निकरि खायो अतिदीन ॥ छेदन भेदन भूखपियास | भार वहन हिम आतप त्रास ||८॥ वध बंधन आदिकदुख घने। कोटि जीभते जात न भने ॥ अतिसंक्लेश भावतें मरथो।। घोर शुभ्रसागरमें परथो ॥९॥ तहां भूमि परसत दुख इस्यो। वी सहस डसें तन, तिस्यो ॥ तहां राधशोणितवाहिनी ।। कृमिकुलकलित देह दाहिनी ॥१०॥ सेमरतरुजुत दलअसिपत्र । असि ज्यों देह विदा तत्र ॥ मेरुसमान लोह गलि जाय । ऐसी शीत उष्णता थाय ॥११॥ तिलतिल करहिं । * देहके खंड । असुर मिडावें दुष्टप्रचंड । सिंधुनीरतै प्यास न * जाय । तौ पण एक न बूंद लहाय ॥१२॥ तीनलोकको नाज • जु खाय । मिटै न भूख कणा न लहाय ॥ ये दुख बहु सा*गरलौं सहै । कर्मजोगते नरतन लहै ॥१३॥ जननी उदर । बस्यो नवमास । अंग सकुचत पाई त्रास ॥ निकसत जे दुख । पाये घोर । तिनको कइत न आवै ओर ॥१॥ वालपनेमें । ज्ञान न लह्यो। तरुणसमय तरुणीरत रह्यो । अर्घमृतकसम । बूढ़ापनो। कैसें रूप लखै आफ्नो ॥१५॥ कमी अकामनि जरा करै । भवनत्रिकमें सुरतन धरै ॥ विषय चाड दावालन दह्यो । मरत विलाप करत दुख सह्यो ॥१६॥ जो विमानवासी हूं थाय । सम्यकदर्शन विन दुख पाया। तहत चय थावर-। तन धरै । यो परिवर्तन पूरे करें ॥१७॥ । पद्धरि छंद। • ऐसे मिथ्या गज्ञानचरन । वश भ्रमत भरत दुख जन्म-1 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv KRISHNA वृहज्जैनवाणीसंग्रह । मरण ॥ तातें इनको तजिये सुजान । सुन तिन संछेप कहूं। बखान ।।१।। जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व । साथै तिनमाहि । विपर्ययत्व ॥ चेतनको है उपयोगरूप । विन मूरति चिन मूरति अनूप ॥ पुदगल नभ धर्म अधर्मकाल । इनतै 'न्यारी । । है जीवचाल । ताको न जान विपरीत मान करि, कर * देहमें निज पिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी मैं रंक राव। मेरो धन * गृह गोधन प्रभाव ।। मेरे सुत तिय मैं सबल दीन । बे रूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४॥ तन उपजत अपनी उपज जानि । तन नशत आपको नाश मान ॥ रागादि प्रगट जे दुःखदैन।। तिनहीको सेवत गिनहि चैन । शुभअशुभबंधके फलमंझार। क रति रति करै निजपद विसार । आतमहितहेतु विराग ज्ञान। ते लख आपको कष्टदान ॥ ६॥ रोकी न चाह निजशक्ति खोय। शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतजुत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान ॥ ७॥ इनजुत । विषयनिमें जो प्रवृत्त । ताको जानो मिथ्याचरित्त ।। या । मिथ्यात्यादि निसर्ग जेह । अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव । पोर्षे चिर दर्शन मोह एत्र ॥ अंतररागादिक धरै जेह । बाहर धन अन्तरर्ते सनेह ॥९॥ * धारै कुलिंग लहि महतभाव । ते कुगुरु जनमजल। * उपलनाव । जे रागरोषमलकरि मलीन' । 'बनिताग* दादिजुत चिन्हचीन ॥ १०॥ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव ।। शठ करत न तिन भवभ्रमनछेव ॥ रागादिभाव हिंसा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ATARAKHKA R +++KA* ३६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह समेत । दलित वसथावर मरनखेत ॥११॥ जे क्रिया * तिन्हें जानहु कुधर्म । तिन सरधै जीव लहै अशर्म ॥ याकौं गृहीतमिथ्यात जान । अब सुन गृहीत जो है कुज्ञान । ॥१२॥ एकांतवाद दूषित समस्त । विषयादिकपोषक अप शस्त । कपिलादिरचित श्रुतको अभ्यास। सो है कुबोध । बहु देन त्रास ॥१३॥ जो ख्यातिलाभ पूजादि चाह । धरि । करत विविधविध देहदाह । आतम अनात्मके ज्ञानहीन।। जे जे करनी तनकरनछीन ॥३॥ ते सव मिथ्याचारित्र । त्यागि । अब आतमके हितपंथ लागि ॥ जगजालनमन-1 को देय त्यागि । अब दौलत, निज आतम सुपागि ॥ १५॥ तीसरी ढाल । नरेंद्रछंद (जोगीरासा। आतमको हित है सुख सो सुख आकुलता विन कहिये ।। आकुलता शिवमाहिं न तातै, शिवमग लायो चहिये। सम्य कदर्शन ज्ञान चरन शिव, मग सो दुविध विचारो । जो * सत्यास्थरूप सु निश्चय, कारन सो व्यवहारो॥१॥ परद्र व्यनि भिन्न आपमें रुचि, सम्यक्त भला है । आप रूपको। में जानपनो, सो सम्यकज्ञानकला है। आपरूपमें लीन रहै । थिर, सम्यकचारित सोई। अब व्यवहार मोखमग सुनिये, हेतु नियतको होई ॥ २॥ जीव अनीव तत्व अरु आत्रव, * बंध रु संवर जानो। निजर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्योंको * त्यों सरधनो ॥ है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप है । बखानौ । तिनको सुनि सामान्यविशेषै, दृढ़ प्रतीत उर आनौ । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44+8 vvvwwwucwwvli vuwwwwwwwwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६५ । ॥३॥ बहिरातम अंतरआतम परमातम जीव त्रिधा है । देह । जीवको एक गिनै, बहिरातमतत्व मुधा है ॥ उत्तम मध्यम । * जघन त्रिविधिके अंतरआतमज्ञानी। द्विविध संगविन शुधउपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी॥ मध्यम अंतर आतम! जे, देशव्रती आगारी । जघन कहे अविरतसमदृष्टी तीनों शिवमगचारी ॥ सकल निकल परमातम द्वैविध तिनमें घातिक निवारी । श्रीअरहंत सकल परमातम लोकालोकनिहारी ।५। ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल-वर्जित सिद्ध महंता। ते हैं । निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनंता ।। बहिरातमता। । हेय जानि तजि,अंतरआतम हजै । परमातमको ध्याय निर तर, जो नित आनँद पूजै ॥६॥ चेतनता विन सो अजीव । हैं, पंच भेद ताके हैं। पुदगल पंच वरन, रसपन गंध, दु । फरस बसु जाके हैं ॥ जिय पुद्गलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी । तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विनमूर्ति । निरूपी ॥७॥ सकल द्रव्यको वास जासमैं, सो अकाश पि छानों । नियत वरतना निशिदिन सो व्यवहारकाल परि* मानो । यौँ अजीव अब आस्रव सुनिये, मनवचकाय त्रियो गा। मिथ्या अविरत अरु कषायपरमादसहित उपयोगा। । ये ही आतमके दुखकारन, तातै इनको तजिये। जीवपदेश ! बँधे विधिसों सो.बंधन कबहुं न सजिये ॥ शमदमसों जो कर्म न आवै, सो संवर आदरिये । तपबलतै विधिझरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ॥९॥ सकल करमत रहित । *R+ KATTA Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह • अवस्था, सो शिव थिरसुखकारी । इहिविधि जो सरधा तच्चनकी, सो समकित व्योहारी ॥ देव जितेंद्र गुरू परिग्रह विन, धर्म दयाजुत सारो । यहू मान समकितको कारन, अष्ट अंगजुत घारों ||१०|| सुमद टारि निवारि त्रिशठता, षट अनायतन त्यागो | शंकादिक वसुदोष विना, संवगोदिकचित पागो । अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपहु कहिये बिन जाने दोष गुननको, कैसे तजिये गहिये ||११|| जिनवचमैं शंका न धारि वृष, भवसुखवांछा भानै । मुनितन मलिन न देख घिनावै, तत्व कुतन्त्र पिछानै । निजगुन अर पर अवगुन ढाकै वाजिनधर्म बढावै । कामादिककर वृषतें चिगते, निजपरको सु दृढावै ॥ धर्मासों गउवच्छमीतिसम, कर जिनधर्म दिपावै । इन गुनतै विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय तो न मद ठानै । मद न रूपको मद न ज्ञानको धन बलको मद भानै ॥ १३ ॥ तपको मद न मद जु प्रभुताको, करै न सो निज जानै । मद धारै हि दोष वसु, समतिको मल ठानै ॥ कुगुरुकुदेवकुवृषसेवककी नहि प्रशंस उचरै है । जिनमुनि जिनश्रुत चिन कुगुरादिक तिन्हें न नमन करे है || १४ || दोषरहित गुनसहित सुधी जे, सम्यकंदरश सजे हैं। चरितमोहवश लेश न संजम मैं सुरनाथ जजे हैं || गेहीपै गृहमें न रचै ज्यों, जलमें भिन्न कमल है | नगरनारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अमल है । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 वृहज्जैनवाणीसंग्रह ३६७ प्रथम नरक विन षटभू ज्योतिष, वान भवन पँड नारी ।' 'थावर विकलत्रय पशु नहि, उपजत समकितधारी ॥ तीनलोक तिहुँ कालमाहिं नहि, दर्शनसमं सुखकारी | सकल धरमको मूल यही इस, विन करनी दुखकारी ॥ १६ ॥ मोक्षमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान चरित्रा । सम्यकता न लहै सो दर्शन, धारों भव्य पवित्रा । 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै । यह नरभव फिर 1 मिलन कठिन हैं, जो सम्यक नहि होवै ॥ १७॥ चौथी ढाल | दोहा - सम्यक श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यकज्ञान । स्वपर अर्थ बहु धर्मजुत, जो प्रकटावन भान ॥१॥ रोला छंद - सम्यकसाथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराघो । लक्षण श्रद्धा जान, दुहूमें भेद अवाधो ॥ सम्यककारण जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपद होतें हू, प्रकाश दीपकतें होई ॥१॥ तास मेद दो हैं परोक्ष, परत तिनमाहीं । मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतैं उपजाहीं ॥ अवधिज्ञानमनपर्जय, दो हैं देशप्रतच्छा | द्रव्यक्षेत्रपरिमान लिये जानें जिय स्वच्छा || सकल द्रव्यके गुन अनंत, परजाय अनंता । जानैं एकै काल, प्रगट केवलिभगवंता । ज्ञान समान न आन, जगतमें सुखको कारन । इह परमामृत जन्म, जरामृतरोग, निवारन ॥ कोटि जनम' तप तपै, ज्ञान विन कर्म झरें जे। ज्ञानीके छिनमांहि गुप्तितैं सहज टरें ते । मुनिव्रत धार अनंत बार, ग्रीवक उपजायो । 7 "/ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvvvvvvuv Uvuvu ३६८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह पैनिजातमज्ञान विना सुख लेश न पासो ॥५॥ तात . जिनवरकथित, तत्त्व अभ्यास करीजै । संशय विश्रम मोह, त्याग आपो लखि लीजै ॥ यह मानुषपरजाय, सुकुल सुनियो जिनवानी । इहविधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उद-1 घिसमानी ॥६॥ धन समाज गन बाज राज, तो काज न आवै। ज्ञान आपको रूप भये फिर अचल रहावै।। * तास ज्ञानको कारन, स्वपरविवेक वखान्यो । कोटि । उपाय बनाय, भव्य ताको उर आन्यो ॥७॥ जे पूरव शिवगये, जांय अब आगें जै हैं । सो सब महिमा ज्ञानतनी, * मुनिनाथ कहै हैं । विषयचाह-दव-दाह, जगतजन अरनि । * दझावै । तासु उपाय न आन ज्ञानधनधान वुझावै ॥८ * पुण्यपाप-फल माहि, हरख बिलखौ मत भाई । यह पुद्गल । परजाय, उपजि विनसैं थिर थाई ॥ लाख वातकी वात, । यहै निश्चय उर लावो॥तोरि सकल जगदंदफंद, निज आतम * ध्यावो ॥९॥ सम्यकज्ञानी होइ, बहुरि दृढ चारित लीजै ।। एकदेश अरु सकलदेश, तस भेद कहीजै ॥ त्रसहिंसाको * त्याग वृथा, थावर न सँघारै । परवधकार कठोर निंद्य नहिं । *वयन उचारै ॥१०॥ जल मृतिका विन और नाहिं कछु । गहै अदत्ता । निज बनिताविन सकल, नारिसौं रहै विरता। * अपनी शक्ति विचार परिग्रह थोरो राखै । दश दिशि गमन प्रमान, ठान तसु सीम न नाखै ॥११॥ तामें फिर प्राम। गली गृह बाग बजारा। गमनागमन' प्रमान ठान अन । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४०३ निजमांहि लोक अलोक गुन परजाय प्रतिबिंबित थये । रहि हैं अनंतानंतकाल यथा तथा शिव परनये ॥ धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया । तिनही अनादी भ्रमन पंचमकार तजि वर सुख लिया ॥ १३ ॥ मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं । अरु धरैगे ते शिव लहैं तिन सुजस जल जगमल हरै || इमि जानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो । जबलों न रोग जरा गहै तबलों जगत निज हितकरो || १४ || यह राग आग दहै सदा तातै समामृत सेइये | चिर भजे विषय कषाय अब तौ त्याग निजपद बेइये | कहा रच्यो परपदमें न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै । अब दौल, होउ सुखी स्वपद रचि दाव मत चूको यहै ॥ १५ ॥ दोहा - इक नवे वसु इक वर्षकी, तीज शुकल वैशाख । करच तच्च उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१६॥ लघुधी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल । सुधी सुधार पढो सदा, जो पावो भवकूल ॥ १७ ॥ इति श्री पं० दौलतरामजीकृत छहढाला समाप्त २१४- अरहन्तपासा केवली । काशी निवासी कविवर बृन्दावनदासजी कृत । दोहा - श्रीमत वीर जिनेशपद, बन्दों शीस नवाय । गुरु गौतमके चरन नमि, नमों शारदा माय ॥ १ ॥ श्रेणिक नृपके पुण्यतें भाषी गणधर देव | जगतहेत अरहन्त यह, नाम Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H ARAK XTKRRC-RSKAKS ४०४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह AnnanANUAnnr and * केवली सेव' ॥२चन्दनके पासाविषै, चारों ओर सुजान। । एक एक अक्षर लिखो श्री 'अरहंत' विधान ॥३॥ तीन वार डारो तबै, करिवर मन्त्र उचार । जो अक्षर पांसा कहै, ताको करो विचार ॥४॥ तीन मन्त्र हैं तासुके, सात सातही। वार। थिर है पांसा ढारियो करिके शुद्ध उच्चार ॥५॥ जानि शुभाशुभ तासुतै, फल निज उदयनियोग । मन प्रसन्न है सुमरियो, प्रभुपद सेवहु जोग ।।६॥ में प्रथम मन्त्र-ओं हीं श्रीं बाहुबलि लंबबाहु ओं क्षां क्षी सुं क्षेः क्षों क्षः उर्ध्व भुजा कुरु कुरु शुभाशुभं कथय कथय । । भूतभविष्यति वर्तमानं दर्शय दर्शय सत्यं ब्रहि सत्यं ब्रहि स्वाहा। (प्रथम मंत्र सात बार जपना) दूसरा मंत्र-ओं हः ओं सः ओंक्षः सत्यं वद सत्यं वद स्वाहा (सात बार जपना) तीसरा मन्त्र ओं हीं श्रीं विश्वमालिनी विश्वप्रकाशिनी। . अमोघवादिनी सत्यं बहि सत्य बहि राबयि रायि वि. मालिनी स्वाहा। (यह मन्त्र भी सात वार जपना) 1 * मन एकत्र करि विनय सहित अपना अभिप्राय विचारकरि श्री । * अरहंत भगवानके नामाक्षरका पांसा तीन बेर ढालना जो जो वरन पड़े। तिस वरनका भेद पाके फलका निश्चय करना। जिन मार्गमें यह बड़ा । निमित्त है इसे हमने लिखा है कि अपना वा परोया उपकार होय।। 1(बृन्दावन) * ERHKKRAKASKARS ARE * Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * --54- -- वृहज्जैनवाणीसंग्रह --* ४०५ । MIN Muvvvww wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww अथ अकारादि प्रथम प्रकरण। अअअ। जो परे तीन अकार। तो जानि सुखविस्तार ।। कल्याणमंगल होय । सम्मान बाढ़े सोय ॥१॥ लक्ष्मी वसै। नित धाम । व्यापारमें बहु दाम ॥ परदेशमें धन लाभ । सं-1 * ग्राममें जय लाभ ॥२॥ नृपद्वारमें सन्मान | संकट कटै प्रमान सब रोग अरु दुर्भागि । तत्काल जावे भागि ॥३॥ प्रगटै । सकल कल्यान । यामें न संशय जान । यह महा उत्तम अंक ! फेल अटल जासु निशंक ॥४॥ । अअर । दो अकारपर परै रकार । मध्यम फल है सुनो। विचार । जो कारज चिन्तो मनमाहिं सो तौ शीघ्र होनको नाहि ॥५॥ पूरब पाप उदय है जानि । सोई करत काजकी। १ हानि । तात इष्टदेव आराधि । कुल देवीको पूजि सुसाधि ।। तासु जजब आराधन किये । किंचित होय काज सुनि हिये। मध्यम प्रश्न परयो हैं येह । मति मानो यामें सन्देह ॥७॥ * अन्नह । जहं दो अकारके अन्त माहिं । हंकार परै सो। शुभ कहाहि । धनधान्य समागम लाभ होय । परदेश गयो । जो चहै सोय ॥८॥ तो मनवांछितकी सिद्धि जान । अरु । मित्र बंधुसों प्रीति मान । तत्काल शत्रुको होय नाश । तब विघ्न मिटै अनयास तास ॥९॥ घरमें प्रगटै मंगलविभूति । । तव पुण्य प्रभाव प्रबल अकूत । यह उत्तम प्रश्न सुनो पुमान।। है यों कहत केवली गुनिनियाम ॥१०॥ * अप्रत । जहं दुइ अकार पर है तकार । तहं शुभ फल Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RK-52* ५०६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह जानो हे उदार । बहु भित्र मिलें भू वस्त्र ताहिं । अरु पुत्र । पौत्र द्वै सदन माहिं ॥ रोगीको रोग विनाश होय । कर ग्रहको निग्रह भि होय ॥ जो मित्र बन्धु परदेश होय । घर । आवै अति मन मुदित सोय ॥१२॥ कुलवृद्धि तथा सजन । * महान । तिनसों नित प्रीति बढ़े सयान। दिन दिन अति का लाभ मिले पुनीत । यह प्रश्न केवली कहत-प्रीति ॥१३॥ . अरअ । दुइ अकारके मध्य रकार । पांमा परै तासु सुवि चार ॥ उत्तम फलकारी यह होत । नित नव मंगल होत उ-1 दोत ॥१४॥ पूरव जो धन गयो नसाय । सो सब तोहि मि। लेगो आय । राजा करहिं बहुत सनमान, बसन भूमि हय * देवहि दान ॥१५॥ भ्राता मित्र समागम होहि । सब विधि । सदनमहोच्छ्व तोहि । सकल पापको होय विनाश । धर्मवृद्धि नित कर प्रकाश ॥१६॥ , अरर । जो अरर प्रगटै वरन । तो सकल मंगल करन।। * धनलाभ सूचक येह । दशदिश विमल जस तेह ॥१७॥ जहं जाय वह मतिवंत । तहं लहै पूजा संत ॥ है इष्टवन्धु मिलाप । उद्यम विपै श्री आप ॥१८॥ जल चोर पावक मरी। ये सकहिं नहिं कछु करी। सब शत्रु कीजै हान । प्रगटै स कल कल्याण ॥१९॥ जिन धरमके परभाव। यह जान है। * सद्भाव । उत्तम कहत फल अङ्क । उत्तम गयो निःशंक ।२० * अरहं । अरहं परे जो वरन । सौभाग्यसम्पतिकरन । तो जो मनोरथ होइ । अनयास पूजै सोय ॥२१॥ कछु क्लेश । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MrvAvMVPNAINA बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४०७३ + हुवै घरमाहिं । तसु रंच ही भयं नाहिं । निज इष्ट पूजहु जाय । सब विघन जांय नसाय ॥२२॥ मन सोच तजि थिर होहि । आनन्द मंगल तोहि । सब सिद्ध है है काज । अरह कहत महाराज ॥२३॥ ___ अरत । जब अरत पासा हरै। तब सकल सुख विस्तरै। तोहि तिया प्रापति होय । सुत होय पौत्रपि होय ॥२४॥ कुलतोत सब सोभंत । तब भाल तिलक लसंत । जहं जाहुगे। तुम भीत । तहं लहहु पूजा नीत ।। २५ ।। जनमध्य हो तुमकेम । ताराविर्षे शशि जेम। यह रुचिर प्रश्न सुजान। मनमें धरो प्रभु ध्यान ॥२६॥ अहंअ । जो अहंअ छबि देय । तो सुनहु पूछक भेय । । पहिले कछुक दुख होय । फिर नाश है है सोय ॥५७॥ धनलाभ दिन दिन बढे । अरु सुजनसंगम चढ़े। जो । काम चिन्तहु वृद्ध । सो सकल है है सिद्ध ॥२८॥ , अहंर । जब अंहर सु दरसाय । तब अरथलाम कराय । जस लाभ पृथ्वीलाम । यह देख परत सुसाम (?) ॥२९॥ राजादि बन्धूवर्ग । सब करहि आदर सर्ग। भ्रातादि इष्टमिलाप। धनधान्य आगम व्याप ॥३०॥ ब्यवहार अरु परदेस । सब ओर उत्तम तेस। सब सोच संशय हरहु ।। * शुभ तुमहिं धीरज धरहु ॥ ३१ ॥ + अहंहं । जो अहंहं है अंक ।सो कहत हैं फल बंक । दीखे । न कारज सिद्ध । यह काज तोर सुबुद्ध ।।३२।। धन नाश है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। है तोहि । तन क्लेश पीला होहि । व्यापारमें धनहान । परदेश सिद्धि न जान ॥ ३३॥ तिहि हेत कर भविजीव ।। जिन जजन भजन सदीव । जप दान होम समाज । तब । होइ कछु इक काज ।। ३४ ॥ * अहंत । अक्षर अहंत परै । तब सकल शुभ विस्तरै ।। * कल्याणमंगल धाम । सुत भ्रमत मिलहि मुदाम ॥ ३५ ॥ • उद्यम विष धन धान्य । संपतिसमागम मान्य। रनके विर्षे । सब जीत । तोहि लाभ निश्चय मीत ॥ ३६ ॥ अरु होय । बन्दीमोच्छ । निरवाध है यह पच्छ । तुव है मनोरथ सिद्ध ।। । मति मान संशय वृद्ध ॥ ३७॥ है अता । अह अतअ भाषत वरन । कल्याणमंगलकरन । उद्यममें श्री विस्तरन । सब विघ्नग्रहमयहरन ॥ ३८॥" सुतपौत्रलाभ निहार। वांछित मिले मनिहार । दिन आठवे । कछु तोहि । कछु श्रेष्ठ भावी होइ ॥ ३९ ॥ ___ अतर । जो अतर अक्षर ढरै । तो सकल मंगल करै । वाजिन सदन सुनाय । घरमाहिं अनँद वधाय ॥४०॥ प्रियवन्धुचिन्ता होहि। तसु मोद मंगल होहि ॥ धनधान्यसंजुत होय । घर शीघ्र आवै सोय ॥ ४१ ॥ गजवाजि रथारूढ । । भूपन वसनजुत पूढ़ । संयुत अमित कल्यान । निरभै * मिलै भयमान || ४२॥ । अतहं । अतहं ढरै जो अंक। सो अशुभ कहत निशंक ।। नहिं लाभ दीखत भाय । धन हाथहू को जाय ॥ १३॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ vvvvvvvvvvvvvv VUVVVI wwwwwwwwwwwwwww mam - - - - - - - - - -- - - - - वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४ । है इष्टबन्धुवियोग । तियतनयसंपतियोग। राजादि चोरु मरी । शत्रु सवही घरी ॥४४॥तिहि विधननाशन हेत । करदेवजजन सुचेत । तिहि पुण्यके परभाव । घर होइ मंगल चात्र ॥ १५॥ अतत । जहं अतत आवै वरन । धनलाभ तहं बुधि वरन। संपदा सुख विस्तरन । सव सिद्धि बांछितकरन ॥ ४६॥ * प्रिय इष्ट बन्धू मिलन । सबलाभ दिन-प्रतिदिनन ॥ उद्यम तथा रनथान । तुव धुत्र विजय बुधिवान ॥४७॥ बादानु। बाद मंझार । तुव जीत होय उदार । यामें न संशय करहु शुभ जानि धीरज धरहु ॥४८॥ इति अकारादि प्रथम प्रकरण। अथ रकारादि द्वितीय प्रकरण। रअ । आदि रकार अकार दुइ, जब ये प्रगटें वन । तब धन सम्पति लाम बहु, सुजनसमागम कर्न ॥ ४९ ॥ सोना रूपा ताम्र बहु, वसनाभरन सुरत्न। प्राप्त होय निश्चय सिकल, चिन्तित वित जुतजन ॥५०॥ अन्तरैन दीखै सुपन, * माला सुमन सुजान । हयगजरथ आरूढ़ अरु, देवागमन विमान ॥५१॥ । रअर । आदि रकार अकार पुनि, तापर परै रकार । सुनि । * पूछक तँ तासु फल, है अभिमत दातार ॥५२॥ देशमजाको । लाभ है, खेती वर व्यापार । धन पावै परदेशमें, घरमें । सब सुखसार ॥५३॥ संगर संकट घोरमें, कुलदेवी सुख - - - - - - - ---- --- Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१० वृहज्जनवाणीसंग्रह wwwww wwwwwww vvvvvvue VVV VVL दाय । करै सहाय प्रसाद तसु, सब विधि सिद्धि लहाय ॥ रअहं | आदि रकार अकार पर, हं प्रगटे जब आय।। भयकारी धनहानि यह, क्लेश अशेष कराय ॥५५॥ यह कारज कर्तव्य नहिं, लाभ नाहि या माहिं । बांधवमित्र वियोगता अस यह सगुन कहाहिं ।। ५६ ॥ जहं कहुं जाहु विदेश तहँ, सिद्ध न होवै काज । तातै थिर है कछुक दिन, , सुतिरहु श्रीजिनराज ॥५७॥ रअत । रअत परै पांसा कहै, मग धन लूटहिं चोर । द्रव्यहानि होवहि बहुत, अशुभ फलहि चहुंओर ॥ ५८॥ * नाव वुझै पावक लगै, रोगरु कष्ट कुजोग । कियो काज ! विनशै सकल, अशुभ करमके भोग ॥ ५९ ॥ तातै शोक न • कीजिये, भावीगति बलवान । थिर है निशिदिन सुमिरिये, कृपासिंधु भगवान ॥६॥ रस्म । रअ अंग आवै जहां, तब ऐमौ फल जान | तव * चित चंचल चपल अति, सुनि प्रच्छक मतिमान ॥६१॥ तें चाहत अर्थागमन, मूलनाश तसु होइ । राजदण्ड चौराग्नि * भय, तनदुख तोहि बहोइ ॥६२॥ तनय तिया बांधवनिसों। है है तोहि वियोग । अव तिसरे वरसमहँ, कटहिं सकल । दुखभोग ॥६॥ . ररर । तिहुँ रकारको फल सुनो, मनवांछितफलदाय।। धरा धान्य धनलाभ तोहि, मिलहि वस्तु सव आय । ६४॥ तिया तनय सुत वन्धु धन,, इष्टबन्धुसंयोग । कृत उत्तम । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RG9-95वृहज्जैनवाणीसंग्रहा wwwwwwwwwwwwww. कल्याण तोहि, मिल सकल संभोग ॥६५॥ महालाभ उद्यमविर्षे, सदन तथा परदेश । सुफल काज तुव होय नित, यामें भ्रम नहिं लेश ॥६६॥ ररहं । दुइ रकारपर हं परै, तब मनवांछित होय । शोभ* नीक सुख संपदा, सहज मिलावै सोय ॥६७॥ मंगल दुंदुभि होई धुनि, अरथलाभ बहु तोहि । मिलि हैं वसुधा देश पुर, । यह प्रति भासत मोहि ॥६८॥ जौन काज तुम चित धरउ, । तुरित होइ है तौन । भूपति अति आनंद करै, तिन प्रति । । मंगल मौन ॥६॥ __ररत । ररत बरन यह कहत है, सुन पूछक चित लाय । परतियकी अभिलाषतै, किये अनर्थ उपाय ॥७०॥ अरथनाश तातै भयो, अरु विग्रह घरमाहि । राजदण्ड तैने सहे, यामें संशय नाहिं ।।७१॥ तातै परतिय परिहरहु, शुभमारग पग देहु । ब्रह्मचरजजुत प्रभु भजो, नरभवको फल लेहु ॥ रहं । रहंअकार आवै जहां, तहँ उत्तम फल जान । वनितापुत्रधनागमन, बन्धुसमागम मान ॥ ७३ ॥ अरथ * लाभ जसलाम पुनि, धरमलाभ ह तोहि । रन विदेश १ व्यापारमें, विजय तुरन्तहि होहि ॥७॥ । रहर । रहर आवै जवहिं तव, विषम काज जिय जान । । उद्यम सुफल न होय कछु, घर बाहर हैरान ॥ ७५ ॥ शत्रु । बहुत सुख कतहुं नहिं, तात वजि यह काज । जग सुख निष्फले जानि जिय, भजो सदा जिनराज ॥ ७६ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैन वाणीसंग्रह I रहं । हंजुग आदिरकार कर, सुनिये पूछनहार । अशुभ उदय फल अशुभ है, जानहु निज उर धार ॥७७॥ मति विश्वास करो हिये, मित्र बन्धु जिय जानि । शत्रु होय ये परिनवहि, करहिं वित्तकी हानि ॥ ७८ ॥ धन चिन्ता नित करत हो, सो सुपनेहुँ नहिं होइ । धरम चिन्ति कुल देव भज, तातै कछु सुख जोड़ ॥ ७९ ॥ रहते । रहं तासुपर प्रगट त, सुनि फल पूछनहार । याको फल मैं कहा कहीं, सब सुखको दातार ॥ ८० ॥ विद्या लाभ कवित्तता, सुफल लाभ व्यवहार । बनिता सुतको है, द्रव्यलाभ व्यापार ॥ ८१ ॥ मित्रबन्धु बसनाभरण | सहित समागम होइ । चहहु सुखित परिवार सों, कुलदेवी/ कृत जोइ ॥ ८२ ॥ रतअ । रतअ वरन पांसा कहत, तुव सम्मुख सौभाग | अरथागम कल्याणकर, असन सुखद अनुराग ॥ ८३॥ मंत्रजन्त्र औषधिविषै, सकल सिद्ध न होइ । चित चिन्तित पुत्रादि सुख, निश्चय हैं सोइ ||८४|| ४१२ MAAAAA AAAAAAN AAAAI रतर | रतर वरन पासा कहत, सुनि पूछक गहि मौन | उद्यममें लक्ष्मी बसै, ज्यों पंखे में पौन ॥ ८५ ॥ तातैं उद्यम करहु तुम, अरथलाभ तहं होइ । तनय धरनि धरनी मिलै, नृप सनमाने सोय ॥ ८६ ॥ वसन मिले घोड़ा मिले, अनायास है काज | शुभ मंगल तोहि सर्वदा, सेये श्रीजिनराज ॥ ८७ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 बृहज्जैनवाणीसंग्रह Ann AAAAAA AAAAAJ MA रहं । रतहं कहत मिचारिकै सुनि पूछक दे कांन । पहिले कष्ट बहुत सहे, सो सब गये सुजान ||८८|| धनकी चिन्ता रहतचित, सो सब पूरन होहि । वनिता सुत बसनाभरन, निश्चय मिलि तोहि ॥८९॥ आधि व्याधि दुख नसहि सब, चिन्ता करहु न कोय। देवधर्मपरसादसों, काज सफल सब होय ॥ ९०॥ ४१३ रतत । रतत वरन सुनि पूछक, सकल सुफल तुव काम ।' मनवांछित धनसम्पदा, पै हौ अति अभिराम || ११|| ओ कारज चितवत रहौ, अनायास सो होय । मनमें मति संशय करो, धर्मवृद्धि फल जोय ॥९२॥ शिवहित चाहत तप धरन, तामहं है है सिद्ध । गहो जिनेश्वर कथित तप, ज्यों होंवै सुखवृद्धि ॥९३॥ अथ हंकारादि तृतीय प्रकरण | चौपाई। हंअम । हं अअ वर्न परै जहँ आई। तासु सुनो फल है दुचिताई || सूचत कष्टरु चित्त विनाशं । लोकविषै निरआददरभासं ||२४|| संगर में नहिं जीत दिखावै । उद्यममें नहिं लाभ लहावै । जाहु जहां कछु कारज हेती । सिद्ध न होय तहां तुम सेती ॥९५॥ त्याग करो यह कारज यातें। सेवहु श्रीजिनधर्मसुधा तें । धर्म विना सुखको नहिं लेखा । श्री भगवान कहें जिन देखा ||१६|| रोग निवार अरोग शरीरं । पुष्ट महा बलपौरूष धीरं । चाहत हो परदेश सिधारो | होय मिलाप तहां शुभ सारी ॥९७॥ t Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAnwwranAMRAANI AAAAAAAAAAAAAAA *-* *-------- - ४१८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह है ॥१३६॥ ता करिके दुःख पाप सहै हो । लोकविर्षे अप कीर्ति लहै हो ॥ नास भयो जसराज तुम्हारो। यो लघु । * सीख सुनो उर धारो ॥१३७॥ अन्य कछू करतव्य विचारो। । तामहँ वांछित सिद्ध तुमारो ।। अर्थ बढ़े धन धर्म बढ़ाई । यो । * दरसावत श्रीगुरु भाई ॥१३८॥ 1 हंतत । हंतत भाषत उत्तम तोही। जो मन वांछहु होवहि सोही ।। मंगल धाम मिल धनधान्यं । जाहु विदेश तहां बहु मान्यं ॥१३९॥ मन्त्र सु जन्त्ररु भेष जताई । सैन्य सुथभन मोहन भाई । अर जिती जगमें वर विद्या । तोहि मिलें। भ्रम त्याग निषिद्या ॥१४०॥ अथ तकारादि चतुर्थ प्रकरण। ___ तन्त्र । जहं तअअ वरन पासा ढरन्त । तहं सुनि पूछक जो फल कहंत ॥ जो करहु देव पूजा पुनीत । तो पैहो अभि1 मत फल विनीत ॥१४१॥ सुत पौत्र सुखद धन धान्य लाहु।। * यह मिले तोहि वांछित उछाहु ॥ व्यापारमांहि बहु मिले। के दर्व । अरु जूत विजय तै लहै सर्व ॥१४२॥ यामें मति चि न्ता मानु मित्त । निज इष्ट देव पद भजउ नित्त ॥ विन पुन्य । नहीं सुख जगत माहि। जिमि वीज विना नहिं तरु लगाहिं॥ । तर । जब तअर प्रगटै होवै सुजान । तव मध्यम फल.. * जानो निदान ॥ चित चाहहु वनिता पुरुष आदि। सो * आस तजहु सुनि भेदवादि ॥१४४॥ निजभावीवश ये मि लहि सर्व । परिवार कुटुम्बादिक सुदर्व ॥ पहले जो कछु । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R -525- K KAR ANAAAA- n बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४१६ धन भयो हानि । सोऊ मिलें अब ही सयान ॥१४५॥ कछु काल व्यतीत भये समस्त । है अर्थ लाभ तुमको प्रशस्त ॥ यह जान हिये निरधार वीर । भजि श्रीपति पद सब टरै पीर ॥ ___ तअहं । तत्ता अकार हंकार आय । हे पूछक तोसों इमिहै कहाय । दिनरात तोहि धनहेत चाह । मनमें यह वर्तत है। * कि नाह ॥ १४७ ॥ सो पुन्य बिना कहु केम होय । हैं दिन • तेरे अति नष्ट होय ॥ कछु दिवस बितीत भये प्रमान । धन लाभ होय तोको निदान ॥ १४८ ॥ तातै जो सुख चाहहु । विनीत । तो पुन्यहेत कर जतन मीत ।। जिनराज पदाम्बु* जग होय । अन अन्यशरण है सेव सोय ॥ तअत। यह तमत कहत फल प्रगट आय । सुनि । १ पूछक तै मन मुदित काय । मनवांछित हो सो होय । सिद्ध । परदेशतीर्थयात्रा प्रसिद्ध ॥ १५० ॥ इक मास * व्यतीत भये प्रमान । तोहि अर्थ परापत द्वै सुजान । अरु * तन निरोगजुत पुष्ट होय । आनन्द लहै संशय न कोय ॥ । 'तरा । यह तरअ कहत डका बजाय । धनचिन्ता तेरे मन वसाय॥तै कीन चहत परदेश गौन । यह जातहि कारज सिद्ध । तौन ॥१५२।। बहु वस्त्र आमरन अर्थ, आद। तिय तनय लाभ है है अवाद ।। पितु मातु बन्धुसो मिलन होय । यह * गुरुसेवा फल जान सोय ॥१५३॥ तातै नित प्रति चतुर । * जीव । सुखकारन सेवो प्रभु सदीव । कल्यानखान भगवान एक । तिनको सुमिरौ तजि कुमति टेक ॥१५४॥ KRA-KARKITSARS* Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RKARK452- ARARA RAAOR MAAAAAAAAAAAAAAAANAAAAAAA PAAAAna-ranAAAAAM १४२० वृहज्जैनवाणीसंग्रह , तरर । यह तरर प्रकाशक प्रगट मित्त । सुनि पूछक तुव । चित दुखित नित्त । तुव घर दरिद्र अतिही दिखाय । ताते। नित चाहत धन उपाय ॥१५५॥ निशिवासर चिन्ता यही । तोहि । किहि भांति होहि धनलाभ मोहि । वह तीन वरप। * जब बीत जाय। तब सब सुन्दरफल तोहि मिलाय ॥ जो और काज मत धरहु तौन । है लाभ तासुमहं सुजसहौन ॥ तातै जो सुखकी धरहु चाह । तो नाहिं जिनेसुर सों निवाह ।। तरहं । तरहं अक्षर भाषत प्रतच्छ । कल्याणसंपदा । । स्वच्छ लच्छ । सव विघ्न निघ्न पलमाहिं होय । जिनधर्म । * प्रभाव सुजान सोय ॥ १५८ ।। अस्थागम अरू वर पुत्र । । होय । रनमहँ तोहि जीत सकै न कोय । बांधवसह प्रीति बढ़े अपार । घरमं नहिं कछु विग्रह लगार । १५९ ॥ सब । पापताप तेरो विलाय । नित धर्म वढ़े आनन्ददाय । तातै । । सुखहित हे चतुरजीव । भगवान चरन सेवी सदीव ॥१६॥ तरत। यह तरत कहत फल सुन विनीत । तुव मन धन* कारन दुखित मीत । बहु दिनः सोच रहत शरीर । मन । समाधान अत्र करहु वीर ॥ १६१ ।। मंगलमुदजुत धनलाभ होय । प्रिय बंधुसमागम सहज सोय। परदेशगमन जो करहु तत्र । धन लाभ होहि सुखदाय जत्र ॥१६२॥ वादा* नुवादमें विजय-जान । सभ्यशिरोमणि शशि. समान । * यह मंगलीक शुभ सगुनराज । तै जपि 'नित श्रीजिन महाराज ॥१६॥ *RKEKSXSKRR-* Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-42-ARKKAR K I M vvv wwwvon wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४२१ । 1 तहंन । त वरनपर हतापर अकार ।जब प्रगटै तब सुनिये । विचार । सब विघ्नमूल संकट नशाय । जहं जाहु तहां बां छित मिलाय ॥१६४॥ धन धान्य वसन गो महिषि घोट। । सब मिलहिं तोहि हितहेत जोट । जात्रातीरथ परदेश सार।। * रनरंग शैल अरु उदधिपार ॥१६५॥ जहं जाहु तहां सब * सुफल काज । मनमें संदेह न करहु आज। यह पुन्य कल्पतरु । फल सुआन । भजि चरणकमल करुनानिधान ॥१६५॥ । तहर। त वरनपर हं तापर रकार। ताको फल कडक । सुनो विचार । है दुःख क्लेश पुनि अर्थहानि । भयरोग व्याधि उपजै निदान ॥१६७॥ सुत मित्र वियोग अशुभ नियोग । पुनि जैहौं कहु तहं विपतिभोग । तुव सदनमांहि ॥ * बरतत कलेश । कलिहारी नारी कुटिलमेश ॥१६८॥ यह पाप तोहि दुख देत आय । अब तोष गहो मनवचनकाय। । अरहन्तदेवसों करहु मीति । जिमि मिले सकल सुख । सहजरीति ॥१६९॥ * तहहं । तत्तापर हं हं ढरै आय । तब सुनि पूछक फल चित्त लाय | रनजूतविवादविः कदापि, मतिजाहु केवली । कहत आप ॥१७०॥ तहं गये हानि है विजय नाहिं । है । । क्लेश कठिन निहचै कहाहिं । यह दैवीदोष लसै सुजान।। * धर्मार्थवस्तु की करत हान ॥१७१॥ उद्वेग कलह तुव सदन । माहि । सत बंधु मित्र अरि सम लखाहि। सब पाप उदय, । यह जानि लेहु । दुख हेत धरमसों करहु नेहु ॥ १७२॥ KAKKARX Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह तहंत । तत मध्य परै हंकार पास। तब मध्यम प्रश्न करे प्रकाश । जो मनमें बांछा करहु मित्त । नहिं सिद्ध होई सो कुदिन कित्त ॥ १७३ ॥ मति खेद करो अघ उदय जान | भावीगम अमिट प्रबल प्रमान । मति मरन चेत जड़बुद्धि त्याग | सुख चहसि तु करि प्रभुसों सुराग ॥ १७४॥ तता । जब ततअ वरन प्रगटै अकोप | तब शुभफल कहत निशान रोप । तोहि महा सौख्यको लाभ होय । धनधान्यसमागम मिलै सोय ॥ १७५॥ राजा दे वसनाभरन घोट | व्यापारमाहिं धन लाभ पोट । दुहिताविवाह सुतजलमसंग | मंगल सब तो कहँ है अमंग ॥ १७६ ॥ ४२२ ततर । यह ततर वरन पासा भनंत । आनंद सदा ध्रुव तोहि संत | सुत बंधु धरा धनधान्याह । परदेश जाहु तहँ अति उछाह || १७७ || बहु मित्रबंधुसों होय मीति । भय शत्रुजनित सब है वितीति । गो महिष अश्व द्वारे बँधाय । यामें न मोहि संशय दिखाय || १७८|| ततहं । ततहं अक्षर तोहि कहत एहु । भो पूछक तू उद्यम करेहु । तहं होहि लाभ तोको प्रसिद्धि | चितचिंतत सब विधि होय वृद्धि ॥ १७९ ॥ तीरथ हिण्डन पूजन विधान । सब है है तेरे मनसमान । रोगीको रोग विनाश होय । भोगीको भोग मिलै सु जोय || १८० मनमें मति खेद करो पुमान । तोहि होय सकल कल्याणखान | नित देवधर्म गुरु ग्रन्थ सेव | मनवांछित सुखसंपदा लेव ॥ १८९ ॥ 4542 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *RKKRISKKSHAKAKIRA* वृहज्जेनवाणीसंग्रह .naran * ततत । तीनौं तकार जब उदय होय । तब अकल सकल * फल कहत सोय । मनवांछित कारज सिद्धि जानि । कल्याण कारिनी प्रश्न मानि ॥१८॥ घर पुत्र पौत्रको जनम होय।। धन आगम सुखद विवाह सोय । पहिले जो अरथ गयो । * विनास । सो आन मिलै अनयास पास ॥ १८३॥ बैरीको बैर मिटै समस्त । तोहि मिलहि मित्र बांधव प्रशस्त । निज धर्मबुद्धि है है सयान । सर्वथा जान संशय न आन ॥१८४॥ कविनामकुलनामादि। दोहा-लालविनोदीने रची, संस्कृतवानीमाहँ। वृन्दा* वन भाषा लिखी, कछु इकताकी छाहँ ॥ १८५ ॥ भूल चूक उर छिमा करि, लीजो पण्डित शोध । बालबुद्धि मोहि * जानिकै, मति कीजो उर क्रोध ॥८६॥ श्रीमतवीरजिनेश पद, बन्दौ बारंवार। विघ्नहरन मंगलकरन, अशरनशरन • उदार ॥ १८७ ॥ धरमचंदके नंदको, 'वृन्दावन' है नाम ।। . अग्रवाल गोती जगत गोइल है सरनाम ॥१८८॥ काशीवासी तासुने भाषा भाषी एह। जिनमतके अनुसार करि, श्रीजिनवरपदनेह ॥ १८९॥ सम्बतसर विक्रमविगत, चन्द रन्ध्र दिग चन्द । माघकृष्ण आ3 गुरू, पूरन जयति जिनंद ॥ सातवां अध्याय समाप्त। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह " आठवां अध्याय । आरती संग्रह २१५ - पंचपरमेष्ठी आदिकी आरती । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww इहविधि मंगल आरति कीजै । पंच परमपद भाज सुख लीजै ॥ टेक ॥ पहली आरति श्रीजिनराजा । भवदधिपारउतार जिहाजा || इहविधि० ||१|| दूसरि अरति सिद्धनकेरी | सुमरनकरत मिटै भवफेरी || हविध ० ||२|| तीजी आरति सूर मुनिंदा । जनममरनदुख दूर करिंदा || इह विध० ॥३॥ चौथी आरति श्री उवझाया | दर्शन देखत पाप पलाया || ४ || पांचमि आरति साधु तिहारी । कुमतिविनाशन शिव अधिकारी ॥ इहविध० ॥ ५ ॥ छडी ग्यारहप्रतिमा धारी । श्रावक चंदों आनंदकारी ॥ इहविध० || ६ || सातमि आरति श्रीजिनवानी 'द्यानत' सुग्गमुकति सुखदानी || इहविध० ॥ ७ ॥ २१६ - आरती श्रीजिनराजकी । आरति श्रीजिनराज तिहारी, करमदलन संतन हितकारी ॥ टेक ॥ सुरनरअसुर करत तुम सेवा | तुमही सब देवनके देवा ॥ आरति श्री० ॥ १ ॥ पंचमहाव्रत दुद्धर धारे। रागरोष परिणाम विदारे || आरति श्री० ॥ २ ॥ भवभय भीत शरन जे आये । ते परमारथपंथ लगाये || आरति श्री० ॥३॥ जो तुम नाथ जपै मनमाहीं । जनममरनभय ताको नाहीं ॥ आरति श्री० ॥ ४ ॥ समवसरनसंपूरन शोभा । जीते क्रोध Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२५ मानछललोभा || आरति श्री० ॥ ५ ॥ तुम गुण हम कैसे करि गावें । गणधर कहत पार नहिं पावैं || आरति श्री० ॥ ६ ॥ करुणासागर करुणा कीजे । द्यानत' सेवकको सुख दीजे || आरति श्री ० ॥ ७ ॥ २१७ - आरती मुनिराजकी आरति कीजै श्री मुनिराज की, अधमउधारन आतमकाज की ॥ आरति कीजै० ॥ टेक ॥ जा लच्छीके सब अभिलाखी। सो साधन करदमवत नाखी || आरति कीजै० ॥ १ ॥ सब जग जीत लियो जिन नारी । सो साधन नागनिवत छारी ॥ आरति ० ||२|| विपयन सब जगजिय वश कीने। ते साधन विषवत तज दीने || आरति० ॥ ३ ॥ भुविको राज चहत सब मानी। जीरन तृणवत त्यागत ध्यानी || आरति ||४|| शत्रु मित्र दुखसुख सम मानै । लाभ अलाभ बरावर जाने || आरति ०||५|| छहोकायपीहरव्रत धारें। सबको आप समान निहारें || आरति ॥ ६ ॥ इह आरती पढे जो गावै । 'द्यानत' सुरगमुकति सुख पावै ॥ आरति कीजे ||७|| www. बृहज्जैनवाणीसंग्रह د wwwwww ww www. (२१८) किस विधि आरती करौ प्रभु तेरी । आतम अकथ उस बुध नहि मेरी || || समुदविजयसुत रजमति छारी । यों वहि श्रुति नहि होय तुम्हारी ॥ १ ॥ कोटि स्तम्भ वेदी छवि सारी । समोशरण श्रुति तुमसे न्यारी ॥ २ ॥ चारि ज्ञान युत तिनके स्वामी | सेवकके प्रभु अन्तर्यामि || ३ || सुनके Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arnnnnnnnnnn AAMRAAAAAA १. ४२६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह वचन भविक शिव जाहिं ॥ सो पुद्गलमें तुम गुण नाहिं । * ॥४॥ आतम ज्योति समान बताऊँ । रवि शशि दीपक मूढ बताऊँ ।।५।। नमत त्रिजगपति शोमा उनकी । तुम सोमा । । तुममें जिनमें जिन गुणकी ॥६॥ मानसिंह महाराजा गावें।। * तुम महिमा तुम ही बन आवै ॥७॥ २१९-निश्चय आरती। इह विधि आरती करौं प्रभु तेरी । अमल अबाधित निज * गुणकेरी ।। टेक ॥ अचल अखंड अतुल अविनाशी । लोका लोक सकल परकाशी ॥इहविध० ॥१॥ ज्ञानदरससुखबल। * गुणधारी । परमातम अविकल अविकारी ।इहविध० ॥२॥ १. क्रोधआदि रागादि न तेरे । जनम जरामृत कर्म न नेरे ॥ इहविध०॥३॥ अवपु अबंध करणसुखनासी । अभय अना* कुल शिवपदवासी ॥इहविध० ॥४॥ रूप न रेख न भेख न । . कोई । चिन्मूरति प्रभु तुम ही होई ॥इहविध०॥५॥ अलख * अनादि अनत अरोगी । सिद्ध विशुद्ध सुआतमभोगी.॥ । इहविध० ॥६॥ गुन अनंत किम वचन बतावै । दीपचंद । भवि भावन मावै ॥ इहविध० ॥७॥ २२०-आत्माकी आरती। है करौ आरती आतम देवा, गुणपरजाय अनंत अमेवा। *करौं।टेका। जामें सब जग जो जगमाहीं । वसत जगतमें । जगसम नाहीं ॥करौं०॥१॥ ब्रह्मा विष्णु महेश्वर ध्यावे । साधु * सकल जिहको गुण गावें ।। करौं ॥२॥ विन जाने जिय। * - ---- --- --* Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४२७ AAVAAAAA चिरभव डोले । जिहँ जाने ते शिवपट खोले || करौं ० ॥३॥ व्रती अविरती विधव्योहारा । सो तिहुँकालकरमसों न्यारा ॥ करौं' ॥४॥ गुरुशिख उभय वचनकरि कहिये । वचनानीत दशा तस लहिये || करौं ||५|| स्वपरभेदको खेद उछेदा । आप आपमें आप निवेदा || करौं ||६|| सो परमातम शिव-सुखदाता | होहि 'विहारीदास' विख्याता|| करौं० ||७|| २२१ - आरती श्रीवर्द्धमानजीकी । करौं आरती चर्द्धमानकी । पावापुर निरवान थानकी । करौ० ||टेक || राग-विना सब जग तन तारे । द्वेष विना सब करम विदारे || करौं ० || || शील- धुरंधर शिद-तियभोगी । मनवचकायन कहिये योगी || करौं ||२|| रतनत्रय निधि परिगह-हारी । ज्ञानसुधा भोजनव्रतधारी ॥ करौं ||३|| लोक अलोक व्याप निजमाही । सुखमय इन्द्रिय सुखदुख नाहीं || करौं ||४|| पंचकल्याणकपूज्य विरागी । विमलदिगंबर अंवरत्यागी ॥ करौं ० ||५|| गुनमनि भूषन भूषित स्वामी । जगतउदास जगतरजामी ॥ करौं ० ६ ॥ कहैं कहां लौं तुम सब जानौ । 'द्यानत' की अभिलाष प्रमानौं ॥७॥ २२२ - आरती निश्चयआत्माकी । चौपाई - मंगलिआरति आतमराम | तनमंदिर मन उत्तम ठाम || मंगल० ॥ टेक ॥ समरसजलचंदन आनंद । तंदुल तत्त्वस्वरूप अमंद || मंगल ० ||१|| समयसारफूलन की माल | Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 525 * vvvvvvvv wwwvvvwwwwww.xxx ४२८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह अनुभव-सुख नेवज भरि थाल ॥ मंगल० ॥२॥ दीपकज्ञान ध्यानकी धूप । निरमल भाव महाफलरूप ।। मंगल० ॥३॥ * सुगुण भविकजन इकरँगलीन । निहचै नवधा भक्ति प्रवीन । । मंगल०॥४|| धुनि उतसाह सु अनहद मान । परम समाधि निरत परधान ।।मंगल० ।।५।। बाहिन आतमभाव वहावै । + अंतर ह परमातम ध्यावै । मंगल० ॥६॥ साहब सेवकमेद । मिटाय । 'धानत' एकमेक होजाय ।। मंगल० ||७|| * उपयुक्त आरतियोंमेंसे इच्छानुसार एक या दो आरती बोलकर नीचे थे। लिखा श्लोक, दोहा और मंत्र पढ़कर आरतीको मस्तकपर चढ़ावे। .. २२३-दीप धूप चढानके मंत्रादि। * ध्वस्तोद्यमांधीकृतविश्वविश्वमोहांधकारप्रतिघातदीपात् ।। दीपैः कनकांचनभाजनस्थैर्जिनेन्द्रसिद्धांतयतीन् यजेऽहम् ॥ - दोहा-स्वपरप्रकाशनज्योति अति, दीपक तमकर हीन। जासों पूजौं परमपद, देवशास्त्रगुरु तीन ॥॥ *ओं ही मोहतिमिरविनाशनाय देवशास्त्रगुरुभ्यो दीपं निवेपामीति स्वाहा । * धूप चढ़ाते समय अथवा धूपकी आशिका लेते समय नीचे लिखा है १ श्लोक दोहा और मन्त्र बोलना चाहिये। दुष्टाष्टकर्मेन्धनपुष्टज्वालसंधूपने भासुरधूमकेतून् । धूपैर्विधूतान्य सुगधिगंधैर्जिनेन्द्रसिद्धांतयतीन् यजेऽहं ।। दोहा-अग्निमांहि परिमलदहन, चंदनादि गुणलीन । के जासों पूजौं परमपद देवशास्त्रगुरु तीन ॥२॥ *ओं ह्रीं अष्टकर्मविनाशनाय देवशास्त्रगुरुभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४३३ पुरुष संठान । तामैं जीव अनादितै, भरमत हैं विन ज्ञान ॥ भरमत हैं विन ज्ञान लोकमै कभी न हित उपजाया । पंच परावृत करते करते सम्यकज्ञान न पाया। अब तू मोहकर्मको हरकर तज सब जगकी आसा । जिनपद ध्याय लोकशिर ऊपर करले निज थिर बासा ॥ ११॥ धनकनकंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान || एक जथारथ ज्ञान सु दुर्लभ है जग मैं अधिकाना । थावर त्रस दुर्लभ निगोदतें नरतन संगति पाना || कुल श्रावक रत्नत्रय दुर्लभ अरु षष्ठम गुनथाना । सचतेंदुर्लभ आतम ज्ञान सु जो जगमांहिं प्रधाना || १२ || जाचे सुरतरु देय सुख, चिंतत चिंता रैन । विन जाचे विन चितये धर्म सकल सुख दैन || धर्म सकल सुखदैन रैन दिन भवि जीवन मन भाता । षद् दर्शन ईसा सूसा महमदका मत न सुहाता || वीतराग सर्वज्ञदेव गुरु धर्म अहिंसा जानो । अनेकांत सिद्धांत सप्त तवनको कर सरधानो || १३|| दोहा - भूधर कवि कृत भावना, द्वादश जगपरधान । तापर इक अल्पज्ञने छंद रचे हित जान ||१४|| इति ॥ । AAA २२६ - बारह भावना बुधजनकृत । गीता छंद - जेती जगतमै वस्तु तेती अथिर परणमती सदा । परणमनराखन नाहि समरथ इंद्र चक्री मुनि कदा | सुतनारि यौवन और तन धन जान दामिनि दमकसा । ममता न कीजे धारि समतामानि जलमैं नमकसा ॥ १ ॥ 28 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ४३४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह चेतन अचेतन सब परिग्रह हुआ अपनी थिति लहैं । सो रहैं । आप करार माफिक अधिक राखे ना रहैं । अव शरण काकी लेयगा जब इंद्र नाही रहत हैं । शरण तो इक धर्म आतम । जाहि मुनिजन गहत हैं ॥२॥ सुर नर नरक पशु * सकल हेरे कर्मचेरे बन रहे । सुख शासता नहिं भासता सब विपतिमें अतिसन रहे ॥ दुख मानसी तो देवग- तिमैं नारकी दुख ही भरै । तिर्यंच मनुज वियोग रोगी । शोक संकटमैं जरै ।। ३ ॥ क्यों भूलता शठ फूलता है देख परिकरथोकको । लाया कहां लेजायगा क्या फौज भूषण । रोकको ॥ जनमत मरत तुझ एकलेको काल केता होगया। * सँग और नाहीं लगे तेरे सीख मेरी सुन भया ॥४॥ इंद्री। नतै जाना न जावै तू चिदानंद अलक्ष है । स्वसंवेदन करत । अनुभव होत तव परत्यक्ष है ॥ तन अन्य जड जानो सरूपी तू अरूपी सत्य है । कर भेदज्ञान सो ध्यान धर निज और। बात असत्य है ॥५॥ क्या देख राचा फिरै नाचा रूपसुंदरतन लहा। मलमूत्र भांडा भरा गाढा तू न जानै भ्रम गहा ॥ क्यों सूग नाहीं लेत आतुर क्यों न चातुरता धरै।। तुहि काल गटकै नाहिं अटकै छोड तुझको गिर परै ॥६॥ कोइ खरा अरु कोइ बुरा नहिं वस्तु विविध स्वभाव है। तू । वृथा विकलप ठान उरमैं करत राग उपाव है। यूं भाव * आस्त्रवे बनत तू ही द्रव्य आस्त्रव सुन कथा । तुझ हेतुसे पुद्गल करम न निमित्त हो देते व्यथा ॥७॥ तन भोग जगत । -R AKASKARE -RAKA * Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** NAAAAAAANNA norammarrrrrrrrr SHAR* । बृहज्जैनवाणीसग्रह ४३५ सरूप लख डर भविक गुरशरणा लिया। सुन धर्म धारा भर्म । गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया । इंद्री अनिंद्री दाबि लीनी सरु थावर बँध तजा । तब कर्म आस्त्रव द्वार रोके ध्यान निजमैं जा सजा ॥८॥ तज शल्य तीनों बरत लीनो वाह्य* भ्यंतर तपतपा। उपसर्ग सुरनर जड पशूकृत सहा निज * आतम जपा ॥ तब कर्म रसविन होन लागे द्रव्यभावन निर्जरा । सब कर्म हरकै माक्ष वरकै रहत चेतन ऊजरा ॥९॥ विच लोक नंतालोक माही लोकमैं द्रव सब भरा । सब भिन्न मिन्न अनादिरचना निमितकारणकी धरा ।। जिनदेव भाषा तिन प्रकाशा भर्मनाशा सुन गिरा। सुन मनुष तिर्यक नारकी हुइ ऊर्ध्व मध्य अधोधरा ॥१०॥ अनंतकाल निगोद अटका निकस थावर तनधरा । भूवारितेजबयार व्हैकै । बेइँद्रिय त्रस अवतरा ॥ फिर हो तिइन्द्री वा चौइन्द्री पंचद्री । मनविन बना । मनयुत मनुषगतिहीन दुर्लभ ज्ञान अति * दुर्लभ घना ॥११॥ जिय ! न्हान धोना तीर्थ जाना धर्म नाहीं जपजपा । तननग्न रहना धर्म नाही धर्म नाहीं तप१. तपा ॥ वर धर्म निज आतम स्वभावी ताहि विन सब। निष्फला । बुधजन धरम निज धार लीना तिनहिं कीना। सब भला। दोहा-अथिराशरणसंसार है, एकत्वअनित्यहि * जान । अशुचि आस्रव संवरा, निर्जर लोक बखान ।। बोध रु दुर्लभ धरम ये, बारह भावन जान । इनको भावै जो सदा क्यों न लहै निवीन ॥१४॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह २२७ - बारह भावना जयचंदजीकृत । दोहा - द्रव्यरूपकरि सर्व थिर, परजय थिर है कौन । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्जय नयकरि गौन ॥१॥ शुद्धातम अरु पंच गुरु, जगमैं सरनों दोय | मोह उदय जियके वृथा, आन कल्पना होय ॥ २ ॥ परद्रव्यनतै प्रीति जो, है संसार अवोध | ताको फल गति चारमें, भ्रमण कह्यो श्रुत शोध ||३|| परमारथर्ते आतमा, एक रूप ही जोग्र कर्मनिमित विकलप घने, तिन नासे शिव होय ॥ ४ ॥ अपने अपने सकूं, सर्व वस्तु विलसाय । ऐसें चितवै जीव तव, परतै ममत न थाय ||५|| निर्मल अपनी आतमा देह अपावन गेह | जानि भव्य निज भावको, यासों तजो सनेह ||६|| आतम केवल ज्ञानमय, निश्चय-दृष्टि निहार । सब विभाव परिणाममय, आस्रव भाव चिडार ॥७॥ निज स्वरूपमै लीनता, निश्चय संवर जानि । समिति गुप्ति संजम धरम, धेरै पापकी हानि ||८|| संवरमय है आतमा, पूर्व कर्म झड़ जाय । निज स्वरूपको पायकर, लोक शिखर जब थाय ||९|| लोक स्वरूप विचारिकै, आतम रूप निहार । परमारथ व्यवहार मुणि, मिथ्याभाव निवारि ॥१०॥ बोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहि । भवमें प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं ॥ ११ ॥ दर्शज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि । दयाक्षमादिक रतनत्रय, यामैं गर्भित जान ॥ १२॥ ४३६ 1 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # M AHARASTRA बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४३७ । ...... mirat wwwvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv - - २२८-बारहभावना। चाल छन्द १४ मात्रा 2. अनित्यभावना-जोवनगृह गोधननारी। हयगयजन आज्ञाकारी॥ इन्द्रीयभोग छिन थाई । सुरधनु. चपला चपलाई ॥१॥ २ असरनभावना-सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों। * हरिकाल दले ते। मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचाने । * कोई ॥२॥ ३ संसारभावना-चहुंगति दुख जीव भरे हैं, परिवर्तन पंच करे हैं । सवविधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा॥ २४ एकत्वभावना-शुभ अशुभ करमफल जेते, भोगै जिय। * एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भारी॥ । ५ अन्यत्व भावना-जलपय ज्यों जियतन मेला, पै। * भिन्न नहिं भेला। तौ प्रगट जुदे धनधामा, क्यों है इक मिल सुत रामा ।।५।। ६ अशुचित्व भावना-यह रुधिर राधमल थैली, कीकस। * बसादित मैली ॥ नवद्वार बहै घिनकारी, अस देह करै किम । यारी ॥६॥ ७ आस्रव भावना-जो जोगनकी चपलाई, ताते है आस्रव भाई। आस्रव दुखकारि घनेरे, बुधवंत तिन्हें निरवेरे॥ ८संबर भावना-जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम REF --....rammar ----- rra dimemu - Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह अनुभव चित दीना । तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥८॥ ९ निर्जरा भावना - निजकाल पाय विधि झरना, तासौं निज काज न सरना । तपकरि जो करम खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ॥९॥ १० लोक भावना - किन हू न करचो न धरै को, पटद्रव्यमयी न हरै को । ता लोकमाहि विन समता, दुखसहै जीव नित भ्रमता ॥१०॥ ११ बोधदुर्लभ भावना - अंतिम ग्रीवकलोंकी हद, पायो अनंत विरियां पद । पर सम्यकज्ञान न लाभ्यो, दुर्लभ निजमें मुनि साध्यो ॥११॥ १२ धर्म भावना - जो भाव मोहतै न्यारे, हग ज्ञानव्रतादिक सारे । सो धर्म जत्रै जिय धारै. तब ही सुख अचल निहारै ||१२|| सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूत उच्चरिये । ताको सुनिके भविप्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी || २२९ - बज्रनाभि चक्रवर्तीकी वैराग्यभावना । दोहा - बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमांहिं । त्यों चक्री नृप सुख करै, धर्म विसारै नाहिं || योगीरासा वा नरेद्रछंद । इहविध राज करै नरनायक, भोगे पुण्य विशालो । सुख सागर मैं रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो || एक दिवस शुभ कर्मसँजोगे क्षेमंकर मुनि बंदे | देख सिरीगुरुके पदपंकज Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह । ४३६ । कलोचन अलि आनंदे॥२॥ तीन प्रदक्षिण दे शिर नायो, कर पूजा थुति कीनी । साधुसमीप विनय कर बैठ्यो चरननमैं । दिठि दीनी ॥ गुरु उपदेश्यो धर्मशिरोमणि, सुन राजा वै॥ रागे। राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ॥३॥ * मुनिसूरजकथनीकिरणावलि, लगत भरम बुधि भागी। भव तनभोगस्वरूप विचारयो, परम धरम अनुरागी । इह संसार महावन भीतर, भ्रमते ओर न आवै । जामन मरण जरा दो। दाझै जीव महादुख पावै ॥४॥ कबहूं जाय नरक थिति भुजै, छेदन भेदन भारी। करहूं पशु परजाय धरै तहँ, वध बंधन। * भयकारी ॥ सुरगतिमैं परसंपति देखे राग उदय दुख होई ।। मानुषयोनि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥५॥ कोइ इष्ट वियोगी विलखै, कोइ अनिष्ट सँयोगी। कोइ दीन । दरिद्रि विगूचे, कोई तनके रोगी ।। किसही घर कलिहारी। । नारी कै बैरी सम भाई । किसहाके दुख बाहिर दीखे, किस। * ही उर दुचिताई ॥६॥ कोई पुत्र विना नित झूरै, होइ मरै तब * रोवै । खोटी सततिसों दुख उपजै, क्यों पानी सुख सोवै ॥ पुन्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता। यह * जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुखदाता ॥७॥ जो संसार विषे सुख होता, तीर्थकर क्यों त्याग । काहेको शिवसाधन । * करते, संजमसों अनुरागै ।। देह अपावन अथिर घिनावन, * यामैं सार न कोई । सागरके जलसों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥८॥ सात कुधातुमरी मलमूरत चाम लपेटी सोहै। । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwww *** * ४४० बृहज्जैनवाणीसंग्रह अंतर देखत या सम जगमें अवर अपावनको है ।। नवमलके द्वार स्वबै निशिवासर, नाम लिये धिन आवै । व्याधि उपाधि अनेक जहां तहँ, कौन सुधी सुख पावै ॥९॥ पोषत तो दुख । । दोष करै अति,सोषत सुख उपजावै । दुर्जनदेहस्वभाव बरावर, मूरख प्रीति वढावै ॥राचनजोग स्वरूपन याको विरचनजोग! के सही है । यह तन पाय महातप कीजै या सार यही है । ॥१०॥ भोग बुरे भवरोग बढ़ा, वैरी है जग जीके वेस। होय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके || बज्रअगिनि विषसे विषधरसे, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतनके चोर चपल । अति, दुर्गतिपथ सहाई ॥११॥ मोहउदय यह जीव अज्ञानी, * भोग भले कर जाने । ज्यों ज्यों भोग सँजोग मनोहर, मन बांछित जन पाचै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डकै, लहर * जहरकी आवै ॥१२॥ मैं चक्रीपद पाय निरंतर, भोगे भोग घनेरे । तौ भी तनक भये नहिँ पूरन, भोग मनोरथ मेरे॥ राजसमाज महा अधकारन, वैरबढ़ावनहारा । वेश्यासम में लछमी अति चंचल, याका कौन पत्यारा ॥१३।। मोहमहारिपु वैर विचारयो, जगजिय संकट डारे । घरकाराग्रह पनिता वेडी परिजन जन रखवारे । सम्यकदर्शन ज्ञानचरन तप, ये जियके हितकारी । येही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ॥११॥ छोडे चौदह रत्न नवों निधि, अरु छोडे सँग साथी । कोडि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी॥ इत्यादिक संपति बहुतेरी, जीरण तृणसम त्यागी।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K AKASHNER-STAR वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४४१ । नीति विचार नियोगी सुतकों, राज दियो बड़भागी ॥१५॥ होय निशल्य अनेक नृपति सँग, भूषण वसन उतारे। श्री* गुरु चरनधरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे ॥ धनि यह । समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरजधारी । ऐसी संपति। छोड़ बसे बन, तिन पद धोक हमारी ॥१६॥ दोहा-परिगहपोट उतार सब, लीनो चारित पंथ ।। निज स्वभावमें थिर भये, वज्रनामि निरग्रंथ ॥ २३०-सोलह कारण भावना।। व चौपाई-आठदोषमद आठ मलीन, छह अनायतन * शठता तीन । ये पचीस मल वर्जित होय, दर्शविशुद्धि* भावना सोय ॥१॥ रत्नत्रयधारी मुनिराय, दर्शनज्ञान चरित समुदाय । इनकी विनय विषै परवीन, दुतिय १ भावना सो अमलीन ॥२॥ शीलधारि धारै समचेत, सहस । अठारह अंग समेत । अतीचार नहिं लागै जहां, दृतिय * भावना कहिये तहां ॥३॥ आगमकथित अरथ अवचार, । यथाशक्ति निजबुधि अनुसार । करै निरंतर ज्ञान अभ्यास। * तुरिय भावना कहिये तास॥४॥ । दोहा-धर्म धर्मके फलविष, परतें प्रीति विशेख। यही मावना पंचमी, लिखी जिनागम देख ॥५॥ चौपाई-औषधि अभय ज्ञान आहार, महादान ये चार प्रकार । शक्ति समान सदा निर्वहै, छठी भावना Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *2- R REARS25- RRRR* १४४२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह धारक वहै ॥६॥ अनसन आदि मुक्ति दातार, उत्तमतप बारह परकार । बल अनुसार करे जो कोय, सो सातमी भावना होय ॥७॥ यतीवर्गको कारन पाय, विधन होत जो करै सहाय । साधुसमाधि कहावै सोय, यही । * भावना अष्टमि होय ||८॥ दशविध साधु जिनागम कहे, पथ पीडित रागादिक गहे । तिनकी जो सेवा सतकार, . यही भावना न मी सार ।।९॥ परमपूज्य आतम अरहंत, . अतुल अनंत चतुष्टयवंत । तिन की थुति नित पूजा भाव, । दशमि भावना भवजलनाव ॥१०॥ जिनवरकथित अर्थ । * अवतार, रचना करै अनेक प्रकार । आचारजकी भक्ति * विधान, एकादशमि भावना जान ॥११॥ विद्यादायक * विद्यालीन, गुणगरिष्ट पाठक परवीन । तिनके चरन सदा । चित रहै, बहु श्रुत भक्ति बारमी यहै ॥१२॥ भगवतभा पित अरथ अनूप, गणधरग्रंथित ग्रंथ स्वरूप। तहां भक्ति। * बरतै अमलान, प्रवचन भक्ति तेरमी जान ॥१३॥ षट आव-* श्यक क्रिया विधान, तिनकी कवहूँ करै न हान । सावधान , वरतै थित चित्त, सो चौदहवीं परम पवित्त ॥१४॥ कर जप तप पूजावत भाव, प्रगट करै जिनधर्मप्रभाव । सोई मारग परभावना, यही पंचदशभी भावना ॥१५॥ चार प्रकार * संघसों प्रीति, राखै गाय वत्सकी रीति । यह सोलहमी सब + सुखदान, प्रवचन वातसल्य अभिधान ॥ दोहा-सोलह कारन भावना, परम पुण्यको खेत। भिन्नभिन्न Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .wwwvvvwovvvvvvvi vvvvvvvvvvvvvvvvvvvour वृहज्जैनवाणीसंग्रह अरु सोलहों, तीर्थकरपद देत ॥ बंध प्रकृति दिनमतविष, । कही एक सो बीस । सौ सतरह मिथ्यातमैं, बांधत हैं निशदीस ॥ तीर्थकर आहार द्विक, तीन प्रकृति ये जान । इनको बंध मिथ्यातमैं, कह्यो नहीं भगवान ॥ तातै तीर्थंकर प्रकृति, तीनों समकित माहिं । सोलहकारणसों बर्फे, शिवको निश्चय जाहिं॥ सोरठा-पूज्यपाद मुनिराय, श्री सरवाग्थ सिद्धिमै । कह्यो कथन इस न्याय, देख लीजिये सुबुधिजन ॥ दशवां अध्याय। परमार्थजकडी संग्रह २३१-जकडी भूधरकृत अब मन मेरे बे, सुन सुन सीख सयानी । जिनवर चरना। बे, कर कर प्रीति सुज्ञानी ।। करप्रीत सुज्ञानी शिवसुखदानी। धन जीतब है पंचदिना। कोटिचरस जीवौ किसलेखे, जिन * चरणांबुज भक्ति विना ॥ नरपरजाय पाय अति उत्तम गृह। बसि यह लाहा लेरे । समझ समझ बोलें गुरुज्ञानी, सीख । सयानी मन मेरे ॥१॥ तू मति तरसै बे, संपति देख पराई । । बोये लुनि लेबे, जो निज पूर्वकमाई ।। पूर्वकमाई संपति पाई। र देखि, देखि मति झूर मरै । वोय बबूल शूल-तरु भोंदू, आ-% मनकी क्यों आस करै । अब कछु समझ बूझ नर तासौं, । ज्यौं फिर परभव सुख दरसै । कर निज-ध्यान दान तप सं Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R EKKRK- - - -* . १.४४८ · बृहज्जैनवाणीसग्रह तनमैं तू वे, क्या गुन देख लुभाया । महा अपावन चे, सत। गुरु याहि बताया ॥ सतगुरु याहि अपावन गाया, मल मूत्रादिकका गेहा ! कृमिकुलकलित लखत घिन आवै, । . यासों क्या कीजै नेहा ।। यह तन पाय लगाय आपनी, है परनति शिवमगसाधनमै । तो दुखदंद नशै सब तेरा,यही सार । । है इस तनमें ॥३॥ भोग भले न सही, रोग शोकके दानी । शुभगतिरोकन वे दुर्गतिपथ अगवानी ॥ दुर्गतिपथ अगवानी । हैं जे, जिनकी लगन लगी इनसौं । तिन नानाविध विपति * सही है, विमुख भयौ निजसुख तिनसौ ॥ कुंजर झख अलि * शलभ हिरन इन, एक अक्षवश मृत्यु लही। यात देख समझ मनमांहीं, भवमैं भोग भले न सही ॥४॥ काज सरै तब वे जव निजपद आराधै। नशै भवावलि वे निरावाधपद लाधै ॥ निराबाधपद लाधै तब तोहि, केवलदर्शनज्ञान * जहां । सुख अनंत अमि-इंद्रियमंडित, वीरज अचल अनंत । तहां ॥ ऐसा पर चाहै तो भज निज बार वार अब को। । उचरै । 'दौलत'मुख्य उपचार रत्नत्रय,जो सेवै तो काज सरै।। २३५-जकडी दौलतरामकृत। वृषभादि जिनेश्वर ध्याऊं, शारद अंबा चित लाऊं । । द्वैविध-परिग्रह-परिहारी, गुरु नमहूं स्वपर हितकारी ॥ हित कारि ताकर देवश्रुत गुरु, परख निजउर लाइये। दुखदायकुपथविहाय शिवसुख, दाय जिनवृष ध्याइये । चिरते । कुमगपगि मोहठगकरि, ठग्यो भव-कानन परयौ । व्याली-1 । *RKK HAIR-52RR * Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह મર सद्विकलख जौनिमैं, जर-मरन - जामनदवजरथौ ॥१॥ जब मोहरिपु दीन्हीं घुमरिया, तसवश निगोदमै परिया । तहाँ स्वास एककेमाहीं, अष्टादश मरन लहाहीं || लहि मरन अंतमुहूर्त में, छ्यासठ सहस शत तीन ही । पटतीस काल अनंत यौं दुख, सहे उपमा ही नहीं || कबहू लही वर आयु छिति - जल, पवन - पावक तरुतणी । तस भेद किंचित कहूं सो सुन को जो गोतमगणी ॥ २ ॥ पृथिवी द्वयभेद बखाना, मृदु माटीकठिन पखाना | मृदु द्वादशसहस: बरसकी, पाहन बाईस सहसकी || पुनि सहस सात कही उदक त्रय, सहसवर्ष समीरकी । दिन तीन पावक दश सहस तरु, प्रभृति नाश सुपीरकी ॥ विनधात सूक्ष्म देहधारी, घातजुत गुरुतन लह्यौ । तहँ खनन तापन जलन व्यंजन, छेद-भेदन दुख सह्यौ || शंखादि दुइंद्री पानी, थिति द्वादशवर्ष बखानी । यूकादि तिइंद्री हैं जे, वासर उनचास जियँ ते ॥ जीवै छमास अली प्रमुख, व्यालीस सहसउरगतनी । खगकी बहत्तरसहस नवपूर्वाग सरिसृपकी भनी || नरमत्स्यपूरवकोटकी थिति करमभूमि बखानिये | जलचरविकलविन भोगभू-नर-पशु त्रिपल्य प्रमानिये || ४ || अघवश करि नरक वसेरा, भुगतें तहँ कष्ट घनेरा | छेदै तिलतिल तन सारा, छेपैं द्रहपूतिमझारा || मझार वज्रानिल पचावें, घरहिं शूली ऊपरें । सींचें जु खारे वारिसों दुठ, कहें व्रण नीके करें ॥ चैतरणिसरिता समलजल अति दुखद तरु सेंवलतने । अति Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwvvwww. wwwwwwwwwwwwwwwwwwww. ४५० वृहज्जैनवाणीसंग्रह भीमवन असिक्रांत समदल, लगत दुख देवें घने ॥५ तिस भूमैं हिम गरमाई, सुरगिरि सम अस गल जाई । तामैं । थिति सिंधु तनी है, यो दुखद नरक अवनी है ।। अवनीतहांकीत निकसि, कवहूं जनम पायौ नरौ । सांग सकुचित । अति अपावन, जठरजननीके परौ ।। तहँ अधोमुख जननी रसांश, थकी जियो नव मास लौं । ता पीरमें कोउ सीर * नाहीं, सहै आप निकास लौं ॥ ६॥ जनमत जो संकट पायौ, रसनाने जात न गायौ । लहि बालपने दुखभारी॥ तरुनापौलयौ दुखभारी दुखकारि इष्ट वियोग अशुभ, सँयोग * सोग सरोगता । परसेव ग्रीषमसीतपावस, सहै दुख अतिभोगता ॥ काहू कुतिय काहू कुवांधव, कहुं , सुता व्यमिचारिणी । किसाहू विसन-रत पुत्र पुष्ट, कलत्र कोऊ पररिणी ॥ ७ ॥ वृद्धापनके दुख जेते, लखिये सब नयननतेंते । मुख लाल बहै तन हालै, विन शक्ति न वसन। सँभालै ॥ न संभाल जाके देहकी तो, कहो वृषकी का कथा । तबही अचानक आन जम गहै, मनुजजन्म गयो । * वृथा॥ काहू जनम शुभ ठान किंचित, लह्यो पद चउदेव-1 को। अभियोग किल्विष नाम पायौ, सह्यौ दुख परसेवको।। तहँ देख महा सुररिद्धी, झूरथो विषयनकरि गृद्धी। कबहूं। परिवार नसानौ,शोकाकुल है विलसानौ ॥ विललाय अति। * जब मरन निकटयौ,सह्यो संकट मानसी। सुरविभव दुखद लगी । तबै जब, लखी माल मलानसी ॥ तबही जु सुर उपदेशहित । * - * --*--*- * - * - * Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणी संग्रह ४५१ समुझायौ समुझ्यौ न त्यौं । मिध्यात्वजुत च्युत कुंगति पाई, लहै फिर सो स्वपद क्यों । यों चिर भव-अटवी गाही, किंचितसाता न लहाही | जिनकथित घरम नहिं जान्यो, परमाहिं अपनपो मान्यो || मान्यो न सम्यक त्रयातम आतम अनातम मैं फस्यो । मिथ्याचरन हग्ज्ञान रंज्यौ, जाय नवग्रीवक बस्यो । पै लह्यो नहिं जिनकथित शिवमग, वृथा भ्रम भूल्यो जिया । चिदभाव के दरसावविन सब गये अहले तप किया ||१०|| अब अद्भुत पुण्य उपायो, कुल जात विमल तू पायो । यातें सुन सीख सयाने, विषयनसों रति मत ठाने || ठाने कहा रति विषय में ये, विषम विषधरसम लखो। यह देह मरत अनंत इनकों, त्यागि आतमरस चखो || या रसरसिकजन बसे शिव अब, बसें पुनि बसि सही । 'दौलत' स्वरचि परविरचि सतगुरु, सीख नित उर धर यही ।। २३६ - जकडी रामकृष्णकृत । अरहंतचरन चित लाऊं । पुन सिद्ध शिवकर ध्याऊं ॥ बंद जिनमुद्राधारी । निर्ग्रथ यती अविकारी ॥ अविकार करुणावंत चंदौं, सकललोकशिरोमणी । सर्वज्ञभाषित धर्म प्रणयूं, देय सुख संपति घनी । ये परममंगल, चार जगमें, चारु लोकोत्तम सही । भवभ्रमत इस असहाय जियको, और रक्षक कोउ नहीं ॥१॥ मिथ्यात्व महारिपु दंड्यो । चिरकाल चतुर्गति हंड्यो | उपयोग-नयन-गुन खोयौ । भरि नींद निगोदे Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwww www.mr. wwww.. ream १५२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * सोयौ । सोयौ अनादि निगोदमै जिय, निकर फिर थावर • भयौ, भू तेज तोय समीर तरुवर, थूल सूच्छमतन लयौ । कृमि कुंथु अलि सैनी असैनी व्योम जल थल संचरयौ । । पशुयोनि वासठलाख इसविध, भुगति मर मर अवतरयौ ।। * अति पाप उदय जब आयौ । महानिंद्य नरकपद पायौ ।। थिति सागरोंबंध जहां है । नानाविध कष्ट तहां है। है त्रास • अति आताप वेदन, शीत बहुयुत है मही। जहां मार मार । सदैव सुनिये, एक क्षण साता नहीं ॥ मारक परस्पर युद्ध । ठान, असुरगण क्रीडा करै । इहविधि भयानक नरकथानक । * सह जी परवश परें ।। ३॥ मानुषगतिके दुख भूल्यो । बसि । के उदर अधोमुख झूल्यो। जनमत जो संकट सेयो। अविवेक । उदय नहिं बेयो । यो न कछु लघुवालवयमें, वंशतरुकों पल लगी। दलरूप यौवन वयस आयौ, काम-दौं-तब उर जगी ॥ जब तन बुढापो घटयो पौरुष, पान पकि पीरो । * भयो । झड़ि परयो काल-बयार वाजत, बादि नरभव यौँ । गयौ ॥४॥ अमरापुरके सुख कीने । मनवांछित भोग नवीने ॥ उरमाल जवै मुरझानी। विलप्यो आसन-मृतु जानी ॥ मृतु । जान हाहाकार कीनौं, शरन अब काकी गहौं । यह स्वर्ग-1 । संपति छोड अब मैं, गर्भवेदन क्यौं सहौं । तब देव मिलि। समुझाइयो, पर कछु विवेक न उर बस्यो । सुरलोक-गिरिसों । गिरि अज्ञानी, कुमेति-कादौं फिर फँस्यो ॥५॥ इहविध इस । मोही जीनें । परिवर्तन पूरे कीनें ।। तिनकी बहु कष्टकहानी।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K HAR * www wwwwwwwwww - - -5-9-7-5- -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४५३ । * सो जानत केवलज्ञांनी ॥ ज्ञानी विना दुख कौन जाने, ज गत-वनमें जो लह्यो । जरजन्ममरणस्वरूप तीछन त्रिविध दा-१ वानल दह्यो । जिनमतसरोवरशीतपर अब, बैठ तपन बुझायं । हो। जिय मोक्षपुरकी बाट बूझौ, अब न देर लगाय हो॥1 यह नरभव पाय सुज्ञानी । कर कर निजकारज प्रांनी ॥ ति यंचयोनि जब पावै । तब कौन तुझे समझावै ॥ समुझाय * गुरु उपदेश दीनो, जो न तेरे उर रहै । तो जान जीव अ भाग्य अपनो, दोष काहूको न है । सूरज प्रकाशै तिमिर । नाश, सकल जगको तम हरै। गिरि-गुफा-गर्भ-उदोत होत *न, ताहि भानु कहा करै ।।७। जगमाहिं विषयवन फूल्यो। मनमधुकर तिहिविच भूल्यो॥ रसलीन तहां लपटान्यो। १. रस लेत न रंच अधान्यो। न अघाय क्यों ही रमै निश दिन, एक छन भी ना चुकै । नहिं रहै बरज्यो वरज देख्यो, । बार बार तहां ढुकै ॥ जिनमतसरोज-सिधांतसुंदर, मध्य । याहि लगाय हो । अब 'रामकृष्ण' इलाज याकौ, किये ही * सुखपाय हो ॥८॥ - २३७-जकडी जिनदासकृत। ___ राग आसासिंधु। थिर चिर देवा गधणर सेवा, कर गुनमाला ज्ञान । थिर * चिर जीवा भरमनि-भमता, करि करुना परिनाम ॥ करि । * करनापरिनाम सु जता, गुणकरि सबै समाना। कर्मतणीक थिति घटि बधि दीसै, निश्चय केवलज्ञाना ।। यौँ जाने बिनु । - - ---- - Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMRAARAA * ४५४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह जतन करीजै, परिहरिये परपीड़ा । मूर्ख होय जिन आप च-4 धायो, ज्यौं कुसियाला कीड़ा ॥१॥ ज्यौं कुसियाला अपनी । लाला, फंदति आपोआप । त्यौं तू आला विकलपमाला, बंधति पुनरु पाप । पुनरु पाप दुवै दिनबंधन, लोकशिखर । किम जावै । थिर चर होय चहूंगति भीतर, रह्यो चिदानंद छावै॥ चितमैं चेत चमक्वत्त नाही, साथि सरूपी कूड़ा इंद्री पंचतणे वसि पड़करि, विषय विनोदां बूड़ा। विषय विनोद * आप विरोध्या, जात निगोद अपार । तहँ काल अनंता दुःख । सहता एकलडौ निरधार। एकलडौ निरधार निरंतर, जामन मरन करतौ । कर्मविपाकतणै बसि पडियौ, फिर फिर दुख सहतौ ।। बरजै कौन स्वयंकृत कर्महिं योहि अनादि । * सुभावै । बांछित कहौ सुक्ख किमि पावै, दंसणतणौ अभावै । ॥३॥दसण गुण विन जात जिके दिन, सो दिन धिक। धिक जानि । धन्य सोहि सोहि परभिन्नो, भ्रांति न मन-1 महिं आनि ॥ भ्रांति सुमिथ्यादृष्टीलच्छन, संशयरहित सुदिष्टी । यौं जाने विन गयौ गहीजै, पद पाकै परमिष्टी ।। ए दुइ भेद जिनागम कहिया, ते मनमैं अवधारै । सुद्ध सुसम्यकदरसन कारन, मिथ्यादृष्टि निवारै ॥४॥ मिथ्याती। मुनिवर अवर सु तरुवर, सह कलेश अनेक । तप तप्यो न । तपियौ, खप्यौ न खपियौ दोऊ रहितविवेक ॥ दोऊं रहितविवेक जीव इक, कर्म बँधै इक छोड़े। आस्रव बंध उदय नहिं समझत, क्यौंकर कर्महिं तो.॥ दंसण-णाण-चरण-* Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAV वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४५५ गणरयणा, मूरख छिन न सँभाले । काचसमान विषयसुख • साटै ते गहि तीनौं राले ॥५॥ गहि तीनौ रयणा तनमन. वयणा, चर निज चरन सयान । डंडसि करुणा खंडसि म। यणा, मंडसि धरमहि ध्यान ॥ मंडसि ध्यान कर्मछयकारण, * कारण काज दिखावै। कान सुदंसण ज्ञान सकति सुख, सहजहि चारौं पावै ।। बहुड़ि न कोई रहै कृतकर्मह, जो जग जीवा ताणै। एक समयमैं केवलज्ञानी, अतीत अनागत जाणै ॥६॥ अतीत अनागत देखत जानत, सो हम लख्यो । न देव । जो हूं देखत देखि जु हरखत, हरखि करत तसु। * सेवा॥ हरखि हरखि तसु सेव करता, जिन आपनसौ कीनौं। मोहनधूलि घरी सिर ऊपरि, ठगि रणयत्तो लीनौं । अब श्रीकुंदकुंदगुरुपयणा, जिन विन घड़ि न सुहावै । आपणडागुण सहज सुनिर्मल, यौं जिनदासहि गावै ॥७॥ इति ॥ । ग्यारहवां अध्याय । कथासंग्रह २३८-निशिभोजन जन कथा दोहा-नमों सारदा सार बुध, करें हरै अघ लेप। - निशिभोजन जन कथा, लिखू सुगम संक्षेप ॥१॥ । * जम्बूद्वीप जगत विख्यात भरतखंड छबि कहिय न । जात ॥ तहां देश कुरुजांगल नाम । हस्तनागपुर उत्तम ठाम ॥ यशोभद्र भूपत गुण बास। रुद्रदत्त द्विज मोहित Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह तास || अश्वमास तिथि दिनआराध पहिली पड़वा कियो सराध | बहुत विनय सों नगरी तने । न्योंत जिमाये ब्राह्मण घने ॥ दान मान सहीको दियो । आप विप्र भोजन नहि कियो। इतने राय पठायो दास । मोहित गयो रायके पास । राज काज कछु ऐसे भयो । करम करावत सब दिन गयो ॥ घरमें रात रसोई करी । चुल्हे ऊपर हांड़ी धरी ॥ हींग लेन उठि बाहर गई। यहां विधाता और हि ठई || मैंढक उछल परो तामाँहि । त्रिया तहां कछु जानो नाहिं | वैगन छौंक दिये तत्काल | मैंढक मरो होय बेहाल || तबहुं विप्र नहिं आयो धाम | धरी उठाय रसोई ताम । पराधीनकी ऐसी बात | औसर पायो आधी रात || सोय रहे सब घरके लोग । आग न दीवा कर्म संयोग | भूखो प्रोहित निकसे प्रान ॥ ततछिन बैठो रोटी खान || बैंगन भोलै लीनो ग्रास । मेंढक मुँहमें आयो तास || दांतन तले चव्यौ नहि जबै । काढ़ घरो थालीमें तबै ॥ प्रात हुए मैंढक पहिचान । तौ भी विप्र न करी गिलान || थिति पूरी कर छोड़ी काय । पशुकी योनी उपजो जाय ॥ सोरठा - घुघू कार्ग बिलाव, सावरें गिरध पखेरुआ । सूकरें अजगर भाव, वा गोहे जल में मगैर दश भव इहविधि थाय, दशों जन्म नरकहि गयो । दुर्गति कारण पाय फल्यौ पाप वटवीजवत् ॥ 1 दोहा - निशि भोजन करिये नहीं, प्रगट दोष अविलोय । परभव सब सुख संपजे, यह भव रोग न होय ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARAARAAAAAAmAAARNAMAAAAA MAAAAAAAAAMRAA वृहज्जैनवाणीसंग्रह छप्पय ( छन्द) ___ कीड़ी बुभवल हरे, कम्प गह करे कसारी। मकड़ी कारण पाय कोढ़ उपजे दुख भारी ॥ जुयां जलोदर जने 1 फांस गल विथा बढ़ावै । वाल सवे सुरभंग वमन माखी उप जावे ॥ तालुवै छिद्र बीछू भखत और व्याधि बहु करहि । * सब । यह प्रगट दोष निश असनके परभव दोष परोक्ष फल। हैं जो अघ इह भव दुख करे, परभव क्यों न करेय, डसत। सांप पीडै, तुरत लहर क्यों न दुख देय । सुवचन सुन डा। हारजे, मूरख मुदित न होय । मणिधर फण फेरे सही, नहीं । साप वह होय ॥ सुवचन सतगुरुके वचन, और न सुवचन कोय । सतगुरु वही पिछानिये, जा उर लोभ न होय । ५ भूधर सुवचन सांभलो, खपर पक्षकर चौन । समुद्ररेणुका । जो मिल, तोड़े तै गुण कौन ॥ इति ॥ २३९-अठारह नातेकी कथा। मालवदेश उज्जयनीविष राजा विश्वसैन तहां सुदत्त नाम । श्रेष्ठी बसै सोलह कोटिको धनी सो बसन्ततिलका नाम । " वेश्यापर आसक्त होय ताहि अपने घरमें राखी, सो गर्भवती । 9 भई, जब रोग सहित देह भई, तर घरमेंसे काढि दई । बहुरि । वसन्ततिलका दुखी होकर अपने घर आई तो उसके गर्भते । * एक पुत्र और एक पुत्री साथही जुगल उत्पन्न होनेके का करण खेदखिन्न हुई तब क्रोधित होकर तिन दोऊ बालकन को जुदे २ कम्बलमें लपेटि पुत्रीको तो दक्षिण द्वारपर डाली। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह सो प्रयागनिवासी बनजारेने लेकर अपनी स्त्रीको सौंपा, कमला नाम धरा, अरु पुत्रको उत्तर द्वारपर डाला सो साकेत पुरेके एक सुभद्र बनजारेने अपनी स्त्री सुत्रताको दिया और धनदेव नाम धरा । बहुरि पूर्वोपार्जित कर्मके वशर्तें धनदेव और कमलाके साथ विवाह हुआ, स्त्री- भरतार हुए, पाछै धनदेव व्यापार करने वास्ते उज्जयनी नगरी गया तहां वसन्ततिलका वेश्यासों लुब्ध भया तब ताके संयोगतैं बसन्ततिलकाके पुत्र भया वरुण नाम धरा, उधर एक दिन कमलाने निमित्तज्ञानी मुनिसे इसकी कुशल वार्ता पूंछी सो मुनिने पूर्वभवसों लेकर वर्तमानतक सकल वृत्तान्त कहा । इनका पूर्व भव वर्णन | इसी उज्जयनी नगरीविषै, सोमशर्मा नाम ब्राह्मण ताकी काश्यपी नाम स्त्री, तिनके अग्निभूत सोमभूत नामके दोय पुत्र, सां दोनों कहांतें पढ़कर आवैं थे, मार्ग में जिनदत्त मुनिको ताकी माता जो जिनमती नाम अर्जिकाकूं शरीर समाधान पूछता देखा और जिनभद्रनामा मुनिको सुभद्रनामा अर्जिका पुत्रकी स्त्री थी सो शरीर समाधान पूछती देखी । तहां दोनों भाईने हास्य करीकी तरुणा के वृद्ध स्त्री और वृद्ध तरुणी स्त्री, विधाताने अच्छी विपरीत रचना करी । सो हास्यके पापतै सोमशर्मा तो वसन्ततिलका वेश्या हुई, बहुरि अग्निभूत सोमभूत दोनों भाई मरिकरि बसन्त तिलक के पुत्र पुत्री जुगल हुए तिनने कमला अरु धनदेव ध Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * --6-5925 A R + RA* ' वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४६ * घरके पाय । सब दरिद्र दुख वेग मिटाय । तब कुम्भश्री। कियो उपगार। दुर्गन्धाको गयो विकार ॥ सोमिल्या । रु अर्जिका भई । तप करि प्रथम स्वर्गमें गई ॥ कुम्भश्री। फिर यह व्रत करयो। दूजे स्वर्ग देव अवतरयो ॥२३॥ परम्परा वह जे हैं मुक्ति। भविंजन करौ सवे व्रत युक्ति ॥ सत्रहपर अठावन जान ।'पण्डितजन सम्बत्सर मान ॥२४॥ * जेष्ठशुक्ल गुरुएकादसी । नगरगहेली शुभ मति वसी ॥ जो यह कर भव्य व्रत कोय । सो नर नारि अमरपति होय। ॥२५॥ रोग सोग दुखसंकट जाय । ताकी जिनवर करी। सहाय । जो नर नारि इक चित्त करै । मन वांछित सुख । संपति वरै ॥२६॥ इति २४१-सुगंधदशमीव्रतकथा। ___चौपाई-बर्द्धमान वंदों जिनराय। गुरु गौतम वंदों । सुखदाय ॥ सुगंधदशमीव्रतकी कथा । वर्द्धमानी सुप्रकाशी * यथा ॥१॥ मगधदेश राजगृहि नामः। श्रेणिक राज करै । अभिराम । नाम चेलना गृह पटरानि । चंद्ररोहिणीरूपसमान ॥२॥नृप बैठयो सिंहासन परे। वनमाली फल लायो । हरे॥ कर प्रणाम बच नृपत्तै कह्यो । प्रमोदचित्तसे ठाडो रह्यो ॥२॥ वर्द्धमान आये जिनस्वामि । जिन जीत्यो उद्धत अरि काम ।। इतनी सुनत नृपति उठ चला । पुरजनयुत दलबलसे भला ॥४॥ समोसरण चंदे भगवान । पूजा भक्ति । धार बहुमान ॥ नरकोठा बैठयो नृप जाय । हाथ जोड़। * AKHSHR Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RAM - 05- R R -* ४६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह पूछयो शिरनाय ।।५।। सुगंधदशमीव्रत फल भाख । ता नरकी कहिये अब साख ॥ गणधर कह सुनो मगधेश | जंबुद्वीप, विजया प्रदेश ॥६॥ शिवमंदिरपुर उत्तरश्रेणि।। विद्याधर प्रीतंकर जैनि ॥कमलावती नारि अति रूप । सुर-। कन्यासे अधिक अनूप ।। आगरदत्त वसे तहां साह । जाके । जिनव्रतमें उत्साह ॥ धनदत्ता वनिता गृह कही। मनोरमा । । ता पुत्री सही ।।८।। मुनि सुगुप्त गृहपर आइयो । देख मुनीं। द्र दुःख पाइयो॥ कन्या मुनिकी निंदा करी । कुछ मनमें । शंका नहिं धरी ॥