________________
१४१०
वृहज्जनवाणीसंग्रह
wwwww wwwwwww
vvvvvvue VVV
VVL
दाय । करै सहाय प्रसाद तसु, सब विधि सिद्धि लहाय ॥
रअहं | आदि रकार अकार पर, हं प्रगटे जब आय।। भयकारी धनहानि यह, क्लेश अशेष कराय ॥५५॥ यह कारज कर्तव्य नहिं, लाभ नाहि या माहिं । बांधवमित्र वियोगता अस यह सगुन कहाहिं ।। ५६ ॥ जहं कहुं जाहु
विदेश तहँ, सिद्ध न होवै काज । तातै थिर है कछुक दिन, , सुतिरहु श्रीजिनराज ॥५७॥
रअत । रअत परै पांसा कहै, मग धन लूटहिं चोर । द्रव्यहानि होवहि बहुत, अशुभ फलहि चहुंओर ॥ ५८॥ * नाव वुझै पावक लगै, रोगरु कष्ट कुजोग । कियो काज !
विनशै सकल, अशुभ करमके भोग ॥ ५९ ॥ तातै शोक न • कीजिये, भावीगति बलवान । थिर है निशिदिन सुमिरिये, कृपासिंधु भगवान ॥६॥
रस्म । रअ अंग आवै जहां, तब ऐमौ फल जान | तव * चित चंचल चपल अति, सुनि प्रच्छक मतिमान ॥६१॥ तें
चाहत अर्थागमन, मूलनाश तसु होइ । राजदण्ड चौराग्नि * भय, तनदुख तोहि बहोइ ॥६२॥ तनय तिया बांधवनिसों।
है है तोहि वियोग । अव तिसरे वरसमहँ, कटहिं सकल । दुखभोग ॥६॥ . ररर । तिहुँ रकारको फल सुनो, मनवांछितफलदाय।।
धरा धान्य धनलाभ तोहि, मिलहि वस्तु सव आय । ६४॥ तिया तनय सुत वन्धु धन,, इष्टबन्धुसंयोग । कृत उत्तम ।