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________________ *-42-ARKKAR K I M vvv wwwvon wwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ___ वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४२१ । 1 तहंन । त वरनपर हतापर अकार ।जब प्रगटै तब सुनिये । विचार । सब विघ्नमूल संकट नशाय । जहं जाहु तहां बां छित मिलाय ॥१६४॥ धन धान्य वसन गो महिषि घोट। । सब मिलहिं तोहि हितहेत जोट । जात्रातीरथ परदेश सार।। * रनरंग शैल अरु उदधिपार ॥१६५॥ जहं जाहु तहां सब * सुफल काज । मनमें संदेह न करहु आज। यह पुन्य कल्पतरु । फल सुआन । भजि चरणकमल करुनानिधान ॥१६५॥ । तहर। त वरनपर हं तापर रकार। ताको फल कडक । सुनो विचार । है दुःख क्लेश पुनि अर्थहानि । भयरोग व्याधि उपजै निदान ॥१६७॥ सुत मित्र वियोग अशुभ नियोग । पुनि जैहौं कहु तहं विपतिभोग । तुव सदनमांहि ॥ * बरतत कलेश । कलिहारी नारी कुटिलमेश ॥१६८॥ यह पाप तोहि दुख देत आय । अब तोष गहो मनवचनकाय। । अरहन्तदेवसों करहु मीति । जिमि मिले सकल सुख । सहजरीति ॥१६९॥ * तहहं । तत्तापर हं हं ढरै आय । तब सुनि पूछक फल चित्त लाय | रनजूतविवादविः कदापि, मतिजाहु केवली । कहत आप ॥१७०॥ तहं गये हानि है विजय नाहिं । है । । क्लेश कठिन निहचै कहाहिं । यह दैवीदोष लसै सुजान।। * धर्मार्थवस्तु की करत हान ॥१७१॥ उद्वेग कलह तुव सदन । माहि । सत बंधु मित्र अरि सम लखाहि। सब पाप उदय, । यह जानि लेहु । दुख हेत धरमसों करहु नेहु ॥ १७२॥ KAKKARX
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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