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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह મર सद्विकलख जौनिमैं, जर-मरन - जामनदवजरथौ ॥१॥ जब मोहरिपु दीन्हीं घुमरिया, तसवश निगोदमै परिया । तहाँ स्वास एककेमाहीं, अष्टादश मरन लहाहीं || लहि मरन अंतमुहूर्त में, छ्यासठ सहस शत तीन ही । पटतीस काल अनंत यौं दुख, सहे उपमा ही नहीं || कबहू लही वर आयु छिति - जल, पवन - पावक तरुतणी । तस भेद किंचित कहूं सो सुन को जो गोतमगणी ॥ २ ॥ पृथिवी द्वयभेद बखाना, मृदु माटीकठिन पखाना | मृदु द्वादशसहस: बरसकी, पाहन बाईस सहसकी || पुनि सहस सात कही उदक त्रय, सहसवर्ष समीरकी । दिन तीन पावक दश सहस तरु, प्रभृति नाश सुपीरकी ॥ विनधात सूक्ष्म देहधारी, घातजुत गुरुतन लह्यौ । तहँ खनन तापन जलन व्यंजन, छेद-भेदन दुख सह्यौ || शंखादि दुइंद्री पानी, थिति द्वादशवर्ष बखानी । यूकादि तिइंद्री हैं जे, वासर उनचास जियँ ते ॥ जीवै छमास अली प्रमुख, व्यालीस सहसउरगतनी । खगकी बहत्तरसहस नवपूर्वाग सरिसृपकी भनी || नरमत्स्यपूरवकोटकी थिति करमभूमि बखानिये | जलचरविकलविन भोगभू-नर-पशु त्रिपल्य प्रमानिये || ४ || अघवश करि नरक वसेरा, भुगतें तहँ कष्ट घनेरा | छेदै तिलतिल तन सारा, छेपैं द्रहपूतिमझारा || मझार वज्रानिल पचावें, घरहिं शूली ऊपरें । सींचें जु खारे वारिसों दुठ, कहें व्रण नीके करें ॥ चैतरणिसरिता समलजल अति दुखद तरु सेंवलतने । अति
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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