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________________ ४२५ मानछललोभा || आरति श्री० ॥ ५ ॥ तुम गुण हम कैसे करि गावें । गणधर कहत पार नहिं पावैं || आरति श्री० ॥ ६ ॥ करुणासागर करुणा कीजे । द्यानत' सेवकको सुख दीजे || आरति श्री ० ॥ ७ ॥ २१७ - आरती मुनिराजकी आरति कीजै श्री मुनिराज की, अधमउधारन आतमकाज की ॥ आरति कीजै० ॥ टेक ॥ जा लच्छीके सब अभिलाखी। सो साधन करदमवत नाखी || आरति कीजै० ॥ १ ॥ सब जग जीत लियो जिन नारी । सो साधन नागनिवत छारी ॥ आरति ० ||२|| विपयन सब जगजिय वश कीने। ते साधन विषवत तज दीने || आरति० ॥ ३ ॥ भुविको राज चहत सब मानी। जीरन तृणवत त्यागत ध्यानी || आरति ||४|| शत्रु मित्र दुखसुख सम मानै । लाभ अलाभ बरावर जाने || आरति ०||५|| छहोकायपीहरव्रत धारें। सबको आप समान निहारें || आरति ॥ ६ ॥ इह आरती पढे जो गावै । 'द्यानत' सुरगमुकति सुख पावै ॥ आरति कीजे ||७|| www. बृहज्जैनवाणीसंग्रह د wwwwww ww www. (२१८) किस विधि आरती करौ प्रभु तेरी । आतम अकथ उस बुध नहि मेरी || || समुदविजयसुत रजमति छारी । यों वहि श्रुति नहि होय तुम्हारी ॥ १ ॥ कोटि स्तम्भ वेदी छवि सारी । समोशरण श्रुति तुमसे न्यारी ॥ २ ॥ चारि ज्ञान युत तिनके स्वामी | सेवकके प्रभु अन्तर्यामि || ३ || सुनके
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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