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________________ *KKKKRK-95 - * variowwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww wwwwwwwwwwva ३१८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह * परणतिके नाशन अचल ध्यान ॥३॥ जय जयहि सर्वसुन्दर । * दयाल । लखि इन्दजालवत जगतजाल ॥ जय तृष्णाहारी रमण राम। निज परिणतिमें पायो विराम ॥ ४ ॥ जय 1. आनंदघन कल्याणरूप । कल्याण करत सबको अनूप । जय * मदनाशन जयवान देव । निरमद विरचित्त सब करत सेव * ॥५॥ जय जेय विनयलालस अमान। सब शत्रु मित्र जानत में समान ॥ जय कृशितकाय तपके प्रभाव । छवि छटा उडति + आनंददाय ॥६॥ जय मित्र सकल जगके सुमित्र । अनगि नत अधम कीने पवित्र ।। जय चंद्रवदन राजीव नैन ! कबहूं विकथा बोलत न बैन ॥ ७॥ जय सातौ मुनिवर एकसंग।। नित गगन-गमन करते अभंग ।। जय आये मथुरापुर मंझार। * तहँ मरी रोगको अति प्रचार ॥ ८॥ जय जय तिन चरणनिके प्रसाद । सब मरी देवकृत भई वाद ।। जय लोक करे निर्भय समस्त । हम नमत सदा नित जोरि हस्त ॥९॥ जय * ग्रीषमऋतु पर्वतमंझार । नित करत अतापन योग सार । जय तृषा परीषह करत जेर। कहुं रंच चलत नहिं मन-सुमेर * ॥१०॥ जय मूल अठाइस गुणन धार। तप उग्र तपत आ नंदकार ॥ जय वर्षाऋतुमें वृक्षतीर । तहं अति शीतल झेलत समीर ॥११॥ जय शीतकाल चौपट मंझार । कै नदी सरोवर तट विचार ॥ जय निवसत ध्यानारूढ़ होय । रंचक ! नहिं मटकत रोम कोय ॥५२॥ जय मृतकासन वज्रासनीय।। । गोदूहन इत्यादिक गनीय ॥ जय आसन नानाभांति धार।। * *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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