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________________ * RG9-95वृहज्जैनवाणीसंग्रहा wwwwwwwwwwwwww. कल्याण तोहि, मिल सकल संभोग ॥६५॥ महालाभ उद्यमविर्षे, सदन तथा परदेश । सुफल काज तुव होय नित, यामें भ्रम नहिं लेश ॥६६॥ ररहं । दुइ रकारपर हं परै, तब मनवांछित होय । शोभ* नीक सुख संपदा, सहज मिलावै सोय ॥६७॥ मंगल दुंदुभि होई धुनि, अरथलाभ बहु तोहि । मिलि हैं वसुधा देश पुर, । यह प्रति भासत मोहि ॥६८॥ जौन काज तुम चित धरउ, । तुरित होइ है तौन । भूपति अति आनंद करै, तिन प्रति । । मंगल मौन ॥६॥ __ररत । ररत बरन यह कहत है, सुन पूछक चित लाय । परतियकी अभिलाषतै, किये अनर्थ उपाय ॥७०॥ अरथनाश तातै भयो, अरु विग्रह घरमाहि । राजदण्ड तैने सहे, यामें संशय नाहिं ।।७१॥ तातै परतिय परिहरहु, शुभमारग पग देहु । ब्रह्मचरजजुत प्रभु भजो, नरभवको फल लेहु ॥ रहं । रहंअकार आवै जहां, तहँ उत्तम फल जान । वनितापुत्रधनागमन, बन्धुसमागम मान ॥ ७३ ॥ अरथ * लाभ जसलाम पुनि, धरमलाभ ह तोहि । रन विदेश १ व्यापारमें, विजय तुरन्तहि होहि ॥७॥ । रहर । रहर आवै जवहिं तव, विषम काज जिय जान । । उद्यम सुफल न होय कछु, घर बाहर हैरान ॥ ७५ ॥ शत्रु । बहुत सुख कतहुं नहिं, तात वजि यह काज । जग सुख निष्फले जानि जिय, भजो सदा जिनराज ॥ ७६ ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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