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________________ *ARMARKSARAK Vvvvvvvvv vvvvvvwwwwvv १ १४८ बृहज्जैनवाणीसंग्रह * चौपाई-शीशछत्र सिंहासन तलै। दिपै देहदुति चामर ढलैं॥ * वाजे दुंदुभि वरसै फूल। दिगअशोक वाणी सुखमूल ।। इहिविधि अनुपम शोभा मान । सुरनरसमा पदमनीभाना। लोक । नाथ बर्दै शिरनाय । सो हम शरण होहु जिनराय ॥ सुरगन। दंत कमलवनमांहि । सुरनारीगण नाचत जाहि । बहुविध । * बाजे गजें थोक। सुन उछाह उपजै तिहुंलोक ॥ हर्षत हरिन । । जै उच्चरै । सुमनमाल अपछर कर धरै ॥ यो जन्मादि समय । * तुम होय । जयो देव देवागम सोय ॥१०॥ तोप बढावन तुम मुखचंद । जननयनामृतकरन अमंद ॥ सुंदर दुतिकर । * अधिक उजास। तीनभवन नहिं उपमा तास ॥ ताहि निरसि । सनयन हम भये । लोचन आज सुफल कर लये ॥ देखनयोग । * जगतमें देख । उमग्यो उर आनंद विशेख ॥११॥ कैयक यो । मानै मतिमंद । विजितकाम विधि ईश मुकंद ।। ये तो हैं । । वनितावश दीन । कामकटकजीतनवलहीन ।। प्रभु आगै सुर कामिनि करै । ते कटाक्ष सब खाली परै ॥ यात मदनवि* ध्वंसन वीर। तुम भगवंत और नहिं धीर ॥१२॥ दर्शनीति । । हिये जब जगी। तवै आम्रकोपल बहु लगी॥तुम समीप उठ आवन ठयो। तवसो सघन प्रफुल्लित भयो । अबहूं निज । नैनन ढिग आय । मुखमयंक देख्यो जगराय । मेरो पुन विरख इहबार । सुफलफल्यो सवसुखदातार ॥१३॥ । * दोहा-त्रिभुवनवनमें विस्तरी कामदवानल जोर। वाणीवरषाभरणसों, शांति करहु चहुँ ओर ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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