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________________ ४२४ वृहज्जैनवाणीसंग्रह " आठवां अध्याय । आरती संग्रह २१५ - पंचपरमेष्ठी आदिकी आरती । wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww इहविधि मंगल आरति कीजै । पंच परमपद भाज सुख लीजै ॥ टेक ॥ पहली आरति श्रीजिनराजा । भवदधिपारउतार जिहाजा || इहविधि० ||१|| दूसरि अरति सिद्धनकेरी | सुमरनकरत मिटै भवफेरी || हविध ० ||२|| तीजी आरति सूर मुनिंदा । जनममरनदुख दूर करिंदा || इह विध० ॥३॥ चौथी आरति श्री उवझाया | दर्शन देखत पाप पलाया || ४ || पांचमि आरति साधु तिहारी । कुमतिविनाशन शिव अधिकारी ॥ इहविध० ॥ ५ ॥ छडी ग्यारहप्रतिमा धारी । श्रावक चंदों आनंदकारी ॥ इहविध० || ६ || सातमि आरति श्रीजिनवानी 'द्यानत' सुग्गमुकति सुखदानी || इहविध० ॥ ७ ॥ २१६ - आरती श्रीजिनराजकी । आरति श्रीजिनराज तिहारी, करमदलन संतन हितकारी ॥ टेक ॥ सुरनरअसुर करत तुम सेवा | तुमही सब देवनके देवा ॥ आरति श्री० ॥ १ ॥ पंचमहाव्रत दुद्धर धारे। रागरोष परिणाम विदारे || आरति श्री० ॥ २ ॥ भवभय भीत शरन जे आये । ते परमारथपंथ लगाये || आरति श्री० ॥३॥ जो तुम नाथ जपै मनमाहीं । जनममरनभय ताको नाहीं ॥ आरति श्री० ॥ ४ ॥ समवसरनसंपूरन शोभा । जीते क्रोध
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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