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________________ *KRAKAR-SAMRA * vvvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह १४७ शिवकारण तुम देखे जबै ॥ जगजननैनकमलबनखंड । विक- सावनशशिशोकविहंड ॥ आनंदकरनप्रभातुमतणी । सोई ।। अमी झरन चांदणी ॥३॥ सब सुरेन्द्र शेखर शुभ रैन । तुम आसन तट माणक ऐन ॥ दोऊं दुति मिल झलकै जोर।। * मानों दीपमाल दुहं ओर ॥ यह संपति अरु यह अनचाह । कहां सर्वज्ञानी शिवनाह ॥ तातै प्रभुता है जगमांहिं । सही " असम है सशय नाहि ।। सुरपति आन अखंडित बहै। तृण ज्यों। राज तज्यो तुम वहै । जिन छिनमै जगमहिमा दली । जी त्यो मोहशत्रु महाबली ॥ लोकालोक अनंत अशेख । कीनो। * अंत ज्ञानसों देख ॥ प्रभु प्रभाव यह अद्भुत सबै । अवर दे मैं भूल न फबै ॥५॥ पात्रदान तिन दिन दिन दियो। तिन चिरकाल महातप कियो । वहुविध पूजाकारक वही । सर्व। शील पाले उन सही ॥ और अनेक अमलगुणरास । प्रापति। आय भये सब तास ॥ जिन तुमशरधासों कर टेक । दृगवल्लभ देखे छिन एक ॥ त्रिजगतिलक तुम गुणगण जेह । भवभुजंगविषहरमणि तेह ॥ जो उरकाननमाहिं सदीन । भूषण कर पहरै भवि जीव ॥ सोई महामती संसार । सो श्रुतसागर पहुंचे। पार ।। सकल लोकमें शोभा लहै । महिमा जाग जगतमैं वहै ।। दोहा-सुरसमूह ढोलै चमर, चंदकिरणयुति जेम। नेवतनबधूकटाक्षतें, चपल चलें अतिएम ॥ छिन छिन ढलक खामिपर, सोहत ऐसो भाव । किधौं कहत सिघि लच्छिसों, जिनपतिके ढिग आव ॥८॥ * -- ------- ---* न . 1 जान 3
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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