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________________ १४६ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * वरसो दृष्टेरियान्वर्तते । साक्षात्तत्र भवंतमीक्षितवतां कल्याkणकाले तदा देवानामनिमेषलोचनतया वृत्तः स किं वर्ण्यते । ॥२४॥ दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं दृष्टं । सिद्धरसस्य सम सदनं दृष्टं च चिंतामणेः । किं दृष्टेरथवा* नुषंगिकफलैरेभिर्मयाद्य ध्रुवं दृष्टं मुक्तिविवाहमंगलगृहं दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥२५॥ दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्रविकसद्भूपेंद्रनेत्रो। स्पलैः स्नातं त्वन्नुतिचंद्रिकांभसि भवद्विद्वच्चकोरोत्सवे । । नीतश्चाद्य निदाघजः क्लमभरः शांतिं मया गम्यते देव !! । त्वद्गतचेतसैव भवतो भूयात्पुनदर्शनं ॥ २६ ॥ इति ॥ । ६८-भूपालचतुर्विंशतिका भाषा। सकल सुरासुर पूज्य नित, सकलसिद्धि दातार ।। जिनपदवंदू जोर कर, अशरनजनआधार ॥१॥ चौपाई-श्रीसुखवासमहीकुलधाम । कीरतिहर्षणथल- । अभिराम ॥ सरसुतिके रतिमहल महान । जय जुवतीको * खेलन थान ।। अरुण वरण बंछित वरदाय। जगतपूज्य ऐसे जिन पाय ॥ दर्शन प्राप्त करै जो कोय । सब शिवथानक सो जन होय ॥१॥ निर्विकार तुम सोमशरीर। श्रवणसुखद बाणी गम्भीर ॥ तुम आचरण जगतमें सार।। सब जीवनको है हितकार ॥ महानिंद भवमारू देश। तहाँ । * तुंग तरु तुम परमेश ॥ सघनछांहिंमंडित छवि देत। तुम पंडित सेवै सुखहेत ॥२॥ गर्भकूपते निकस्यौ आज । अब लोचन उघरे जिनराज ॥ मेरो जन्म सफल भयो अवै।। * --- *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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