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________________ वृहज्जैनवाणीसंग्रह तहंत । तत मध्य परै हंकार पास। तब मध्यम प्रश्न करे प्रकाश । जो मनमें बांछा करहु मित्त । नहिं सिद्ध होई सो कुदिन कित्त ॥ १७३ ॥ मति खेद करो अघ उदय जान | भावीगम अमिट प्रबल प्रमान । मति मरन चेत जड़बुद्धि त्याग | सुख चहसि तु करि प्रभुसों सुराग ॥ १७४॥ तता । जब ततअ वरन प्रगटै अकोप | तब शुभफल कहत निशान रोप । तोहि महा सौख्यको लाभ होय । धनधान्यसमागम मिलै सोय ॥ १७५॥ राजा दे वसनाभरन घोट | व्यापारमाहिं धन लाभ पोट । दुहिताविवाह सुतजलमसंग | मंगल सब तो कहँ है अमंग ॥ १७६ ॥ ४२२ ततर । यह ततर वरन पासा भनंत । आनंद सदा ध्रुव तोहि संत | सुत बंधु धरा धनधान्याह । परदेश जाहु तहँ अति उछाह || १७७ || बहु मित्रबंधुसों होय मीति । भय शत्रुजनित सब है वितीति । गो महिष अश्व द्वारे बँधाय । यामें न मोहि संशय दिखाय || १७८|| ततहं । ततहं अक्षर तोहि कहत एहु । भो पूछक तू उद्यम करेहु । तहं होहि लाभ तोको प्रसिद्धि | चितचिंतत सब विधि होय वृद्धि ॥ १७९ ॥ तीरथ हिण्डन पूजन विधान । सब है है तेरे मनसमान । रोगीको रोग विनाश होय । भोगीको भोग मिलै सु जोय || १८० मनमें मति खेद करो पुमान । तोहि होय सकल कल्याणखान | नित देवधर्म गुरु ग्रन्थ सेव | मनवांछित सुखसंपदा लेव ॥ १८९ ॥ 4542
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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