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________________ ર वृहज्जैनवाणीसंग्रह 1 जिनराज तिहारो ॥ तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये। यह प्रभुता जगतिलक कहां तुम बिन सरदहिये ||२२|| सुरतिय गावै सुजश सर्वगति ज्ञानस्वरूपी । जो तुमको थिर होहिं नमैं भविआनंदरूपी ॥ ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहि हो है | श्रुतके सुमरनमाहिं सो न कबहूं नर मोहै ||२३|| अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चितमें धारै। आदरसों तिहुंकालमाहिं जगथुति विस्तारै || सो सुक्रत शिवपंथ भक्तिरचना कर पूरै । पंचकल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुख चूरें ||२४|| अहो जगपति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे । तुम गुनकीर्तनमाहिं कौन हम मंद विचारे || श्रुति छलसों तुमविषै देव आदर विस्तारे । शिवसुखपूरनहार कलपतरु यही हमारे ॥२५॥ वादिराज मुनि अनु, वैयाकरणी सारे । वादिराज मुनि अनु, तार्किक विद्यावारे || वादिराज मुनितें अनु हैं काव्यनके ज्ञाता । वादिराज मुनि अनु हैं भविजनके त्राता ॥ दोहा - मूल अर्थ बहुविधिकुसुम, भाषा सूत्र मँझार । भक्तिमाल 'भूधर' करी, करो कंठ सुखकार ॥ १ ॥ ६५ - विषापहारस्तोत्र | स्वात्मस्थितः सर्वगतः समस्त व्यापारवेदी विनिवृत्तसंगः। प्रवृद्धकालोप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥१॥ परैरैचित्यं युगभारमेकः स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः । स्तुत्योद्य मेसौ वृषभो न भानोः किमप्रवेशे विशति प्रदीपः ||२|| तत्याज शक्रः शकनामिमानं नाहं त्यजामि
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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