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________________ R EKKRK- - - -* . १.४४८ · बृहज्जैनवाणीसग्रह तनमैं तू वे, क्या गुन देख लुभाया । महा अपावन चे, सत। गुरु याहि बताया ॥ सतगुरु याहि अपावन गाया, मल मूत्रादिकका गेहा ! कृमिकुलकलित लखत घिन आवै, । . यासों क्या कीजै नेहा ।। यह तन पाय लगाय आपनी, है परनति शिवमगसाधनमै । तो दुखदंद नशै सब तेरा,यही सार । । है इस तनमें ॥३॥ भोग भले न सही, रोग शोकके दानी । शुभगतिरोकन वे दुर्गतिपथ अगवानी ॥ दुर्गतिपथ अगवानी । हैं जे, जिनकी लगन लगी इनसौं । तिन नानाविध विपति * सही है, विमुख भयौ निजसुख तिनसौ ॥ कुंजर झख अलि * शलभ हिरन इन, एक अक्षवश मृत्यु लही। यात देख समझ मनमांहीं, भवमैं भोग भले न सही ॥४॥ काज सरै तब वे जव निजपद आराधै। नशै भवावलि वे निरावाधपद लाधै ॥ निराबाधपद लाधै तब तोहि, केवलदर्शनज्ञान * जहां । सुख अनंत अमि-इंद्रियमंडित, वीरज अचल अनंत । तहां ॥ ऐसा पर चाहै तो भज निज बार वार अब को। । उचरै । 'दौलत'मुख्य उपचार रत्नत्रय,जो सेवै तो काज सरै।। २३५-जकडी दौलतरामकृत। वृषभादि जिनेश्वर ध्याऊं, शारद अंबा चित लाऊं । । द्वैविध-परिग्रह-परिहारी, गुरु नमहूं स्वपर हितकारी ॥ हित कारि ताकर देवश्रुत गुरु, परख निजउर लाइये। दुखदायकुपथविहाय शिवसुख, दाय जिनवृष ध्याइये । चिरते । कुमगपगि मोहठगकरि, ठग्यो भव-कानन परयौ । व्याली-1 । *RKK HAIR-52RR *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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