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________________ wwwvvwww. wwwwwwwwwwwwwwwwwwww. ४५० वृहज्जैनवाणीसंग्रह भीमवन असिक्रांत समदल, लगत दुख देवें घने ॥५ तिस भूमैं हिम गरमाई, सुरगिरि सम अस गल जाई । तामैं । थिति सिंधु तनी है, यो दुखद नरक अवनी है ।। अवनीतहांकीत निकसि, कवहूं जनम पायौ नरौ । सांग सकुचित । अति अपावन, जठरजननीके परौ ।। तहँ अधोमुख जननी रसांश, थकी जियो नव मास लौं । ता पीरमें कोउ सीर * नाहीं, सहै आप निकास लौं ॥ ६॥ जनमत जो संकट पायौ, रसनाने जात न गायौ । लहि बालपने दुखभारी॥ तरुनापौलयौ दुखभारी दुखकारि इष्ट वियोग अशुभ, सँयोग * सोग सरोगता । परसेव ग्रीषमसीतपावस, सहै दुख अतिभोगता ॥ काहू कुतिय काहू कुवांधव, कहुं , सुता व्यमिचारिणी । किसाहू विसन-रत पुत्र पुष्ट, कलत्र कोऊ पररिणी ॥ ७ ॥ वृद्धापनके दुख जेते, लखिये सब नयननतेंते । मुख लाल बहै तन हालै, विन शक्ति न वसन। सँभालै ॥ न संभाल जाके देहकी तो, कहो वृषकी का कथा । तबही अचानक आन जम गहै, मनुजजन्म गयो । * वृथा॥ काहू जनम शुभ ठान किंचित, लह्यो पद चउदेव-1 को। अभियोग किल्विष नाम पायौ, सह्यौ दुख परसेवको।। तहँ देख महा सुररिद्धी, झूरथो विषयनकरि गृद्धी। कबहूं। परिवार नसानौ,शोकाकुल है विलसानौ ॥ विललाय अति। * जब मरन निकटयौ,सह्यो संकट मानसी। सुरविभव दुखद लगी । तबै जब, लखी माल मलानसी ॥ तबही जु सुर उपदेशहित । * - * --*--*- * - * - *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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