SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *RKKRISKKSHAKAKIRA* वृहज्जेनवाणीसंग्रह .naran * ततत । तीनौं तकार जब उदय होय । तब अकल सकल * फल कहत सोय । मनवांछित कारज सिद्धि जानि । कल्याण कारिनी प्रश्न मानि ॥१८॥ घर पुत्र पौत्रको जनम होय।। धन आगम सुखद विवाह सोय । पहिले जो अरथ गयो । * विनास । सो आन मिलै अनयास पास ॥ १८३॥ बैरीको बैर मिटै समस्त । तोहि मिलहि मित्र बांधव प्रशस्त । निज धर्मबुद्धि है है सयान । सर्वथा जान संशय न आन ॥१८४॥ कविनामकुलनामादि। दोहा-लालविनोदीने रची, संस्कृतवानीमाहँ। वृन्दा* वन भाषा लिखी, कछु इकताकी छाहँ ॥ १८५ ॥ भूल चूक उर छिमा करि, लीजो पण्डित शोध । बालबुद्धि मोहि * जानिकै, मति कीजो उर क्रोध ॥८६॥ श्रीमतवीरजिनेश पद, बन्दौ बारंवार। विघ्नहरन मंगलकरन, अशरनशरन • उदार ॥ १८७ ॥ धरमचंदके नंदको, 'वृन्दावन' है नाम ।। . अग्रवाल गोती जगत गोइल है सरनाम ॥१८८॥ काशीवासी तासुने भाषा भाषी एह। जिनमतके अनुसार करि, श्रीजिनवरपदनेह ॥ १८९॥ सम्बतसर विक्रमविगत, चन्द रन्ध्र दिग चन्द । माघकृष्ण आ3 गुरू, पूरन जयति जिनंद ॥ सातवां अध्याय समाप्त।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy