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________________ *2- R REARS25- RRRR* १४४२ बृहज्जैनवाणीसंग्रह धारक वहै ॥६॥ अनसन आदि मुक्ति दातार, उत्तमतप बारह परकार । बल अनुसार करे जो कोय, सो सातमी भावना होय ॥७॥ यतीवर्गको कारन पाय, विधन होत जो करै सहाय । साधुसमाधि कहावै सोय, यही । * भावना अष्टमि होय ||८॥ दशविध साधु जिनागम कहे, पथ पीडित रागादिक गहे । तिनकी जो सेवा सतकार, . यही भावना न मी सार ।।९॥ परमपूज्य आतम अरहंत, . अतुल अनंत चतुष्टयवंत । तिन की थुति नित पूजा भाव, । दशमि भावना भवजलनाव ॥१०॥ जिनवरकथित अर्थ । * अवतार, रचना करै अनेक प्रकार । आचारजकी भक्ति * विधान, एकादशमि भावना जान ॥११॥ विद्यादायक * विद्यालीन, गुणगरिष्ट पाठक परवीन । तिनके चरन सदा । चित रहै, बहु श्रुत भक्ति बारमी यहै ॥१२॥ भगवतभा पित अरथ अनूप, गणधरग्रंथित ग्रंथ स्वरूप। तहां भक्ति। * बरतै अमलान, प्रवचन भक्ति तेरमी जान ॥१३॥ षट आव-* श्यक क्रिया विधान, तिनकी कवहूँ करै न हान । सावधान , वरतै थित चित्त, सो चौदहवीं परम पवित्त ॥१४॥ कर जप तप पूजावत भाव, प्रगट करै जिनधर्मप्रभाव । सोई मारग परभावना, यही पंचदशभी भावना ॥१५॥ चार प्रकार * संघसों प्रीति, राखै गाय वत्सकी रीति । यह सोलहमी सब + सुखदान, प्रवचन वातसल्य अभिधान ॥ दोहा-सोलह कारन भावना, परम पुण्यको खेत। भिन्नभिन्न
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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