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________________ .wwwvvvwovvvvvvvi vvvvvvvvvvvvvvvvvvvour वृहज्जैनवाणीसंग्रह अरु सोलहों, तीर्थकरपद देत ॥ बंध प्रकृति दिनमतविष, । कही एक सो बीस । सौ सतरह मिथ्यातमैं, बांधत हैं निशदीस ॥ तीर्थकर आहार द्विक, तीन प्रकृति ये जान । इनको बंध मिथ्यातमैं, कह्यो नहीं भगवान ॥ तातै तीर्थंकर प्रकृति, तीनों समकित माहिं । सोलहकारणसों बर्फे, शिवको निश्चय जाहिं॥ सोरठा-पूज्यपाद मुनिराय, श्री सरवाग्थ सिद्धिमै । कह्यो कथन इस न्याय, देख लीजिये सुबुधिजन ॥ दशवां अध्याय। परमार्थजकडी संग्रह २३१-जकडी भूधरकृत अब मन मेरे बे, सुन सुन सीख सयानी । जिनवर चरना। बे, कर कर प्रीति सुज्ञानी ।। करप्रीत सुज्ञानी शिवसुखदानी। धन जीतब है पंचदिना। कोटिचरस जीवौ किसलेखे, जिन * चरणांबुज भक्ति विना ॥ नरपरजाय पाय अति उत्तम गृह। बसि यह लाहा लेरे । समझ समझ बोलें गुरुज्ञानी, सीख । सयानी मन मेरे ॥१॥ तू मति तरसै बे, संपति देख पराई । । बोये लुनि लेबे, जो निज पूर्वकमाई ।। पूर्वकमाई संपति पाई। र देखि, देखि मति झूर मरै । वोय बबूल शूल-तरु भोंदू, आ-% मनकी क्यों आस करै । अब कछु समझ बूझ नर तासौं, । ज्यौं फिर परभव सुख दरसै । कर निज-ध्यान दान तप सं
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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