९॥ नग्नगात दुर्गध शरीर । प्रगटपनै । * देही नहि चीर ॥ मुख तांबूल हतो मुनि अंग । नाख्यो सुखको कीनो भंग ॥१०॥ भोजन अंतराय जब भयो। । मुनि उठ जाय ध्यान वन दियो ।समताभाव धरै उरमांहि।। किंचित खेद चित्तमें नाहि ॥११॥ बीती अवधि समय कछु । गयो। मनोरमाको काल सु भयो॥ भई गधी पुनि कुकरी। * ग्राम । अपर ग्राम भइ सूकरि नाम ॥१२॥ मगध सुदेश तिलकपुर जान । विजयसेन तहका नृप मान ॥ चित्ररेखा ता रानी कही । तस पुत्री दुर्गधा भई ॥१३॥ एक समय गुरु वंदन गयो । पूजा कर विमतीको ठयो ॥ मो पुत्री दुर्गध । शरीर । कहो भवांतर गुणगभीर ॥१४॥ राजा वचन सुनी श्वर सुने । मुनि विरतांत रायसे भने । सब विरतांत हालं। जो जान । मुनि राजासे को बखान ॥१५॥ सुन दुगंधा 1 जोडे हाथ । मोपर कृपा करो मुनिनाथ ॥ ऐसा व्रत उपदेशो । * RKHA* - - Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * * ** * । वृहज्जैनवाणीसंग्रह मोहि । जामों तनु निरोग अब होहि ॥१६॥ दयावंत बोले। * मुनिराय । सुन पुत्री व्रत चित्त लगाय॥ समताभाव चित्तमें धरो। तुम सुगंधदशमी व्रत करो ॥१७॥ यह व्रत कीजै मनवचकाय । यासों रोग शोक सब जाय ॥ दुगंधा विनवै । * मुनि पाय । कहिये सविधि महामुनिराय ॥१८॥ ऐसे वचन सुने मुनि जबै । तब बोले पुत्री सुन अवै ॥ भादों शुक्लपक्ष। जब होय । दशमी दिन आराधो सोय ॥ १९॥ पंचामृतकी धारा देव । मनमें राखो श्रीजिनदेव।। शीतल जिनकी पूजा करो। मिथ्या मोह दूर परिहरो॥ ॥२०॥ व्रतके दिन छोड़ो। ! आरंभ। यासों मिटै कर्मका दंभ ॥ याके करत पाप छय जाय । सो दश वर्ष करो मनलाय ॥२१।। जब यह व्रत संपूरन होय। उद्यापन कीजै चित जोय ॥ दश श्रीफल अमृत-" फल जान । नीबू सरस सदा फल आन ॥ २२ ॥ दश दीजै । पुस्तक लिखवाय । इह विधि सब मुनि दई बताय ॥ विधि। सुन दुर्गंधा व्रत लयो। सब दुर्गध ततच्छिन गयो ॥ २३॥ व्रतकर आयु जो पूरण करी । दशवें स्वर्ग भई अप्सरी ॥ जिनचैत्यालय वंदन करे । सम्यकभाव सदाउर धरै ॥२४॥ भरतक्षेत्र महँ मध्य सुदेश । भूतितिलकपुर बसै अशेष ॥ * राजा महीपाल तहँ जान । मदनसुंदरी त्रिया वखान ॥२५॥ । दशवें दिवसों देवी आन । ताके पुत्री भई निदान ॥ मद नावती नाम धर तास । अति सुरूप तनु सकल सुवास * ॥२६॥ बहुत बात को करै वखान। सुरकन्या मान्यो । *2 --2- - --- - - * Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RANANAANrnanAAAAAAAAAAM NAA १४६६ बृहज्जैनवाणीसग्रह उन्मान ॥ कोशांचीपुर मदन नरेन्द्र । रानी सती करै आनंद ॥२७॥ पुरुषोत्तम नृप सुन्दर जान । विद्यावंत सुगुणकी । खान ॥ जो सुगंध मदनावलि जाय । सो पुरुषोत्तमको परनाय ॥२८॥ राजा मदनसुन्दरी वाल । सुखसों जात न। जान्यो काल ॥ एक दिवस मुनिवर बंदियो। धर्मश्रवण मुनिवर कियो ॥२९॥ हाथ जोड़ पूछै तब राय। महा। मुनींद्र कहो समुझाय ॥ मो गृह रानी मदनावली । ता शरीर शौरभता भली ॥३०॥ कौन पुन्यसे सुभग सुरूप । सुरवनितासों अधिक अनूप ॥ राजा वचन मुनीश्वर सुने।। सब चिरतांत रायसो भने ॥ ३१ ॥ जैसें दुर्गधा व्रत लह्यो। तैसी विधि नरपतिसों कह्यो। सुने भवांतर जोड़े हाथ। दीक्षावत दीजै मुनिनाथ ॥३२॥ राजाने जब दीक्षा लई।। रानी तवै अर्जिका भई ॥ तप कर अंत स्वर्गको गई। सोलम। *वर्ग प्रतेंद्र सो भई ॥३३॥ वाइस सागर काल जो गयो।। * अंतकाल ता दिवसों चयो । भरत सु क्षेत्र मगध तहँ देश। वसुधा अमर केतुपुरवेश ॥ ३४ ॥ ता नृप गेह जनम उन । लयो । जो प्रतेंद्र अच्युत दिव कह्यो । कनककेतु कंचन युति देह । वनिता भोग करै शुभ गेह ॥३५॥ अमरकेतु * मुनि आगम भयो । कनककेतु तहँ वंदन गयो। सुन्यो सुधर्म । श्रवण संयोग। तजे परिग्रह अरु भवभोग ॥३६॥ घाति घातिया केवल लयो। पुनि अधाति हनि शिवपुर गयो ॥ व्रत * सुगंधदशमी विख्यात ।ता फल भयो सुरभियुत गात ॥३७॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARNAAMnAWAAI * H HA * ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४६७ । यह व्रत पुरुष नारि जो करें। तिह दुख संकट भूलि न परै॥ शहर गहैली उत्तम वास । जैनधर्मको जहां प्रकाश ॥ सब श्रावक व्रत संयम धरै। पूजादानसों पातक हरै। उप* देशी विश्वभूषण सही। हेमराज पंडितने कही ॥३९॥ मन वच पढ़े सुनै जो कोय । ताको अजर अमरपद होय ॥ यासों भविजन पढो त्रिकाल । जो छूटै भवके भ्रमजाल ॥४०॥ २४२-अनंतचौदाव्रत कथा। १ दोहा-अनंतनाथ बंदों सदा, मनमैं कर बहु भाव । सुर असुरहि सेवत जिन्हें, होय मुक्तिपर चाच ॥ चौपाई-जंबूद्वीप द्विपनमें सार । लख योजन ताको । विस्तार। मध्य सुदर्शन मेरु बखान । भरतक्षेत्र ता दक्षिण मान ॥२॥ मगधदेश देशों शिरमणी ॥ राजगृही नगरी अति । । वनी ॥ श्रेणिक महाराज गुणवंत । रानि चेलना गृहशोभंत * ॥३॥ धर्मवंत गुण तेज अपार। राजा राय महा गुणसार ॥1 एक दिवस विपुलाचल चीर। आये जिनवर गुणगंभीर ॥४॥ चार ज्ञानके धारक कहे। गौतम गणधर सो संग रहे॥ छह । * ऋतुके फल देखे नैन । वनमाली ले चाल्यो ऐन ॥५॥ हर्ष । १ सहित वनमाली गयो । पुष्पसहित राजा पर गयो ॥ नम स्कार कर जोडे हाथ । मोपर कृपा करो नरनाथ ॥ ६॥ विपुलाचल उद्यान महंत । महावीर जिन तहां बसंत ॥ सुन राजा अति हर्षित भयो। बहुत दान मालीको दयो। ७॥ सप्तध्वनि बाजे बाजंत । प्रभा सहित राजा चालंत ॥1 * - -- * * Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह में दे प्रदक्षिणा बैठो राव। जिनवर देव कियो चित चाव ॥८॥ । द्वैविध धर्म कह्यो समझाय । जासों पाप सर्व जर जाय ॥ खग तहँ आयो एक तुरंत । सुंदर रूप महा गुणवंत ॥९॥ नमस्कार जिनवरको करयो। जयजयकार शब्द उच्चरयो । ताहि देखि अचरज अति कियो । राजा श्रेणिक पूछत भयो ॥२०॥ सेना सहित महा गुणखानि । को यह आयो सुंदर * बानि ॥ याकी बात कहो समझाय । ज्ञानवंत मुनिवर गुरु राय ॥११॥ गौतम बोले बुद्धि अपार । विजयानगर कह्यो। * अतिसार । मनोकुंभ राजा राजंत । श्रीमती रानीको कंत। ॥१२॥ ताका पुत्र अरिंजय नाम ! पुण्यवंत सुन्दर गुणधाम॥ पूरवतप कीनो इन जोय । ताको फल भुगतै शुभ सोय * ॥१३॥ ताकी कथा कहूं विस्तार। जंबूद्वीप द्वीपनिमें सार । भरतक्षेत्र तामें सुखकार । कौशलदेश विराजै सार ॥ १४ ॥ * परम सुखद नगरी तहँ जान । विप्र सोमशर्मा गुणखान ।, । सोमिल्या भामिनि ता कही । दुखदरिद्रकी पूरित मही! ॥१५॥ पूरब पाप किये अति घने । तिनके फल भुगते ही बने ॥ सुन राजा याका विरतांत । नगर नगर सो भ्रमै । * दुखांत ॥१६॥ देश विदेश फिरे सुखआश । तोहु न पावै । * सुक्ख निवास ॥ भ्रमत भ्रमत सो आयो तहां। समोशरण । जिनवरको जहां ॥१७॥ दोहा-अनंतनाथ जिनराजका समोशरण तिहिबार । सुर नर अति हर्षित भये, देख महाद्युतिसार ॥१८॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह विप्र देख अतिहर्षित भयो । समोशरण बंदनको गयो॥ वंदि जिनेश्वर पूछ सोइ । कहा पाप मैं कीनो होइ ॥ १६ ॥ * दरिद्र पीड़ा रहै शरीर । सो तो व्याधि हरो गंभीर ॥ गण धर कहै सुनो द्विजराय । अनंतव्रत कीजै सुखदाय ॥२०॥ । तबै विप्र बोल्यो कर भाय। किसविध होय सो देहु बताय॥ किसप्रकार या व्रतको करों। कहो विधान चित्तमें धरों ॥ भादवमास सुक्खकी खान । चौदस शुक्ल कही सुखदान ॥ कर स्नान शुद्ध होजाय । तब पूजै जिनवर सुखदाय ॥२२॥ गुरु वंदना करै चितलाय । या विधिसों व्रत लेय बनाय ।। त्रिकाल पूजन श्रीजिनदेव। रात्रि जागरण कर सख लेव * ॥ २३ ॥ गीत रु नृत्य महोत्सव जान । धारा जिनवर करो ५. बखान । वर्ष चतुदश विधिसों धरै । ता पीछे उद्यापन । करै ॥ २४॥ करै प्रतिष्ठा चौदह सार। जासों पाप होइ जर। छार। झारी धौर जु अधिक अनूप । स्वर्ण कलश देवै शुभ । रूप ॥२५॥ दीवट झालर संकल माल । और चंदोवे उत्तम । जाल ॥ छात्र सिंहासन विधिसों करै । तातै सर्व पाप परिहरै । ॥ २६ ॥ चार प्रकार दान दीजिये । जासों अतुल । सुक्ख लीजिये। अंतसमय लेवै सन्यास। तातै मिलै स्वर्गका । वास ।। २७॥ उद्यापनकी शक्ति न होय । कीजै व्रत दूनो। भवि लोइ ॥ विभ कियो व्रत विधिसों आय। सब दुख ताके गये विलाय ॥२८॥ अंतकाल घरके सन्यास । ताते। पायो स्वर्ग निवास ॥ चौथे स्वर्ग देव.सो जान । महाऋद्धि । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० बृहज्जैनवाणीसंग्रह ताके जु बखान ||२९|| विजयारध गिरि उत्तम ठौर । कांचीपुर पत्तन शिरमौर । राजा तहँ अपराजितं बीर । विजया तासु प्रिया गंभीर || ३० || ताको पुत्र अरिंजय नाम | तिन यह आय कियो परनाम | कंचनमय सिंहासन आन । तापर नृप बैठो सुखखान || ३१ ॥ व्योम पटल विनशत लख संत । उपज्यो चित वैराग महंत | राज्य पुत्रको दियो बुलाय | आप लई दीक्षा शुभ भाय ||३२|| सही परीषह दृढ़ चित धार । तातें कर्म भये अति छार ॥ घाति घातिया केवल भयो । सिद्धि बुद्धि सो पद निर्मयो ||३३|| रानीने व्रत कीनो सही । देवदेह दिव अच्युत लही ॥ यहां सु सुख भुग-' ते अधिकाय । तहांसों आय भयो नरराय ||३४|| राजऋद्धि पाई शुभसार | फिर तपकर विधि कीने छार ॥ तहांसों मुक्तीपुरको गये। ऐसो तिन व्रतको फल लयो || ३५ ॥ ऐसो व्रत पालै जो कोइ | स्वर्ग मुक्तिपद पावै सोइ । चिनयसागर गुरु आज्ञा कारी । हरि किल पाठ चित्तमें धरी || ३६ || तब यह कथा करी मन ल्याय । यथा शास्त्रमें वरणी आय || विधिपूर्वक पालै जो कोय । ताको अजर अमर पद होय || ३७ || २४३ - रत्नत्रयव्रत कथा । दोहा - अरहनाथको बंदिके, बंदों सरस्वति पांय रत्नत्रयत्रतकी कथा, कहूँ सुनो मनलाय ॥१॥ चौपाई - जंबूद्वीप भरत शुभ खेत । मगधदेश सुख संपति Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwww Wwwwwwvo वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४७९ हेत ॥ राजगृही तहँ नगरि बसाय । राजा श्रेणिक राज, 4 * कराय ॥२॥ विपुलाचल जिनबीर कुँवार । केवलज्ञान विरा- " जत सार ॥ माली आम जनावो दयो। ततछिन राजां। बंदन गयो ॥३॥ पूजा वंदन कर शुभ सार। लाग्यों पूछन । * प्रश्न विचार ।। हे स्वामी रत्नत्रयसार । व्रत कहिये जैसा * व्यवहार ॥४॥ दिव्यध्वनि भगवान बताय। भादोंसुदि द्वादश शुभ माय । कर स्नान स्वच्छ पट श्वेत । पहिनो जिनपूजनके हेत ॥५॥ आठों द्रव्य लेय शुभ जाय । पूजो । जिनवर मनवचकाय ॥ जीरण नूतन जिनके गेह । बिंब । * धरावो तिनमैं तेह ॥६॥ हेमरूप्य पीतलके यंत्र । तांबा यथा ! भोजके पत्र ॥ यंत्र करो बहु मन थिर देव । रत्नत्रयके गुण लिख लेव ॥७॥ निशंकादि दर्शन गुण सार। संशयरहित । । सु ज्ञान अपार । अहिंसादि महाव्रत सार। चारितके ये गुण हैं धार ।।८॥ ये तीनोंके गुण हैं आदि। इन्हें आदि । * जेते गुण वाद ॥ शिवमारगके साधनहेत । ये गुण धारै व्रती सुचेत ॥९॥ भादों माघ चैत्रमें जान । तीनों काल करो भवि + आन । याविधि तेरह बरस प्रमान । भावन भावै गुणहि । निधान ॥१०॥ लवंगादि अष्टोत्तर आन । जपो मंत्र मनकर है श्रद्धान ॥ पुनि उद्यापन विधि जो एह । कलशा चमर छत्र । * शुभ देह ।।११।। संघ चतुर्विधको आहार । वस्त्राभरण देहु । शुभसार ॥ विघप्रतिष्ठा आदि अपार। पूजो श्रीजिन हो। भवपार ॥१२॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X -RE -45-IS - ४७२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-इसविध श्रीमुख धर्म सुन, भन्यो चित्तधर भाय ।। को फल पायो प्रभू, सो भाखो समुझाय ॥१३॥ चौपाई-जंबूद्वीप अलंकृत हेर । रह्यो ताहि लवणोदधि । घेर. । मेरु सु दक्षिण दिश है सार । है सो विदेह धर्म अव* तार ॥१४॥ कच्छवती सुदेश तहँ बसे । वीतशोकपुर तामैं * लसै ॥ वैसिवनाम तहांको राय । करैराज सुरपतिसम भाय। ॥१५॥ मालीने जु जनावो दयो । विपुलबुद्धि प्रभु बनमैं । ठयो । इतनी सुन नृप वंदन गयो। दान बहुत मालीको । *दयो॥१६॥ हे स्वामी रत्नत्रय धर्म । मोसों कहो मिटै सब मर्म ॥ तब स्वामीने सब विधि कही । जो पहिले सो प्रकाशी सही ॥१७॥ पंचामृत अभिषेक मु ठयो । पूजा प्रभुकी कर सुख लयो । जागरणादि ठयो बहु भाय । इसविध । व्रतकर चैसिवराय ॥१८॥ भावसहित राजा व्रत कन्यो। धर्मप्रतीत चित्त अनुसन्यो॥ षोडशभावन भावत भयो। अंत समाधिमरण तिन कियो ॥१९॥ गोत्र तीर्थकर बांध्यो । सार । जो त्रिभुवनमैं पूज्य अपार ॥ सर्वारथसिद्धि पहुंच्यो जाय । भयो तहां अहमेंद्र सुभाय ॥२०॥ हस्त मात्र तन । * ऊँचो भयो । तेतिससागर आयु सु लयो। दिव्यरूप सुख को भण्डार । सत्यनिरूपण अवधि विचार ॥२१॥ सौधर्मेंद्र विचारी घरी । यक्षेश्वरको आज्ञा करी ॥ वेग देश निर्माप्यो जाय । थाप्यो सुथरापुर अधिकाय ॥२२॥ कुंभपुर राजा । तहँ यसै । देवी प्रजावती तिस लसै ॥ श्रीआदिक तहँ देवी । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४७३ आय । गर्भ-सोधना कीनी जाय ||२३|| रत्नवृष्टि नृप आंगन भई । पंद्रह मास लों बरसत गई || सर्वार्थसिद्धिसों सुर आय । परजावती कुक्ष उपजाय ||२४|| मल्लिनाथ शुभ नाम जु पाय । द्वैजचंद्रसम बढ़त सुभाय || जब विवाह मंगलविधि भई । तब प्रभु चित विरागता लई ||२५|| दीक्षा घर बनमै प्रभु गये । घातिकर्म हनि निर्मल ठये || केवल 1 ले निर्वाण सुजाय । पूजा करी सुरन सब आय || २६॥ यह विधान श्रेणिकने सुन्यो । व्रत लीने चित अपने गुण्यो || भक्ति विनयकर उत्तम भाय । पहुँचे अपने गृहको आय ||२७|| याविधि जो नरनारी करै । सो भवसागर निश्चय तेरे || नलिनकीर्ति मुनि संस्कृत कही । ब्रह्मज्ञान भाषा निर्मयी ||२८|| इति || २४४ - अथदशलक्षणत्रत कथा | दोहा - प्रथम बंदि जिनराजको, शारद गणधर पांय । दशलक्षणव्रत की कथा, कहूं सुगम सुखदाय ॥१॥ चौपाई - विपूलाचल श्रीवीरकुमार | आये भविभवभंजनहार ॥ सुनिश्रेणिकनृप बदन गयो । सर्व लोकसँग आनंद भयो ॥२॥ श्रीजिन पूजे मनधर चाव | स्तुति करी जोड़कर भाव || धर्मकथा तहँ सुनी विचार | दानशील तप भेद अपार ॥३॥ भव दुखधायक दायक शर्म । भाख्यो प्रभु दशलच्छन धर्म | ताकौ सुनि श्रेणिक रुचि धरी । गुरु गौतमसों विनती करी ॥ दशलच्छनत्रतकथा रसाल । मुझको भाखहु दीन Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। शोक सब जाय ॥५॥ करुणानिधि भाखहि मुनिराय । सुनो। • भव्य तुम चित्त लगायं ॥ जब अषाढ़ सुदि पक्ष विचार । तब । की अंतिम रविवार ॥६॥ अनशन अथवा लघु आहार । * लवणादिक जु करै परिहार ॥ नवफलयुत पंचामृतधार । वसुप्रकार पूजो भवहार ।।७॥ उत्तम फल इक्यासी जान ।। नवश्रावक घर दीजै आन ॥ या विधकर नववर्ष प्रमाण । * जात होय सर्व कल्याण ॥ ८॥ अथवा एक वर्ष इक सार।। कीजै रविव्रत मनहिं विचार । सुन साहुन निज घरको गई । व्रत निंदाकर निंदित भई ॥९॥ व्रत निंदा निर्धन भये ।। सातहि पुत्र अवधपुर गये ।। तहँ जिनदत्त सेठ घर रहै। पूर्व दुःकृतका फल ल है ॥१०॥ मात पिता गृह दुःखित सदा । अवधि सहित मुनि पूछे तदा ॥ दयावंत मुनि ऐसें । कह्यो। व्रतनिंदासै तुम दुख लह्यो ॥ ११॥ सुनि गुरुवचन *बहुरिबत लयो । पुण्य थयो घरमें धन भयो । भविजन । सुनो कथा संबंध । जहँ रहते थे वे सब नंद ॥ १२ ॥ एक दिवस गुणधर सुकुमार । घास लेय आओ गृहद्वार ॥ क्षुधावंत भावजपै गयो । दंत बिना नहिं भोजन दयो ॥ १३ ॥ बहुरि गयो जहाँ भूल्यो दंत । देख्यो तासों अहिलिपटत॥ फणिपतिकी तहँ विनती करी । पद्मावति प्रगटी तिहिं घरी। ॥ १४ ॥ सुंदर मणिमय पारसनाथ । प्रतिमा एक दई तिहिं । हाथ ॥ देकर कह्यो कुंवरकर भोग । करो क्षणक पूजासंयोग । ॥ १५ ॥ आन विव निज घरमें धरयो । तिहँकर तिनको । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R- - -- 25- R A K-* MMovvvv wwwwvow ANN JVVVvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह १७ दारिद हरयो । सखविलास सेवै सब नन्द । नितप्रति पूर्ज, * पास जिनंद ॥ ६॥ साकेतानगरी अभिराम । सुंदर बन वायो जिनधाम । करी प्रतिष्ठा पुण्यसंयोग । आये भविजन संग सु लोग ॥१७॥ संघ चतुर्विधिको सनमान। कियो। दियो मनवांछित दान ।। देख सेठ तिनकी संपदा । जाय * कही भूपतिसों तदा॥ १८ ॥ भूपति तब पूछयौ विरतंत । । । सत्य कह्यो गुणधर गुणवंत ॥ देख सुलक्षन ताको रूप। * अति आनंद भयो सो भूप ॥ भूपतिगृह तनुजा सुंदरी । गुण धरको दीनी गुणभरी ।। करविवाह मंगल सानंद । हय गय । पुरजन परमानंद॥२०॥मनवांछित पाये सुख भोग । विस्मित भये सकल पुरलोग ॥ सुखसों रहत बहुत दिन गये। तब । सब बंधु बनारस गये ॥२१॥ मात पिताके परसे पाय । अति ।। आनंद हिरदै न समाय॥ विघटयो सबको विषम वियोग। भयो सकल पुरजन संयोग ॥२२॥ आठ सात सोलहके अंक। रविव्रत कथा रची अकलंक ॥ थोडो अरथ ग्रंथ विस्तार । कहै कवीश्वर जो गुणसार ॥ २३ ॥ यह व्रत जो नर नारी २ करें । कचहूं दुर्गतिमें नहिं पर ॥ भावसहित ते शिवसुख लहैं । भानुकीर्ति मुनिवर इमि कहैं ॥२४॥ २४६-पुष्पांजलिव्रतकथा। * दोहा-वीरदेवको प्रणमिकर, अर्चा करों त्रिकाल। पुष्पांजलिव्रतकी कथा, सुनो भव्य अध टाल ॥१॥ । चौपाई-पर्वत विपुलाचलपर आय । समोशरण जिन-1 *REKKR- STRE Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - --- -- - - ४८० . वृहज्जैनवाणीसंग्रह * वरका पाय ॥ तिहं सुन राजा श्रेणिक राय। बंदन चले । प्रियायुत भाय ॥२॥ वंदन कर पूछत नृप तवै । हे प्रभु पुष्पांजलिव्रत अवै ।। मांसों कहो करों चितलाय । कौने । *कियो कहा फल पाय ॥ बोले गौतम वचन रसाल।। * जदूद्वीपमध्य सुविशाल । सीतानदि दक्षिण दिशि सार । मंगलावती सुदेश मझार ॥४॥ 1 दोहा-रतनसंचयपुर तहां, वज्रसेन नृपराय । । जयवंती वनिता लसै, पुत्र विना ही थाय ॥५॥ * चौपाई-पुत्रचाह जिनमंदिर गई। ज्ञानोदधि मुनि वंदित । भई ॥ हे मुनिनाथ कहो समझाय। मेरे पुत्र होय कै नाय ॥६॥ दोहा-मुनि बोले हे वालकी, पुत्र होय शुभ सार । भूमी । छह खंड साधि है मुक्ति तनों भरतार ||७|| सुनकर मुनिक । वचन तब, उपज्यो हर्ष अपार । क्रमसों पूरे मास नव, पुत्र * भयो शुभ सार ॥८॥ यौवन वयसको पायकर, क्रीडा मंडप सार। तहां व्योमसों आइयो, खग भूपर तिसवार ॥६॥ रत्नशिखरको देखकर, बहुत प्रीति उरमाहिं । मेघवाहनने पांचसो, विद्या दीनी ताहि ॥१०॥ चौपाई-दोनों मित्र परस्पर प्रीति । गये मेरु बंदन तज * भीति ॥ सिद्धकूट चैत्यालय बंदि। आये सब जन मन आनंदि .११॥ ताकी सखी जनाई सार। वेग स्वयंवर । करो तयार ॥ भूरि भूप आये तत्काल। माल रत्नशेखर गल डाल ||१२|| धूमकेतु विद्याधर देख । क्रोध कियो मन Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 夺个公众人 वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४८१ माहिं विशेख || कन्याकाज दुष्टता घरी | विद्याबल बहु माया करी ||१३|| युद्ध रत्नशेखरसों करयो । बहुत परस्पर विद्याधन्यो || जीत रत्नशेखर तिसवार । पाणिग्रहण कियो व्यवहार ||१४|| मदनमञ्जूषा रानी संग | आयो अपने गेह असंग ॥ वज्रसेनको कर नमस्कार । मात तात मन सुक्ख EVM अपार ||१५|| एकदिना मंदिर - गिरयोग । पहुंचे मित्रसहित सब लोग || चारण मुनि बन्दे तिहि बार | सुन्यौ धर्म चित भयो उदार ||१६|| हे मुनि पूर्वजन्म संबंध। तीनोंके तुम कहो निबंध | तब मुनि कहैं सुनो चितधार | एक मृणानलनगर सुखकार ||१७|| नृपमंत्री इक तहँ श्रुतकीर्ति । बंधुमती वनिता अति प्रीति । एक दिना बन क्रीड़ा गयो । नारीसंग रमत सो भयो || १८ || पापी सर्प सो भक्षण करी । मंत्री मृतक लखी निज नरी ॥ भयो विरक्त जिनालय जाय । दिक्षा लीनी मन हर्षाय ॥ १९ ॥ यथाशक्ति तप कुछ दिन करो || पीछे भ्रष्ट भयो तप टरयो | गृह आरंभ करन चित उन्यो । तव पुत्री मुख ऐसे भन्यौ ||२०|| तात जु मेरु चढे किहि काज | फिर भवसिंधु पडे तज लाज ॥ यों सुन प्रभावती वचसार | मंत्री कोप कियो अधिकार ॥ २१ ॥ तब विद्याको आज्ञा करी । पुत्रीको ले वनमै धरी ॥ विद्या जब वनमैं ले गई । प्रभावती मन चिंता भई ॥ २२ ॥ अरहत भक्ति चित्तमें धरी । तब विद्या फिर आई खरी ॥ हे पुत्री तेरा चित जहां | वेग वोल पहुंचाऊँ तहाँ ||२३|| पुत्री 31 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * ** *** १४८२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह कही कैलाशके भाव । जिनदर्शनको अधिकहिं चाव ॥ * पूजा करके बैठी वहां। पद्मावति आई सो तहां ॥ २४॥ इतने मध्य देव आइयो। प्रभावतीने प्रश्न जु कियो। हे। । देवी कहिये किस काज । आये देवी देव जु आज ॥२५॥ * पद्मावति बोली वच सार । पुष्पांजलिव्रत है सुअबार ॥ भादों । मास शुक्ल पंचमी। पंचदिवस आरंभ न अमी॥२६॥ * घोषध यथाशक्ति व्यवहार। पूजो जिन चौबीसी सार॥ नानाविधिक पुष्प जु लाय। करै एक माला जु बनाय ॥२७॥ तीन काल वह माला देय । बहुत भक्तिसों विनय करेय ॥ जपै जाप शुभ मंत्र विचार । याविधि पंचवर्ष अवधार॥२८॥ उद्यापन कीजै पुनि सार। चारप्रकार दान । अधिकार । उद्यापनकी शक्ति न होय। तो दूनो व्रत कीजै लोय ॥२९॥ यह सुन प्रभावतीव्रत लियो । पद्मावती । किरपाकर दियो । स्वर्ग मुक्ति फलका दातार। है यह * पुष्पांजलिव्रत सार ॥३०॥ दोहा-पद्मावति उपदेशसों, लीनो व्रत शुभ सार। ___ पृथ्वी परसु प्रकाशिके, कियो भक्तिचितधार ॥३१॥ तपविद्या श्रुतकीर्तिने, पाई अति जु प्रचंड । प्रभावती व्रत खंडने, आई सो बलवंड ॥३२॥ चौपाई-बासर तीन व्यतीते जबै । पद्मावति पुनि आई तवै ।। विद्या सव भागी ततकाल । कियो सन्यासमरण तिस बाल * ॥३३॥ कल्प सोलवें मुख्य सु जान । देव भयो सो पुण्य । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viwwwwwwwww.. Arrassacre ssss s s ...- वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४८३ । प्रमान । वहां देवने कियो विचार । मेरा तात भ्रष्ट आचार! * ॥३४॥ मै संवोधों वाको अझै । उत्तमगति वह पावै तबै ॥ यही विचार देव आइयो। मरणसन्यास तातको कियो॥३५॥ वाही स्वर्ग भयो सो देव । पुण्यपभाव लियो फल एव || बंधुमती माताको जीव । उपज्यो ताही स्वर्ग अतीद ॥३६॥ दोहा-प्रभावतीका जीव तू, रत्नशेखर भयो आय। माताको जो जीव थो, मदनमॅजूषा थाय ॥३७॥ चौपाई-श्रुतिकीर्तिको जीव जुतहां। मंत्री मेघवाहन है । * यहां । ये तीनोंके सुन पर्याय । भई सु चिंता अंग न माय ॥३८॥ सुन व्रतफल अरु गुरुकी बानि । भयो सुचित व्रत : लीनों जानि ॥ अपने थाने बहुरि आइयो । चकवर्तिपद भोग सुकियो ॥३९॥ समय पाय वैरागी भयो । राजभार सब । सुत को दयो । त्रिगुप्ति मुनिके चरणों पास। दिक्षा लीनी परम हुलास ॥४०॥ रत्नशेखर दिक्षा ली जवै । भयो मेघ बाहन मुनि तत्रै । भवि जीवोंको अति सुखकार । केवल। ज्ञान उपायो सार ॥४१॥ घातिकर्म निर्मूल सु करै । पाछे मुक्तिपुरी अनुसरै । इहविधि व्रत पालै जो कोइ । अजर । अमर पद पावै सोइ ॥ ४२ ॥ इति ॥ बारहवां अध्याय। उपदेशसंग्रह। २४७-फूलमाल पच्चीसी। । दोहा-जैन धरम त्रेपन क्रिया, दया धरम संयुक्त । यादौ वंश विषै जये, तीन ज्ञान करि युक्त ॥ ......ASALMeeramaratSaareenaram ALLPAL. 2 M . M. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAKK-5-25 - RR* .... wr.... .. . .. .... .. बृहज्जैनवाणीसंग्रह ____ भयो महोत्सव नेमिको, जूनागढ़ गिरनार । ___जाति चुरासिय जैनमत, जुरै क्षोहनी चार ॥२॥ माल भई जिनराजकी, गूंथी इन्द्रन आय ।। देशदेशके भव्य जन, जुरे लेनको धाय ॥३॥ . छप्पय-देश गौड़ गुजरात चौंड़ सोरठि वीजापुर। करना-. टक कशमीर मालवी अरु अमरेधुर ॥ पानीपत हींसार और • वैराट लहा लघु । काशी अरु मरहट्ट मगध तिरहुत पट्टन सिंधु ॥ तंह बंग चंग बन्दर सहित, उदधि पारला जुरिय सब । आये जु चीन मह चीन लग, माल भई गिरनारि जव नाराच छन्द-सुगन्ध पुष्प वेलि कुंदि केतकी मंगायके । * चमेली चंप सेवती जूहीगुही जुलायकें। गुलाब कंज लायची • सर्व सुगन्ध जातिके । सुमालती महा प्रमोद लै अनेक भांति के ॥५॥ सुवर्णतार पोई बीच मोती लाल लाइया । सु हीर * पन्न नील पीत पद्म जोति छाइया ।। शची स्त्री विचित्र भांति । चित्त देवनाइ है। सुइन्द्रने उछाहसों जिनेन्द्रको चढ़ाई है। ॥६॥ सुमागहीं अमोल माल हाथ जोरि बानिये। जुरी तहां चुरासि जाति रावराज जानिये ॥ अनेक और भूपलोग सेठ साहुको गने। कहालुं नाम वर्णिये सु देखते सभा बनें। ॥७॥ खण्डेलवाल, जैसवाल, अग्रवाल, आइया ।। वघरवाल, पोरवाल देशवाल, छाइया ॥ सहेलवाल, दिल्लिवाल, सेतवाल जातिके । बढ़ेलवाल 'पुष्पमाल ! * श्री श्रीमाल पांतिके ॥८॥ सु ओसवाल पल्लिवाल । MKKKR-52 * Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X - RR-52- R AK-* बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४८५ चूरुवाल चौसखा । पद्मावतीय पोरवाल परवार अठैसखा । । गंगेरवाल बन्धुराल तोर्णवाल सोहिला । करिन्दवाल पल्लि वाल मेडवाल खोहिला ॥९॥ लमेंचु और माहुरे महिसुरी । उदार हैं। सुगोलबार गोलपूर्व गोलहूं सिंधार हैं ॥ बंधनौर । मागधी विहारचाल गूजरा । सुखण्ड राग होय और जानराज बूसरा॥ सुराल और सोरठ और मुराल चितोरिया। कपोल सोमराठ वर्गहूमड़ा नागौरिया। सीरागहोड़ भंडिया कनौजिया अजोधिया । मिवाड़ मालवान और जोधड़ा समोधिया ॥११॥ सुभट्टनेर रायवल्ल नागरा रुधाकरा । सुकन्थ । रारु जालुरारु बालभीक भाकरा ॥ परवार लाड़ चोड़कोड़। गोड़ मोड़ संभारा। सुखण्डित श्री खण्ठा चतुर्थ पंच। । भरा ॥१२॥ सु रत्नाकार भोजकार नारसिंह है पुरी। सु। जम्बूवाल और क्षेत्रब्रह्म वेश्य लौ जुरी ॥ आई है चुरासिक जाति जैनधर्मकी घनी । सवै विराजि गोठियों जुइन्द्रकी । सभा बनी ॥१३॥ सुमाल लेनको अनेक भूप लोग आवहीं।। सुएक एक 6 सुमांग मालको बढ़ावहीं ॥ कहै । जु हाथ जोरि-जोरि नाथ माल दीजिये । मंगाय देउं हेम-1 रत्न सो भण्डार कीजिये ॥१४॥ बघेरवाल यांकड़ा हजार वीस देत हैं । हजारदे पचास परवार फेरि लेत हैं। सु जैस* वाल लाख देत माल लेत चौपसों। जु दिल्लिचाल दोय लाख । देत हैं अगोपसों ॥१५॥ सु अग्रवाल बोलिये जुमाल मोहि । दीजिये । दिनार देहुं एक लक्ष सो गिनाय लीजिये । खण्डे Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ annan -. AAAAAAAAAAAAAAAAAMA १.४८६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * लबाल बोलिया जु दोय लाख देउंगो, सुवांटिके तमोल । मै जिनेन्द्र माल लेउंगो ॥ १६ ॥ जुसंभरी कहें। सुमेरि खानि लेहु जायके । सुवर्ण खानि देत हैं चित्तौड़िया । बुलायके । अनेक भूप गांव देउ रायसो चन्देरिका । खजा। * न खोली कोठरी सु देत हैं अमेरिका ॥१७॥ सुगौड़वाल कयों कहैं गयन्द बीस लीजिये। मंगाय देव हेमदन्त माल मोहि दीजिये ॥ परमारके तुरंग सजि देत हैं विना गिने । लगाम जीन पाहुडे जड़ाउ हेमके बने ॥१८॥ कनौजिया । कपूर देत गाड़िया भरायके। सुहीरा मोती लाल देत ओस-1 * चाल आयके । सु हूंमडा हंकारहीं हमैं न माल देउगे। भराइये जिहाजमें कितेक दाम लेउगे ॥१९॥ कितेक लोग • आयके खडेथे हाथ जोरिके । कितेक भूप देखिके चले जु बाग मोरिकें । कितेक सूम यों कहैं जु कैसे लक्षि देत हौ।। लुटाय माल आपनों सु फूलमाल लेत हौ ॥२९॥ कई प्रवी न श्राविका जिनेन्द्रको बधावहीं । कई सुकण्ठ रागसों खड़ी * जुमाल गावहीं । कईसु नृत्यकों करै लो अनेक भावहीं ।। कई मृदंग तालपै सु अंगको फिरावहीं ॥२९॥ कहैं गुरु उदारकधी सुयों न माल पाइये ॥ कराइये जिनेन्द्र यज्ञ विवह भरा इये ॥ चलाइये जु संघजात संघही कहाइये । तवै अनेक ! पुण्यसों अमोल माल पाइए ॥२२॥ संबोधि मुर्व गोटिसो गुरू उतारके लई । बुलायकें जिनेन्द्र माल संघरायको दई।। * अनेक हर्षसों करें जिनेन्द्रतिलक पाइये। सुमाल श्रीजिने । न्द्रकी विनोदीलाल गाइए ॥२३॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R-5-12- ४८७ AAAAAA वृहज्जैनवाणीसंग्रह दोहा-माल भई भगवन्तकी, पाई संग नरिन्द । लालविनोदी उच्चरै सबको जयति जिनन्द ॥२४॥ माला श्री जिनराजकी, पावै पुण्य संयोग। ___ यश प्रगटै कीरति बढे, धन्य कहैं सब लोग ॥२५॥इति॥ २४८-धर्म पच्चीसी।। * दोहा-भव्य कमल रवि सिद्ध जिन, धर्मधुरन्धर धीर। नयूं सदा जगतमहरण, नमूं त्रिविध गुरु वीर ॥ चौपाई-मिथ्याविषयनमें रत जीव । तातें जगमें भ्रमें सदीव ॥ विविधप्रकार गहे परजाय । श्रीजिनधर्म न नेक * सुहाय ॥२६॥ धर्म विना चढुंगतिमें फिरै। च रासीलख ! फिर फिर धरै ॥ दुखदावानलमाहिं तपंत । कर्म करै फल । भोग लहंत ॥३॥अति दुर्लभ मानुष परजाय। उत्तमकुल धन रोग न काय ॥ इस अवसरमें धर्म न करै । फिर यह अव सर कबको वरै ॥४॥ नरकी देह पाय रे जीव । धर्म विना * पशु जान सदीव ।। अर्थ काममें धर्म प्रधान । ता बिन अर्थ । * न काम न मान ॥ ५॥ प्रथम धर्म जो करै पुनीत । शुभ। संगति आवै कर प्रीति ॥ विघ्न हरे सव कारज सरै। धन। सो चारों कोने भरै ॥६॥ जन्म जरा मृत्यु वश होय । तिहूं। काल जग डोलै सोय ॥ श्रीजिनधर्मरसायनपान । कबहुं। * न रुचि उपजै अज्ञान ॥ ७॥ज्यों कोई मूरख नर होय।। * हलाहल गहै अमृत खोय ॥ त्यों शठ धर्मपदारथ त्याग। विषयनसों ठानै अनुराग ॥ ८॥ मिथ्यागृहगहिया जो । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --- -- -- - - - - .vowww -~-www ४८८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * जीव । छाडि धर्मविपयन चित दीव ।। ज्यों सठ कल्पवृक्षको । तोड़ । वृक्ष धतूरेकी भू जोड़ ॥१॥ नरदेही जानो परधान। विसर विषय कर धर्म सुजान ॥ त्रिभुवन इन्द्रतने सुख । भोग । पूजनीक हो इन्द्रन जोग ॥१०॥ चन्द्र विना निशि गज विन दंत । जैसें तरुण नारि विन कंत ॥ धर्म विनात्यों मानुष देह । तातें करिये धर्म सुनेह ॥ ११ ॥ हय गय स्थ। पावक बहु लोग। सुभट बहुत दल चार मनोग ॥ धजा आदि राजा बिन जान । धर्म विना त्यों नरभव मान ॥१२॥ जैसे गंध विना है फूल । नीरविहीन सरोवर धूल ॥ ज्यो । विन धन शोभित नहिं मौन । धर्म विना त्यों नर चिंतौन * ॥१३॥ अरचे सदा देव अरहंत । च. गुरुपद करुणावंत ॥ खरचे दाम घरमसों प्रेम । रुचे विषय सुफेल नरएम॥१४॥ कमला चपल रहै थिर नाहिं । यौवन रूप जरा लिपटाहि ॥ सुत मित नारी नावसंयोग । यह संसार स्वप्नका भोग * ॥१५ । यह लख चित घर शुद्ध स्वभाव । कीजे श्रीजिन धर्म उपाव ।। यथाभाव तैसी गति गहैं । जैसी गति तैसा । * सुख लहै ।।१६।। जो मूर्ख है धर्म कर हीन । विषय अंध रविव्रत नहिं कीन ॥ श्रीजिनभाषित धर्म न गहै । सो निगोद-* को मारग लहै ॥१७॥ आलस मन्दबुद्धि है जास। कपटी । * विषय मन शठ तास ॥ कायरता नहिं परगुण ढकै। सो तिर्यंच योनि लह सकै ॥१८॥ आरत रुद्र ध्यान नित करै।। क्रोध आदि मतसरता धरै । हिंसक वैर भाव अनुसरै।। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KAKKARTER AAAAAAA बृहज्जैनवाणीसग्रह ४६३ १ मलगंजन मनअलिरंजन, मुनिजनसरन सुपावन है। पद्मा. सम० ॥टेक॥ जाकी जन्मपुरी कुशंविका सुरनरनागरमावन । है। जास जन्मदिन पूरब षट-नवमास रतन बरसावन है। ॥ पद्मासम० ॥१॥ जा तप-थान पपोसा गिरि सो आत्मध्यान-थिर-थावन हैं। केवल जोत उदोत भई सो, मिथ्यातिमिर नसावन हैं । पनासम० ॥ २ ॥ जाको शासनपचानन सो कुमति-मतंगनशावन है । रागविना सेवकजनतारक, . पै तसु तुषरुष भाव न है । पद्मापा० ॥ ३ ॥ जाकी महि* माके वरननसों, सुरगुरुबुद्धिथकावन है। 'दौल' अल्पमति- 1 को कहबो जिम, शिशुकगिरिंद-धकावन है । पद्मासझ०॥४॥ ( २५३ ) अजित जिन विनती हमारी मानजी, तुम लागे मेरे प्रानजी ।। टेक ॥ तुम त्रिभुवनमें कलपतरोवर, आश भरो भगवानजी ॥ अजितः ॥ १॥ बादि अनादि गयो भव । भ्रमते, भयो बहुत हयरानजी । भागसंजोग मिलै अब दीजै, मनवांछित वरदानजी ॥ अजित० ॥२॥ ना हम मांगें हाथी घोड़ा, ना कछु संपति आनजी । भूधरके उर बसो जगत। गुरु, जबलों पद निरवानजी ।। अजित० ॥ ३ ॥ ( २५४ ) पारस-पद-नख प्रकाश, अरुन वरन ऐसो। पारस टेका। मानो तप, कुंजरके, सीसको सिंदूर पूर, रागरोष काननको-दावानल जैसो॥ पारस० ॥ बोधमई प्रातकाल, * ERSAKS H ARA Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- --16 --22 nannnnnnnnnnn १४६४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह। ताको रवि उदय लाल, मोक्षवधू-कुच-अलेप, कुंकुमाम तैसो।। पारस० ॥ कुशल-वृक्ष-दल उलास, इहिविधि बहुगुण-निवास । भूधरकी भरहु आस, दीनदासके सो । पारस० ॥३॥ ( २५५ ) देखे जिनराज आज, राजरिद्धि पाई । देखे० ॥ टेक ॥ पहुपवृष्टि महाइष्ट देव दुंदुभी सुमिष्ट, शोक करै भ्रष्ट सो. अशोकतरु बडाई ॥ देखे० ॥ १॥ सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चितसुहात, चमर फरहरात मनों, भगति अति बढाई ॥ देखे० ॥ २॥ द्यानत भामंडलमें, दीसे परजाय * सात, यानी तिहुँकाल झरे, सुरशिवसुखदाई ॥ देखे० ॥ ( २५६ ) 1 चंदजिनेश्वर नाम हमारा, महासेनसुत जगत पियारा ॥ चंद० ॥टेका। सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाही, चिदानंद । । पदवीका धारा ॥ चंद° ॥१॥ चरन सरन बुधजन जे आये, तिनपाया अपना पद सारा ॥ मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुत उपमावारा ॥ चंद ० ॥२॥ ( २५७ ) • उरग-सुरग-नरईश शीस जिस, आतपत्र त्रिधरे । कुंदकुसुम सम चमर अमरगन, दोरत मोद परे ॥ उरगला टेक ॥ तरु । * अशोक जाको अवलोकत, शोक थोक उगरे । पारजात संता नकादिके, वरसत सुमन वरे ॥ उरग० ॥१॥ सुमणि विचित्र । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-*-* - * *- * * वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४६५ पीठ अंबुजपर राजत जिन सुथिरे । वर्णविगति जाकी धुनिको * सुनि, भवि भवसिंधु तरे। उरग० ॥२॥ साढेवारहकोडिजा तिके, बाजत तूर्य .खरे । भामंडलकी दुति अखंडने, रवि । शशि मंद करे ।उरग ॥३॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्शवल, शर्म अनंत भरे । करुणामृतपूरित पद जाके, दौलत हृदय धरे॥ ( २५८ ) हमारी बीर हरो भव पीर। हमारी० ॥ टेक ॥ मै दुख । पतित दयामृतसर तुम, लखि आयो तुम तीर । तुम परमेश 1 मोखमगदर्शक, मोहदवानलनीर ॥ हमारी०॥१॥ तुम विन हेत जगतउपकारी, शुद्ध चिदानंद धीर । गनपतिज्ञानसमुद्र न लंघे, तुमगुनसिंधु गहीर ॥ हमारी० ॥२॥ याद नहीं मैं । विपद सही जो धर धर अमित शरीर । तुमगुन चिंतत नशत दुःख भय, ज्यों धन चलत समीर ॥ हमारी०॥३॥ कोटिवारकी अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर । हरहु वेदनाफंद दौलको, कतर करम-जंजीर ।। हमारी० ॥४॥ ( २५६ } ___ अरि-रज-रहसि हनन प्रभु अरहन, जैवतो जगमें । देव । * अदेव सेव कर जाकी, धरहिं मौलि पगमें अरिरज०॥टेक जा तन अष्टोत्तर सहस्र लक्खन लखि कलिल शमै । जा। + वच-दीपशिखा मुनि विचरै शिवमारगमें ।। अरिरज०॥१॥ जास पासतै शोकहरनगुन, प्रगट भयो नगमें। व्याल मराल कुरंग सिंघको, जातिविरोधगमें ।। अरिरज० ॥२॥ * Rese- -- Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~W ४६६ wwwwwU 4. 4 JUNYU wwwww जा- जस- गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनीगन में । दौल नाम तसु सुरतरु है या, भव मरुथलमगमें || अरिरज || ३ | ( २६० ) हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै । हे जिन० ॥ टेक ॥ रागरोषदावानलते वचि, समतारसमें भीजै ॥ हे जिन० ॥ ॥ परमें त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहू छीजै । हे जिन० ||२|| कर्म कर्मफलमाहि न राचे, ज्ञानसुधारस पीजै ॥ हे जिन ॥३॥ मुझ कारजके तुम कारन वर, अरज दौलकी लीजै ॥ हे जिन ||४|| बृहज्जैनवाणीसंग्रह 11 wwwww ( २६१ ) शामरियाके नाम जपेतैं छूट जाय भव भामरिया | शामरिया के ० || टेक || दुरित दुरित पुन पुरत-फुरत गुन, आतमकी निधि आगरियां । विघटत है पर दाहचाह झट, गटकत समरसगागरिया | शामरिया के ० ॥ १ ॥ कटत कलंक करमकलसायनि, प्रगटत शिवपुरडागरिया | फटत घटायनमोह छोह हट, प्रगटत भेदज्ञानधरियां || शाम° ॥ २ ॥ कृपाकटाक्ष तुमारीतैही, युगलनागविपदा टरिया । धार भए सो मुक्तिरमावर, दौल न मैं तुव पागरियां || शामरियाके० ॥ ( २६२ ) शिवमग दरसावन रावरो दरस || शिवमग॥ टेक ॥ परपदचाहदा हगदनाशन, तुमवच भेषजपान सरस | शिव मग० ॥ १ ॥ गुण चितवत निज अनुभव प्रगटै, विघटै - Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *KAREKARRARY वृहज्जैनवाणीसंग्रह vvvvvvvvvvvvv विधिठग दुविध तरस ॥ शिचमग ॥२॥ दौल अवाची । संपत सांची, पाय रहै थिर राचि स्वरस ।। शिव ॥३॥ (२६३) मै आयो जिन सरन तिहारी । मै चिर दुखी विभाव भावतै, स्वाभाविक निधि आप विसारी ॥ मैं ॥१॥ रूप * निहार धार तुम गुन सुन, वैन सुनत भवि शिवमगचारी। । यो मम कारजके कारन तुम तुमरी सेव एव उरधारी |मै मिल्यो अनंत जन्मते अवसर, अब विनऊं हे भवसरतारी।। * परमें इष्ट अनिष्ट कल्पना, दौल कहै झट मेट हमारी |मै॥ __प्यारी लागै म्हानै जिन छवि थारी ॥ प्यारी० ॥ टेक ॥ परमनिराकुल-पद-दरसावत, बर विरागता-कारी । पट-भष्न-बिन पै सुंदरता, सुरनरमुनिमनहारी ॥ प्यारी० ॥१॥ जाहि विलोकत भवि निजनिधि-लहि, चिरविभावता टारी।। निरनिमेषत देख सचीपति, सुरता, सफल विचारी ॥ प्यारी० ॥२॥ महिमा अकथ होत लखि जाको, पशुसम है समकितधारी । दौलत रहो ताहि निरखनकी, भवभव टेव हमारी॥ प्यारी० ॥३॥ (२६५) * दीठा भागनतें जिन पाला, मोहनाशनेवाला। दीठा० ॥टेका। शुभग निसंक रागविन यातें, वसन न आयुध वाला। दीठा० ।।९।। जास ज्ञानमें जुगपत भासत, सकल पदारथमाला दीठा० ॥२॥ निजमें लीन हीन इच्छा पर, हितमत । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह AAAAAAAA AAAAAAAAAAAAAAnnnn Jinnnnn वचन रसाला ||दीठा ॥३॥ लखि जाकी छवि आतमनिधि-निज, पावत होत निहाला दीठा० ॥४॥ दौल जासगुन चिंततरत है, निकट विकट भवनाला ॥ दीठा ॥५॥ __ थारै तो बैनामैं सरधान घणो छै म्हारै, छवि निरखत • हिय सरसावै । तुम धुनिधन परचहनदहनहर, वरसमता रसझर बरसावै ॥ थोरै तो० ॥१॥ रूप निहारत ही बुध है । सो निजपर चिह्न जुदे दरसावै । मैं चिदंक अकलंक अमल। * थिर, इंद्रिय-सुख-दुख-जड फरसावै ॥ थारै तो० ॥२॥ ज्ञानविरागसुगुनतुम-तनकी, प्रापतिहित सुरपति तरसावै । मुनि बडभाग लीन तिनमै नित, दौल घवल-उपयोग रमाचे । थारै तो॥३॥ __ आज मैं परम पदारथ पायो, प्रभुचरनन चित लायो । आज मैं० ॥ टेक ॥ अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायो आज०॥१॥ ज्ञान शक्ति तप ऐसी जाकी, । चेतन-पद दरसायो ।आज मैं० ॥२॥ अष्ट कर्मरिपु जोधा जीते, शिवअंकूर जमायो । आज० ॥३॥ ( २६८ ) । नेमिप्रभूकी श्यामवरन छवि, नैनन छाय रही । नेमि० १॥टेक ॥ मणिमय तीन पीठपर अंबुज, तापर अधर, ठही ॥ नेमि० ॥ १ ॥ मार मार तप धार जार विधि, केवलरिद्धि । लही । चार तीस अतिशय दुति-मंडित, नवदुगदोष नहीं ॥ KR -5-5KKR * Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * RAKAKKASH AREKAR-* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४ नेमि० ॥२॥जाहि सुरासुर नमत सतत, मस्तकतै परस। 1 मही। सुरगुरु-वर-अंबुज-प्रफुलावन, अदभुतभान सही ॥ नेमि० ॥३॥ धर अनुराग विलोकत जाको, दुरित नसैं सब * ही । दौलत महिमा अतुल जासकी, कापै जात कही।।नेमि०, ( २६६ ) प्रभु.मोरी ऐसी बुधि कीजिये, रागदोष दावानलसे बच । । समतारसमें भीजिये ॥ प्रभु० ॥ टेक ।। परमें त्याग अपनपो । निजमें, लाग न कबहू छीजिये । कर्मकर्मफलमांहि नराचत ज्ञानसुधारस पीजिये ॥प्रभु० ॥१॥ सम्यग्दर्शन ज्ञानचरननिधि, ताकी प्रापति कीजिये । मुझ कारजके तुम बड़कारन, अरज दौलकी लीजिये ॥ प्रभु० ॥२॥ ( २७७ ) है और अबै न कुदेव सुहावै, जिन थांके चरनन रति जोरी॥ * और ॥१॥ काम-कोह-वश गर्दै असन असि, अंक* निशक धरै तिय गौरी । औरनके किम भाव सुधार, आप कुमाव-भार-धरधोरी ॥ और० ॥१॥ तुम विनमोह अकोहछोहविन, छके शांतरसपीय कटोरी । तुम तज सेय अमेय । भरी जो, विपदा जानत हो सब मोरी ॥और०॥२॥ तुम तन। * तिन्हैं भजै शठ जो सो, दाख न चाखत खात निबोरी । हे। जगतार उधार दौलको,निकट विकट-भवजलधि हिलोरी।और। २७१-राग धनश्री। प्रभु थांको लखि मम चित हरपायो ॥ टेक ॥ सुंदर चिंता*- --- Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** KR -NANnnnnnnnnnnnnx har । ५०० वृहज्जैनवाणीसंग्रह रतन अमोलक, रंक पुरष जिम पायो॥ प्रभु० ॥१॥ निर्मल रूप भयो अव मेरो, भक्तिनदी-जल न्हायो॥ प्रभु० ॥२॥ भागचंद अब मम करतलमें,अविचल शिवथल आयो।प्रमु०॥ २७२-राग मल्हार। प्रभु म्हाकी सुधि, करुना करि लीजै ॥ टेक ॥ मेरे इक ! अवलं बन तुम ही, अब न विलंब करीजै ॥प्रभु०॥१॥ अन्य * कुदेव तजे सब मैंने, तिन निजगुन छीजै ॥ प्रभु ॥२॥ * भागचंद तुम सरन लियो है, अब निश्चल पद दीजै ।।प्रभु०॥ ( २७३ ) केवलजोति सुनागीजी, जब श्रीजिनवरकै ॥ केवल० ॥ टेक ॥ लोकालोकविलोकत जैसें, हस्तामल बड़भागीजी ॥ केवल० ॥१॥ हरिचूडामणिशिखा सहज ही, नमत भूमि । * लागीजी ॥ केवल० ॥२॥ समवसरन-रचना सुर कीनी, देखत भ्रम जन त्यागीजी ॥ केवल० ॥३॥ भक्तिसहित । अरचा तब कीनी, परमधरमअनुरागीजी ॥ केवल० ॥ ४ ॥ दिव्य ध्वनि सुनि सभा दुवादश, आनंदरसमें पागीजी ॥ * केवल० ॥५॥ भागचंद प्रभुभक्ति चहत है, और कछू नहिं । * मांगीजी ।। केवल ॥६॥ ( २७४ ) 1 सोई है सांचा महादेव हमारा, जाके नाही रागरोष-मद मोहादिक विस्तारा ।। सोई है ।।टेका जाके अंग न भस्मलिप्त है, नहिं रुण्डनकृतहारा । भूषण व्याल न भाल चंद्र * RRRRRRRR RR* Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v . * - * -*-*-* - * - * -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५०१ ॥ नहि, शीश जटा नहिं धारा ।। सोई है ॥१॥ जाके गीत। न नृत्य न मृत्यु न, वैल तणो न सवारा। नहि कोपीन । न काम कामिनी, नहि धन धान्य पसारा ।सोई है ॥२॥ । सो तो प्रगट समस्त वस्तुको, देखन जाननहारा । भागचंद । । ताहीको ध्यावत, पूजत वारंवारा ॥सोई है. ॥३॥ ( २७५ ) . । शेष सुरेश नरेश स्टै तोहि, पार न कोई पावै जू ॥शेष । ॥टेका। कापै नपत व्योम विलसत सौं, को तारे गिन लावै । जू ॥ शेषः ॥ १॥ कौन सुजान मेघबूंदनकी, संख्या समुझ । सुनावै जू ॥ शेष ॥२॥ भूधर सुजस-गीत-संपूरन गणपति । से भी नहिं गावै जू ।। शेष ॥३॥ ( २७६ ) स्वामीजी सांची सरन तिहारी ॥ स्वामीजी० ॥ टेक॥ समरथ शांत सकल गुन पूरे, भयो भरोसो भारी॥स्वामीजी ॥१॥ जनमजरा जगवैरी जीते, टेव मरनकी टारी । हमहूको अजरामर करियो, भरियो आस हमारी ॥ स्वामीजी ॥२॥ जनमै मरै धरै तन फिर फिर, सो साहिब संसारी । भूधर परदालिद क्यों दलिहै, जो है आप भिखारी स्वामीजी॥ ( २७७ ) बंदों नेमि उदासी, मद मारवेको। बंदो० ॥टेका रजI मतिसी तिन नारी छारी, जाय भए बनवासी ॥वंदों ॥१॥ हय गय रथ पायक सव छांडे, तोरी ममता फांसी । पंच । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA । ५०२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह महाव्रत दुर्द्धर धारे, राखी प्रकृति पचासी ॥ बंदो० ॥२॥ जाके दरशन ज्ञान विराजत, लहि वीरज सुखरासी । जाकों बंदत त्रिभुवननायक, लोकालोक-प्रकाशी ।। बंदो० ॥३॥ * सिद्ध शुद्ध पर-मातम राजै, अविचल-थान निवासी । धानत। मन-अलि प्रभुपदपंकज,-रमत रमत अघ जासी ॥वंदों०॥ २७८-ग वसंत। मोहि तारो हो देवाधिदेव, मै मनवचतनकरि करों सेव टेका। तुम दीनदयाल अनाथ-नाथ, हम हूको राखहु आप * साथ मोहि० ॥१॥ यह मारवाड संसार देश, तुम चरण* कल्पतरु हरकलेश ।।मोहि० ॥२॥ तुम नाम रसायन जीव पीय, धानत अजरामर भवतरीय मोहि० ॥३॥ २७९-राग वसं। ___तुम ज्ञानविभव फूली वसंत, यह मधुकर सुखसों रमंत तुम ॥टेका। दिन बडे भए वैरागभाव, मिथ्यामत रजनीको घटाव । तुम० ॥१॥ बहु फूली फैली सुरुचि वेल, ज्ञाता* जन समता संग केलि ॥ तुम ॥२॥ धानत पानी पिकमधुर* रूप, सुरनर पशु आनंद धन-स्वरूप ॥ तुम ॥३॥ (२८०) त्रिभुवनमें नामी, कर करना जिनस्वामी ॥ त्रिभुवनमें° ॥टेका। चहुंगति जन्म मरनकिम भाख्यो, तुम सब अंतर जामी ॥ त्रिभुवनमें ॥१॥ करमरोगके वैद तुमहि हो, करों। * पुकार अकामी । त्रिभुवन में ॥२॥ द्यानत पूरव-पुण्य-उदयते । सरन तिहारी पामी । त्रिभुवनमें ॥३॥ * --- ------ * Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * - - - वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५०३ । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww (२८१) १ मै बंदा स्वामी तेरा ।। मैं टेका। भवभंजन आदि नि रंजन, दूर दुःख मेरा ॥ मैं ॥१॥नाभिराय नंदन जगवंदन, 2 मै चरननका चेरा ॥ मै० ॥२॥ यानत ऊपर करुना कीजे, 1 दीजे शिवपुर डेरा ॥ मै ॥३॥ (२८२) * स्वामी श्रीजिन नाभिकुमार ! हमको क्यों न उतारो पार ॥ स्वामी ॥टेका। मंगल मूरत है अविकार, नाम भनें । भज विघन अपार । स्वामी ॥१॥ भवभयभंजन महिमा सार, तीनलोक जिय तारनहार ॥ स्वामी ॥२॥ धानत। * आए शरन तुम्हार, तुमको है सब शरम हमार । स्वामी ॥ (२८३ ) नेमजी तो केवलज्ञानी, ताहीकों मैं ध्याऊं ॥नेमिजी । ॥टेका। अमल अखंडित चेतन मंडित, परम पदारथ पाऊं ॥ । नेमिजी० ॥१॥ अचल अबाधित निज गुण छाजत, वचनन ! कैसे बताऊं । नेमिजी ॥२॥ धानत ध्याइए शिवपुर जा। इए, बहुरि न जगमें आऊं ॥ नेमिजी० ॥ ३ ॥ (२८४) हम आए हैं जिनभूप: तेरे दरशनको ॥ हम० ॥टेक॥ । निकसे घर आरतिकूप तुम पद-परशनको ॥ हम. ॥१॥ ॐ बैननिसों सुगुन निरूप, चाहैं दर्शनको ॥ हम० ॥२॥ धानत । ध्यावें मन रूप, आनंद बरसनको ॥ हम० ॥३॥ * R -SANSKE- KAR+ RK* Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ on - AARAAAAAAA KAAAAAAAAAAAAAA १५०८ वृहज्जैनत्राणीसंग्रह। नहिं होत हम, होहिंगे क्यों पार ॥ प्रभुजी ॥१॥ एक गुनथुति कहि सकत नहि, तुम अनंत भंडार । भगति तेरी। बनत नाही, मुकतिकी दातार प्रभुजी ॥२ ॥ एक भवके * दोष केई, थूल कहूं पुकार। तुम अनंत जनम निहारे, दोष । * अपरंपार ॥प्रभुजी०॥ नाम दीनदयाल तेरो, तरनतारनहार । वंदना द्यानत करत है, ज्यों वनै त्यों तार |प्रभुजी०॥ ३०२-गग आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। । करम देत दुख ओर, हो साइयां ॥ करम ॥टेक ॥ कई परावृत पूरन कीने, संग न छांडत मोर, हो साइयां ॥ * करम ॥१॥ इनके वश मोहि बचाओ, महिमा सुनि अति । तोर, हो साइयां ॥करम ॥२॥बुधजनकी विनती तुमहीसों, * तुमसो प्रभु नहिं और, हो साइयां ॥करम ॥३॥ ३०३-राग-गारो कान्हरो। थांका गुण गास्यांजी आदिजिनंदा ॥ थांका ॥टेक वचन सुण्या प्रभु मनै, म्हारा निजगुण भास्यांजी ॥आदि। * ॥१॥ म्हांका सुमन-कमलमें निसदिन, थांका चरन वसा-1 कस्यांनी आदि०॥२॥ याही मूनै लगन लगी छै, सुख द्यो । दुःख नसास्यांजी आदि ॥३॥ बुधमन हरख हिये अधिकाई, शिवपुरवासा पास्यांजी आदि० ॥४॥ ३०४-दौलतगमजीकृत शास्त्रस्तुति । जिनबैन सुनत, मोरी भूख भगी ॥ जिनवैन टिका कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्नपिछानन सुमति जगी।। *K KKR-K-R- F RK- Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह 53333 ५०६ 33333ool 473 vvv 345 3 wwww जिनबैन० ||१|| जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर तुष-रूप-मैल-पगी। स्यादवाद-धुनि-निर्मल जलतै, विमल भई समभाव लगी || जिनचैन ||२|| संशय- मोह - भरमत विघटी, प्रगटी आतमसौज सगी । दौल अपूरब मंगल पायो, शिवसुख लेन होंस उमगी ॥ जिनवैन ० ॥३॥ ( ३०५ ) जय जय जग - भरमतिमर-हरन जिनधुनी ॥ जय जय० ॥ टेक ॥ या विन समुझे अजौं न सौंज-निज-सुनी। यह लखि हम निजपर अविवेकता लुनी ||२|| जय जय० ॥ १ ॥ जाको गनराज अंग, - पूर्वमय चुनी | सोई कही है कुंदकुंद, प्रमुख बहुमुनी || जय जय० ॥|२|| जे चर जड भए पीय, मोह वारुनी । तचपाय चेते जिन, थिर सुचित सुनी || जय जय० ॥३॥ कर्ममल पखारनेहि, विमल सुरधुनी । तजि विलंब अब करो, दोल उरपुनी ॥ जय जय० ॥ ४ ॥ (३८७ ) वे प्रानी सुज्ञानी जिन जानी जिनवानी ३०६ - राग - मल्हार | मेघघटासम श्रीजिनवानी | मेघघटा० ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला चमकत जामै, बरसत ज्ञान सुपानी । मेघघटा० ॥ १ ॥ धर्मसस्य जातैं बहु वाढे, शिवआनंद फलदानी ॥ मेघघटा मोहनधूल दवी सव यातै, क्रोधानल सु बुझानी । मेघघ‍ ||३|| भागचंद बुधजन के कीकुल, लखि हरखे चितज्ञानी । ॥मेघवा ॥४॥ • ॥ टेक ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAA ANAANAANAAAAAMANRArAnn Honaar awan ....... ..... * *- --- - १५१० बृहज्जैनवाणीसंग्रह क चंदसर हू दूर करें नहि, अंतर तमकी हानी ।वे॥ १॥ पच्छ । । सकल नय भच्छ करत हैं, स्यादवादमें सानी ।। वे ॥२॥ र धानत तीन भवन मंदिर में दीवट एक बखानी ॥ ३० ॥३॥ ३०८-राग धनाश्री। * जिनवानीको को नहिं तारे । जिनवानी ॥ टेक ॥ मि थ्यादृष्टी जगत निवासी, लहि समकित निजकाज सुधारे।। गौतम आदिक श्रुतके पाठी, सुनत शब्द अघ सकल निवारे जिनवानी ॥१॥ परदेशी राजा छिनवादी, भेद सु तत्त्व। भरम सब टारे । पंच महाव्रत धर तू भैया, मुक्तिपंथ मुनि* राज सिधारे । जिनवानी ॥२॥ ३६-राग-ठुमरी मिझोटी। जिनधुनि सुनि दुरमति नसि गईरे, नय स्यादवादमय है आगममें ।।टेका विभ्रम सकल तत्त्व दरसावत, यह तो भविजनके मन वशगईरे । नयः ॥ चिर-भ्रम-ताप-निवारण* कारण, चंद्रकलासी दरसगईरे । नया२।। अघमल पावनकारण 'मानिक' मेघघटासी वरसि गईरे । नय ॥३॥ ३१०--रेखता। जिन रागरोप त्यागा वह सतगुरू हमारा ॥जिन गाटेक तज राजरिद्ध तृणवत, निज काज संभारा । जिन ॥ १ ॥ * रहता वह वन खंडों, धरि ध्यान कुठारा। जिन मोह महा तरुको, जडमूल उखारा। जिन॥२॥ सर्वांग तज परिग्रह दिग अंबर धारा । अनंतज्ञान गुणसमुद्र, चारित्रभंडारा। * * * Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 52 - *-* RA K AR* MAnnoAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA वृहज्जैनवाणीसग्रह ५११ । जिन ॥३॥ शुक्लाग्निको प्रजालक, वसुकर्मवन जारा। ऐसे गुरुको दौल है, नमोस्तु हमारा। जिन ॥४॥ (३११) * पनि जिन यह, भाव पिछाना । पनि ॥टेका। तनव्यय वांछित प्रापति मानी, पुण्य उदय दुख जाना । घनि ॥१॥ एक विहारि सकल-ईश्वरता, त्याग महोत्सव माना। सब । सुखकों परिहार सार सुख, जानि रागरुष भाना। धनि चित्स्वभावको चिंत्य प्रान निज, विमल-ज्ञान-दृगसाना। * दौल कौन सुख जान लह्यो तिन, कियो शांतिरस पाना ॥ । धनि ॥३॥ ३१२ भावन। कबधों मिलै मोहि श्रीगुरु मुनिवर, करि हैं भवोदधि* पारा हो । कवधों ॥टेका। भोगउदास जोग जिन लीनो, * छोडि परिग्रह-भारा हो । इद्रियदमन वमनमद कीनो, विष-1 यकषायनिवारा हो । कवधों ॥१॥ कंचन काच बराबर जिनक, निंदक बंदक सारा हो । दुद्धर तप तपि सम्यक निजधर, मनवचतनकर धारा हो । .बधों ॥२॥ ग्रीषमगिरि । हिम सरितातीरे, पावस तरुतर ठारा हो । करुणा भीन चीन सथावर, ईर्यापंथ समारा हो । कवधों ॥३॥ मार-मार। । व्रतधार शीलदृढ, मोहमहामल टारा हो । मास मास उपपवास वास बन, प्रासुक करत अहार हो । कबधों ॥४॥ + आरतरौद्रलेश नहिं जिनकै, धर्म शुक्ल चितधारा हो। ध्याना Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R- KARKK R A -5 । ५१२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह रूढ गूढ निज आतम, शुधउपयोग विचारा हो। कबधों । ॥५॥ आप तरहिं अवरनकों तारहि, भवजलसिंधु अपारा । हो। दौलत ऐसे जैनजतीको, नितप्रति ढोक हमारा हो । कबधों ॥६॥ ३१३-राग खमाच। * श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे, वीतराग गुनधारी वे। श्रीगुरु० * टेक ।। स्वानुभूति-रमनी सँग कीड़े, ज्ञानसंपदा भारी वे॥ * श्रीगुरु० ॥१॥ ध्यानपींजरामैं जिन रोक्यो, चितखग चंचल * चारी वे ॥श्रीगुरु ॥२॥ तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, भागचंद १ अघटारी वे ॥ श्रीगुरु ॥३॥ ३१४-राग मल्हार लूमझूम बरसै बदरवा, मुनिवर ठाड़े तरुवरतरवा ॥ १ लूमझूम ।। टेक ॥ कारीघटा तसी वीज डरावै, वे निधड़क * मानों काठ पुतग्वा ||लूमझूम० ॥१॥ बाहरको निकसै ऐसेमैं बड़े बड़े घरहू गलि गिरवा । झंझावात वहै अति सियरी, वेन हिलै निजबलके धरवा ॥ लूमझूम ॥२॥ देख उन्हें जो (कोई) आय सुनाएँ, ताकीतो करहूं न्योछरवा । सफल होय शिर पायपरसिक, बुधजनके सब कारज सरवा |लूम ( ३१५) * वनमै नगन तन राजै, योगीश्वर महाराज टेका। इक तो । दिगंवर स्वामी, दूजो कोई नहिं साथ ॥ वनमैं ॥१॥ पांचों 1 महाव्रतधारी परिसह जीतै बहु भाँत ॥ वनमैं ॥२॥ जिनने । R -SKAR Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *ARASHTRACK-* वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५१३ १ अतनमदमारयो, हिरदै धारयो वैराग ।। वनमै ॥३॥ (एजी) । रजनी भयानक कारी, विचरै व्यंतर चैताल ॥ बनमै०॥४॥ बरसै विकट धनमाला, दमकै दामिनि चालै, वाय ॥ वनमै । ॥५॥ सरदी कपिन मद गालै, थरहर कांप सब गात ॥ वनमै ॥६॥ रविकी किरन सर सोखै, गिरिपै ठाड़े मुनिराज॥ वनमैं ।।७। जिनके चरनकी सेवा, देवै शिवसुख। साज ॥ वनमैं० ॥८॥ अरजी जिनेश्वर येही, प्रभुजी राखो । मेरी लाज ।। वनमैं ॥९॥ (३१६ ) बधाई-पार्श्वनाथ भगवानकी बामाघर बजत बधाई, चलि देखरी माई ।। टेक ॥ सुगुनिरास जग-आस-भरन तिन, जने पार्श्वजिनराई । श्री ही धृति कीरति बुधि लछमी, हर्षित अंग न माई ॥ चलि * देखरी० ॥१॥ वरन वरन मनि चूर सची सब, पूरत चौक सुहाई । हा हा हू हू नारद तुंबर, गावत श्रुति सुखदाई ॥ चलि.देखरी ॥२॥ तांडव नृत्य नटत हरिनट तिन, नख नख सुरीं नचाई । किन्नर करधर बीन बजावत, गमन। हर छवि छाई ॥चल देखरी० ॥ ३॥ दौल तासु प्रभुकी । * महिमा सुर,-गुरुपै कहिय न जाई । जाके जन्मसमय नरकनमै, नारिकि साता पाई ।। चलि देखरी माई० ॥४॥ ३१७-राग ललित एकतालो। बधाई राजै हो आज राजै, बधाई राजे, नाभिरायके । द्वार बधाई ।। टेक ॥ इंद्र सचीसुर सब मिलि आए, सज। *- - -- - - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- - ---25- annNAMANNAR बृहज्जैनवाणीसंग्रह लाये गजराजै ॥ बधाई० ॥ जन्मसदन सची ऋषभ ले, * सौंप दिये सुरराजै । गजपै भार,गये सुरगिरिपै, न्हौन करनके । काजै ।। बधाई ॥ सहस आठ शिर कलस जु ढारे, पुनि सिंगार समाजै । लाय धरयो मरुदेवी करमैं, हरि नाच्यो । सुख साजै ।। वधाई । लच्छन व्यंजन सहित सुभग तन, , कंचन दुति रवि लाजै । या छवि बुधजनके उर निशिदिन,तीन । ज्ञानजुत राजै । वधाई ॥४॥ ३१८-राग सोरठा ___ आज तोबधाई हो नाभिद्वार । आज ॥ टेक ॥ मरुदेवी । माताके उरमें, जनमे रिषभ कुमार ॥ आज ॥ १ ॥ सची। • इंद्र सुर सबमिलि आये, नाचत हैं सुखकार । हरषि हरषि पुरके नारनारी, गावत मंगलाचार ।। आज तो ॥२॥ ऐसो * बालक भयो जु ताकै, गुनको नाहीं पार । तनमन वचत वंदत बुधजन, है भवतारनहार ।। आज ॥ __ भये आज अनंदा, जनमे चंदजिनदा ॥ भये ।। टेक ॥ । चतुरनिकाय देवमिलि आये, इंद्र भया है वंदा ।। भए० ॥ महासेन घर मात लछमना, उपजाया सुखकंदा । जाके तनमें बढी जोति अति, मलिन लगे हैं चंदा ।। भये ॥२॥ . अब भविजन मिलि सुख पायेंगे, कटि हैं कर्मके फंदा।। * याहीके उपदेश जगतमें, होगा ज्ञान अमंदा ।। भये ॥३॥ धन्य घरी पनि भाग हमारा, दूर भया दुखदंदा । बुधजन । * वारवार इम भाखै, चिरजीवी यह नंदा ॥ भये ॥ ४ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५१५ wwwwwwww...V wwwwwwwwwww ३२० - दादरा दया करने में जियरा लगाया करो || टेक || भूमि निरख कर चालो सहजमें, जीवोंको पगसे बचाया करोरे ॥१॥ सब जीव जगके अपनेसे जानो, काहूंका मन ना दुखाया करोरे ॥ २॥ हिंसा करनेसे दुरगति मिलेगी, नरकों में पड दुख न पाया करोरे ||३|| प्रभु परम धर्म भारी अहिंसा, जिन वैन मनमें बसाया करोरे ॥ ४॥ ३२१ - दादरा ठुमरी देश। गिरनारियोंपै चलूंगी प्रभुजी थारे लार ॥ टेक ॥ सुन २ री सजनी यह संसार असार । नहीं २ यहां रहना जाऊंगी जहां भरतार ॥ सुन २ री सजनी भूषण देऊंगी उतार । नहीं२ री मुझको नीको लगेरी शृगांर ||२|| सुन २ री सजनी जर्पू मंत्र नवकार | नहीं २ री जिससे नैया पडीरी मंझधार । सुन री सजनी तुर्रम हैरी हुस्यार | नहीं २ रे मेरे भक्ति सिवा कुछ कार ||४|| ३२२ -- दादरा थिबेटर । जागो चेतन पिया देखो कबकी खड़ी || टेक || मोहकी सेज अनर्थकी चादर, संगमें दासी सोवे पडी ॥१॥ जात पात न छुटत छुटाये, प्रीति लगाई थी कैसी घडी ॥२॥ ज्ञानकी बरषा रिमझिम बरसे, श्रीजिनधुनघन लागीझडी ॥३॥ ध्यान हिंडोले हम तुम झूले, पहरके रत्नोंकी मुक्ता लडी ||४|| सुमति पुकारे बोलो मंगत, अब नहिं बोलो तो गफलत पडी || Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *- -RSARKAR बृहज्जैनवाणीसंग्रह MhennnnnnnnnnnANA ३२३-राग देश ताल दादरा। * बारी उमर सैयां जोग धरो ना, जोग धरो ना ॥ टेक ॥ * व्याहन आये सब हर्षाये, तोरि कंकन सिवतियको बरोना ॥ । भावन भाये जिन कर्म खिपाये, समरथ हो तुम मौन धरोना पराजुल अर्ज करै सुन स्वामी, दोष कहां तुम हमसे लरोनाई भविजन प्रभु तुम पार किये हैं, धानतके तुम दुखको हरोना॥ ३२४-राग खेमटा दादरा। * पहरा गये श्रीमुनिराज, हमको ज्ञान गजडा ॥ टेक ॥ ज्ञान गजडा सीताजीने पहरो, अग्निमें भई परवेश ॥ १ ॥ ज्ञान गजडा रानी सुभद्राने पहरो, चलनीमें भर लाई नीर ॥ ज्ञान गजडा गौतम स्वामीने पहरो, विपुलाचलके तीर । ज्ञान गजडा सेठ सुदर्शनने पहरो, सूली होगई विमान ॥ * ज्ञान गजडा राजा माणिकने पहरो, पायो अचलपुर थान ॥ ३२५- दादरा कहरवा। प्रभुजीसे लग गई मोररी नजरिया ॥ टेक॥ नाहि टरत घडी पलर छिनर, छकितभई छविमाहिरेनजरिया कहरे कहूं उन सरस वंदनकी, निरख २ ललचायरे नजरिया॥ चाह न कुछ हगन लखनकी, सहज हजारी पाईरे नजरिया ॥ ३२६-दादरा कहरवा ।। गिरनारी पै जाय लियो जोग, हमे तज नेमी पिया टेकll * तोरनसे रथ फेरि दियो झट, समझाय रहे सव.लोग ॥१॥ सुख साधनि माता परिजन हारी, त्याग दियो भव भोग। पूरन राजुल चरन नेमिके, आवागमन मिटे रोग ॥३॥ RAKS * __ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *-- - - -- बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५१७ ३२६-देशी दादरा। * अरी तुम कौनकी हो प्यारी, फुलवा बीननहारी ॥ टेक ॥ ज्ञान ध्यानको वन्यों बगीचा, फूल रही फुलवारी। 1 जादोराय माली वन आये, काटत कर्म कुठारी ॥१॥ । समुद्रविजयजी मेरे ससुर लगत हैं, उग्रसेन घिय प्यारी। नेमनाथ मेरे पति कहीजे, हम हैं राजुल नारी ||२|| । इत झूनागढ़ इते द्वारिका, वीच शिखर गिरनारी। गिरवरलाल कहे करजोडी, चरण शरण बलहारी ॥३॥ ३२८-झूलनो दादरा।। । झूलत सव जिनराय हिंडोला, झूलत सब जिनराय० ॥टेक॥ * ज्ञान दरश दोऊ खंभ लगे हैं, डडा ध्यान सुखदाय ॥१॥ दान शील तप भावना डोरी, पाटी समझ सुभाय ॥२॥ शील सुंदरी संग हिलमिल बैठे, आगम धुन गुण गाय ॥३॥ के रमता सुमति पेग देत हैं, पंचमगति पहुंचाय ॥४॥ ५ चेतनता सुध होय जगतमें, आवागमन मिटाय ॥५॥ ३२६-फाग होली। जय बोलो ऋषभजिनेश्वरकी, जय बोलो० ॥ टेक ॥ जन्म अयोध्या माता मरुदेवी, नाभिनंदन जगतेश्वरकी ॥१॥ । धनुष पांचसै काया जिनकी, लक्षण वृषभधरेश्वरकी ॥२॥ लख चौरासी पूरव आयु, कुल इक्ष्वाक करेश्वरकी ॥३॥ * दास चुन्नी प्रभु सेवा चाहे, तारनतरन तारेश्वरकी ॥४॥ ३३०-ठुमरी झंझोटी। काहे गिरनारी गिर छायरे हमारे पिया, काहे गिर टैक। dasias- * Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह प्रभु वैरागी वडे अति भारी, दीनी पशू छुडाय रे ॥१॥ शिवरमनी सिद्धनकी नारी, ताही ने लये भरमाय रे ||२|| ना माने राजुल नेम प्रभु चिन, मो चित्त ओर न सुहाय रे || wwwwwwwww 473334 ३३१ -- दादरा कहरवा । नेमी पिया म्हारी लीन्हा न खबरिया || टेक || व्याहन आये संग हलधर लाये, हर्ष भयोरे आज सारी री नगरिया || १|| तुम्हरे कारन पशु विरवाये, तोरि कंकन लई गिरकी डगरियां || २ || नेमी वन धरि छप्पन केवल पाये, छेदी कहै हमारी छुटी रे भवरिया || ३ ॥ ३०२ ठुमरी दादरा | 1 चले हो सैय्यां किसपर छोड अकेली टेक ॥ भोगके जोगकी जोगके प्यारे, जोवन वैस नवेली ॥ १ ॥ तुम जिन सुखद भये सगरे, चंदन चंद नवेली || २ || चंचरीक जिस चंपक त्यों हम, परियन संग सहेली ||३ | पार उतारो वार सार जिम, मनु मझधार दहेली ||४|| राजुल तारो फेद विदारो, मंगत बूझ पहेली ॥ ५ ॥ ३३३ - दादरा | प्यारा मोरा चढ़ा गिरनारी, प्यारा मोरा चढ़ा० ॥ टेक ॥ तीन ज्ञान जमतही पाये, इंद्र करे जिन सेवा चारी ॥ १ ॥ मोर मुकुट कंकन तोरे, पशुवनपै प्रभु करुणाधारी ॥ २ परसादी कहै बिनवें राजुल, देउ दिक्षा हम जांचनहारी ||३|| ३३४ - दादरा थियेटर | अम्मा मुझे चल करके दिक्षा दिला दे, दिक्षा दिला दे Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * -KKAKKA R E * vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwws वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५२३ (३५६) । थारो भरोसो भारीमुझे जिन ॥टेका। भवसागरमें डूबत प्रभुजी लीन्ही शरण तुम्हारी ॥१॥ तुम प्रभु दीनदयाल दयानिधि, मै दुखिया संसारी २।। तुम जग जीव अनंत उबारे अबकी बार हमारी ॥३॥ नैनसुख प्रभु हमारी नैया अटक रही मझधारी ॥४॥ . . . . . . प्रभूकी भक्ति काफी है, शिवा सुन्दर मिलानेको टेक। छुड़ादामन कुमतसे जो, तू शिव सुन्दरको चाहै है । तुझे * आई है रे चेतन, सखी सुमता बुलानेको ।प्रभू०१॥ जगा मत मोह राजाको,पड़ा है ख्वाब गफलतमें । बना ले ध्यान-1 की नौका, भवोदधि पार जानेको ।। प्रभू० ॥२॥ तुझे अय 'न्यामत' कोई, अगर रहबर नहीं मिलता ॥ तो ले चल सग। । जिनवानी, तुझे रस्ता बतानेको ।। प्रभु० ॥३॥ ____ ३५१-शांतिसागर आचायस्तुति। 4 शांतीसागर आचारज नमोस्तु तुम्हे ॥ टेक ॥ संघका । नेतापना शोभै विविधि विधि आपको। दे शुशिक्षा विज्ञ कीना नाथ तूने संघको। दीनी शिक्षा यहां भी सुधारा हम्हे ।। शांतिसागर ॥ शांतिता लखि आपकी आनंद जो दिलमें हुआ । प्रमुदित हृदय-अम्बुज हुआ रविरूप तू परगट हुआ। तेरी सुंदर सुमुर्ति सुहावे हम्हें ॥ शांतीसागर. ॥१॥ सर्व जनता शिर झुकावै चरण पसकर आपके | धन्य । * - ---- - * Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 多多夺本起不 स+++ 泰安泰 वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५२४ समझै आपनेको दर्श करके आपके । भारी नींद से तूने जगा यां हम्हें || शांतिसागर ॥३॥ चारित्र तेरा विमल है आदर्य है सुमनोज्ञ है । है तृप्तिकर अरु असरकारक सब तरहसे योग्य है। धरते चरणों में शीश उबारो हम्हे || शांतीसागर ० | ४ || बहुत दिनकी आश पूरी जन्म मम सार्थक हुआ । देखा स्वरूप अनूप तेरा 'कुंज' दिल प्रमुदित हुआ । अपने चरणोंका दास बनालो हम्हे || शांतिसागर || ५ || ३५२ - महावीर तुझे वीर स्वामी मैं आदि मनाऊं । हरो विघ्नवाधा मैं शीश झुकाऊं ||टेक || तेरी वीर शिक्षा बनाती सुकर्मी । उसी सीखसे आज भवको नशाऊं || तुझे ० ॥ १ ॥ गया जीव कोई शरण वीर तेरी । उवारा उसे याते शीस नवाऊं || तुझे ||२|| दया धर्म हे नाथ! तुमने बताया । उसी धर्मका आज डका बजाऊं || तुझे ||३|| दिखाया सुपथ वीर स्वामी तुम्हींने । चलूँ मैं उसी राह करतब निभाऊं || तुझे ० ||४|| कहै 'कुंज' स्वामी हरो दुःख मेरा । धरूं जन्म जब धर्म तेराही पाऊं ॥ तुझे ॥ ३५३ - धर्मप्रशंसा परलोक मांही धर्म चलेगा तेरे साथ रे || टेक ॥ चलेगी नाहीं माता | चलेगा नहीं तात । चलेगा प्यारे धर्म अकेला तेरे साथ रे || परलोक ० ॥ चलेगी नहीं औरत । चलेगी नहीं दौलत | चलेगी चेतन सुमति तुम्हारे इक साथ रे || परलोक ० ॥ चलेगा दीया दान | चलेगा पर कल्याण | नहीं चालें प्यारे 1 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ArunanAAAAAAAAAAAAAAAAAAANA 52 -229- बृहज्जैनवाणीसंग्रह ' ५२५ रत्न जवाहर साथरे ॥ परलोक० ॥ चलेगा सम्यग्ज्ञान । चलेगी जिनवर आन | चलेगा प्रेमी निजगुण ही तेरे साथ । रे॥ परलोक० ॥ पात्रोंको दे दो दान । हो निज परका कल्यान । सुन सज्जन लक्ष्मी जावे किसी के साथ रे ॥पर ॥ जग इन्द्रजालका खेल । दुःखोंकी रेलम्पेल । प्रभु भव दुख नाशो 'कुंज' नवावे निज माथ रे॥परलोक०। ३५४-मुनिसंघस्तवन * मुनिसंघ तुझे हम नमन करें, भवदुःख जलधिसे तारो । हमें । निष्कारण बंधु तुम्हीं जगके करि कृपा पधारि सुधारि । हमें टेका। बहुतोंको तारि दिया तुमने अब आकर श्री *गुरु तारि हमें । थी आश सुखद शुभ दर्शनकी लखि नेत्र। । तृप्ति भये आज तुम्हें ।मु०॥ तेरे पग पडिगये जहां २ सब। + सुधरि गये भवि वहां २ । तप तेज देखि मुनिवर तुमको 1. सब जीव भक्तिवश होय नमें ।।मु०॥ है आगमोक्त आच-" औरण सभी जिनमें नहिं आता दोष कमी। सद्गुणथानक मुनिसंघ तुझे कर जोर होय नत भाल नमें ।मु०॥ जिसने । तुमको टुक देख लिया उसने अपना कल्याण किया । अब 'कुंज' दास तुव चरणनमें नमि चहै मुक्ति दो नाथ हमें।।मु०॥ ३५५-ऋषभजिनेन्द्रस्तुति । ऋषम तुम वेगि हरो मम पीर ।। टेक ॥ दावानल सम जग माही संतप्त शरीर । प्रभुके शांति निकेतन माही शीतल वहति समीर ॥ऋषभः॥ विष सम विषय बिभुजे मैने Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 个个个安5 'बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५२६ पाया दुख गंभीर | क्या तुम जानत नांहिं जिनेश्वर मैं सही भवपीर ॥ ऋषभ ॥ मिथ्यादेव कुगुरुकी सेवा करि हुआ दिलगीर । भाग्य उदय अब जानो मेरा प्रभु देखी तसवीर ॥ ऋषभ ॥ शांत हुआ लखि ऋषभ सुमुद्रा कर्म कटी जंजीर । तारि सुनिश्चय 'कुंज' इसीसे शरण गही तुव वीर॥ऋ० ३५: - शांतिनाथस्तवन wwwwww. श्री शांति सुखकरा प्रभु शान्ति जिनवरा, देउ शांति मोय स्वामी अर्ज सुन जरा ||टेक || श्रीजिनके चरणारविंद में जल अरपूं भवनाशन काज | चंदन भव आताप मिटावन घसि अरपों निज सुखके काज | शांति शुभकरा || श्री० ॥ अक्षत प्रभु चरणोंपर खेऊं अक्षय निजपद पावन सार । पुष्प काम विध्वंसकरन हित श्रीजिन अग्र घरों सुखकार । मोद मन धरा ॥ श्री शांति० ॥२॥ क्षुधारोगनाशनंके कारण चरु नित धरूं जिनेश्वर पांय । दीप चढाऊं प्रभुके आगे ज्ञान -ज्योति याते प्रगटाय | मोहतम हरा ॥ श्रीः ॥ धूप कर्म व कर्म नाश हित फल अरपूं इच्छित फलदाय | अर्घ मिलाय घरों जिन आगे यातें 'कुंज' सुकति पद पाय ॥ सर्व दुखहरा || श्री शांति० ॥४॥ ३५७ - प्रभुदर्शावसर । प्रभू तोड़ लखि पायौ रे, अबकी बार ॥ टेक ॥ देखि सुमूरति, हे त्रिभुवनपति, क्रोध मोह विछुटायौ रे ॥ अबकी बार० ॥ भाव दरशका, श्री जिनवरका । दिल विच आज Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vvvvvvxxx -~ - ~ **- -- - - --- वृहज्जनवाणीसंग्रह ५२७ समायौ रे ॥अबकी बार ॥२॥ त्रस थावरकी, हालत दुख* की। धरि धरि काल गमायौ रे ।।अबकी बार०॥३॥ आज ! मनुज भव, श्रीजिनवरं रख । प्रभु संयोग मिलायौ रे॥ । अबकी बार ॥४॥ कुंज' स्वपद गहि, कर्म पुंज दहि । आज समय शुभ पायौ रे| अबकी बार० ॥५॥ ३५८-दानोपदेश सवैया। दान करो भवि मोह हरो धन खर्च भरो निधि पुण्य कमाई।। आज सुवक्त मिला तुमको गहि चेतन क्यों न वडी पमुताई। । बैठि यहां किमि सोच करै करि सोचर दिन रात विताई * 'कुंज' कहैं शुभभाव धरो प्रभु पुष्पमाल गहि मन हरपाई ॥ ३५६-वस्तुक्षणभंगुरता सवैया । । गेह पुरी धन धान्य कुटुम्ब समी विनशै विजुली सम भाई । । पुत्र कलत्र सुमित्र सभी जन छोडि भगे न रहें दुखदाई॥ चंचल द्रव्य समान रहै नहिं चन्द्र समान वटै बढ़िनाई ।। । 'कुंज' कहै शुभ भाव धरो हिय पुष्पमाल प्रभुकी सुखदाई।। ३६०-द्रव्यकार्य सवैया । द्रव्य धनी अघहेतु कही पण पुण्यमयी जिन पुण्य लगाई। चंचल द्रव्यसे पुण्य कमें थिर, क्यों न गहै तू यह प्रभुताई ॥ वक्त गये पछितायगा चेतन भावऔ वक्त मिलै न मिलाई । * 'कुंज' कहै शुभभाव धरो जुगहो जिन माल बडी सुखदाई॥ ३.१-पात्रदानफल सबैया। * उत्तम मध्यम और जघन्य सुपात्रन दान दियो जिन भाई।। KHAR Com Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -R R84-5- 252KAKK-4-% ५२८ www wwwwwwwwww वृहज्जैनवाणीसंग्रह भोग मिले उनको मन माफिक मोक्ष गये फिर कर्म नशाई।। आज मुझे परमोत्तम पात्र मिला करि दान जु है सुखदाई ॥ * 'कुंज' कहै शुभ भाव धरो प्रभु फूलमाल गहि मन हरपाई।। ३६२ सर्वसाधु (मुनि) स्तुति ।। श्री सर्वसाधु पग लाग, भव्य अब मोह नींदसे जाग ।।टेक । बहुत कालसे जगमें भटका, मिटा न दिलका अबतक खट का । मिथ्या मति अब त्याग॥ भव्य० ॥१॥ है गुरुवर ये * दीनदयाला, पी इनसे धर्मामृत प्याला। हितके मारग लाग || भव्य० ॥२॥ सुनि उपदेश मुनिनका भविजन, करो। भला भटको न जगत बन । निज रसमें निज पाग ||भव्य * मुनि रवि किरण प्रकाशी दश दिशि, भव्य हृदाम्बुज खिलन * अहर्निशि । अबतो चेतन जाग ।। भव्य०||४॥ शासन सुखद * अजेय तुम्हारा, रहै अनादि निधन सुखकारी । 'कुंज' कुमसे भाग ॥ भव्य० ॥५॥ २३-मोहनींद त्यागोपदेश ।। मोहकी नींद छुड़ावो प्रभूजी ।। टेक ॥ काल अनंत निगोद मंझारी, सहा बहुत दुख भार प्रभूजी ॥ मोहकी० ॥१॥ तहं । * संचय था चर तन धर मर जनम दुःख बहु पाया प्रभूजी। * भोग और उपभोग वस्तुकी, । करि करि इक्छा लुभायो । प्रभूजी ॥ मोहकी ॥शा आतम तत्व नहीं पहिचाना । व्यर्थ । * ही काल गमायो प्रभूजी ॥ मोहकी० ॥५॥ ३६४-देह स्वरूप। जीव मोह्यौ पराये तनमें ॥टेका। पुद्गलनिर्मित हाड़। ---- - - - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ५२६ पींजरा घृणित सप्तधा तनमें ॥ जीव ० ॥ १ ॥ भीतर या सम घिन नहि अनमें निकसै मल अंगनमें ॥ जीव० ||२|| भेदाभेद नहीं पहिचाना | उलक्ष्या पर रूपनमें || जीव० || ३ || विनाशीक दुखदाई ये तन | दीखे साफ हगनमें || जीव ||४|| तो भी नादि मोहका प्रेरया । मानें सुख विषयनमें ॥ जीव॥ यातें 'कुंज' मोह तन छोड़ो। करि सरधा तत्त्वनमें ॥ जीव॥ ( ३६५ ) श्रीवीर जिनवरा तुव चरण आ पड़ा दुःख नाशि सुक्ख देउ मोय भव हरा || टेक || श्रीजिनराज भवन बिच राजें प्रतिमा सरल शांति सुखदाय | भक्ति भाव धरि उरमें भविजन पूजा करें सुरस गुण गाय ॥ प्रेमरस भरा ||श्रीवीर ० ॥ श्री जिनभवन गमन मनुभव अरु जिन बचनामृत श्रवण सुपाय | करे न निज कल्यान आपना तिनका जन्म अकारथ जाय । व्यर्थ अवतरा ॥ श्रीवीर० ||२|| श्री जिन पूजन करो भव्य जन हरो पाप भव भव दुखदाय | क्यों भटको भव 'कुंज' सयाने जिन सम क्यों न सुकतिपद पाय || दुःख क्यों भरा || श्रीवीर ० ॥३॥ AAAAAJ0 ܝ ܐܐ AAAAA ( ३६६ ) भज मन नेम चरण दिनराती ॥ टेक ॥ रसना कसना भज जदुपतिको, भजन करत अघ घाती ॥ १ ॥ जाके भजे कटै दुख दारुण, सुर्गादिक सुख पाती ॥२॥ जाके जन्म कल्यानक माहीं, इंद्रशची गुण गाती ||३|| आप तरण तारणको Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३० वृहज्जनवाणीसंग्रह HAR AAAAAAAAAAAAA समरथ, नाशक तम मिथ्याती॥ ४ ॥ सेवकको तारो प्रभु हितकर, अपनो विरद निभाती ॥५॥ (३७) ___ क्या हट माड़ी जदुवंशी पलटजा ॥टेका। व्याहन आये अति उमगाये, श्रीजिनराज मनाये झपटआ॥१॥ सज वजके जादों संग आये, यश पुकार सुनाये अटकजा ॥ २ ॥ भूषण में बसन सबै तज दीने, गिरनारी तपधारो झपटजा ॥शा प्रभु संग राजुलने तपलीना, सेवकको प्रभु तारो लटकजा ॥४॥ ___ ३६८-पद परजमें। येजी प्राणी प्रीत जगतकी झूठी ।।टेका। मित्र कलित्र पुत्र कुटंब संग, बंधु गरजकी मूटी (मूठी) ॥१॥ जा छिन गरज सरे । ना जाकी, तुरत मिताई टूटी ॥२॥ प्राण छुटे कोऊ ना छीवे, * जैसी पातर जूठी ॥३॥ प्रीति करो जिनराज चरणसे, छाडौं। कुमति कलूटी ॥४॥ सेवकको रत्नत्रय दीजे, मुकति महलकी । खूटी ॥५॥ __३६६-राग-भैरवी। मन लागा हो जिन चरननसों ।। टेक॥ और कुदेव मनाहिं न भावे, जिन चरचा सुन कर्ननसों ॥१॥ प्रभुजी ऐसी किरपा कीजे, पाउं विजय अरि कर्मनसों ॥२॥ * तुमही स्वामी वैद्य धानंतर, लेव बचा भव मनसों ॥३॥ * तुम गुण गणधर कह न सकत ही, पार न पाऊं वर्णनसों ॥४॥ . सेवक अर्ज करत कर जोरे, राख लेहु भव भर्मनसों ॥५॥ KAKAR Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह nonAAAAAAAAAAAAAAAAAA 4nAAMANAMA000mAAAAAAA. ३७०-सोरठ। । मै तो जांऊछैगढ गिरिनार,सहेली मारी रोको न डागरियाटेक कौन चूक मोरी प्रभु लख ली, पाडी न मांवरिया ॥ १ ॥ नेम नवल बिल कौन उबारे, डूबै छै नावरिया ॥२॥ गृहतजके राजुल तपलीनो, जहँ प्रभु सावरिया ॥३॥ सेवकको भवदघि सों तारो, कर गह जा विरिया ॥ ४ ॥ ___३७१--राग झमोटी। क्या भूलमें है श्रीजिन भजले,तेरी दो दिनकी है आवरिया।।टेक नरभव कुल श्रावगको पायो, धरम साथ लेया विरियां ॥१॥ वृद्धापन तेरी देह थकेगी, तब क्या पालोगे किरियां ॥२॥ रिपुकाल आयुनिधि लूटकरे,तव काको शरणा वा परियां ॥३॥ १ याते अरजी जिनराज सुनो, सेवकको तारो गह बहियां ॥४॥ ३७३-लावनी सोरठ। सुनो सुनो मेरी सुमति जिनेश, मुझ दीजे सुमति हमेशा ॥टेका जवते वा बिछुरी स्यानी, तवतें कुमता अगवानी। * सुधि मोखपंथको रोका, मुह भूलत राह न टोका ॥ . अब अरज करों प्रभु पासा ॥मुझ०॥ टेक ॥ ३७४-कजली। आतम आपको निहारे, खुटे मोह कजली ।। टेक ॥ * चिरदासीसों भये उदासी, प्रीतिकरी राधा लजली ॥१॥ मिथ्या बुध भोरीकी डोरी, टोरी निज परणति भजली॥ २ ॥ देह नेह धन मित्र बंधु तिय, अथिर लखेज्यों गति बिजली ॥३॥ *- *-*- * - * Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRRRRASHTRA wwwwwwwww vNGhrowNMM ~~um ------ - । । ५३२ वृहज्जैनवाणीसंग्रह शुद्धपयोग दशागह लीनी, रागद्वेष विकलप तजली ॥४॥ धन्न घरी सेवक जब पावे, या विध अनुभव मुकतिगली ॥५॥ ___ ३७५-राग-जंगला! । मैं नमों प्रभुकर सीसधार, भव जलधि क्षार सो तार ताराटेका तुवचरण कमल नख दुति अपार, लख सुरनर पूजित बारवार हर मिस मुख उचरों नामसार, मेरे वसु अरिचिर जार जार। नहिं फुरतशक्तिगति भ्रमतचार, भवभवविध डोलत लारलार॥ तुम विन नहिं दीसत शरणदार, गदरागमहारिपु मारमार॥ लीजे सेवकको अब उवार, ज्यों तारे जनप्रण धार धार ॥ ३७६-दादरा। सुनो मेरे प्रभुजी अरजी हमार ।। टेक ॥ तुमको भूल भवोदधि भटको जामन मरण अपार ॥१॥ भागउदय मानुष गति पाई जिन चरनन चित धार ॥२॥ । सेवकको शिवसुख अब दीजे षट द्वय दुष्टन टार ॥३॥ (३७७) न कोउ कछू कहे मन लागा जी ॥टेकजव लागा विष* यनतै भागा अनुभव रसमें पागाजी ॥१॥ व्याधि तो मोह-* * समाधिसी दीसे भासा दुख सुख रागाजी ॥२॥ सोता नादि कालका भ्रममें मोह नींद तज जागाजी ॥२॥ चिर अरि विधको नाश देव जिन सेवकको शिव जागाजी ॥४॥ (३७८) प्रभु विनको मोरी लेय खबरियां ।।टेका। देव हरो जन्मत। प्रदुमनको रक्षक कौन हतो वा विरियां ॥१॥ कौन सहाय । ** * * Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwww. vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv बृहज्जैनवाणीसंग्रह 53 ! करी चाही छिन पवनपूत पाथरपर गिरियां // 2 // अग्नि-1 * कुंड महिं सिय जब पैठी फूले कमल तहां जल भरियां // 3 // तुम शरणा बिन भवबन भटको नंतानंत जनम घर भरियां / यौंही सेवकपर किरपा कर मेंट देहु भव भवहिं मैंवरियां // (36) , श्रीजी तौ आज देखो भाई, जाकी सुन्दरताई // श्री जी० ॥टेर॥ कंचन मणिमय अंगतन राजै, पद्मासन छवि * अधिकाई ॥श्रीजी० // तीन छत्र शिर ऊपर जिनके, चौसठि चमर ढुरै भाई // श्रीजी० // 2 // वृक्ष अशोक शोक सब नाशै, भामंडल छवि अधिकाई ॥श्रीजी॥३॥ धुनि जिनवर की अतिशय गाजै, सुरनर पशुके मन भाई ॥श्रीजी० // 4 // * पुष्पवृष्टि सुर दुन्दुमि बाजै, देख 'जिनेश्वर रुचि आई॥श्री. ( 380 ) * सुनिये सुपारस अरज हमारी // सुनिये // टेर। लख 1 चौरासी जोन फिन्यौ मैं, पायो दुख अधिकारी / सुनिये॥ वडे पुण्यतै नर-भव पायो. शरन गही अब थारी सुनिये०॥ रत्नत्रय निधि निजकी दीजै, कीजे विधि निरवारी। / सुनिये // 3 // अधम उधारक देव जिनेश्वर, आज हमारी वारी / सुनिये // 4 // (381) - बड़ी दो घड़ी मंदिरजीमें जाया करो, 2 एजी जाया / करो, जी मन लगाया करो, घडी. टेरसब दिन घर धंधामें खोया, कछु तो धर्ममें विताया करो। घड़ी० // 1 //