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बृहज्जैनवाणीसंग्रह
इंद्र मोर नाचै निकट, भक्तिशाव घर मोह । मेघ सघन च बीस जिन, जैवंते जग होय ॥१४॥ चौपाई - भविजनकुमुदचंद सुखदैन । सुरनरनाथप्रमुखजगजैन || ते तुम देख रमै इह भांति । पहुप गेह लह ज्यों अलि पांत || शिरधर अंजुलि भक्तिसमेत । श्रीगृहप्रति परिदक्षण देत || शिवसुखकीसी प्रापति भई । चरणछांहसों भवतप गई । वह तुमपदनखदर्पण देव | परम पूज्य सुंदर स्वयमेव ॥ तामै जो भविभागविशाल । आनन अविलोकै चिरकाल || कमलाकीरति कांति अनूप | धीरजप्रमुख सकल सुखरूप ॥ वे जगमंगल कौन महान । जो न लहै वह पुरुष प्रधान ॥ १६ ॥ इंद्रादिक श्रीगंगा जेह उत्पतिथान हिमाचल येह || जिनमुद्रामंडित अतल । हर्ष होय देखे दुःख नरौ || शिखर ध्वजागण सोहैं एम । धर्मसुतरुवर पल्लव जेम | यों अनेक उपमाआधार | जयो जिनेश जिनालय सार ||१७|| शीश नवाय नमत सुरनार । केशकांतिमिश्रित मनहार ॥ नखउद्योत वरतैं जिनराजे | दशदिशपूरित किरण समाज | स्वर्गनागनरनायक संग | पूजत पायपद्मअतुलंग ॥ दुष्टकर्मदल दलनसुजान | जैवंतो वरतो भगवान || १८ || सो कर जागै जो घीमान । पंडित सुधी सुमुख गुणवान || आपन मंगलहेतु प्रशस्त । अवलोकन चाहै कछु बस्त || और वस्तु देखे किसकाज | जो तुम मुख राजे जिनराज || तीन लोकको मंगलथान | प्रेक्षणीय तिहुं जगकल्यान ॥ १९ ॥ धर्मोदय
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