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________________ *RKARK452- ARARA RAAOR MAAAAAAAAAAAAAAAANAAAAAAA PAAAAna-ranAAAAAM १४२० वृहज्जैनवाणीसंग्रह , तरर । यह तरर प्रकाशक प्रगट मित्त । सुनि पूछक तुव । चित दुखित नित्त । तुव घर दरिद्र अतिही दिखाय । ताते। नित चाहत धन उपाय ॥१५५॥ निशिवासर चिन्ता यही । तोहि । किहि भांति होहि धनलाभ मोहि । वह तीन वरप। * जब बीत जाय। तब सब सुन्दरफल तोहि मिलाय ॥ जो और काज मत धरहु तौन । है लाभ तासुमहं सुजसहौन ॥ तातै जो सुखकी धरहु चाह । तो नाहिं जिनेसुर सों निवाह ।। तरहं । तरहं अक्षर भाषत प्रतच्छ । कल्याणसंपदा । । स्वच्छ लच्छ । सव विघ्न निघ्न पलमाहिं होय । जिनधर्म । * प्रभाव सुजान सोय ॥ १५८ ।। अस्थागम अरू वर पुत्र । । होय । रनमहँ तोहि जीत सकै न कोय । बांधवसह प्रीति बढ़े अपार । घरमं नहिं कछु विग्रह लगार । १५९ ॥ सब । पापताप तेरो विलाय । नित धर्म वढ़े आनन्ददाय । तातै । । सुखहित हे चतुरजीव । भगवान चरन सेवी सदीव ॥१६॥ तरत। यह तरत कहत फल सुन विनीत । तुव मन धन* कारन दुखित मीत । बहु दिनः सोच रहत शरीर । मन । समाधान अत्र करहु वीर ॥ १६१ ।। मंगलमुदजुत धनलाभ होय । प्रिय बंधुसमागम सहज सोय। परदेशगमन जो करहु तत्र । धन लाभ होहि सुखदाय जत्र ॥१६२॥ वादा* नुवादमें विजय-जान । सभ्यशिरोमणि शशि. समान । * यह मंगलीक शुभ सगुनराज । तै जपि 'नित श्रीजिन महाराज ॥१६॥ *RKEKSXSKRR-*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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